अरस्तु का विरेचन सिद्धांत

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

विरेचन सिद्धांत (Catharsis / कैथार्सिस ) द्वारा अरस्तु ने प्रतिपादित किया कि कला और साहित्य के द्वारा हमारे दूषित मनोविकारों का उचित रूप से विरेचन हो जाता है। सफल त्रासदी विरेचन द्वारा करुणा और त्रास के भावों को उद्बुद करती है, उनका सामंजन करती है और इस प्रकार आनंद की भूमिका प्रस्तुत करती है। विरेचन से भावात्मक विश्रांति ही नहीं होती, भावात्मक परिष्कार भी होता है। इस तरह अरस्तु ने कला और काव्य को प्रशंसनीय, ग्राह्य और सायास रक्षनीय सिद्ध किया है।

अरस्तु ने इस सिद्धांत के द्वारा कला और काव्य की महत्ता को पुनर्प्रतिष्ठित करने का सफल प्रयास किया। अरस्तु के गुरु प्लेटो ने कवियों और कलाकारों को अपने आदर्श राज्य के बाहर रखने की सिफारिश की थी। उनका मानना था कि काव्य हमारी वासनाओं को पोषित करने और भड़काने में सहायक है इसलिए निंदनीय और त्याज्य है। धार्मिक और उच्च कोटि का नैतिक साहित्य इसका अपवाद है किंतु अधिकांश साहित्य इस आदर्श श्रेणी में नहीं आता है।

विरेचन सिद्धान्त का महत्त्व बहुविध है। प्रथम तो यह है कि उसने प्लेटो द्वारा काव्य पर लगाए गए आक्षेप का निराकरण किया और दूसरा यह कि उसने गत कितने ही वर्षों के काव्यशास्त्रीय चिन्तन को किसी-न-किसी रूप में अवश्य ही प्रभावित किया।

परिचय

'विरेचन' यूनानी कथार्सिस (Katharsis) का हिन्दी रूपान्तर है। यूनानी चिकित्साशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है- ‘कैथार्सिस’ और भारतीय चिकित्साशास्त्र (आयुर्वेद) का पारिभाषिक शब्द है- ‘विरेचन’। इसका अर्थ है- रोचक औषधि के द्वारा शारीरिक विकारों अर्थात् उदर के विकारों की शुद्धि। स्वास्थ्य के लिए जिस प्रकार शारीरिक मल का निष्कासन-शोधन आवश्यक है, उसी प्रकार ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह और क्रोध आदि मानसिक मलों का निष्कासन एवं शोधन आवश्यक है।

अरस्तू ने ‘कैथार्सिस’ शब्द का लाक्षणिक प्रयोग मानव-मन पर पड़नेवाली त्रासदी के प्रभाव का उद्घाटन करने के लिए किया है। त्रासदी के प्रति प्लेटो की आपत्ति थी- ‘‘वह (त्रासदी) मानव की वासनाओं का दमन करने के स्थान पर उनका पोषण और सिंचन करती है। वह उच्चतर तत्त्वों के बदले निम्नतर तत्त्वों को उभारकर आत्मा में अराजकता उत्पन्न करती है।’’

अरस्तू ने कैथार्सिस (विरेचन) सिद्धान्त द्वारा प्लेटो के इस आक्षेप का खण्डनकर त्रासदी की उपादेयता स्थापित की। प्लेटो ने जिसे दोष सिद्ध किया था, अरस्तू ने उसी को गुण के रूप में प्रस्तुत किया। अरस्तू का अभिमत है-

"Tragedy is an imitation of an action that is serious, complete and of a certain magnitude...... through pity and fear effecting the proper purgation or Katharsis of these emotions."

अर्थात् त्रासदी किसी गम्भीर स्वतः पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य को अनुकृति का नाम है।... जिसके करुणा त्रास से उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विवेचन किया जाता है।

इसी प्रकार त्रासदी केवल अवांछनीय भावनाओं को ही उद्दीप्त नहीं करती, अपितु करुणा और त्रास के कृत्रिम उद्रेक द्वारा मानव के वास्तविक जीवन की करुणा और त्रास की भावनाओं का निष्कासन करती है।

