भांगराज
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भांगराज Greater Racket-tailed Drongo | |
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भांगराज | |
Scientific classification | |
Binomial name | |
Dicrurus paradiseus लीनियस, 1766
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Synonyms | |
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भांगराज (Greater racket-tailed drongo), , जिसका वैज्ञानिक नाम डिक्रूरस पैराडिसेयस (Dicrurus paradiseus) है, भुजंगा (डिक्रूरिडाए) कुल के पक्षियों की एक जीववैज्ञानिक जाति है। यह भारत से लेकर दक्षिणपूर्वी एशिया में इण्डोनेशिया तक पाई जाती है। भारत में यह हिमालय से लेकर पश्चिमी घाट व प्रायद्वीपीय भारत की पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती है।[१][२][३]
विवरण
यह पक्षी पूंछ के लम्बे परों (जिनके किनारों पर जाली होती है) के कारण विशिष्ट रूप से जाना जाता है। यह जंगल के अपने प्राकृतिक आवास में अक्सर खुले में बैठे होते हैं तथा ध्यान आकर्षित करने के लिए उच्च स्वर में कई ध्वनियां निकालते हैं, जिसमें कई पक्षियों की नकल करना सम्मिलित होता है। यह कहा जाता है कि इस प्रकार से नकल करने से कई प्रजाति के पक्षी समूह एक साथ चारा खोजने के लिए मिल जाते हैं। यह विशिष्टता वन के कई पक्षी समाजों में मिलती है जहां कीड़े खाने वाले कई प्रजातियों के पक्षी साथ में चारा ढूंढते हैं। यह भुजंगे पक्षी कभी-कभी झुण्ड में किसी अन्य पक्षी द्वारा पकडे गए अथवा निकाले गए कीट को चुरा लेते हैं। वे दिन के पक्षी हैं परन्तु सूर्योदय के पूर्व से लेकर देर शाम तक सक्रिय रहते हैं। अपने विस्तृत वितरण तथा क्षेत्रीय भिन्नताओं के कारण वे क्षेत्र के प्रभाव एवं अनुवांशिक अलगाव के कारण नयी प्रजातियों की उत्पत्ति के प्रमुख उदाहरण बन गए हैं।[४]
एशिया में अपनी सम्पूर्ण विविधता में यह सबसे बड़ी ड्रोंगो प्रजाति है तथा अपनी जालीदार पूंछ तथा चेहरे पर चोंच के ऊपर घुमावदार पंखों के कारण बड़ी आसानी से पहचानी जाती है। घूमी हुई जालियों के साथ इनकी पूंछ विशिष्ट है तथा पक्षी के उड़ने के दौरान यह ऐसी प्रतीत होती है कि जैसे किसी काले पक्षी का पीछा दो बड़ी मधुमक्खियां कर रही हों. पूर्वी हिमालय में, इस प्रजाति का भ्रम लेसर रैकेट-पूंछ ड्रोंगो से हो सकता है, जिसकी जालियां घुमावदार न होकर सीढ़ी होती हैं तथा चोंच के ऊपर के घुमावदार पंख नहीं पाए जाते हैं।[५]
इन व्यापक फैलाव वाली प्रजातियों की आबादी में कई अलग रूप और कई उप-प्रजातियां हैं, जिनका नामकरण किया जा चुका है। इसी नाम की प्रजाति दक्षिण भारत में मुख्यतः वन क्षेत्रों तथा पश्चिमी घाट पर्वत श्रृंखला के साथ प्रायद्वीपीय भारत में पायी जाती है। श्रीलंका में पायी जाने वाली उप-प्रजाति का नाम सीलोनिकस (ceylonicus) होता है तथा वह इसी नाम की प्रजाति से मिलती जुलती होती है हालांकि इसका आकार थोड़ा छोटा होता है। हिमालय के पास पायी जाने वाली उप-प्रजाति ग्रैन्डिस है और यह सबसे बड़ी होती है और इसकी गर्दन में लंबी चमकदार कलगियां होती हैं। अंडमान द्वीप समूह में पायी जाने वाली प्रजाति ऑटिओसस (otiosus) के गर्दन की कलगियां छोटी होती हैं तथा क्रेस्ट बहुत छोटी होती हैं, जबकि निकोबार द्वीप समूह में पायी जाने वाली प्रजाति नीकोबारिएन्सिस (nicobariensis) के सामने की क्रेस्ट छोटी तथा औटीओसस की तुलना में छोटी गर्दन की कलगियां होती हैं।[५] श्रीलंकाई लोफॉर्निस (lophorinus) को इस सुझाव के कारण उप-श्रेणी माना जाता है क्योंकि इनके द्वारा केयलोनिकस के साथ संकर नस्ल को नए वर्गीकरण के अनुसार उनकी मिलती-जुलती श्रेणियों के कारण अलग प्रजाति माना गया है।[५][६] इसी नाम की प्रजाति को कभी-कभी भूलवश लोफॉर्निस समझ लिया जाता है।[७] दक्षिणपूर्व एशिया के द्वीपों में चोंच के आकार, क्रेस्ट के फैलाव, कल्गियों तथा पूंछ के रैकेट के आकारों में व्यापक विभिन्नताएं पायी जाती हैं। बोरनियन ब्रैकिफोरस (=इन्सुलारिस), बंग्गाई के बैंग्वे में क्रेस्ट नहीं होते (बैंग्वे में सामने के पंख होते हैं जो आगे की और मुड़े होते हैं) जबकि मिक्रोलोफस में बहुत छोटे क्रेस्ट पाए जाते हैं (=एंडोमाइकस ; नाटुनस, अनाम्बस तथा टियोमंस) तथा पलात्युरस (सुमात्रा). दक्षिणपूर्व एशियाई द्वीपों तथा मुख्यभूमियों में कई रूप ज्ञात हैं जिनमें फॉर्मोसस (जावा), हाइपोबैलस (थाईलैंड), रंगूनेंसिस (उत्तरी बर्मा, प्रारंभ में मध्य भारतीय संख्या भी इसमें सम्मिलित थीं) तथा जोह्नी (हैनान).[८]
