अक्षय रमणलाल देसाई

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अक्षय रमणलाल देसाई
Bornसाँचा:birth date
Diedसाँचा:death date and age
Nationalityभारतीय
Educationएमए, एएलबी, पीएडी
Alma materमुंबई विद्यापीठ
Employerसाँचा:plainlistसाँचा:main other
Organizationसाँचा:main other
Agentसाँचा:main other
Notable work
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Childrenमिहिर देसाई
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अक्षय रमणलाल देसाई (साँचा:lang-en) एक भारतीय समाजशास्त्री, मार्क्सवादी[१] और सामाजिक कार्यकर्ता[२] थे। वह 1967 में मुंबई विद्यापीठ में समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर और प्रमुख थे। उन्हें अपने कार्य भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि (Social Background of Indian Nationalism) के लिए विशेष रूप से जाना जाता है, जिसमें उन्होंने इतिहास का उपयोग करते हुए भारतीय राष्ट्रवाद की उत्पत्ति का एक मार्क्सवादी विश्लेषण प्रस्तुत किया, जिसने भारत में समाजवाद के निर्माण का मार्ग निर्धारित किया।[३]

जीवनी

ए. आर. देसाई का जन्म गुजरात में बड़ौदा के एक सम्भ्रान्त परिवार में 6 अप्रैल, 1915 को हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा बड़ौदा में ही सम्पन्न हुई। बाद में ए. आर. देसाई ने बम्बई विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की तथा यहीं से उन्होंने प्रोफेसर जी. एस. घुरये के निर्देशन में पी-एच.डी की उपाधि के लिए शोधकार्य आरम्भ कर दिया। अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही वह अपने पिता रमणलाल बसन्तलाल देसाई के विचारों से प्रभावित होने लगे। उनके पिता अपने समय के एक प्रसिद्ध साहित्यकार थे तथा उन्होंने 1930 के दशक में गुजरात के युवा वर्ग में एक नई चेतना जगाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसी के परिणामस्वरूप ए. आर. देसाई ने भी अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान ही समाज के दुर्बल वर्गों के अध्ययन में रुचि लेना आरम्भ कर दी। धीरे-धीरे उनका झुकाव मार्क्सवादी विचारधारा की ओर होने लगा जिसके फलस्वरूप उन्होंने बड़ौदा, सूरत तथा बम्बई में विभिन्न छात्र आन्दोलनों में भाग लेने के अतिरिक्त श्रमिक संघों और किसान आन्दोलनों में भी सहभाग करना आरम्भ कर दिया। सन् 1946 में ए. आर. देसाई को बम्बई विश्वविद्यालय द्वारा पी-एच.डी की उपाधि प्रदान की गई। सन् 1947 में उनका विवाह नीरा देसाई के साथ हुआ जो महिलाओं के अध्ययन के क्षेत्र में सराहनीय कार्य कर रही थीं।

कार्य और विचार

प्रोफेसर ए. आर. देसाई का शैक्षणिक जीवन सन् 1951 से आरम्भ हुआ जब जी. एस. घुरये द्वारा उन्हें अपने विभाग में प्रवक्ता के पद पर नियुक्त किया गया। उनकी प्रतिभा को देखते हुए बहुत कम समय बाद ही उन्हें बम्बई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में रीडर के पद पर नियुक्त कर दिया गया। लेखन और चिन्तन के प्रति उनके लगाव को इसी बात से समझा जा सकता है कि अपना शोध कार्य पूरा करने के तुरन्त बाद उन्होंने 'भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि' पर एक पुस्तक लिखना आरम्भ कर दी जो पहली बार सन् 1948 में प्रकाशित हुई। सन् 1959 में जब घुरये बम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर तथा अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए, तब इस पद पर डॉ. ए. आर. देसाई का चयन कर लिया गया। प्रोफेसर ए. आर. देसाई आरम्भ से ही मार्क्सवादी विचारधारा के प्रबल समर्थक थे। वह ‘इण्डियन सोशियोलॉजिकल सोसायटी' के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। प्रो. गार्डनर मर्फी के निर्देशन में जब यूनेस्को की बम्बई शाखा में सामाजिक तनावों से सम्बन्धित व्यापक अध्ययन किये गये तब इसमें ए. आर. देसाई का योगदान बहुत प्रमुख रहा। सन् 1964 में समाजशास्त्र के तीसरे विश्व अधिवेशन में उन्होंने ग्रामीण समस्याओं पर एक प्रभावशाली शोध-पत्र पढ़ा जिससे उनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी।

ए. आर. देसाई ने मार्क्स तथा एंगेल्स (Engels) की रचनाओं का गहन अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त यह लिओन ट्राट्स्की के लेखों से भी बहुत प्रभावित हुए। इसके फलस्वरूप उन्होंने आनुभविक शोध कार्यों में भी मार्क्स के द्वन्द्वात्मक-ऐतिहासिक उपागम का उपयोग करना आरम्भ कर दिया। इसी का परिणाम था कि उन्होंने परम्पराओं की विवेचना धर्म, कर्मकाण्डों अथवा त्योहारों के संदर्भ में करने का विरोध किया तथा परम्परा को धर्म से भिन्न तथ्य के रूप में देखना आरम्भ कर उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि दूसरे तथ्यों की तरह परम्पराओं का विकास भी कुछ आर्थिक दशाओं के संदर्भ में होता है। इस तरह किसी भी परम्परा की खोज पश्चिमी संस्कृति में करना एक गलत दृष्टिकोण है। इसी संदर्भ में उन्होंने राष्ट्रवाद, सामुदायिक विकास, राज्य तथा समाज के सम्बन्धों, नगर की घनी बस्तियों तथा किसान आन्दोलनों की विवेचना एक ऐसे ऐतिहासिक संदर्भ में करना उचित माना जिसका सम्बन्ध कुछ भौतिक दशाओं से होता है। भारतीय समाज में सामाजिक परिवर्तन और रूपान्तरण के क्षेत्र में आज जो विरोधाभास देखने को मिल रहे हैं, उनका मुख्य आधार भी उन्होंने पूंजीवादी वर्ग संरचना तथा गांव के शोषित किसानों के बीच पाई जाने वाली असमानताओं को माना। इस प्रकार ए. आर. दसाई को एक मार्क्सवादी सिद्धान्तशास्त्री कहा जाने लगा। सन् 1953 में उन्होंने ‘ट्राट्स्कीवादी क्रान्तिकारी समाजवादी दल’ की भी सदस्यता ग्रहण कर ली। उन्होंने इस राजनीतिक दल के किसी आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया, यद्यपि इसकी वैचारिकी ने ए. आर. देसाई के चिन्तन को बहुत प्रभावित किया। 12 नवम्बर, 1994 में इस प्रसिद्ध समाजशास्त्री का गुजरात के बड़ौदा नगर में देहान्त हो गया।

प्रो. ए. आर. देसाई ने अपने जीवन में बहुत सी महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखने के साथ ही विभिन्न शोध पत्रिकाओं के लिए अनेक उपयोगी लेख लिखे। इन सभी का उद्देश्य भारतीय सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की वास्तविकता को समझने के लिए उसके विभिन्न पक्षों का विश्लेषण करना रहा। उनकी सबसे पहली पुस्तक 'भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि' (The Social Background of Indian Nationalism) सन् 1948 में प्रकाशित हुई। एक लम्बे अन्तराल के बाद उनकी दूसरी पुस्तक 'भारत में ग्रामीण समाजशास्त्र' (Rural Sociology in India) सन् 1969 में प्रकाशित हुई। इसके एक वर्ष बाद ही सन् 1970 में उनकी एक अन्य पुस्तक 'गन्दी बस्तियां तथा भारत का नगरीकरण' ( Slums and Urbanization of India ) के नाम से प्रकाशित हुई। इसके बाद सन् 1975 में ‘भारत में राज्य तथा समाज’ (State and Society in India) एवं सन् 1979 में ‘भारत में कृषक संघर्ष' (Peasant Struggle in India ) पुस्तकें प्रकाशित हुई। पुन: 1979 में ही ‘ग्रामीण भारत संक्रमण की दशा में’ (Rural  India  in  Transition ) तथा सन् 1984 में ‘भारत में विकास का मार्गः एक मार्क्सवादी उपागम’ (India's path of Development : A Marxist Approach) का प्रकाशन हुआ। उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक 'भारत में ग्रामीण समाजशास्त्र' सन् 1969 में प्रकाशित हुई जिसे ग्रामीण अध्ययनों के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक माना जाता है।

वास्तविकता यह है कि भारत में एक लम्बे समय तक सामाजिक आन्दोलनों के अध्ययन पर, कभी व्यवस्थित रूप में विचार नहीं किया गया। ए. आर. देसाई द्वारा भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन पर यहां की वर्ग संरचना तथा सामाजिक विरोधाभासों के संदर्भ में गहराई से विचार करने के बाद इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया कि यहां के उपनिवेशवादी शासन से सम्बन्धित आर्थिक प्रेरणाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में कौन-से परिवर्तन उत्पन्न किए तथा इनके प्रभावों से किस प्रकार भारत में राष्ट्रवाद का आरम्भ हुआ। भारतीय राष्ट्रवाद की  सामाजिक पृष्ठभूमि के अतिरिक्त ए. आर. देसाई ने भारत की वर्ग-संरचना, भारतीय समाज के रूपान्तरण, कृषक संघर्ष तथा राज्य और समाज के बारे में मार्क्सवादी उपागम के आधार पर जो विचार प्रस्तुत किए, वे भारतीय समाज के अध्ययन में उनके मार्क्सवादी दृष्टिकोण को समझने में बहुत सहायक हैं।

भारतीय राष्ट्रवाद

प्रोफेसर देसाई द्वारा लिखित पुस्तक 'भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि' वह महत्वपूर्ण प्रयास है जिसमें उन्होंने मार्क्सवादी बौध्दिक उपागम के आधार पर समाजशास्त्र तथा इतिहास को मिलाते हुए यह स्पष्ट किया कि भारत में राष्ट्रवाद का सम्बन्ध किसी-न-किसी रूप में उत्पादन के सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तन से रहा है। इसके साथ ही उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को एक-दूसरे से भिन्न शक्तियों के द्वन्द्व के परिणाम के रूप में स्पष्ट किया। इसका तात्पर्य है कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन के अन्तर्गत यहां जो नई भौतिक दशाएं पैदा हुईं, उन्हीं के फलस्वरूप राष्ट्रवाद का प्रादुर्भाव हुआ। ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत औद्योगीकरण तथा आधुनिकीकरण के द्वारा जिन नए आर्थिक सम्बन्धों की स्थापना हुई, उनके फलस्वरूप भारत की परम्परागत संस्थाओं में परिवर्तन होना आरम्भ हुआ। इस आधार पर उन्होंने विस्तार से इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि जब किसी समाज में आर्थिक सम्बन्धों में परिवर्तन होता है तो वहां विभिन्न वर्गों के सम्बन्धों तथा सामाजिक सस्थाओं में किस प्रकार परिवर्तन होने लगता है।

