अनुप्रयुक्त भूभौतिकी

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अनुप्रयुक्त भूभौतिकी (Applied Geophysics), या भूभौतिक पूर्वेक्षण में पृथ्वी के पृष्ठ पर भौतिक मापों के द्वारा अधस्थल (subsurface) भूवैज्ञानिक जानकारियों का संग्रह किया जाता है। इसका उद्देश्य खनिज, पेट्रोलियम, जल, घात्विक निक्षेप, विखंडनीय पदार्थो (fissile material) का स्थान-निर्धारण और बाँध, रेलमार्ग, हवाई अड्डों, सैनिक और कृषि प्रायोजनाओं के निर्माणार्थ सतह के निकटस्थ स्तर के भूवैज्ञानिक लक्षणों से आँकड़ों का संग्रह है।

भूभौतिक पूर्वेक्षण (GEOPHYSICAL PROSPECTING)

भूवैज्ञानिक अन्वेषण की प्रविधियाँ मूलत: इस तथ्य पर निर्भर करती है कि खनिज निक्षेप और भूवैज्ञानिक स्तर के घनत्व, चुंबकत्व, प्रत्यास्थता, विद्युच्चालकता और रेडियोऐक्टिवता जैसे भौतिक गुण भिन्न होते हैं, वे पृथ्वी के गुरुत्व क्षेत्र या चुंबकत्व क्षेत्र में असंगति उत्पन्न करते हैं और उनका स्थान निर्धारण गुरुत्वमापी, या चुंबकीय विधियों, से किया जा सकता है। कुछ लक्षणों का अध्ययन अल्प प्रत्यक्ष विधि से, जैसे पेट्रोलियम पूर्वेक्षण में अपनति (anticlines) लवण गुंबद या भ्रंश ट्रैप (fault trap) जैसी सीमित संरचनाओं के गुण मापकर, करते हैं। गुरुत्व, वैद्युत और चुंबकीय क्षेत्र जैसी प्राकृतिक घटनाओं, या आयोजित (applied) जैसे प्रेरित प्रभावों से उत्पन्न भूकंपतरंगों को मापने की विधियाँ उपलब्ध है। सामान्यता मापन कार्य पृथ्वी पर, विमानों में, अंतर्देशीय या तटीय जलपृष्ठ पर उपलब्ध, अथवा विशेष रूप से निर्मित ओर छिद्रों (bore holes) से किया जाता है।

भूभौतिक पूर्वेक्षण की प्रत्येक तकनीक का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:

गुरुत्व अन्वेषण (Gravity Survey)

ध्रुवों के चिपटेपन और विषुवत् के उभार के कारण पृथ्वी का गुरुत्व ध्रुवों से विषुवत् की ओर ह्रासोन्मुख होता है। प्रेक्षण बिंदु की ऊचाई और पर्यावरण की स्थलाकृति के अनुसार गुरुत्व बदलता है। इन एवं अन्यान्य प्रभावों के लिये प्रेक्षित गुरुत्वमानों का समायोजन किया जाता हे। मान लिया जाता है कि अवशिष्ट मान प्रत्यक्षत: स्थानीय भौमिकी से संबंद्ध है। गुरुत्व अन्वेषण का आधार यही है। पेट्रोलियम और खनिजों के स्थाननिर्धारण में यह अन्वेषण उपयोगी है। धात्विक अयस्कपिंड प्राय: सामान्य आकार के होते हैं। और समान आयतन की प्रतिवेशी चट्टानों से इनके धनत्व का अंतर भी कम होने के कारण, आयस्कपिंडों के गुरुत्वप्रभाव स्थानीय और क्षीण होते है; फलत: गुरुत्व सर्वेक्षण का व्यापक होना आवश्यक है। प्रभावी गुरुत्व असंगति उत्पन्न करने के लिये अयस्क पिंड की गहराई जितनी अधिक होगी, अयस्क आकार में उतना ही बड़ा होता है। पेट्रोलियम के संदर्भ में घनत्व अंतर अल्प होने पर भी पिंडों के आकार की विशालता ओर संहति की न्यूनता या अधिकता के कारण परिमाण महत्वपूर्ण निकलते हैं।