विरेचन का स्वरूप

विरेचन का उल्लेख अरस्तू की रचनाओं में केवल दो स्थानों पर मिलता है। प्रथम उल्लेख उसके ‘पोयटिक्स’ (काव्यशास्त्र) ग्रंथ में, जहाँ ट्रैजेडी के स्वरूप की ओर संकेत किया गया है और दूसरा ‘राजनीतिक’ नामक ग्रंथ में जहाँ उन्होंने संगीत की उपयोगिता प्रतिपादित की है। इन स्थलों पर उन्होंने विरेचन शब्द का सूत्र रूप में एवं उसके स्वरूप की चर्चा की है। अरस्तू का कथन है- ‘‘संगीत का अध्ययन एक नहीं वरन् अनेक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए होना चाहिए, अर्थात् शिक्षा के लिए विरेचन (शुद्धि) के लिए। संगीत से बौद्धिक आनन्द की भी उपलब्धि होती है। ..... धार्मिक रागों के प्रभाव से वे शान्त हो जाते हैं, मानों उनके आवेश का शमन और विरेचन हो गया हो।

इस प्रकार विरेचन से अभिप्राय शुद्धि से है। अरस्तू के ये विचार त्रासदी-विवेचन के सन्दर्भ में फुटकर रूप में मिलते हैं। विशेष सुव्यवस्थितरूप से इनका सम्पादन नहीं किया गया है।

आधुनिक युग में अरस्तू के सीमित और अल्प शब्दों ने पूर्ण काव्य-शास्त्रीय सिद्धान्त का रूप धारण कर लिया है। अतः एक प्रश्न स्वाभाविकरूप से उठा कि करुणा और त्रास के उद्रेक तथा रेचन से अरस्तू का मूलतः क्या अभिप्राय था? इस सन्दर्भ में अरस्तू के परवर्ती व्याख्याकारों ने विरेचन के भिन्न-भिन्न अर्थ और व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं-

धर्मपरक अर्थ

अरस्तू के व्याख्याकारों में प्रो॰ गिल्बर्ट मरे और लिवि ने विरेचन की धर्मपरक व्याख्या प्रस्तुत की है। धर्मपरक अर्थ की एक विशेष पृष्ठभूमि है। इसका सम्बन्ध धार्मिक उत्सवों से है। प्रो॰ गिल्बर्ट मरे का कथन है कि - ‘‘यूनान में दिओन्यूसस नामक देवता से सम्बद्ध उत्सव अपने आप में एक प्रकार की शुद्धि का प्रतीक था, जिसमें विगत् समय के कलुष और पाप एवं मृत्यु-संसर्गों से मुक्ति मिल जाती है। इस प्रकार बाह्य विकारों द्वारा आन्तरिक विकारों की शन्ति का यह उपाय अरस्तू के समय में धार्मिक संस्थाओं में काफी प्रचलित था। उन्होंने इसका लाक्षणिक प्रयोग उसी के आधार पर किया है और विरेचन का अर्थ हुआ- ‘‘बाह्य उत्तेजना और अंत में उसके शमन द्वारा आत्मिक शुद्धि और शान्ति।’’

नीतिपरक अर्थ

बारनेज नामक जर्मन विद्वान ने विरेचन की नीतिपरक व्याख्या की है। उसके अनुसार मानव-मन अनेक मनोविकारों से आक्रान्त रहता है। जिनमें करुण और भय, मूलतः दुःखद मनोवेग हैं। त्रासदी रंगमंच पर अवास्तविक परिस्थितियों द्वारा इन्हें अतिरंजित रूप में प्रस्तुतकर कृत्रिम अस्पष्ट उपायों से प्रेक्षक के मन में वासना रूप में स्थित इन मनोवेगों के देश का निराकरण और उसके परिणामस्वरूप मानसिक सामंजस्य की स्थापना करती है। अतः विरेचन का नीतिपरक अर्थ हुआ - मनोविकारों के उत्तेजन के उपरान्त उद्वेग का शमन और तज्जन्य मानसिक विशदता।

वर्तमान मनोविज्ञान तथा मनोविश्लेषण शास्त्र भी इस अर्थ की पुष्टि करते हैं। मानसिक स्वास्थ्य की साधक होने के कारण यह पद्धति नैतिक मानी गई है।