देसाई द्वारा लिखित उपर्युक्त पुस्तक 19 अध्यायों में विभाजित है। अपने 'प्राक्कथन' में उन्होंने राष्ट्र तथा राष्ट्रवाद की अवधारणा को स्पष्ट करने के साथ ही संक्षेप में यह स्पष्ट किया कि यूरोप के अनेक दूसरे देशों में किस प्रकार राष्ट्रवाद का विकास हुआ। पुस्तक के पहले अध्याय में देसाई ने भारत में इंग्लैण्ड का उपनिवेशवादी शासन आरम्भ होने से पहले यहां की अर्थव्यवस्था तथा संस्कृति की प्रकृति को स्पष्ट किया। दूसरे अध्याय में उन दशाओं का उल्लेख किया जिनके अन्तर्गत भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन स्थापित हुआ तथा इसके प्रभाव से धीरे-धीरे एक नई आर्थिक और राजनीतिक संरचना विकसित होने लगी। अध्याय 3, 4, 5, 6 तथा 7 में ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय कृषि व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों, परम्परागत हस्तशिल्प का पतन, नगरों तथा ग्रामीण कुटीर उद्योगों का विघटन तथा आधुनिक उद्योगों का विकास जैसी दशाओं की विवेचना की गई। अध्याय 8, 9 तथा 10 में परिवहन के साधनों के विकास, नई शिक्षा व्यवस्था की स्थापना तथा भारत के राजनीतिक और प्रशासनिक एकीकरण की विवेचना के साथ भारतीय समाज पर इनके प्रभावों का विश्लेषण किया गया। इन दशाओं के प्रभाव से अध्याय 11 में नए सामाजिक वर्गों के प्रादुर्भाव, अध्याय 12 के अन्तर्गत आधुनिक राष्ट्रवाद में प्रेस की भूमिका, अध्याय 13 में यहां समाज-सुधार आन्दोलन का सूत्रपात तथा अध्याय 14, 15 व 16 में परम्परागत जाति विभाजन, अस्पृश्यता तथा स्त्रियों की प्रस्थिति जैसी समस्याओं के विरुद्ध होने वाले आन्दोलन की विस्तार से विवेचना की गई है। अध्याय 17 में देसाई ने भारत में होने वाले धार्मिक सुधार आन्दोलनों की चर्चा की। पुस्तक में अध्याय 18 वह सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसमें देसाई ने भारतीय राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति के रूप में एक व्यापक राजनीतिक आन्दोलन के प्रभाव की चर्चा की। अन्तिम अध्याय में अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बन्धित कुछ आन्दोलनों को स्पष्ट करते हुए देसाई ने भारतीय राष्ट्रवाद के विकास पर इनके प्रभावों का उल्लेख किया। प्रस्तुत विवेचन में हम सबसे पहले देसाई के विचारों के सम्बन्ध में राष्ट्र तथा राष्ट्रवाद के अर्थ को स्पष्ट करेंगे।

राष्ट्र तथा राष्ट्रवाद का अर्थ

वर्तमान समाजशास्त्रीय अध्ययनों में भारतीय राष्ट्रवाद का एक प्रमुख स्थान है। ए. आर. देसाई के शब्दों मे “भारत में विकसित होने वाले विभिन्न राजनीतिक और राष्ट्रीय आन्दोलनों को समझना इस कारण आवश्यक है कि इन्हीं की सहायता से ब्रिटिश काल तथा उसके बाद भारतीय समाज में होने वाले संरचनात्मक परिवर्तनों तथा उन नयी सामाजिक शक्तियों को समझा जा सकता है जिन्होंने भारतीय समाज को नया रूप दिया।"

राष्ट्र तथा राष्ट्रवाद की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए देसाई ने प्रोफेसर कार तथा प्रोफेसर जी. एस. घुरये के विचारों का उल्लेख किया। कार (E. H. Carr)  के अनुसार राष्ट्र का सम्बन्ध एक विशेष भावनात्मक और मानसिक एकता से है; यह अनुभव करने, विचार करने और जीवन व्यतीत करने का एक विशेष ढंग है। इस अर्थ में राष्ट्र की प्रकृति को इसकी 6 मुख्य विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है- (1) एक सामान्य सरकार का विचार जिसका सम्बन्ध वर्तमान और भविष्य की प्रत्याशाओं से हो, (2) इससे सम्बन्धित व्यक्तियों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध तथा जागरूकता, (3) एक सुस्पष्ट भू-भाग, (4) कुछ ऐसी विशेषताएं जो एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्रों से पृथक् करती हों जैसे— भाषा तथा संस्कृति से सम्बन्धित विशेषताएं, (5) कुछ ऐसे सामान्य हित जिनमें सभी सदस्य सहभाग करते हों, (6) लोगों की इच्छाओं और भावनाओं में एक ऐसी समानता जिसके आधार पर उनके मन में अपने राष्ट्र के प्रति श्रद्धा और समर्पण के भाव पैदा होते हों।

राष्ट्रवाद के अर्थ को स्पष्ट करते हुए जी. एस. घुरये ने लिखा है “राष्ट्रवाद एक मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक दशा हैं जिसमें एकता, सुदृढ़ता और पारस्परिक सम्बद्धता का समावेश होता है यह एक ऐसी भावना है जिसमें सामान्य नागरिकता की भावना तथा राष्ट्र के प्रति निष्ठा की भावना का समावेश होता”।

प्रोफेसर कार तथा घुरये के संदर्भ में ए. आर. देसाई ने राष्ट्रवाद के कुछ विशेष तत्वों का उल्लेख किया। उनके अनुसार राष्ट्रवाद का सम्बन्ध राष्ट्र की सर्वोच्चता में विश्वास करने से है। इसका तात्पर्य है कि राष्ट्रवाद का सम्बन्ध एक ऐसी भावना से है, जिसमें जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र की तुलना में राष्ट्र को अधिक महत्व दिया जाता है। राष्ट्रवाद के विकास के लिए एक ऐसी सरकार आवश्यक है जो अपने देश के निवासियों के हित में निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र हो। साथ ही इसका सम्बन्ध एक ऐसी भावनात्मक एकता से है जो एक राष्ट्र से सम्बन्धित लोगों को राष्ट्रीय हितों के बारे में जागरूक बनाती है तथा उनके बीच सक्रिय सहयोग को प्रेरणा देती है। भाषायी एकता राष्ट्रवाद का एक प्रमुख आधार है। राष्ट्रवाद का एक अन्य तत्व एक विशेष राष्ट्रीय संस्कृति है, जो विभिन्न लोगों और वर्गों को एक-दूसरे से जोड़ती है। राष्ट्रीय इतिहास राष्ट्रवाद का वह आधार है जो लोगों को अपने से भिन्न राष्ट्र के लोगों के विरुद्ध एकजुट होकर रहने की प्रेरणा देता है। इसी कारण प्रत्येक राष्ट्र का यह प्रयत्न रहता है कि राष्ट्रीय इतिहास से सम्बन्धित प्रमुख व्यक्तियों और घटनाओं से अधिक-से-अधिक लोगों को परिचित कराया जाए।

प्रोफेसर देसाई ने लिखा है कि विश्व के विभिन्न भागों में अनेक समुदायों का राष्ट्रों के रूप में परिवर्तित होना एक ऐतिहासिक घटना रही है। आज से लगभग चार सौ वर्ष पहले तक विश्व के सभी देश किसी-न-किसी तरह की राजशाही या सामन्तवादी व्यवस्था से जकड़े हुए थे। 16वीं शताब्दी तक इंग्लैण्ड जैसे राष्ट्रवादी देश की वास्तविक सत्ता रोमन चर्च के हाथों में थी। पुनर्जागरण के युग में जब इंग्लैण्ड के सामान्य नागरिकों ने रोमन चर्च के शोषण के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्ष किए, केवल तभी वहां एक सामन्तवादी राज्य की जगह राष्ट्र-राज्य की स्थापना हो सकी। इंग्लैण्ड में विकसित होने वाला राष्ट्रवाद यूरोप के अनेक दूसरे देशों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बन गया। 17वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के बीच फ्रांस, इटली, जर्मनी तथा अनेक दूसरे देशों में भी भारी संघर्ष के बाद ऐसा राष्ट्रवाद विकसित हुआ जिसमें राजशाही के लिए कोई जगह नहीं थी। 20 वीं शताब्दी में राष्ट्रवाद के विकास की प्रक्रिया एशिया और अफ्रीका के देशों में भी आरम्भ हो गई। इस शताब्दी में एक और रूस में सामन्तवादी व्यवस्था की जगह समाजवादी व्यवस्था के द्वारा राष्ट्रवाद को स्पष्ट रूप मिला, जबकि भारत, चीन, तुर्की, अरब और मिस्र जैसे अनेक देशों में साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध संगठित आन्दोलन होना आरम्भ हो गए। इन आन्दोलनों का उद्देश्य एक ऐसी राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था की स्थापना करना था जो स्वदेशी होने के साथ ही राष्ट्रीय प्रकृति की हो।

जहां तक भारत का प्रश्न है, यहां राष्ट्रवाद का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। भारत में राष्ट्रवाद का आरम्भ इंग्लैण्ड के उपनिवेशवादी शासन के दौरान हुआ। ब्रिटिश शासन से पहले तक भारत में एक ऐसी राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना स्थापित थी जो विश्व के दूसरे देशों से काफी भिन्न थी। आर्थिक क्षेत्र में यहां की अर्थव्यवस्था ग्रामीण होते हुए भी यह यूरोप की सामान्तवादी व्यवस्था से भिन्न थी। ग्रामीण जीवन काफी कुछ आत्मनिर्भर प्रकृति का था। सामाजिक आधार पर सम्पूर्ण देश हजारों जातियों और उप-जातियों में विभाजित था तथा उनके बीच विवाह, व्यवसाय, खान-पान और सामाजिक सम्पर्क से सम्बन्धित बहुत सी भिन्नताएं होने के कारण सभी जातियां आत्मकेंद्रित समूहों के रूप में जीवन व्यतीत कर रही थीं। धार्मिक आधार पर हिन्दू धर्म का कोई एक सर्वव्यापी आधार नहीं था बल्कि हिन्दू धर्म बहुत से सम्प्रदायों, पंथों और विश्वासों में बंटा हुआ था। राजनीतिक आधार पर भारत कभी-भी एक अखण्ड राष्ट्र नहीं रहा, बल्कि यह हजारों छोटे बड़े साम्राज्यों और नगर राज्यों में बंटे हुए राजतन्त्र के अधीन रहा।

विश्व के दूसरे देशों में राष्ट्रवाद का विकास उन दशाओं के बीच हुआ जो उसी देश की राजनीतिक और धार्मिक संरचना से सम्बन्धित थीं। भारतीय राष्ट्रवाद की मुख्य विशेषता यह है कि इसका प्रादुर्भाव और विकास उन दशाओं के बीच हुआ जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था। ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजों ने मुख्य रूप से अपने आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए यहां की प्रशासनिक, आर्थिक और शैक्षणिक संरचना में इस तरह के परिवर्तन किए जिनकी प्रकृति भारत की परम्परागत संरचना से बहुत भिन्न थी। इसके फलस्वरूप यहां एक ओर नए सामाजिक-आर्थिक वर्गों के निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ हुई तो दूसरी ओर अनेक ऐसी सामाजिक शक्तियां पैदा होने लगीं जिन्होंने लोगों के चिंतन और व्यवहार के तरीकों को नई दिशा देना आरम्भ कर दी। स्पष्ट है कि भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास एक विशेष आर्थिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि में होना आरम्भ हुआ।