लगभग सभी गुरुत्व प्रेक्षण होते हैं। प्रेक्षणबिंदुओं के बीच के अंतर निर्धारित कर लिए जाते हैं, पर उनके चरम मान अज्ञात रह जाते हैं। आधारबिंदु को ऐच्छिक मानकर निर्दिष्ट किया जाता है और अन्य सभी मान इसके आपेक्षिक होते हैं। प्रेक्षण स्थलों के बीच की दूरी घनत्व की दूरी घनत्व विपर्यासों (contrasts) वाली संरचना की गहराई की आधी से अधिक न होनी चाहिए।

जिस गुरुत्वमापी उपकरण का उपयोग होता है उसके अनेक रूप होते हैं। उपकरण के सरलतम रूप में कमानी से एक द्रव्यमान निलंबित होता है। गुरुत्व में वृद्धि होने से द्रव्यमान का भार बढ़ता है और तदनुरूप कमानी का विस्तार होता है। निलंबित द्रव्यमान में ज्ञात भार जोड़ने से उत्पन्न हुए विक्षेप का प्रेक्षण कर, या निर्धारित गुरुत्व अंतर के दो प्रेक्षण स्थलों पर गुरुत्व मापकर, गुरुत्वमापियों को अंशांकित किया जाता है। गुरुत्व अन्वेषण के प्रारंभिक काल में अटवश (Eotvos) मरोड़तुला को मापती है। गुरुत्वमापी के आविष्कार के साथ ही मरोड़तुला दो कारणों से लुप्त हो गई: पहला यह कि यह उपकरण स्थानीय अनियमितताओं के प्रति अत्यधिक सुग्राही होता था और दूसरा यह कि इसके द्वारा प्रेक्षण करने में कई घंटों का समय लग जाता था। पूर्वेक्षण की पध्यमालीन स्थिति में गुरुत्वदोलक का प्रयोग होता था ओर इनका प्रयोग गुरुत्वमापियों के आविष्कार से उठ गया, क्योंकि वे इनसे बहुत श्रेष्ठ सिद्ध हुए।

गुरुत्व-मानचित्रों (gravity maps) में गुरुत्व उच्च और निम्न होते हैं। कुछ सौ वर्ग मीलों के उच्च तथा निम्न गुरुत्व क्षेत्रीय और कुछ वर्ग मीलों, या इससे कम के, उच्च तथा निम्न गुरुत्व अंशक्षेत्रीय (subregional) कहलाते हैं। प्राकृतिक संपदाओं और खनिज अन्वेषणों के लिये इन स्थानीय विसंगतियों का ही प्रत्यक्ष महत्व है। इन स्थानीय विसंगतयों की प्रकृति संहत विसंगति की गहराई और विस्तार पर निर्भर करती है, जिससे वे संबद्ध होते हैं।

कल्पित संरचना और घनत्व वितरण की तदनुरूपी गुरुत्व असंगति के परिकलन के लिये शीध्र परिकलनीय रीतियाँ उपलब्ध हैं। परिकलित असंगति की तुलना अब प्रेक्षित असंगति से की जा सकती है। अनेक प्रयत्नों के बाद कल्पित द्रव्यमान असंगतिके द्वारा प्रेक्षित गुरुत्व असंगति का कारण निरुपित करना संभव होता है। सही निर्णय पर पहुँचने के लिये उस क्षेत्र की भौमिकी का ज्ञान बड़ा सहायक होता है। स्रोत की गहराई, घनत्व और विमाएँ (dimensions) अनेकविध संयोग से सपरूप गुरुत्व असंगतियाँ उतपन्न कर सकती हैं, परंतु गुरुत्व आँकड़ों की सहायता से उस क्षेत्र की भौमिकी या अन्य प्रकार से स्रोत की गहराई एवं प्रकृति के संबंध में कुछ तथ्य निकाले जा सकते हैं।

चुंबकीय अन्वेषण (Magnetic survey)

चुंबकीय तकनीकों का आधार यह है कि सतह और उसके निकट चट्टानों के चुंबकन से ज्यामितीय क्षेत्र में स्थानीय परिवर्तन होते हैं। कुछ परिस्थितियों में यह परिवर्तन महत्वपूर्ण हो सकता है। आग्नेय और अवसादी (sedimentary) चट्टानों में सर्वाधिक व्यापक खनिज मैग्नेटाइट, (F O) है। पुंजीभूत रूप में मैग्नेटाइट का प्रभाव प्रसामान्य चुंबकीय क्षेत्र से अधिक होने के उदाहरण ज्ञात है। प्राय: आग्नेय भूभाग में, प्रसामान्य तीव्रता की 10% असंगति रहती है।