कलापरक अर्थ

गेटे और अंग्रेजी के स्वच्छन्दतावादी कवि आलोचकों में विरेचन के कलापरक अर्थ के संकेत मिलते हैं। अरस्तू के प्रसिद्ध व्याख्याकार प्रो॰ बूचर का अभिमत है कि विरेचन केवल मनोविज्ञान अथवा निदानशास्त्र के एक तथ्य विशेष का वाचक न होकर, एक कला-सिद्धान्त का अभिव्यंजक है। इस प्रकार त्रासदी का कर्त्तव्य-कर्म केवल करुणा या त्रास के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना ही नहीं अपितु इन्हें एक सुनिश्चित कलात्मक परितोष प्रदान करना है। इनको कला के माध्यम में ढालकर परिष्कृत और स्पष्ट करना है। विरेचन का अर्थ यहाँ व्यापक है- मानसिक संतुलन इसका पूर्व भाग मात्र है, परिणति उसकी कलात्मक परितोष का परिष्कार ही है जिसके बिना त्रासदी के कलागत आस्वाद का वृत्त पूरा नहीं होता।

प्रश्न उठता है कि उपर्युक्त तीनों अर्थों में से कौन सा अर्थ अरस्तू के मत के सर्वाधिक निकट है? यद्यपि तत्कालीन धार्मिक परिस्थितियों से अरस्तू का प्रभावित होना स्वाभाविक है और स्वयं धार्मिक संगीत की ओर अरस्तू ने संकेत भी किया है कि जिस प्रकार धार्मिक संगीत श्रोताओं के भावों को उत्तेजित कर फिर शान्त करता है, उसी प्रकार त्रासदी प्रेक्षक के भय ओर करुणा के भावों को जगाकर बाद में उन्हें उपशमित करती है। त्रासदी के सम्बन्ध में यह मत अक्षरशः ठीक नहीं है, क्योंकि संगीत द्वारा ठीक किए जानेवाले व्यक्ति पहले ही भावाक्रान्त होते थे, जबकि प्रेक्षागृह में जानेवाले व्यक्ति करुणा या भय की मानसिक स्थिति में नहीं होते। अतः विरेचन सिद्धान्त की प्रकल्पना पर उक्त प्रथा का प्रभाव अप्रत्यक्ष तो माना जा सकता है; किन्तु सीधा सम्बन्ध स्थापित करना आवश्यक है।

जहाँ तक नीतिपरक अर्थ की बात है, मनोविज्ञान भी इसकी पुष्टि करता है। विरेचन से अरस्तू के तात्पर्य भावों का निष्कासन मात्र नहीं, वरन् उनका संतुलन भी है।

इसी प्रकार प्रो॰ बूचर का अर्थ भी विचारणीय है। उनके अनुसार विरेचन के दो पक्ष है- एक अभावात्मक और दूसरा भावात्मक। अभावात्मक पक्ष यह है कि वह पहले मनोवेगों को उत्तेजित करें, तदुपरान्त उनका शमनकर मनःशांति प्रदान करे। इसके बाद सम्पन्न कलात्मक परितोष उसका भावात्मक पक्ष है। विरेचन को भावात्मक रूप देना उचित नहीं है। अरस्तू का अभीष्ट केवल मन का सामंजस्य और तज्जन्य विमदता तक ही है, जिसके आधार पर वर्तमान आलोचक रिचर्ड्स ने ‘अन्तवृत्तियों के समंजन’ का सिद्धान्त प्रतिपादन किया है।

डॉ॰ नगेन्द्र का मत है कि ‘‘विरेचन कला-स्वाद का साधक तो अवश्य है- समंजित मन कला के आनन्द को अधिक तत्परता से ग्रहण करता है, परन्तु विरेचन में कला-स्वाद का सहज अन्तर्भाव नहीं है। अतएव विरेचन सिद्धान्त को भावात्मक रूप देना कदाचित न्यायसंगत नहीं है।’’

आधुनिकतम मत

आधुनिक विद्वानों के मतानुसार त्रास और करुणा की भावनाएँ अपने प्रकृत रूप में अधिक कष्टप्रद बनकर प्रकट होती है। त्रासदी के प्रेक्षणा के फलस्वरूप वे अपने अनुग्र एवं अनापत्तिजनक रूप को प्रकाशित करती है। इस रूप में वे निवैयक्तिक एवं सार्वभौम रूप में सामने आती हैं। इससे विरेचन और साधारणीकरण का घनिष्ठ सम्बन्ध सहज ही देखा जा सकता है।