भारतीय राष्ट्रवाद की मुख्य अवस्थाएं

देसाई ने लिखा है कि भारत में एक नई आर्थिक संरचना से पैदा होने वाले वर्गों में जब अपने अधिकारों की चेतना विकसित होना आरम्भ हुई, तो उन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्र में अपने आपको नए सिरे से संगठित करना आरम्भ कर दिया। इसके फलस्वरूप अनेक ऐसे आन्दोलनों का सूत्रपात हुआ जिन्होंने भारत में राष्ट्रवाद के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करना आरम्भ कर दिया। इस प्रक्रिया को देसाई ने पांच मुख्य अवस्थाओं में विभाजित करके स्पष्ट किया :

(1) प्रथम अवस्था (First  Phase : 1857-1885)

अपनी पहली अवस्था में भारतीय राष्ट्रवाद का आधार बहुत संकुचित रहा, यद्यपि ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से समाज में एक ऐसा बौद्धिक वर्ग विकसित होने लगा जिसने यहां की परम्परागत सामाजिक और धार्मिक संरचना में सुधार लाने के व्यापक प्रयत्न करना आरम्भ कर दिए। इसी के फलस्वरूप भारत में एक ऐसा सुधार आन्दोलन आरम्भ हुआ जो बाद में भारतीय राष्ट्रवाद का एक मुख्य आधार बन गया। भारत में धार्मिक आधार पर समाज सुधार की प्रक्रिया मध्यकाल में भी आरम्भ हुई थी। उस समय कबीर, वल्लभ, चैतन्य, गुरु नानकदेव तथा अनेक दूसरे सन्तों ने धार्मिक पाखण्डों और सामाजिक कुरीतियों का विरोध करके समाज को संगठित करने का प्रयत्न किया था। इसके बाद भी भारत में एक व्यवस्थित, सामाजिक और धार्मिक सुधार आन्दोलन 19वीं शताब्दी से ही प्रारम्भ हो सका। इसके प्रभाव का उल्लेख करते हुए ए. आर. देसाई ने लिखा है “इस समय आरम्भ होने वाले समाज सुधार आन्दोलनों का उद्देश्य समाज के केवल धार्मिक सुधार लाना ही नहीं था बल्कि लोगों में अपनी सामाजिक संस्थाओं तथा सामाजिक सम्बन्धों को नए दृष्टिकोण से समझना और राष्ट्रीय एकता में वृद्धि करना भी था”।

इस कथन के संदर्भ में भारत में होने वाले कुछ प्रमुख सुधार आन्दोलनों की प्रकृति पर ध्यान देना आवश्यक है । इन आन्दोलनों में ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, सत्यशोधक समाज तथा स्वदेशी आन्दोलन आदि प्रमुख हैं।

राजा राममोहन राय ने सन् 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना करके भारत में सबसे पहले सती प्रथा, बाल विवाह, छुआछूत तथा स्त्री शोषण का विरोध करने के साथ ही विधवाओं के पुनर्विवाह और स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल देना आरम्भ किया। इसी कारण उन्हें ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ का जनक भी कहा जाता है । राष्ट्रीय भावनाओं को विकसित करने में इस आन्दोलन की भूमिका को स्पष्ट करते हुए ए. आर. देसाई ने लिखा है कि “ब्रह्म समाज ने वैयक्तिक स्वतन्त्रता, राष्ट्रीय एकता तथा सामाजिक समानता के सिद्धान्तों का प्रचार करके भारत में एक नए युग का आरम्भ किया। यह आन्दोलन राष्ट्रीय चेतना पर आधारित पहला संगठित प्रयत्न था”।

प्रार्थना समाज सुधार आन्दोलन से सम्बन्धित दूसरा संगठन है जिसकी स्थापना सन् 1867 में महादेव गोविन्द रानाडे ने की। उन्होंने हिन्दुओं में फैले हुए बाह्य आडम्बरों, कर्मकाण्डों, जातिगत भेदभावों तथा स्त्रियों के शोषण का भारी विरोध किया। प्रार्थना समाज के माध्यम से उन्होंने बहुत-सी कन्या पाठशालाओं, विधवा आश्रमों और अनाथालयों की स्थापना करना आरम्भ कर दिया। दलित जातियों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने वाला यह सबसे पहला संगठन था। भारतीय राष्ट्रवाद को विकसित करने में आर्य समाज को भी एक प्रमुख आन्दोलन के रूप में देखा जाता है। आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द ने सन् 1875 में की। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भारतीय समाज के एकीकरण के लिए जातियों की ऊंच-नीच के विभाजन तथा स्त्रियों की निर्योग्यताओं को दूर करने के लिए वैदिक धर्म से सम्बन्धित व्यवहारों को पुनः स्थापित करना आवश्यक है। स्वामी दयानन्द ने अन्तर्जातीय विवाहों तथा विधवा पुनर्विवाह का पक्ष लेने के साथ ही बाल विवाह, बहु-पत्नी विवाह, पर्दा प्रथा तथा किसी भी रूप में स्त्रियों के शोषण के विरुद्ध लोगों को संगठित किया। उन्होंने सम्पूर्ण भारत में लड़कियों के लिए बहुत सी शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की, जिन्हें ‘दयानन्द ऐंग्लो वैदिक विद्यालय’ (डी. ए. बी. कॉलेज) के नाम से जाना जाता है। आर्य समाज के सभी कार्यक्रम इस तरह निर्धारित किये गये जिससे सम्पूर्ण हिन्दू समुदाय को एक करके उसमें राष्ट्रीयता की भावना को विकसित किया जा सके। इसके फलस्वरूप उस समय के प्रमुख नेता लाला लाजपत राय सहित अनेक दूसरे नेता आर्य-समाज के प्रबल समर्थक बन गये। भारतीय राष्ट्रवाद में आर्य समाज के योगदान से ब्रिटिश शासन चिन्तित हो गया कि अंग्रेज शासक आर्य समाज को ब्रिटिश शासन के लिए एक बड़ा खतरा मानने इतना लगे।

सुधार आन्दोलनों में राम कृष्ण मिशन का योगदान भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह आन्दोलन रामकृष्ण परमहंस द्वारा बंगाल से आरम्भ किया गया तथा उनकी मृत्यु के बाद उनके मुख्य शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन देने के लिए दलित और निर्धन लोगों की सेवा की ही नारायण की वास्तविक सेवा का नाम दिया। यह आन्दोलन मानवतावाद और समतावादी विचारधारा को प्रोत्साहन देने के साथ ही अनाथों की सेवा को विशेष महत्व देने लगा। इसी के फलस्वरूप राम कृष्ण मिशन ने भारत के सभी क्षेत्रों में बड़े-बड़े अस्पतालों, शिक्षा संस्थाओं और अनाथालयों की स्थापना की महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुल द्वारा सत्यशोधक समाज की स्थापना की गई। ज्योतिबा फुले स्वयं पिछड़ी जाति के थे, इसलिए वे हरिजनों और पिछड़ी जातियों की समस्याओं से कहीं अधिक परिचित थे। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती देने के साथ ही निम्न जातियों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना पैदा की। इसके फलस्वरूप दक्षिण भारत में बड़ी संख्या वाली बहुत सी निम्न जातियां जैसे- रेड्डी, वेल्लाला तथा कम्मा आदि इस आन्दोलन में सम्मिलित हो गईं। इसी काल में महाराष्ट्र में एक मुख्य समाज सुधारक गोपालहरि देशमुख द्वारा स्वदेशी आन्दोलन आरम्भ किया गया। इस आन्दोलन का उद्देश्य धार्मिक सद्भाव बढ़ाना , सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध चेतना पैदा करना और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग को प्रोत्साहन देना था। बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन को आगे बढ़ाने में राजनारायण वसु, पंजाब में रामसिंह कूका तथा बम्बई में वासुदेव जोशी ने विशेष योगदान दिया। बाद में यही स्वदेशी आन्दोलन महात्मा गांधी द्वारा चलाए जाने वाले राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया।

देसाई का कथन है कि “यह सभी आन्दोलन भारत में बढ़ती हुई राष्ट्रीय और लोकतान्त्रिक चेतना  की अभिव्यक्ति थे तथा इन आन्दोलनों के द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के साथ भारत के प्रशासन में जनसाधारण की हिस्सेदारी की मांग की जाने लगी”।

(2) दूसरी अवस्था (Second  Phase :  1885-1905)

ए. आर. देसाई के अनुसार, भारतीय राष्ट्रवाद के दूसरे चरण का आरम्भ दिसम्बर 1885 में ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की स्थापना के साथ हुआ। सन् 1875 से 1885 के बीच होने वाले किसान आन्दोलनों तथा जनसाधारण के बढ़ते हुए असंतोष के कारण ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी एलन ऑस्टेवियन ह्यूम (A.O. Hume) ने यह महसूस करना आरम्भ किया कि ब्रिटिश सरकार के लिए भारत में एक ऐसा संगठन बनाना जरूरी है जिसके द्वारा भारत के ही कुछ प्रमुख नेता जनसाधारण में ब्रिटिश शासन के प्रति विश्वास पैदा कर सकें। इसके फलस्वरूप ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नाम के एक संगठन स्थापित करके 28 दिसम्बर, 1885 में इसका पहला अधिवेशन बम्बई में आयोजित किया। इसमें महादेव गोविन्द रानाडे, दादाभाई नौरोजी तथा रघुनाथ राव जैसे प्रमुख व्यक्तियों के अतिरिक्त बहुत से जमींदारों, वकीलों, पत्रकारों, शिक्षकों और समाज-सुधारकों ने हिस्सा लिया। सन् 1885 से लेकर 1905 तक अखिल भारतीय कांग्रेस के अनेक अधिवेशन आयोजित हुए। इस समय को भारतीय राष्ट्रवाद में उदार राष्ट्रीयता की अवस्था (Phase of Liberal Nationalism) के नाम से जाना जाता है। इस अवस्था में कांग्रेस से सम्बन्धित सभी प्रमुख नेता जैसे- व्योमेशचन्द्र बनर्जी, रासबिहारी घोष, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, दादाभाई नौरोजी, रानाडे, गोपालकृष्ण गोखले, पी. आर. नायडू, केशव पिल्लई तथा मदनमोहन मालवीय इस पक्ष में थे कि ब्रिटिश शासन में इस तरह सुधार लाना जरूरी है जिनसे जनता का ब्रिटिश शासन में विश्वास बढ़ सके।

उदार राष्ट्रीयता के काल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने एक और ब्रिटिश शासन के प्रति अपना विश्वास व्यक्त किया तो दूसरी ओर उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय समाज में ब्रिटिश सरकार के अर्न्तगत ही इस तरह के परिवर्तन होना चाहिए, जो भारतीय समाज के हित में हों। दादाभाई  नौरोजी जैसे- प्रमुख नेता ने यहां तक कहा कि “हम अंग्रेजों के प्रति इसलिए वफादार हैं कि अंग्रेजी राज से हमें जो लाभ प्राप्त हुए हैं, वे किसी दूसरे शासन से प्राप्त नहीं हो सकते”। उदारवादी नेताओं के द्वारा ब्रिटिश सरकार से जो मांगें की गईं, वे बहुत सामान्य और नरम प्रकृति की थीं। उदाहरण के लिए, यह मांग की गयी कि भारत में शिक्षा का प्रसार किया जाये, सामान्य शिक्षा के साथ तकनीकी शिक्षा संस्थाएं भी स्थापित की जाएं, सैनिक खर्च को कम किया जाए, महत्वपूर्ण सरकारी नौकरियों में भारतीयों को भी नियुक्त किया जाए तथा प्रशासनिक सुधार के लिए विभिन्न प्रान्तों में भारत के लोगों को भी प्रतिनिधित्व दिया जाए। इसके बाद भी ब्रिटिश सरकार इस तरह की मांगों को पूरा नहीं कर सकी जिसके फलस्वरूप उदार राष्ट्रवादियों के एक वर्ग का विश्वास ब्रिटिश शासन के प्रति कमजोर पड़ने लगा।