आग्नेय शैल उस समय स्थायी रूप से चुंबकित हो जाते हैं, जब वे तत्कालीन भूचुंबकीय क्षेत्र पर निर्भर दिशा और तीव्रता में क्यूरी बिंदु से शीतलित होते हैं। शैलों का चुंबकन प्रेरण द्वारा भी होता है। जिसकी दिशा और तीव्रता मूल स्थिति और वर्तमान भूचुंबकीय क्षेत्र के अंतर पर निर्भर करती है। भूचुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन धीरे धीरे होता है। पर्वतन गति (orogenic movements) के कारण चट्टानों की स्थिति और प्रेरित चुंबकनों की दिशा एक हो। अवसादी शैलों की चुंबकीय प्रवृति (susceptibility) परिमाण में आग्नेय शैलों की अपेक्षा अनेक गुनी कम होती है। अत: अवसादी बेसिन क्षेत्रों की चुंबकीय असंगतियाँ सतह पर, या आग्नेय आधारों के अंदर, स्थलाकृतिक या चुंबकन प्रभावों से उत्पन्न होती है।

कभी-कभी अनुसंधेय अयस्क और चुंबकत्व का साहचर्य अप्रत्यक्ष होता है। प्लेसर निक्षेपों (placer depostits) की प्रणाल धाराओं में मैग्नेटाइट के साथ सोना प्राय: सांद्रित रहता है और चुंबकीय सांद्रण का ज्ञान सोने का कारण बन सकता है।

पावरलाइन, वैद्युत अभिस्थापन और चुंबकीय विचरणों के दैनिक वक्र चुंबकीय मापनों में त्रुटि उत्पन्न करते है। चुंबकीय अवयवों के आकस्मिक अल्पकालिक परिवर्तन चुंबकीय तूफान कहलाते हैं, जो चुंबकीय प्रेक्षण और सर्वेक्षण की शुद्धता में बाधक होते हैं, परंतु उपयुक्त सुधारों के द्वारा त्रुटियों को निरस्त करना सदैव संभव होता है।

फील्ड यंत्रों को ऊर्घ्वाधर एवं श्रैतिज बल विचरणमापी (variometer) कहते हैं। ऊर्ध्वाधर बल चुंबकत्वमापी क्षैतिज अक्ष की एक चुंबकीय पद्धति का बना होता है, जिसमें चुंबकत्व क्षेत्र से उत्पन्न वर्तन आधूर्ण (turning moment) केंद्र से परे स्थित भार के गुरुत्व आधुर्ण से क्षतिपूरित होता है। क्षतिपूरण करनेवाले चुंबकों का उपयोग क्षेत्र की तीव्रता के अंशत: क्षतिपूरण करने में होता है, जिससे यंत्र के मापन परास का विस्तार होता है। उपयुक्त क्षतिपूरण का विकल्प निलंबित चुंबकीय तंत्र के घेरे में स्थापित हेल्महोल्ट्स (Helmholtz) कुंडली में धारा परिवर्तित कर क्षतिपूरण करना है। पार्थिक चुंबकीय क्षेत्र की क्षेतिज तीव्रता मापने के लिये इसी प्रकार का क्षैतिज बल चुंबकत्वमापी उपलब्ध है।

वायुवाहित चुंबकत्वमापी का क्षेत्र सूक्ष्मग्राही तत्व धातु, या अन्य उच्च चुंबकशीलता (permeability) वाले पदार्थ, का छड़ जैसा समुच्चय होता है, जिसपर उपयुक्त कुंडली लिपटी होती है और यह परस्पर लंब जिंबलों (gimbals) पर चढ़ा होता है। सर्वो यंत्र क्रिया विधि (servo mechanism) धातु अक्ष को पूर्ण चुंबकीय तीव्रता की दिशा में स्वत: अनुरक्षित करती है। संपूर्ण तीव्रता के विचरण एक कागज के गोले पर अंकित होते हैं, जो एक समान समय दर से अंकनकारी कलम के साथ आगे बढ़ता है। शोरन (Shoran), या स्थान निर्धारण की किसी रेडियो युक्ति, से खड़ी निचाई की धरती का फोटोग्राफ लेकर संगत स्थिति की सूचनाएँ प्राप्त करते हैं। चुंबकीय और स्थलीय आँकड़ों में सहायक साधनों द्वारा समन्वय स्थापित किया जाता है। नियोजित दूरी के अंतर और निश्चित बैरोमीटरी ऊँचाई पर समांतर रेखाओं पर सर्वेक्षण विमान उड़ता है। वायु चुंबकीय (aeromagnetic) सर्वेक्षण द्वारा बड़े क्षेत्रों में कम लागत पर सर्वेक्षण किया जा सकता है।