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या त्रासदी के प्रभाव या प्रयोजन को समझने के लिए विरेचन सिद्धान्त ही एकमात्र समीचीन माध्यम है? वस्तुतः त्रासदी के कार्य को रेचन तक सीमित कर देना उसके उद्देश्य को संकीर्ण बनाने जैसा है। इसके विपरीत भाववादी समीक्षकों ने विरेचन का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत बनाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि विरेचन से अवांछनीय भावनाओं में भी परिवर्तन होता है और उनका अतिरेक मिटता है। इस व्यापक दृष्टिकोण का प्रतिपादन ड्राइडन, एडीसन आदि विद्वानों ने किया।

आक्षेप और समाधान

कुछ विद्वान विरेचन प्रक्रिया के अस्तित्व के बारे में शंका करते हैं। उनका आक्षेप है कि वास्तविक जीवन में ऐसा विरेचन नहीं होता है। त्रासदी से करुणादि मनोवेग उद्बुद्ध तो हो जाते हैं, किन्तु उनके विरेचन से मनः शान्ति सर्वथा नहीं होती। वास्तव में त्रासदी का चमत्कार मूलतः रागात्मक होता है। वह विरेचन-प्रक्रिया द्वारा भावों को उद्बुद्ध करती है उनका समंजन करती है और इस प्रकार आनन्द की भूमिका प्रस्तुत करती है। यह विरेचन सिद्धान्त की महत्त्वपूर्ण देन है। दूसरा आक्षेप यह है कि त्रासदी में प्रदर्शित भाग अवास्तविक होते हैं, अतः वे हमारे भावों को उद्बुद्ध नहीं कर पाते, विरेचन की तो बात ही नहीं। वस्तुतः यह मत भी उचित नहीं है। त्रासदी द्वारा भावोद्वेक निश्चय ही कला-चमत्कार का प्रतिफल नहीं, रागात्मक प्रभाव की परिणति है। सारभूत समंजनकारी प्रभाव ही उसकी सफलता का कारण है। अतः आक्षेप सर्वथा निर्मूल है।

विरेचन का मनोवैज्ञानिक आधार

मनोविश्लेषण शास्त्र के अनुसार भावनाओं की अतृप्ति या दमन मानसिक रोगों का प्रमुख कारण है। इनका विचार भावों की उचित अभिव्यक्ति और परितोष द्वारा हो सकता है। अचेतन मन में पड़े भाव उचित अभिव्यक्ति के अभाव में मानसिक ग्रन्थियों को जन्म देते हैं। इन ग्रंथियों को चेतन स्तर पर लाकर मन की घुटन और अतृप्ति को दूर किया जाता है। इससे मन का तनाव दूर हो जाता है और चित्त एक प्रकार की विशदता एवं हल्कापन अनुभव करता है। मनोविश्लेषण शास्त्र की उन्मुक्त विचार-प्रवाह-प्रणाली का आधार यही प्रक्रिया है। इस दृष्टि से विरेचन का मनोवैज्ञानिक आधार सर्वथा पुष्ट है। फ्रायड आदि विद्वानों ने अनेक स्थलों पर अरस्तू वाक्यों को अपन मत के समर्थन में प्रस्तुत किया है।

विरेचन और करुण रस

अरस्तू द्वारा प्रतिपादित त्रासदी के प्रभाव का भारतीय काव्यशास्त्र में करुण रस से पर्याप्त साम्य है। त्रासद प्रभाव के आधारभूत मनोवेग है- करुणा और त्रास। ये दोनों भाव मूलतः दुःखद हैं। उधर करुण रस का स्थायी भाव ‘शोक’ है। भारतीय काव्यशास्त्र ‘शोक’ स्थायी भाव के अन्तर्गत करुणा के साथ त्रास के अस्तित्व को स्वीकार करता है। इष्ट नाश या विपत्ति शोक के कारण हैं। इनसे करुणा और त्रास दोनों की उद्भूति होती है। विपत्ति के साक्षात्कार से करुणा की, वैसी ही विपत्ति की पुनरावृत्ति की आशंका से त्रास की अनुभूति होती है। किन्तु भारतीय आचार्यों और अरस्तू के दृष्टिकोण में प्रमुख अन्तर यह है कि अरस्तू का त्रासद प्रभाव एक मिश्र भाव है, जबकि भारतीय काव्यशास्त्र का शोक स्थायी भाव मूलतः अमिश्र है, जैसे - सीता के दुर्भाग्य से उत्पन्न करुणा में त्रास का स्पर्श नहीं है, जबकि अरस्तू की दृष्टि में त्रासहीन करुण प्रसंग आदर्श स्थिति नहीं है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