भारतीय राष्ट्रवाद के इस स्तर पर देश को अनेक नई समस्याओं का भी सामना करना पड़ा। इस समय समाज के मध्यम वर्ग के शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी के कारण आर्थिक समस्याएं बढ़ने लगीं तो दूसरी ओर देश से सन् 1896-97 के दौरान भीषण अकाल पड़ने के कारण अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इस काल में प्लेग की भयंकर बीमारी के कारण लाखों लोगों की मृत्यु हुई जिसके प्रति सरकार काफी उदासीनता रही। लॉर्ड कर्जन ने सन् 1905 में बंगाल की पूर्वी और पश्चिम बंगाल में इसलिए विभाजित कर दिया जिससे बंगाल की बढ़ती हुई राजनीतिक शक्ति को कम करने के साथ ही हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच मतभेद पैदा किए जा सकें। इसके फलस्वरूप कांग्रेस के अन्दर ही उग्र राष्ट्रवादियों का एक अलग वर्ग बनने लगा जिसका नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, अरबिन्द घोष, बी. सी. पाल तथा लाला लाजपत राय द्वारा किया जाने लगा। इस दशा में उदार राष्ट्रवादियों तथा उग्र राष्ट्रवादियों के बीच मतभेद उभरकर सामने आने लगे। उदार राष्ट्रवादी भारत के विकास के लिए ब्रिटिश शासन में विश्वास व्यक्त कर रहे थे, जबकि उग्र राष्ट्रवादियों का मानना था कि उनकी अधीनता और आर्थिक शोषण का कारण ब्रिटिश शासन है। उग्र राष्ट्रवादी केवल कुछ प्रशासनिक सुधारों से ही संतुष्ट नहीं थे बल्कि उनका यह विश्वास था कि ब्रिटिश सरकार पर कुछ विशेष प्रयत्नों के द्वारा दबाव बनाकर ही वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। इसी के फलस्वरूप उन्होंने अनेक सभाएं करके इंग्लैण्ड में बनी वस्तुओं का बहिष्कार करने और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने का एक व्यापक आन्दोलन छेड़ दिया। इसके फलस्वरूप एक बड़ी संख्या में विद्यार्थियों ने इंग्लैण्ड में बने जूतों का बहिष्कार करके नंगे पैर स्कूल जाना आरम्भ कर दिया तो दूसरी ओर रसोइयों, धोबियों और अनेक दूसरे कामगारों ने अंग्रेजों को अपनी सेवाएं देना बन्द कर दीं। इस बहिष्कार आन्दोलन में मुसलमान भी एक बड़ी संख्या में शामिल हो गए। सन् 1905 में जापान के हाथों इटली की पराजय होने से भारतवासी यह समझने लगे कि सफेद चमड़ी के लोग हमेशा ही वीर नहीं होते। इन भावनाओं के बीच ब्रिटिश राज के विरुद्ध भारतीयों का आत्मविश्वास बढ़ने लगा।

इस समय राजनीतिक असंतोष के रूप में कुछ हिंसक आन्दोलन भी आरम्भ हो गए। राष्ट्रवादी युवाओं का एक छोटा वर्ग यह मानने लगा कि बड़े-बड़े अंग्रेज अधिकारियों पर हमला करके वे राजनीतिक स्वतन्त्रता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।

(3) तीसरी अवस्था (Third  Phase :  1905-1918)

भारत में राष्ट्रवादी आन्दोलन के विकास का तीसरा चरण सन् 1905 से 1918 तक का कहा जा सकता है। इस अवस्था में उदार राष्ट्रवादियों का स्थान उम्र राष्ट्रवादियों ने ले लिया । सरकार द्वारा भारी दमन के बाद भी यह आन्दोलन आगे बढ़ने लगा। उग्र राष्ट्रवादियों का विश्वास था कि राजनीतिक अधिकार पाने के लिए ब्रिटिश शासन से किसी तरह की अपील करना कायरता का काम है। इसके लिए एक ऐसे आन्दोलन की जरूरत है, जो सभी देशवासियों में एकता पैदा करके उनके आत्मविश्वास को बढ़ा सके। सन् 1907 में कांग्रेस के उदार और उग्रवादी नेताओं के मतभेद बहुत बढ़ जाने से कांग्रेस का विभाजन हो गया। देसाई ने लिखा है कि आन्दोलन की इस तीसरी अवस्था में इसका सामाजिक आधार इस रूप में अधिक शक्तिशाली बन गया कि आन्दोलन से निम्न-मध्यम वर्ग के लोग भी जुड़ने लगे। इस चरण में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ हो जाने के कारण राष्ट्रवादी द्वारा स्वराज आन्दोलन आरम्भ किया गया जिससे जनसाधारण की राजनीतिक चेतना को बढ़ाया जा सके। उग्र राष्ट्रवादियों के प्रभाव को कम करने के लिए अंग्रेज सरकार ने सैय्यद अहमद खां की सहायता से यहां ‘ऑल इण्डिया मुस्लिम लीग’  की स्थापना करवाई। मुस्लिम लीग के उद्देश्य इस प्रकार निर्धारित किए गये जिससे भारत के मुसलमानों में अंग्रेजी सरकार के प्रति बफादारी बढ़ायी जा सके तथा ब्रिटिश सरकार मुसलमानों के अधिकारों की अधिक-से-अधिक रक्षा कर सके। यह अंग्रेजों द्वारा ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का एक हिस्सा था, यद्यपि इस समय तक अधिकांश मुसलमानों ने मुस्लिम लीग का साथ नहीं दिया।

उग्र राष्ट्रवादियों के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण सरकार ने दमन का रास्ता अपनाना आरम्भ किया जिसके फलस्वरूप उग्र राष्ट्रवादियों की गतिविधियों में भी तेजी आना आरम्भ हो गई। भारतीय राष्ट्रवाद के विकास का यह दौर इस दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है कि इस समय उग्र राष्ट्रवादियों के साथ अनेक क्रान्तिकारियों तथा भारतीय मूल के विदेशियों ने भी राजनीतिक संघर्ष में योगदान करना आरम्भ कर दिया। इस समय सामान्य लोगों को यह विश्वास दिलाया जाने लगा कि ब्रिटिश शासन न तो सर्वशक्तिमान है और न ही जनहित में है। इसके बाद भी राष्ट्रवाद की इस अवस्था में नेतृत्व के तालमेल का अभाव वह सबसे बड़ी कमजोरी थी जिसके फलस्वरूप राष्ट्रवाद का यह चरण अधिक प्रभावपूर्ण सिद्ध नहीं हो सका। इस समय राष्ट्रवाद से सम्बन्धित प्रयत्न मुख्य रूप से युवा वर्ग तक ही सीमित रहे। गोखले और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे नेताओं ने भी उग्र राष्ट्रवाद को अधिक समर्थन नहीं दिया। महात्मा गांधी स्वयं इस तरह के आन्दोलन के पक्ष में नहीं थे। ब्रिटिश शासन ने भी सुरक्षा व्यवस्था इतनी कड़ी कर दी कि उग्र राष्ट्रवादी तथा क्रान्तिकारी आन्दोलनकारी अपनी गतिविधियों का संगठित रूप से संचालन नहीं कर सके।

(4) चौथी अवस्था (Fourth  Phase : 1918-1934)

भारतीय राष्ट्रवाद के विकास का चौथा चरण सन् 1918 से आरम्भ होकर सन् 1934 तक चला। इस अवधि में भारतीय राष्ट्रवाद का विकास उन आन्दोलनों के माध्यम से हुआ जिनका नेतृत्व मुख्य रूप से महात्मा गांधी के हाथों में आ गया। इसी कारण इस चरण को 'गांधी युग' के नाम से भी जाना जाता है। सन् 1920 में तिलक जैसे उग्र राष्ट्रवादी की मृत्यु हो जाने तथा लाला लाजपत राय द्वारा गांधी जी के विचारों से सहमत हो जाने के कारण महात्मा गांधी ने भारतीय राष्ट्रवाद को एक नया आधार देने का निश्चय किया। गांधी जी ने यह समझ लिया था कि ब्रिटिश सरकार को शक्ति से नहीं बल्कि असहयोग के द्वारा ही कमजोर किया जा सकता है। इसके फलस्वरूप सन् 1920 में कलकत्ता में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में गांधी जी ने अहिंसा पर आधारित असहयोग आन्दोलन (Non  Co – operation  Movement )  का प्रस्ताव रखा जिसे स्वीकार कर लिया गया। इस समय ब्रिटिश सरकार द्वारा सन् 1919 में रौलेट एक्ट के द्वारा किसी भी व्यक्ति पर राष्ट्रद्रोह का सन्देह होने पर बिना मुकदमा चलाए उसे नजरबन्द करने की नीति अपनाई गई तो दूसरी ओर 13 अप्रैल, 1919 में जलियांवाला बाग में होने वाले बर्बरतापूर्ण नरसंहार से पूरा देश स्तब्ध रह गया।

इन दशाओं के बीच महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया। इस आन्दोलन के कार्यक्रमों इन बातों को सम्मिलित किया गया कि- (1) सन् 1919 के कानून के कारण विधानसभाओं के चुनावों का बहिष्कार किया जाए, (2) सरकारी स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार किया जाए, (3) सरकार द्वारा मिली उपाधियों को लौटा दिया जाए, (4) विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया जाए, (5) सरकारी समारोहों और आयोजनों का बहिष्कार किया जाए, (6) शिक्षा के लिए राष्ट्रीय विद्यालयों और कॉलेजों की स्थापना की जाए, (7) स्वदेशी वस्तुओं को उपयोग में लाया जाए, तथा (8) इंग्लैण्ड से आने वाले ब्रिटिश अधिकारियों के विरुद्ध प्रदर्शन आयोजित किए जाएं। यह आन्दोलन सन् 1919 से 1922 तक चला। इस बीच गोरखपुर जिले के चौरीचौरा गांव में ग्रामीणों द्वारा पुलिस थाने में आग लगाने की हिंसक घटना के कारण महात्मा गांधी ने फरवरी, 1922 में असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया। इसके साथ ही गांधी जी को भी गिरफ्तार करके उन्हें 6 वर्ष के कारावास की सजा घोषित कर दी गई।