हाल ही में एक नवीन चुंबकत्वमापी का आविष्कार हुआ है, जिसका नाम प्रौटॉन अयन चुंबकत्वमापी (proton precession magnetometer) है। मापनीय क्षेत्र की अपेक्षा बड़े और अनुप्रस्थ क्षेत्र के प्रयोग से मापन का आरंभ होता है। इस क्षेत्र को सहसा हटा लेने पर प्रोटॉन धूर्ण चुंबक नए वितरणों में अयन (precession) करते हैं, जो मापन किए जा रहे क्षेत्र का अभिलक्षक होता है। अयन आवृति इस क्षेत्र की तीव्रता का रैखिक फलन (linear function) होती है। अयन क्षणिक घटना होती है, अत: यह मापन एक या दो सेकंड के भीतर हो जाना चाहिए। आवृत्ति निर्धारण के लिये इलेक्ट्रॉनिकी गिअर का उपयोग किया जाता है। इस उपकरण का सबसे बड़ा लाभ मापन की परिशुद्धता है।

सिद्धांत रूप से चुंबकीय आँकड़ों का परिकलन गुरुत्व आँकड़ों के परिकलन के समान है। अंतर इतना ही है कि चुंबकीय पिंड में दो विपरीत ध्रुव और अवशिष्ट चुंबकन होते हैं, जिनके कारण चुंबकीय असंगति स्रोत के आयामों से सदैव सीधी सहचरित नहीं होती।

वैद्युत अन्वेषण (Electrical Survey)

यह धात्विक खनिजों के अन्वेषण में उपयोगी है। कुछ खनिज निक्षेप अपने निकटतम पर्यावरण में स्वत: प्रवर्तित भूधाराएँ उत्पन्न करते हैं, जिनके अनुवर्ती वैद्युत विभवों को स्वविभव कहते हैं। किसी क्षेत्र की समविभव रेखाओं के नकशे बनाकर, स्वविभव के स्रोत को प्राय: ज्ञात कर सकते हैं। विस्तृत क्षेत्रों को प्रभावित करनेवाली स्थल मंडलीय (telluric) धाराएँ भी होती हैं, जिन्हे वायुमंडल के धारापरिसंचरणों से संबंद्ध माना जाता है। यें वायु मंडलीय धाराएँ प्राकृतिक वैद्युत विभवों के स्थानीय विवरण में भी योगदान करती है।

सर्वाधिक उपयोग में आनेवाली विधियाँ चालन (conduction), या प्रेरण (induction) द्वारा पृथ्वी में कृत्रिम धाराएँ उत्पन्न करती हैं। प्रयुक्त उपस्कर से धरती में पर्याप्त वैद्युत या विद्युच्चंुबकीय विक्षोभ उत्पन्न होता हैं। धारा के प्रवेश की गहराई उपकरण की स्थिति की ज्यामिति, प्रयुक्त आवृति और पृष्ठ से नीचे की ओर की चालकता पर निर्भर करती है। एक ही उपकरण व्यवस्था द्वारा अनेक आवृत्तियों पर मापन किए जाते हैं।

खनन उद्योग में मुख्यत: विद्युच्चुंबकीय विधियों का प्रयोग किया जाता है। इनमें एक पारेषण कुंडली, जिसे उपयुक्त आवृत्ति पर उत्तेजित किया जाता है और एक ग्राही कुंडली होती है, जो विद्युच्चुंबकीय क्षेत्रों के एक या अधिक अवयवों को कई प्रेक्षण बिंदओं पर मापती है। ग्राही कुंडली प्राय: इस प्रकार अभिविन्यस्त होती है कि पारेषक के साथ उसका सीधा युग्मन न्यूनतम हो और तब अवशिष्ट प्रभाव पृथ्वी में प्रेरित धाराओं के कारण होते हों। चालकता असंगतियाँ अयस्क पिंडों की उपस्थिति का पता देती है।

