डांग, चौखुटिया तहसील

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डांग, चौखुटिया तहसील
—  गाँव  —
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०)
देश साँचा:flag
राज्य उत्तराखण्ड
ज़िला अल्मोड़ा
आधिकारिक भाषा(एँ) हिन्दी,संस्कृत
आधिकारिक जालस्थल: www.uttara.gov.in

साँचा:coord

डांग, चौखुटिया तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले का एक गाँव है। यह गाँव रामगंगा नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। यह कनौंणियॉं बिष्ट नामक उपनाम से विख्यात कुमांऊॅंनी हिन्दू राजपूतों का पुश्तैनी गाँव है। यह अपनी ऐतिहासिक व सॉस्कृतिक विरासत, ठेठ कुमांऊॅंनी सभ्यता व संस्कृति, पर्वतीय जीवन शैली तथा समतल उपजाऊ भूमि के लिए पहचाना जाता है।

इतिहास

प्राचीन इतिहास के अनुसार, जैसा कि अाज भी उत्तराखंड के इतिहासकार तथा गेवाड़ घाटी के अधिकॉश अनुभववेत्ता इस इतिहास से भली भॉति सहमत हैं। तल्ला गेवाड़ के सूर्यवंशी ठाकुर मेलदेव कनौणियॉं ने स्वेच्छा से अपने राज्य को कई हिस्सों में विभाजित किया था। जिनमें से कुछों के साक्ष्य स्पष्ट हैं। जैसा कि अपने चार पुत्रों और एक पुत्री में। यानि पॉच भागों में विभाजन। पहला विभाजन शीर्ष पुत्र को यह है रामगंगा के पश्चिमी ओर का दक्षिणी भू भाग (कनौंणी), दूसरा विभाजन दूसरे पुत्र को यह है रामगंगा के पश्चिमी ओर का उत्तरी क्षेत्र (डॉंग), तीसरा विभाजन तीसरे पुत्र को यह है रामगंगा के पूर्व में राज्य का दक्षिणी भू भाग (काला चौना), चौथा विभाजन चौथे पुत्र को रामगंगा के पश्चिम की ओर आदीग्राम बंगारी और आदीग्राम फुलोरिया के बीच का पठार (आदीग्राम कनौणियॉं) तथा पॉचवां विभाजन अपनी पुत्री को। यह है रामगंगा के पूर्वी छोर से लगा आदीग्राम कनौणियॉं के सामने से लेकर काला चौना की सीमा रेखा तक का भू भाग, जो आज मॉंसी के नाम से प्रसिद्ध है।

इस प्रकार यह डॉंग नामक गॉव सूर्यवंशी ठाकुर मेलदेव कनौणियॉ के दूसरे पुत्र को आबंटित भू भाग है। जो आज तल्ला गेवाड़ में रामगंगा नदी के पश्चिमी किनारे पर आदीग्राम कनौंणियॉ और छानी के बीच बसा डॉंग नाम से विख्यात है। यहॉ के निवासी कनौणियॉं बिष्ट कहलाने वाले हिन्दू सूर्यवंशी ठाकुर मेलदेव कनौणियॉं (जिन्हें कत्यूरी राजवंश के लड़देव की वंशावली का माना जाता है) के द्वितीय पुत्र के वंशज कहलाते हैं। यहॉ की कुल आबादी के मूल निवासी कनौंणियॉं बिष्ट नामक उपनाम से हिन्दू राजपूतों में से एक कहलाते हैं।


भौगोलिक संरचना

सभ्यता एवम् संस्कृति

डॉंग नामक गॉंव की सभ्यता एवं संस्कृति पूर्ण रूप से कुमांऊॅंनी और हिन्दू है। घरों की बनावट व सजावट में ही सर्वप्रथम पर्वतीय लोक कला व संस्कृति दृष्टिगोचर होती है। दशहरा, दीपावली, नामकरण, जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएँ घर में ऐंपण (अर्पण) बनाती हैं। इसके लिए घर, ऑंगन तथा सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावलों को भिगोकर पीसा जाता है तथा उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। विभिन्न अवसरों पर नामकरण-चौकी, सूर्य-चौकी, स्नान-चौकी, जन्मदिन-चौकी, यज्ञोपवीत-चौकी, विवाह-चौकी, धूमिलअर्ध्य-चौकी, वर-चौकी, आचार्य-चौकी, अष्टदल-कमल, स्वास्तिक-पीठ, विष्णु-पीठ, शिव-पीठ, सरस्वती-पीठ तथा विभिन्न प्रकार की परम्परागत कलाकृतियॉं बनाई जाती हैं। इन्हेें तकरीबन महिलाऐं व बालिकाऐं ही बनाती हैं।

यहॉं पर बोलचाल की भाषा अर्थात बोली को पाली पछांऊॅं की कुमांऊॅंनी कहा जाता है। सरकारी कामकाज में बोलने व लिखने की भाषा हिन्दी है। अध्ययन व अध्यापन हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में पाया जाता है।

वेश-भूषा तथा पहनावा

यहॉं पारम्परिक रूप से महिलायें घाघरा, आँगड़ी, पिछोड़ी, कुर्ती पहनतीं थीं। अब पेटीकोट, ब्लाउज व साड़ी पहननेे लगीं हैं। पुरूष मर्दानी धोती, कुर्ता, चूड़ीदार पजामा,अंगरखोई, फतोई, भोटुवा, साफा, टोपी पहनते थे। जाड़ों (सर्दियों) में ऊनी कपड़ों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ कार्यो के अवसर पर कई क्षेत्रों में अभी भी सनील का घाघरा और पिछोड़ी पहनने की परम्परा है। सिर में शीषफूल। गले में गुलोबन्द, चर्‌यो, माला, सुत, जजीर, हॅसुली। नाक में नथ, बुलॉग, फूली। कानों में कर्णफूल, कुण्डल। हाथों में सोने या चाँदी के पौंजी, धागुले। पैरों में बिछुए पजेब, पौंटा इत्यादि प्रकार के आभूषण पहनने की परम्परा प्राचीनकाल से रही है। विवाहित औरत की पहचान गले में चरेऊ पहनने से होती है। विवाह इत्यादि शुभ अवसरों पर पिछौड़ा पहनने का भी यहाँ प्रचलन है।

मेले एवम् त्यौहार

सोमनाथ मेला, सोमनाथ, सल्डिया सोमनाथ यानि वर्तमान ऐतिहासिक सोमनाथ कहा जाने वाला मेला कनौणियॉं बिष्ट व मॉंसीवाल नामक उपनाम के लोगों से सम्बन्धित है।[१][२] इस तल्ला गेवाड़ में माॅंसी के समीप परन्तु अब मॉंसी में प्रतिवर्ष होने वाले ऐतिहासिक सोमनाथ मेले की आराध्य भूमि को सोमनाथेश्वर कहते हैं। जो आज भी तत्समय के इतिहास के सुनहरे पन्नों और पाली पछांऊॅं इलाके की कुमांऊॅंनी सॉस्कृतिक विरासत को समेटे है। यहीं से मेले के इतिहास का पदार्पण हुआ था और इसी सोमनाथेश्वर महादेव नामक शिवालय से मेला शुरू होता था। वक्त बदला, लोग बदले और मेले का स्वरूप भी अछूता न रह सका और बीसवीं सदी के अन्त तक मेला मॉंसी के बाजार में होने लग गया और इतिहास भी काफी कुछ बदल गया।

सन्दर्भ

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इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

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