भारत के राष्ट्रवादी आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार द्वारा शक्ति के प्रयोग से पूरी तरह दबाने की कोशिशें आरम्भ हो गईं। भारत में राजनीतिक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए जब साइमन कमीशन ने यहां सन् 1928 तथा 1929 में दौरा किया तो दोनों बार इस कमीशन का व्यापक विरोध किया गया। इसी विरोध प्रदर्शन के समय पुलिस द्वारा लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय इतने अधिक घायल हो गए कि नवम्बर 1928, में उनकी मृत्यु हो गई। अनेक दूसरे प्रमुख नेताओं को भी तरह-तरह से उत्पाडित किया जाने लगा। इन दशाओं के बीच महात्मा गांधी द्वारा सन् 1930 से एक व्यापक सविनय अवज्ञा आन्दोलन (Civil Disobedience Movement) आरम्भ किया गया। इसका उद्देश्य अहिंसक ढंग से ब्रिटिश सरकार के कानूनों को तोड़ना विदेशी सामान का बहिष्कार करना, शराब की दुकानों पर धरना देना तथा सरकार को विभिन्न टैक्सों का भुगतान बन्द करना रखा गया। सहयोग आन्दोलन का आरम्भ 'डांडी यात्रा' (Dandi  March) के रूप में 12 मार्च, 1930 से हुआ। आरम्भ में अंग्रेज सरकार तथा अंग्रेजी अखबारों ने इस यात्रा को एक मामूली और मूर्खताभरी योजना के रूप में देखा लेकिन इसकी व्यापकता से बाद में ब्रिटिश सरकार भी स्तब्ध रह गई। अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से लेकर समुद्र तट पर बसे गांव डांडी तक की 388 किलोमीटर की दूरी में पैदल चलते हुए महात्मा गांधी के साथ लाखों लोग सम्मिलित हो गये तथा 24 मार्च को डांडी में पहुंचने पर लोगों ने समुद्र तट पर नमक बनाकर सरकार के नमक के कानून को तोड़ दिया। इस तरह यह असहयोग आन्दोलन एवं शक्तिशाली आन्दोलन के रूप में बदल गया।

इस राष्ट्रवादी आन्दोलन को भी सरकार द्वारा बहुत निर्दयता के साथ दबाया गया। यह दमन इतना व्यापक था कि एक लाख से भी अधिक लोगों को जेलों में डाल दिया गया, जबकि शराब की दुकानों पर घरना देने वाली लगभग 16,000 स्त्रियों को जेल भेज दिया गया। इसके बाद भी सविनय अवज्ञा आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रवाद को इतना प्रभावपूर्ण बना दिया कि सन् 1930, 1931 तथा 1932 में लन्दन में तीन बार गोलमेज सम्मेलन इसलिए आयोजित किए गए जिससे ब्रिटिश सरकार गांधी जी और उनके सहयोगियों के साथ कोई समझौता कर सके। अनेक दशाओं के फलस्वरूप अप्रैल 1933 में इस आन्दोलन को स्थगित कर दिया गया लेकिन इस आन्दोलन से अनेक ऐसी दशाएं पैदा हो गयीं जो भारतीय राष्ट्रवाद के लिए बहुत महत्वपूर्ण थीं।

(1)इस अवस्था में राष्ट्रवादी आन्दोलन केवल उच्च और मध्यम वर्ग ही सीमित नहीं रहा बल्कि यह भारत में सभी जनसमूहों तक फैल गया।

(2) इस समय अनेक ऐसी नई दशाएं पैदा हुई जिन्होंने भारत की सामान्य जनता में राष्ट्रवादी चेतना उत्पन्न करना आरम्भ कर दी। प्रथम विश्व युद्ध से पैदा होने वाला आर्थिक संकट, सरकार द्वारा अपने वायदों को पूरा न करना, राज्य द्वारा जनसाधारण का बुरी तरह दमन करना तथा किसानों और मजदूरों में पैदा होने वाला असंतोष इसी तरह की दशाएं थीं।

(3) इस समय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर घटित होने वाली कुछ घटनाओं, जैसे यूरोप में लोकतान्त्रिक विचारों के प्रसार तथा रूस में होने वाली समाजवादी क्रान्ति ने भी स्वराज आन्दोलन को बढ़ाने में योगदान दिया। (4) युद्ध के फलस्वरूप उद्योगों का विकास होने से भारत का पूंजीपति वर्ग पहले से अधिक शक्तिशाली बन गया। फलस्वरूप पूंजीपतियों ने भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को समर्थन देना आरम्भ कर दिया। वास्तव में स्वदेशी आन्दोलन तथा कांग्रेस द्वारा चलाया गया बहिष्कार आन्दोलन अप्रत्यक्ष रूप से उद्योगपतियों के आर्थिक हित में था। भारतीय राष्ट्रवाद में पूंजीपतियों का सहभाग बढ़ने से सन् 1918 के बाद इस वर्ग ने आन्दोलन से सम्बन्धित कार्यक्रमों, नीतियों तथा संघर्ष की रूपरेखा को प्रभावित करना आरम्भ कर दिया।

(5) इस अवस्था के दौरान देश में समाजवादी तथा साम्यवादी दलों का भी विस्तार होने लगा। इन दलों ने स्वतन्त्र रूप से श्रमिक संघों के माध्यम से आन्दोलन में सहभाग करना शुरू किया जो वर्ग संघर्ष की विचारधारा पर आधारित था। इसके साथ ही इन दलों ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में भारत को एक समाजवादी राज्य के रूप में स्थापित का भी प्रयत्न किया । इसी का परिणाम था कि सन् 1926 के बाद साइमन कमीशन के बहिष्कार के समय जो प्रदर्शन किए गए, उनमें इन दलों ने अपने-अपने झण्डों और नारों के साथ कार्य किया। यह भारत के राष्ट्रवादी आन्दोलन के इतिहास में विकसित होने वाला एक नया तथ्य था।

(6) इसी चरण के दौरान कांग्रेस ने स्वराज के रूप में अपनी कमजोरी मांग की जगह स्वतन्त्रता की मांग करना आरम्भ कर दी। राष्ट्रवादी आन्दोलन से जुड़े युवा वर्ग ने भी पूर्ण स्वतन्त्रता को अपना राजनीतिक लक्ष्य मानना आरम्भ कर दिया।

(7) इस अवस्था में अनेक प्रतिक्रियावादी साम्प्रदायिक शक्तियां भी इस तरह संगठित होने लगीं कि देश को अनेक साम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ा।

भारतीय राष्ट्रवाद की इस अवस्था से सम्बन्धित उपर्युक्त नई प्रवृत्तियों और लाभों के बाद भी कुछ ऐसी दशाएं पैदा हुई जिन्होंने इस अवधि में भारतीय राष्ट्रवाद को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया। इनमें पहली दशा राजनीति से धर्म को जोड़ने से सम्बन्धित थी जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन से सम्बन्धित चेतना कुछ सीमा तक कमजोर पड़ने लगी। आन्दोलन से जुड़ी गतिविधियों में पूंजीपति वर्ग का प्रभाव बढ़ने से इसके अनेक कार्यक्रम और नीतियां एक ऐसा रूप लेने लगीं जो राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध थीं। इसके अतिरिक्त देश में साम्प्रदायिकता से सम्बन्धित जिन भावनाओं को प्रोत्साहन मिला, उन्होंने ने भी भारतीय राष्ट्रवाद पर बुरा प्रभाव डाला।

(5) पाचवीं अवस्था  (Fifth Phase : 1934-1939)

 सन् 1933 ने महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन के बाद से सन् 1939 तक के समय को ए. आर. देसाई ने भारतीय राष्ट्रवाद के पांचवे चरण के रूप में स्पष्ट किया। यह वह समय था जब द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ हो जाने के कारण भारत के राष्ट्रवादी आन्दोलन में भी कुछ नई प्रवृत्तियां स्पष्ट होने लगी। इस समय कांग्रेस में ही एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया जिसने गांधी जी की विचारधारा और कार्यक्रमों को संदेह से देखना आरम्भ कर दिया। इसके फलस्वरूप एक नई ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ का गठन हुआ। यह पार्टी मुख्य रूप से मजदूरों और किसानों का ऐसा संगठन बन गया जिसने एक पृथक वर्ग के रूप में राष्ट्रवादी आन्दोलन में हिस्सा लेना आरम्भ किया। इसके बाद भी इस दल के विभिन्न समूहों के विचार एक दूसरे से कुछ भिन्न होने के कारण इसका सामाजिक आधार अधिक सशक्त नहीं बन सका। कांग्रेस में ही गांधी जी की विचारधारा से हटकर सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में एक अलग 'फॉरवर्ड ब्लॉक' की भी स्थापना हुई। इस दौरान दलित वर्गों द्वारा भी एकजुट होकर अपनी अलग मागें रखी जाने लगी। इस अवस्था के अन्तिम वर्षों में मुस्लिम लीग भी राजनीतिक रूप से एक पृथक और शक्तिशाली दल के रूप में उभरने लगा।

देसाई के अनुसार, इस दौरान साम्यवादी दल ने छात्रों, मजदूरों और किसानों के बीच अपने प्रभाव को बढ़ाना आरम्भ कर दिया। इस चरण की एक अन्य विशेषता देश के अनेक हिस्सों में किसान आन्दोलन आरम्भ होना था जो वर्ग चेतना की विचारधारा पर आधारित थे। ऐसे किसान आन्दोलनों का नेतृत्व, कार्यक्रम और नारे भिन्न-भिन्न होने के बाद भी उनकी राष्ट्रवादी चेतना कांग्रेस से ही जुड़ी रही। कांग्रेस से सम्बन्धित रहने के बाद भी किसानों द्वारा जमींदारी व्यवस्था समाप्त करने तथा ऋणों को माफ करने की मांग की जाने लगीं। 'अखिल भारतीय किसान सभा' ने आन्दोलन के द्वारा भारत को एक समाजवादी राज्य के रूप में स्थापित करने पर जोर दिया। भारत के विभिन्न प्रान्तों द्वारा यह मांग की जाने लगी कि प्रान्तों पर भारत सरकार के एकाधिकार को समाप्त किया जाए तथा प्रान्तीय सरकारों को अधिक प्रतिनिधित्व और अधिकार सौंपे जाएं। इस तरह की मांगें विभिन्न प्रान्तों के व्यापारिक वर्ग से अधिक प्रभावित थीं। इसके फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी इन मांगों को स्वीकार करना आरम्भ कर दिया। इस समय देश के अनेक हिस्सों में यह मांग भी जोर पकड़ने लगी कि भाषा के आधार पर विभिन्न प्रान्तों का निर्माण किया जाए। तत्कालीन आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा (उड़ीसा), कर्नाटक तथा कुछ अन्य भागों में यह मांग धीरे-धीरे अधिक प्रभावपूर्ण बनने लगी।

यह सच है कि इस समय भी भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन गांधी जी के नेतृत्व में उन्हीं के विचारों और कार्यक्रमों पर आधारित रहा, लेकिन किसी-न-किसी रूप में यह आन्दोलन पूंजीवादी तथा समाज के दूसरे उच्च वर्गों से प्रभावित होने लगा। इसके बाद भी कांग्रेस द्वारा आन्दोलन से सम्बन्धित अपना जो नया कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया, उसमें एक ओर श्रमिकों और किसानों के आर्थिक हितों को प्रमुख स्थान दिया गया तो दूसरी ओर इसमें विभिन्न प्रान्तों की सांस्कृतिक स्वायत्तता तथा भाषायी विभाजन की भी मान्यता दी गई। स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रवाद के इस चरण में मजदूरों, किसानों तथा मध्यम वर्ग के वामपंथी विचारधारा वाले लोगों से विभिन्न राजनीतिक समूहों का निर्माण होने से इन्होंने एक नई राजनीतिक चेतना के आधार पर कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों को प्रभावित करना आरम्भ कर दिया।