वैद्युत विधियाँ वायुवाहित हो गई हैं। पारेषक और ग्राही कुंडलियाँ एवं सभी सहचरित गिअर ऐसे वायुयानों में ले जाए जाते हैं, जो सामान्यतया धरती के निकट ही उड़ते हैं।

भौम जल के अन्वेषण में वैद्युत विधियों का सफल उपयोग हुआ है। कूप अभिलेखी प्रक्रियाओं के रूप में तेल अन्वेषण में इनका अतिशय अपयोग है। गड़ी हुई पाइप लाइनों की स्थिति एवं देश के भीतरी भागों में बिछी हुई सुरंगों का पता लगाने और अन्य सैनिक परिचालनों में इनका उपयोग होता है।

भूकंप अन्वेषण (Seismic Survey)

इस विधि में विस्फोट द्वारा पृथ्वी में तरंगें उत्पन्न कर, उनकी पहचान भूफोनों (geophones, ट्रांसड्यूसरों या भूकंपमापियों) से करते हैं, जो उन्हें विद्युत स्पंदों में बदलकर एक दोलनलेखी (oscillograph) के एकसमान गतिवाले फीते पर अभिलिखित करते हैं। तरंग प्रारंभ या विस्फोट क्षण को तार या रेडियो संकेत द्वारा अभिलेखक गिअर को पारेषित करते हैं। हर भूफोन में एक फीते पर हो रहा अनुरेखण (tracing), उन तरंगों और तरंगमालाओं का शून्यकाल प्रदर्शित करता है, जो तरंग के प्रकार और पथ पर निर्भर काल में भूफोन तक पहुँचते रहते हैं। कई भूफोनों को त्रिकोणादि किसी समाकृति में व्यवस्थित कर तरंगमालाओं का उनके प्रकार और पथ से साहचर्य सरल किया जा सकता है। भूफोन मुख्यत: भूगति के ऊर्घ्वाधर घटक की अनुक्रिया करते हैं। तरंगमालाओं को अभिलेखों पर परावर्तित, अपवर्तित अनुदैर्ध्य तरंगों और अनुदैर्ध्य एवं अनुप्रस्थ दोनों घटकों से निर्मित अंतरापृष्ठ (interface) तरंगों के रूप में पहचाना जा सकता है। अंतरापृष्ठ तरंगों में पृष्ठतरंग भी सम्मिलित हैं।

विस्फोटबिंदु से भूकंपमापी तक किसी तरंगमाला का यात्राकाल सेकंड के हजारवें भाग तक परिशुद्ध रूप में अभिलेखों से निर्धारित किया जा सकता है। सामान्य सिद्धांत और ज्यामिति के उपयोग से डाल, पृष्ठीय असातत्य आदि की पहचान की जा सकती है। भूकंपी विधि को सामान्यत: दो वर्गों में विभाजित करते हैं:

अपवर्तन प्रविधियाँ - अपवर्तन विधि में एक विस्फोटबिंदु और छह या अधिक भूफोन एक सरल रेखा में समान अंतर पर रखे जाते हैं। विस्फोट को फायर कर अभिलिखित कर लिया जाता है। प्रत्येक अनुरेखण, विस्फोटबिंदु से भूफोन तक सर्वप्रथम आनेवाली तरंग के यात्राकाल को बताता है। ग्राफ पर समय की दूरी अंकित की जाती है।

अपवर्तन विस्फोट पर्याप्त गहराई में उच्च वेग स्तरों के लिये प्रभावकारी हैं। भूकंपमापी रैखिक व्यूह (linear array) के साथ साथ वृत्ताकार, या पंखे जैसे, व्यूह भी काम में आता है। पंख विस्फोट से लवण गुंबदों की खोज हुई है, क्योकि लवण गुंबद में तरंगवेग गुंबद को घेरनेवाले अवसादों की अपेक्षा अधिक होता है।