प्रोफेसर देसाई ने अपनी पुस्तक 'भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि' से सम्बन्धित विभिन्न चरणों को सन् 1857 से सन् 1939 की अवधि तक ही सीमित रखा। वास्तविकता यह है कि भारतीय राष्ट्रवाद का सबसे प्रभावपूर्ण चरण सन् 1939 के बाद से तब आरम्भ हुआ जब महात्मा गांधी ने सन् 1940 से सत्याग्रह आन्दोलन आरम्भ किया सन् 1942 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 'भारत छोड़ो आन्दोलन' (Quit  India Movement) का प्रस्ताव पास करके उपनिवेशवादी शासन के विरुद्ध एक व्यापक आन्दोलन शुरू कर दिया। इस समय भारतीय राष्ट्रवाद सत्याग्रह आन्दोलन से अधिक प्रभावित नहीं हुआ लेकिन भारत छोड़ो आन्दोलन के अन्तर्गत राष्ट्रवादी चेतना इतनी अधिक बढ़ गई कि इससे सभी वर्गों, जातियों तथा क्षेत्रों के लोग एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने लगे। इस समय भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में राष्ट्रवाद की भावना जिस तीव्रता के साथ विकसित हुई, उससे ब्रिटिश शासक भी यह मानने लगे कि अब अधिक समय तक भारत पर उनका उपनिवेशवादी शासन बने रहना सम्भव नहीं है। संयोग से 1945 में इंग्लैण्ड में होने वाले चुनावों में लेबर पार्टी की सरकार बन गई जिसका भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन के प्रति दृष्टिकोण काफी नरम और उदार था। अपने इसी दृष्टिकोण के आधार पर तत्कालीन ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में जुलाई 1947 में 'भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम, 1947' पास किया। जिसके द्वारा भारत और पाकिस्तान को दी स्वतन्त्र राष्ट्रों के रूप में मान्यता दे दी गई।

ए. आर. देसाई ने भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि को मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट करने के साथ ही भारत के जनवादी आन्दोलन, शिक्षा की भूमिका साम्प्रदायिकता तथा जातिगत विभेदों को कुछ प्रमुख सामाजिक तथ्यों के रूप में स्पष्ट किया। उनके अनुसार भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित आधुनिक शिक्षा यहां राष्ट्रवाद का सबसे प्रमुख माध्यम सिद्ध हुई। यहां राष्ट्रवाद का विकास उन्हीं नेताओं के प्रभाव से सम्भव हो सका जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा स्थापित आधुनिक शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रवाद, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा सामाजिक न्याय को महत्व दिया। इसके साथ ही श्रमिकों, किसानों तथा समाज के शोषित वर्गों की जागरूकता के कारण ही भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में वृद्धि हुई। इसके बाद भी यहां साम्प्रदायिकता पर आधारित विभाजन के प्रयत्न तथा जातियों के बीच पाया जाने वाला विभाजन वह प्रमुख बाधाएं सिद्ध हुईं जिनके फलस्वरूप समय-समय पर भारतीय राष्ट्रवाद के सामने अनेक चुनौतियां उत्पन्न होती रहीं। इसका तात्पर्य यह है कि राष्ट्रवाद के लिए एक समताकारी समाज का होना तथा समाज के दुर्बल वर्गों के हितों को सर्वोच्च महत्व देना आवश्यक है।

ए. आर. देसाई ने सन् 1960 में प्रकाशित अपनी एक अन्य पुस्तक 'भारतीय राष्ट्रवाद में नई प्रवृत्तियां' (Recent Trends in Indian Nationalism) में उन नई सामाजिक शक्तियों के प्रादुर्भाव का भी विश्लेषण किया जिन्होंने स्वतन्त्रता के बाद यहां की अर्थव्यवस्था तथा समाज को उपनिवेशवादी परिप्रेक्ष्य में बदलना आरम्भ किया। स्वतन्त्रता के बाद यहां जिस तरह के राज्य का विकास हुआ वह एक पूंजीवादी राज्य है। व्यावहारिक रूप से वर्तमान राज्य व्यवस्था में पूंजीपति वर्ग को जो सुविधाएं और अधिकार प्राप्त हो रहे हैं, वे समाज के शोषित वर्ग को प्राप्त नहीं हो सके। पुनः सन् 1984 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'भारत के विकास का मार्ग' (India's path of Development) में उन्होंने इस तथ्य का भी उल्लेख किया कि आज किस प्रकार विदेशी साम्राज्यवाद से सम्बन्धित बुर्जुआ अथवा पूंजीपति वर्ग का भारतीय अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण बढ़ता जा रहा है। यह कुछ ऐसी दशाएं हैं, जो भारतीय राष्ट्रवाद की वर्तमान स्थिति को समझने के लिए आवश्यक है।

भारत में विकास का मार्ग

(INDIA'S PATH OF DEVELOPMENT)

प्रोफेसर ए. आर. देसाई ने भारतीय राष्ट्रवाद से सम्बन्धित अपने जो विचार प्रस्तुत किए थे, उनका सम्बन्ध केवल सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्त होने के समय तक ही सीमित था। स्वन्त्रता के बाद यहां के नए संविधान के अन्तर्गत जब एक नई सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था का निर्माण होना आरम्भ हुआ तो यह आशा की जा रही थी कि भारत में एक ऐसा राष्ट्रवाद का विकास होगा जो उपनिवेशवादी ताकतों के प्रभाव से मुक्त होने के साथ ही भारतीय दशाओं के अनुकूल होगा। इस समय संवैधानिक व्यवस्थाओं के कारण यह आशा भी बंधी थी कि सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था को एक समताकारी तथा न्यायपूर्ण रूप मिलने के साथ ही विकास का एक ऐसा रास्ता चुना जाएगा जिससे लम्बे समय से अपेक्षित तथा शोषित वर्गों की स्थिति में सुधार हो सके। सरकार द्वारा सार्वजनिक हितों के संरक्षण का दावा करने के बाद भी जब जाति, धर्म, क्षेत्र तथा संजातीयता जैसी शक्तियों के प्रभाव में कोई उल्लेखनीय कभी नहीं हुई तब ए. आर. देसाई ने सन् 1960 में प्रकाशित अपनी एक अन्य पुस्तक 'भारतीय राष्ट्रवाद की नई प्रवृत्तियां' (Recent Trends in Indian Nationalism) में उन शक्तियों का विश्लेषण किया जिन्होंने स्वतन्त्रता के बाद यहां की अर्थव्यवस्था तथा समाज के एक उपनिवेशवादी रूप में ढालना आरम्भ कर दिया था। सन् 1984 में ए. आर. देसाई की पुस्तक 'भारत के विकास के मार्ग' (India's Path of Development) प्रकाशित होने के समय तक भारत को स्वतन्त्रता मिले लगभग 36 वर्ष का समय बीत चुका था, लेकिन इतनी लम्बी अवधि के बाद भी यहां इस तरह की सामाजिक तथा आर्थिक नीतियों को प्रभावपूर्ण रूप से लागू नहीं किया जा सका जिससे भारत को एक समताकारी तथा शोषण से मुक्त समाज का रूप मिल सके। इन्हीं दशाओं के अन्तर्गत ए. आर. देसाई ने अपनी इस पुस्तक में स्वतन्त्रता के बाद भारत की बदलती हुई सामाजिक-आर्थिक संरचना, सरकार द्वारा लागू विकास की नीतियों के प्रभावों तथा उन दशाओं की विस्तार से विवेचना की जिनके कारण सरकार विकास से सम्बन्धित अपने घोषित लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रही।

इस पुस्तक में ए. आर. देसाई ने अनेक ऐसे मौलिक प्रश्न उठाए जिनका सम्बन्ध स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान किए जाने वाले सार्वजनिक वायदों तथा स्वतन्त्रता के बाद सरकार द्वारा विकास की उन नीतियों पर चलना है, जो उन वायदों के पूर्णतया विपरीत हैं। इस दशा में अपनी पुस्तक के आरम्भ में ही उन्होंने यह प्रश्न किए कि स्वतन्त्रता से लेकर अब तक (1984 तक) सरकार द्वारा ग्रामीण विकास, लघु उद्योगों को प्रोत्साहन, रोजगार के अवसरों में वृद्धि तथा समाज के वंचित वर्गों के संरक्षण के लिए जो दावे किए जाते रहे हैं क्या वास्तव में वे सही हैं? क्या हम वास्तव में विकास के एक नए युग की दहलीज पर खड़े हैं? क्या पंचवर्षीय योजनाएं ही विकास का सही रास्ता हैं? सरकार जिस मार्ग पर चलकर विकास के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहती है, क्या वर्तमान दशा गुणात्मक आधार पर उससे बिल्कुल भिन्न नहीं है? ए. आर. देसाई ने लिखा कि इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि भारत में स्वतन्त्रता के समय से लेकर अब तक किन नीतियों के आधार पर विकास के मार्ग पर आगे बढ़ने का प्रयत्न किया गया। उनके अनुसार ब्रिटिश शासन के दौरान एक उपनिवेशवादी मानसिकता के अन्तर्गत यहां जो एक जर्जर और लड़खड़ाती हुई अर्थव्यवस्था को छोड़ा गया था, उसे एक समृद्ध, स्वतन्त्र, विकसित और आधुनिक व्यवस्था में बदलने का सभी सरकारों द्वारा दावा किया गया। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से एक ऐसी अर्थव्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न किया गया जिसे सरकार ने 'मिश्रित अर्थव्यवस्था' (mixed economy) कहा।

देसाई ने अपने स्पष्ट विचार व्यक्त करते हुए कहा कि सभी देशवासी जानते हैं कि अनेक पंचवर्षीय योजनाओं पर विकास के लिए जितना अधिक धन व्यय किया गया, उससे उत्पन्न होने वाला विकास किसी भी रूप में संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता। सभी योजनाओं का लक्ष्य ऊपरी तौर पर समाजवादी आधार पर देश का विकास करना रखा गया। इसके लिए कभी समाजवादी प्रकृति का समाज, कभी सामाजिक न्याय, कभी गरीबी हटाओ तो कभी रोजगार बढ़ाओ के नारे दिए जाते रहे। भारत में आपातकाल के बाद जब पहलीबार एक गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दल अर्थात् जनता पार्टी द्वारा शासन संभाला गया (सन् 1977) तब भी यह दावा किया गया कि इसके द्वारा नेहरू के विकास मॉडल से हटकर सर्वोदय की विचारधारा पर आधारित विकास के मार्ग को अपनाया जाएगा। इसके बाद भी तत्कालीन सरकार द्वारा ऐसा कुछ नहीं किया जा सका जिससे यहां की ब्रिटिशकालीन सामाजिक-आर्थिक संरचना में कोई उल्लेखनीय सुधार सम्भव हो पाता।

सरकार की विकास नीतियों का प्रभाव

ए. आर. देसाई ने लिखा है कि भारत में स्वतन्त्रता के बाद सरकार की विकास सम्बन्धी विभिन्न नीतियों का प्रभाव क्या हुआ? इसे अनेक सामाजिक अध्येयताओं और शोध कार्यों से प्राप्त निष्कर्षो के आधार पर सरलता से समझा जा सकता है।

विकास सम्बन्धी नीतियों का सबसे मुख्य परिणाम औद्योगिक, व्यापारिक तथा वित्तीय क्षेत्रों से सम्बन्धित पूंजीपति वर्ग की दशा में सुधार के रूप में सामने आया। इसका तात्पर्य है कि बड़े-बड़े उद्योगपति, भू- स्वामी तथा उच्च-मध्यम वर्ग के व्यक्ति पहले से और अधिक धनी बनने लगे। समाज में इस धनी वर्ग की शक्ति बढ़ने से आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक संस्थाओं पर भी इसके प्रभाव में वृद्धि होने लगी। मिश्रित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत जिस सार्वजनिक क्षेत्र (Public sector) को सरकार द्वारा बहुत महत्व दिया गया, उससे सम्बन्धित आर्थिक, वित्तीय, शैक्षणिक तथा प्रशासनिक मध्यस्य भी इस पूंजीपति वर्ग की चापलूसी में ही इस तरह लग गए जिससे उसकी शक्ति में और अधिक वृद्धि हो सके।

जहां तक रोजगार के अवसरों का सम्बन्ध है, इसके माध्यम से समाज के दुर्बल वर्गों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हो सका। देश में मानवीय तथा प्राकृतिक संसाधनों तथा उनकी उत्पादनशीलता में कोई कमी न होने के बाद भी उत्पादन के उन क्षेत्रों पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया जिनसे रोजगार के अवसरों में वृद्धि हो सके। इसके विपरीत आय और धन के असमान वितरण में लगातार वृद्धि हो रही है। सामाजिक तथा शैक्षणिक अवसरों में भी यह असमानता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में जाति-व्यवस्था से उत्पन्न असमानताएं ऊपरी तौर पर कम हुई हैं, लेकिन अपने छद्म रूप में इसने समाज के सामने पहले से भी अधिक गम्भीर सामाजिक और राजनीतिक जटिलताएं उत्पन्न की हैं। यदि विकास की वृद्धि-दर को देखा जाए तो विभिन्न क्षेत्रों और विभिन्न अवधियों में इसमें किसी तरह की एकरूपता देखने को नहीं मिलती। अनेक अवसरों पर यह कभी अवरुद्ध हुई है तो कभी अवनति की ओर भी गई है। इसी का परिणाम है कि शारीरिक श्रम पर आधारित देश के सबसे बड़े वर्ग की गरीबी पहले की तुलना में अधिक हो गयी है। प्रतिवर्ष देश में गरीबी सीमा-रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की बढ़ती हुई संख्या उनकी दयनीय स्थिति को स्पष्ट करती है।

संसाधनों की दोषपूर्ण व्यवस्था विकास से सम्बन्धित वर्तमान नीतियों से उत्पन्न वह दशा है जिसने सार्वजनिक जन-जीवन तथा देश की सम्पूर्ण वित्तीय-व्यवस्था को संकट में डाल दिया है। अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी सामान्य लोग राशन की दुकानों, उचित कीमतों की दुकानों और काले बाजार की विस्मयकारी और बेतुकी व्यवस्था में फंस गए हैं। इस व्यवस्था ने एक ऐसे घुटन भरे रास्ते का निर्माण किया है जिस पर आगे बढ़ने से व्यक्ति अपने आपको असुरक्षा, अनिश्चितता, भ्रष्टाचार तथा अपराध के भंवर में फंसा हुआ पाने लगता है। अपने जीवन के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भी सामान्य लोग तरह-तरह के संघर्ष करने के लिए मजबूर हैं। सरकार द्वारा साधारणतया अधिक-से-अधिक आर्थिक संसाधन प्राप्त करने के लिए जिन सार्वजनिक ऋणों, घाटे की वित्त व्यवस्था तथा अप्रत्यक्ष करों का सहारा लिया जा रहा है, उससे समाज के धनी वर्ग को ही लाभ होता है तथा निर्धन व्यक्ति सामान्य आवश्यकताओं को पूरा करने के भी समुचित साधन प्राप्त नहीं कर पाते। विभिन्न क्षेत्रों के बीच बढती हुई आर्थिक असमानताएं भी इसी दशा का परिणाम हैं। स्वतन्त्रता के बाद भारत के संविधान तथा राज्य के नीति-निदेशक तत्वों में भारत को एक कल्याण-राज्य घोषित किया गया। इसके बाद भी सरकार द्वारा विभिन्न विरोध आन्दोलनों एवं सार्वजनिक असन्तोष को दबाने के लिए उत्पीड़न और दबाव का सहारा लेने की घटनाओं में वृद्धि हुई है। यह सभी दशाएं उन दोषपूर्ण नीतियों को स्पष्ट करती हैं जिन्हें स्वतन्त्रता से लेकर आज तक विभिन्न सरकारों द्वारा विकास के नाम पर प्रश्रय दिया जाता रहा।

विकास की असफलता के कारण

ए. आर. देसाई ने पुन: यह प्रश्न उठाया कि भारत में स्वतन्त्रता के बाद विकास के मार्ग का जो रास्ता चुना गया उसमें निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त क्यों नहीं किया जा सका? यह एक ऐसा जटिल लेकिन आधारभूत प्रश्न है जो देश के संसाधनों, व्यवस्था सम्बन्धी दशाओं तथा नीतियों की अव्यावहारिकता आदि को समझने में हमारी सहायता कर सकता है।

उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर हमारे सामने अनेक नए प्रश्न पैदा कर देता है। इन्हें स्पष्ट करते देसाई ने लिखा कि क्या विकास की असफलता का कारण देश में संसाधनों की कमी है? क्या कुछ परम्परागत शक्तियां विकास को रोक रही हैं? क्या हमारे देश में विकास के विभिन्न अभिकरण सुस्ती की मनोवृत्ति तथा उद्यमिता के अभाव से ग्रसित हैं? क्या इस दशा को आर्थिक सहायता के दुरुपयोग अथवा सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार के आधार पर समझा जा सकता है? क्या इसका कारण जनसंख्या विस्फोट की दशा है? क्या हमारी असफलता का कारण भ्रष्टाचार तथा भाई-भतीजावाद के द्वारा शक्ति को प्राप्त करने का लालच है? क्या इसे प्रशासकीय तन्त्र में विकास की भावना के प्रति उदासीनता अथवा अधिकारी तन्त्र की निष्क्रियता के आधार पर समझा जा सकता है? क्या इसका कारण सरकार द्वारा परमिट और लाइसेंस की वह घुटनभरी नीति है, जो सामान्य व्यक्ति को विकास की प्रक्रिया में सहभाग करने से रोकती है? क्या इसका कारण पश्चिम का यह अंधानुकरण है, जो निरंकुश उपभोक्तावाद को बढ़ाने के साथ ही एक आडम्बरपूर्ण जीवन और अनैतिक गतिविधियों में वृद्धि कर रहा है? क्या इस असफलता की विवेचना युवा-वर्ग में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता, गैर-कानूनी गतिविधियों तथा सार्वजनिक जीवन में फैली व्यापक निराशा एवं अलगाववाद के आधार पर की जा सकती है? क्या इसका एक प्रमुख कारण समाज के पूंजीपति अथवा धनाढ्य वर्ग का बढता हुआ लालच नहीं है?

ए. आर. देसाई का यह मानना है कि वर्तमान दशाओं में आज अधिकांश राजनीतिक नेता, प्रशासक, नीति-निर्माता तथा समाज विज्ञानी उपर्युक्त दशाओं में से ही एक या कुछ दशाओं के आधार पर विकास की कमी या इससे सम्बन्धित व्याधिकीय कारण को स्पष्ट कर देते हैं। वास्तविकता यह है कि यदि हम भारत के विकास के लिए सरकार द्वारा अपनाए गए मार्ग को समझ लें तो वर्तमान परिस्थिति के वास्तविक कारणों को सरलता से समझा जा सकता है। इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि विकास के लिए सरकार के द्वारा जो विशेष मार्ग चुना जाता है, उसके कुछ विशेष अर्थ और उद्देश्य होते हैं।

विकास के लिए चुना गया मार्ग ही यह तय करता है कि विभिन्न संसाधनों को जुटाने के स्रोत कौन से होंगे, इन संसाधनों का आकार क्या होगा तथा प्राथमिकता के क्रम में इन संसाधनों का उपयोग समाज के किन वर्गों और क्षेत्रों के लिए किया जाएगा। विकास का मार्ग ही तय करता है कि सरकार समाज के किन वर्गों पर अपना ध्यान केन्द्रित करके उनकी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक शाक्ति को बढाने का प्रयत्न करेगी। सरकार जिन वर्गों को विकास का माध्यम मानती है, उन्हें विभिन्न प्रकार की प्रेरणाएं और प्रोत्साहन देने का काम भी सरकार की विकास सम्बन्धी नीति द्वारा ही निर्धारित होता है। विकास के लिए यह तय करना आवश्यक होता है कि किन समूहों तथा संस्थाओं के निर्माण, विकास एवं सशक्तिकरण के लिए विशेष प्रेरणाओं की आवश्यकता है तथा वे कौन से मूल्य एवं व्यवहार के प्रतिमान हो सकते हैं जिन्हें प्रोत्साहन देकर एक विशेष प्रकार के विकास का वातावरण बनाया जा सकता है। विकास की नीतियां ही यह तय करती है कि समाज के विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की तुलना में किस प्रकार जीवन अवसरों, रोजगार, शिक्षा, मनोरंजन तथा सांस्कृतिक विकास के क्षेत्र में प्राथमिकता दी जाएगी। राष्ट्रीय नियोजन के साथ ही क्षेत्रीय नियोजन एवं विकास से सम्बन्धित कार्यों का निर्धारण भी विकास के लिए निर्धारित मार्ग के अनुसार ही होता है। कुल मिलाकर विकास का मार्ग अथवा सरकार द्वारा निर्धारित विकास की नीतियों से ही इस बात का निर्धारण होता है कि विकास की प्रकृति तथा विस्तार की सीमाएं क्या होगी एवं आर्थिक मन्दी अथवा संकट के समय भी विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत समाज के किन वर्गों का अधिकतम संरक्षण किया जाएगा।

उपर्युक्त सन्दर्भ में ए. आर. देसाई ने इस तथ्य पर भी बल दिया कि भारत में अधिकांश समाज वैज्ञानिकों ने विकास के उस मार्ग को स्पष्ट करने में रुचि नहीं दिखायी जिससे शासक वर्ग को विकास के सही मार्ग का बोध हो सके। अनेक अध्ययनकर्ताओं ने विकास को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया, लेकिन ऐसे शोध कार्यों का अभाव रहा जिनकी सहायता से इस महत्वपूर्ण मुद्दे से सम्बन्धित वास्तविकता को सामने लाया जा सके। भारत में आज जिस तरह की सामाजिक तथा आर्थिक संरचना विकसित हो रही है उसे भी एक सही परिप्रेक्ष्य में समझने के अधिक प्रयास नहीं किये गये। साधारणतया नीति-निर्माताओं द्वारा जिन उद्देश्यों को लेकर विभिन्न योजनाओं और विकास कार्यक्रमों को लागू किया जा रहा है, वर्तमान अध्ययन उन्हीं से सम्बन्धित मान्यताओं तक ही सीमित रहे। देसाई ने लिखा है कि विकास के मार्ग से सम्बन्धित विभिन्न शोध-कार्य तभी अर्थपूर्ण हो सकते हैं जब विकास के वर्तमान कार्यक्रमों से सम्बन्धित प्रवृत्तियों के बारे में एक सही अन्तर्दृष्टि को अपनाकर उन उपायों पर विचार किया जाता जिनके आधार पर विकास से सम्बन्धित संरचनात्मक तन्त्र में उपयोगी परिवर्तन लाए जा सकते हैं।