परावर्तन प्रविधि - यह मुख्यत: प्रतिध्वनि से गहराई का पापन (echo sounding) है। प्रत्येक असातत्य पर जब प्रत्यास्थता, धनत्व या दोनों के परिवर्तन के परिणामस्वरूप वेग में परिवर्तन होता है, तब ऊर्जा परावर्तित होती है। विस्फोटबिंदु के समीप ही 1,000 से 2,000 फुट की दूरी पर भूकंपमापी रखा जाता है। भूकंपमापी और विस्फोट बिंदु के बीच दूरी के बढ़ने के साथ नीचे पररावर्तन पृष्ठ तक तरंग के जाने और वहाँ से प्रतिध्वनि के रूप में लौटने का संपूर्ण समय अंतराल बढ़ता है। परावर्तन अभिलेखों से परावर्तन क्षितिज की गहराई और प्रवणता ज्ञात होती है। प्रेक्षित समय को दूरी में परिवर्तित करने के लिये वेग ज्ञात होना चाहिए ओर विभिन्न परावर्तन के स्तरों में वेग का आकलन करने में अनुभव काफी सहायक होता है।

भूरसायनी अन्वेषण (Geochemical Survey)

इस विधि का आधार है किसी गड़ी हुई प्राकृतिक संपानिक्षेप की पृष्ठमृदा और जलपर्यावरण में निक्षेप से व्युत्पन्न (derived) रसायनिक यैगिक। अनेक प्राकृतिक प्रक्रम हैं - रंध्र या विदर के द्वारा निस्यंदन (seepage), भौम जल की सतह में घट बढ़ और विसरण। स्त्रोत के निकट की संकेद्रण उच्चतम होना चाहिए। पट्रोलियम के अन्वेषण में मृदा और गैसें का रासायनिक विश्लेषण सहायक रहा है। धात्विक तत्वों, या इन तत्वर्गों की उपस्थिति परिपार्श्व के जल, मृदा और वनस्पति तक में 1/10 लाख सांद्रण में रहने पर भी पहचानी जा सकती है।

रेडियोऐक्टिव विधियाँ - इन विधियों में यूरेनियम, थोरियम जैसे रेडियोऐक्टिव तत्वों के रेडियोएक्टिव विकिरण और उनके विघटन उत्पादों को पहचाना जाता है। क्षेत्र में भूमि पर प्राय: गाइगेर (Geiger) गणित्र या प्रस्फुर (Scintillation) गणित्र का उपयोग किया जाता है। इनका उपयोग खोदे हुए छेदों और निचाई पर उड़ने वाले वायुयानों में किया जा सकता है। इन विधियों का अधिकतर उपयोग यूरेनियम अयस्क की खोज में किया जाता है।

रेडियो ऐक्टिव पदार्थों के अल्फा, बीटा और गामा विकिरणों में से केवल गामा विकिरणों की पहचान हो पाती है, क्योंकि अल्फा और बीटा विकिरणणों की वेधन क्षमता अत्यल्प होने के कारण ये चंद फुट मोटे मृदा आवरण में अवशोषित हो जाते हैं और हवा में शीघ्र क्षीण हो जाते हैं।

कूपों में रेडियोएक्टिवता की माप से तैल बालू या रचना सीमाओं का संकेत प्राप्त होता है, जिनसे भ्रंश, रेडियोऐक्टिव अयस्क और रेडियोऐक्टिव स्त्रोतों की स्थिति निर्धारित की जाती है। सतह पर रेडियोएक्टिव मापनों से रेडियोऐक्टिव खनिज, अयस्क, तेल और भूमिगत बनावट का स्थान निर्धारण करने में सहायता मिलती है।

बिद्ध छिद्र द्वारा अन्वेषण (Bore Hole Survey)

भूभौतिक कूप परीक्षण भौतिक शैल के गुणों के निर्धारण पर आधारित है। इसका उद्देश्य कूपों का समन्वयन और व्यापारिक खनिज (तेल, गैस और कोयला) की पहचान है।

कूप अभिलेखी विधि के उपविभाग ये हैं :

(1) वैद्युत (2) ऊष्मीय (3) रेडियोऐक्टिव (4) भूकंपी तथा (5) विविध अभिलेखन (logging), प्रविधियाँ।