वास्तविकता यह है कि भारत पर शासन करने वाले राजनीतिज्ञों द्वारा जिस मार्ग का अनुसरण किया जा रहा है वह मिश्रित अर्थव्यवस्था के सिद्धान्तों पर आधारित एक ऐसी सांकेतिक नियोजन से सम्बन्धित है जिसकी उपयोगिता बहुत सन्देहपूर्ण है। यदि हम पूंजीवादी व्यवस्था पर आधारित विकास के मार्ग के परिणामों पर ध्यान दें तो हमें भावी विकास के लिए एक सही दिशा अवश्य मिल सकती है। हम चाहे नेहरूवादी  विचारधारा को देखें अथवा गांधीवाद का अनुसरण करने वाले नियोजकों की मनोवृत्तियों पर विचार करें, भारत के ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में विकास से सम्बन्धित प्रवृत्तियां आधारभूत रूप से विकास के पूंजीवादी मॉडल पर ही आधारित हैं। इसे अनेक संवैधानिक, नियोजन सम्बन्धों एवं आर्थिक तन्त्र के संचालन पर आधारित प्रमाणों की सहायता से समझा जा सकता है।

विकास के पूंजीवादी मार्ग के प्रमाण

ए. आर. देसाई ने इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए कि भारत में विकास का वर्तमान मार्ग एक पूंजीवादी समाज के निर्माण से सम्बन्धित है, इसके अनेक प्रमाण निम्नांकित रूप से प्रस्तुत किए:

(1) संवैधानिक प्रमाण (Constitutional Evidences)

भारत के संविधान में अनेक संशोधनों के बाद भी उन्हीं प्रतिमानों को स्वीकार किया गया है, जो एक बुर्जुआ समाज को प्रोत्साहन देने से सम्बन्धित है। संविधान के अन्तर्गत एक मौलिक अधिकार के रूप में व्यक्ति को कितनी भी सम्पत्ति अर्जित करने तथा उसे अपने पास रखने की अनुमति दी गयी है। इसके लिए लाभ, किराए तथा ब्याज के द्वारा सम्पत्ति उपार्जित करने को भी वैध रूप दिया गया। संविधान के द्वारा 'कार्य के अधिकार' को मौलिक अधिकार के रूप में नहीं देखा गया। वास्तव में इसके द्वारा श्रम-शक्ति को केवल एक ऐसी वस्तु के रूप में देखा गया जिससे मिलने वाली मजदूरी या पुरस्कार की दशाएं बाजार की दशाएं से ही निर्धारित होती है। फलस्वरूप पूंजीपति वर्ग द्वारा श्रम का उपयोग अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए किया जाने लगा। संवैधानिक व्यवस्थाएं किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए व्यक्ति से उसकी सम्पत्ति जैसे भूमि आदि लेने की दशा में उसे केवल क्षतिपूर्ति की राशि देने का अनुमोदन करती हैं, लेकिन जिन लोगों की श्रम-शक्ति का उपयोग नहीं किया जाता, उन्हें किसी तरह की क्षतिपूर्ति देने का प्रावधान नहीं है। इसके साथ ही संविधान में ऐसी व्यवस्था का भी अभाव है जिससे बेरोजगार लोगों के लिए रोजगार और कार्य की ऐसी गारण्टी दी जा सके। जिससे वे न्यनूतम स्तर के जीवन-निर्वाह की आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। संविधान के विभिन्न प्रावधानों के द्वारा आर्थिक, सामाजिक तथा वैधानिक क्षेत्र में उसी नौकरशाही प्रशासनिक संरचना को मान्यता दी गयी है, जो ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत प्रचलित थी। स्पष्ट है कि भारतीय समाज के पुनर्निर्माण और विकास के लिए एक पूंजीवादी समाज से सम्बन्धित प्रतिमानों तथा वैधानिक व्यवस्था को हमारे संविधान द्वारा स्वीकार किया गया है।

(2) नियोजन के सिध्दान्तों से सम्बन्धित प्रमाण (Evidence Regarding Principles of Planning)

भारत में नियोजन की सम्पूर्ण प्रक्रिया मिश्रित अर्थव्यवस्था के उस 'सांकेतिक नियोजन' (Indicative Planning) पर आधारित है, जो समाजवादी समाज में उत्पादन के साधनों के स्वामित को ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय नियोजन से पूर्णतया भिन्न है। इसके द्वारा उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व पर आधारित वर्ग-संरचना को स्वीकार किया गया है। आर्थिक नियोजन के द्वारा व्यक्तिगत स्वामिय से प्राप्त की गयी आय को वैध मानने के साथ ही इसी के माध्यम से विकास की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने के प्रयत्न किए जा रहे हैं। इसका तात्पर्य है कि नियोजन के लिए उत्तरदायी सरकार द्वारा परम्परागत संस्थात्मक ढांचे को बदलकर एक ऐसे सांस्कृतिक, सामाजिक तथा सहयोगपूर्ण तन्त्र को विकसित करने के प्रयत्न नहीं किए गए जिनके द्वारा समाज के निर्धन तथा वंचित लोगों को आर्थिक विकास में सहभाग करने की प्रेरणा दी जा सके। उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व से देश में जो असमानताएं बढ़ रही है, उन्हें दूर करने के लिए सामाजिक-आर्थिक नियोजन को एक रचनात्मक दिशा नहीं मिल सकी। इसका तात्पर्य है कि नियोजन के द्वारा न तो अधिकतम और न्यूनतम आय प्राप्त करने वाले वर्गों के बीच की खाई को कम करने का प्रयत्न किया गया और न ही वर्ग-असमानताओं को दूर करने के लिए बुर्जुआ वर्ग की गतिविधियों पर किसी तरह का नियन्त्रण लगाया गया।

(3) अर्थव्यवस्था के संचालन सम्बन्धी प्रमाण (Evidence Regarding Operation of Economy)

पूंजीवादी समाजों में बाजार के लिए उत्पादन तथा लाभ को मान्यता देना दो मुख्य उद्देश्य होते हैं। भारत के विकास के लिए इन दोनों उद्देश्यों को मान्यता दी गयी है। यह दावा किया जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था निजी क्षेत्र तथा सार्वजनिक क्षेत्र के दो पहियों पर आधारित है। यदि सावधानीपूर्वक इस दावे का विश्लेषण किया जाए तो हमारी अर्थव्यवस्था की एक भिन्न तस्वीर सामने आती है। उदाहरण के लिए, कृषि, जो आर्थिक क्रियाओं का सबसे बड़ा क्षेत्र है, पूरी तरह निजी क्षेत्र के अन्तर्गत आती है। इसी तरह थोक तथा फुटकर व्यापार का संचालन भी निजी क्षेत्र के द्वारा होता है। उपयोग की विभिन्न वस्तुओं से सम्बंधित छोटी और बड़ी औद्योगिक इकाइयां भी निजी क्षेत्र से ही सम्बन्धित हैं। यदि हम रेलवे और जहाजरानी को छोड़ दें तो हमारी परिवहन व्यवस्था का संचालन भी मूल रूप से निजी हाथों में है। हमारी अर्थव्यवस्था का बहुत छोटा सा हिस्सा ऐसा है जिसका संचालन सार्वजनिक क्षेत्र के द्वारा किया जाता है। यह हिस्सा भी वह है जिस पर या तो बहुत बडी राशि के विनियोजन की आवश्यकता होती है अथवा जिससे प्राप्त होने वाला लाभ की सम्भावना बहुत कम रहती है। अनेक प्रसिद्ध विद्वानों ने भी अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष दिया है कि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र केवल निजी क्षेत्र का पोषण करने वाला ही एक तन्त्र है। गालब्रेय (Galbraith) ने इस सन्दर्भ में सार्वजनिक क्षेत्र को एक ऐसे पोस्ट ऑफिस की संज्ञा दी है जो निजी क्षेत्र के मध्यस्थ के रूप में कार्य करता है।

भारत के योजना आयोग तथा सरकार द्वारा भी औद्योगिक नीति से सम्बन्धित प्रस्तावों में विभिन्न उद्योगी तथा उद्यमों से सम्बन्धित वर्गों को ही विकास के मुख्य अभिकर्ताओं के रूप में मान्यता दी जाती रही है। यदि हम सरकारी नीतियों का बारीकी से परीक्षण करें तो स्पष्ट होता है कि सरकार द्वारा बड़े उद्यमों के मालिकों को प्रोत्साहन देने के लिए बहुत से आर्थिक, सामाजिक तथा वैधानिक उपाए किए गए हैं। प्रोत्साहन के रूप में इस वर्ग को आय में छूट, आर्थिक अनुदान, निर्यात तथा आयात से सम्बन्धित सुविधाएं, विदेशी ऋणों की प्राप्त करने के अवसर, वित्तीय संस्थाओं के निर्माण की सुविधाएं, आर्थिक संसाधनों की उपलब्धता तथा मनमानी कीमतों के निर्धारण की छूट जैसी दशाएं भी अर्थव्यवस्था के संचालन की पूंजीवादी तकनीकों का प्रमाण है। सामान्य रूप से इन तरीकों को उत्पादन में वृद्धि करने के एक माध्यम के रूप में देखा जाता है, लेकिन आन्तरिक रूप से इनका उद्देश्य एक पूंजीवादी व्यवस्था को प्रोत्साहन देने से ही है।

उपर्युक्त विवेचन की आधार पर ए. आर. देसाई ने पुनः इस तथ्य पर बल दिया कि भारत में स्वतन्त्रता के समय से ही यहां सरकार का लक्ष्य एक ऐसे समाज को विकसित करना रहा है, जो पूंजीवादी नींव पर आधारित है। बाहरी तौर पर विकास के लिए ऐसे नारे दिए जाते रहे जिससे सरकार का समाजवादी दिशा में आगे बढ़ना स्पष्ट हो सके, लेकिन आन्तरिक रूप से समाजवादी सिद्धान्तों पर आधारित सामाजिक, आर्थिक तथा वैधानिक रूप से सुसम्बद्ध और समताकारी विकास के लिए कोई प्रयत्न नहीं किए गए। यदि इस रूप में समाज विज्ञानियों द्वारा भारत में विकास के मार्ग का मूल्यांकन किया जाए, केवल तभी विभिन्न संस्थाओं, मूल्यों व्यवहार के प्रतिमानों तथा सामाजिक-आर्थिक नैतिकताओं के बारे में एक ऐसा दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है जिससे हम विकास के उस रास्ते पर आगे बढ़ सकते हैं, जो उपनिवेशवादी संरचना से हटाकर हमें समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ा सकता है। स्पष्ट है कि ए. आर. देसाई ने पूंजीवादी मार्ग की अपेक्षा समाजवादी मार्ग को विकास के वास्तविक मार्ग के रुप में स्वीकार किया।

सन्दर्भ