वैद्युत अभिलेखन विधि - इस विधि का उपयोग सर्वाधिक होता है। सामान्यत: प्रतिरोधकता और स्वत: प्रवर्तित विभव मापा जाता है। ये दोनों वैद्युतलक्षण रचनाओं के अश्मविज्ञान (lithology) के अनुसार काफी परिवर्तनशील हैं। दो शक्ति विद्युदग्रों के द्वारा धारा भेजी जाती है इन विद्युदग्रों के बीच का विभवांतर बिद्ध छिद्र में एक उर्ध्वाधर रेखा में मापा जाता है। उच्च प्रतिरोधकता का तात्पर्य अपेक्षाकृत अल्प चालक तरल से भरी अरंध्री संरचना, या अचालक तरल या गैस से भरी सरंध्री सरंचना है। निम्नप्रतिरोधकता का अर्थ चालक तरल से भरी सरंध्र रचना है। उच्च स्वत: विभव से परागम्य रचना का संकेत प्राप्त होता है। प्रतिरोधकता और स्वत: विभव अभिलेखन के संयोग से कभी कभी अनोखे परिणाम प्राप्त होते हैं।

ऊष्मीय अभिलेखन - भूऊष्मीय प्रवणता (geothermal gradient) रचना की चालकता पर निर्भर करती है। अत: रचना के अभिलेखन में कूपों की विभिन्न गहराइयों पर सापेक्ष ताप प्रवणताओं के मापन का उपयोग किया जाता है। इससे छादन (casing) के पीछे सीमेंट की ऊचाई, कुछ रचनाओं की स्थिति और गैस एवं पानी के बालू के स्थान का पता चलता है विद्ध छिद्रों में प्रवेश करने पर, दाब के घटने के फलस्वरूप गैस ठंडी होती है और ऊष्मीय अभिलेखन में तीव्र न्यूनता उत्पन्न करती है।

रेडियोऐक्टिव अभिलेखन - इसका उपयोग छादित एवं अछादित दोनों प्रकार के कूपों में होता है, क्योंकि इससे कुछ अनोखी सूचनएँ प्राप्त हो सकती हैं। गामा किरण अभिलेखन से उन अवसादों की प्राकृतिक रेडियोऐक्टिवता का अभिलेखन उस गामा किरण सक्रियता का अभिलेख प्रदान करता है, जो छिद्र में उतारे हुए स्त्रोत से उत्सर्जित न्यूट्रानों द्वारा रचनाओं में कृत्रिम रूप से उत्पन्न होती हैं। इसका सर्वाधिक महत्व इस तथ्य में निहित है कि न्यूट्रॉनों के साथ किरणन (irradiation) की अवधि में शैल पदार्थ का गामा किरण उत्पादन शैलों के हाइड्रोजनांश से घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। इसलिये न्यूट्रॉन अभिलेख की न्यूनता से तेल या पानी संस्तर की पहचान की जा सकती है। इधर हाल ही में कुछ अन्य केंद्रकीय (nuclear) अभिलेखन प्रविधियों, जैसे घनत्व, क्लोरीन, स्पेक्ट्रमी गामा, बंदी (captive) गामा, द्वारा प्रेरित (gated induced) गामा, सक्रियकरण (activation) ट्रेसर (tracer) और केंद्रकीय चुंबकत्व अभिलेखन का विकास हुआ है।

भूकंपी अभिलेखन - ये मापन कूपों में निम्नलिखित कार्यों के लिये किए जाते हैं

(1) ऊर्ध्वाधर वेग वितरण की पहचान के लिये,

(2) ऊर्ध्वाधर और पार्श्व अपर्वतन अन्वेषण के परास का विस्तार करने के लिये,

(3) छिद्रों की वक्रता के निर्धारण के लिये,

(4) कुछ रचनाओं की पहचान के लिये।

विस्फोट सतह पर होता है और संसूचक (detectors) छिद्र में या इसके विपरीत संसूचक सतह पर रहता है और विस्फोट छिद्र होता है। इस विधि का अनुपयोग उन क्षेत्रों तक सीमित हैं जहाँ कुएँ के चारों ओर वेगवितरण पूर्णतया एकसमान है।

विविध अभिलेखन प्रविधियाँ - इसके अंतर्गत चुंबकीय विधियाँ है, जिनमें कुओं से प्राप्त क्रोड़ों का प्रयोगशाला में परक्षण और कैलीपर अभिलेखन जिसके उपयोग से विद्ध छिद्र के परिवर्ती व्यास का मापन होता है और फलत: रचनाओं के शैल विज्ञान और नति मापनों के संबंध में कुछ सूत्र मिलते हैं, सम्मिलित हैं। अभिलेखन विधियाँ बड़ी ही सशक्त हैं।

बाहरी कड़ियाँ