युवा पक्षी सुस्त होते हैं, तथा उनमें क्रेस्ट अनुपस्थित हो सकते हैं, जबकि निर्मोक पक्षियों की पूंछ में लम्बे धारा-प्रवाही का आभाव हो सकता है। रैकेट का निर्माण फलक के भीतर के संजाल द्वारा होता है लेकिन यह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे बाहरी संजाल पर हो क्योंकि मेरुदंड स्पैटुला के ऊपर से मुड़ा हुआ होता है।[९]
वितरण और आवास
इस प्रजाति का वितरण पश्चिमी हिमालय से पूर्वी हिमालय तथा मिश्मी पर्वत श्रृंखला, जो कि 4000 फीट नीचे तलहटी में है, तक फैला हुआ है। पश्चिम की ओर से जाने पर ये पूर्व में बोर्नियो द्वीप तथा जावा से लेकर सभी द्वीपों तथा मुख्यभूमियों में पाए जाते हैं। मुख्य रूप से वे जंगल में पाए जाते हैं।[१०][११]
व्यवहार और पारिस्थितिकी
अन्य ड्रोंगो की तरह, ये मुख्य रूप से कीड़ों को खाते हैं परन्तु फल भी खाते हैं तथा फूल वाले पेड़ों पर ये नेक्टर की तलाश में भी जाते हैं। चूंकि इनके पैर छोटे होते हैं अतः ये सीधे बैठते हैं तथा अक्सर ये खुले में ऊंची टहनी पर बैठे दिखते हैं। ये आक्रामक होते हैं और कभी-कभी झुण्ड बना कर बड़े पक्षी पर भी आक्रमण कर देते हैं, विशेषकर घोंसले बनाने के समय.[१२] वे सांझ के समय में अक्सर अधिक सक्रिय रहते हैं।[११]
उनका स्वर काफी विविध होता है तथा इसमें नीरस बारम्बार की जाने वाली सीटियां, धात्विक तथा नासिका स्वर के साथ ही जटिल स्वर तथा दूसरे पक्षियों की नक़ल शामिल होते हैं। वे प्रातः 4 बजे से आवाजें निकालना प्रारंभ कर देते हैं जिनमें अक्सर धात्विक टुंक-टुंक-टुंक की श्रृंखला होती है।[१३] उनके पास अन्य पक्षियों की चेतावनी की ध्वनि की नक़ल करने की क्षमता होती है जिसे उन्होंने मिश्रित-प्रजाति के झुण्ड में सीखा होता है। यह काफी असामान्य है, जैसा कि पक्षियों की नक़ल करने की क्षमता के विषय में अभी तक काफी कम ज्ञान उपलब्ध है। अफ्रीकी ग्रे तोता के विषय में यह ज्ञात है कि वे मानव ध्वनि का अनुकरण करते हुए सही सन्दर्भ में बोल लेते हैं, परन्तु प्राकृतिक वातावरण में ये ऐसा नहीं करते हैं।[१४] इस ड्रोंगो द्वारा अन्य प्रजातियों की चेतावनी की ध्वनि के संदर्भ को मानव के सीखने के क्रम से जोड़ कर देखा जा सकता है, जैसे कि मानव दूसरी भाषाओं के छोटे-छोटे वाक्यांश सीखने का प्रयास करते हैं। एक विशेष चेतावनी ध्वनि के रूप में वे शिकरा पक्षी की उपस्थिति जिसे लिखित में उच्च स्वर की क्वी-क्वी-क्वी...शी-कुकू-शीकुकू-शीकुकू-व्हाई! लिख सकते हैं।[१३] वे शिकारी पक्षी की नक़ल करके अन्य पक्षियों को चेतावनी देते हैं जिससे कि इस भय की स्थिति में उनका शिकार चुरा कर खा सकें.[१५][१६] इन्हें ऐसी प्रजातियों की आवाज निकालने के लिए भी जाना जाता है (ये अपना शरीर फुला कर जंगल बैबलर की तरह सिर व शरीर हिलाते हैं) जो कि बैबलर की तरह[१७] मिश्रित प्रजाति के झुण्ड के सदस्य होते हैं और ऐसा माना जाता है कि ऐसा मिश्रित प्रजाति के झुण्ड का हिस्सा बन्ने के लिए किया जाता है।[१८] कुछ स्थानों में वे मिश्रित-प्रजाति के झुंडों में दूसरे के पकड़े शिकार को खाने वाले (क्लेप्टोपैरासाईटिक) भी माने जाते हैं, विशेष रूप से लॉफिंगथ्रश का, परन्तु वे उनसे पारस्परिक तथा सहभोजी सम्बन्ध भी रखते हैं।[१९][२०][२१] कई पर्यवेक्षकों ने देखा है कि ये ड्रोंगो चारा खोजने वाले कठफोड़वे से सम्बन्ध रखते हैं,[२२][२३][२४] तथा ऐसी रिपोर्टें हैं इन्होने कि इन्होंने बंदरों के दल का पीछा भी किया है।[२५]
ग्रेटर रैकेट-पूंछ ड्रोंगो अपनी पूर्ण सीमा में प्रजनक रहते हैं। भारत में प्रजनन का मौसम अगस्त-अप्रैल है। अपनी प्रणय निवेदन में उन्हें खेल की इच्छा से कूदते तथा शाखाओं पर घूमते तथा किसी वस्तु को गिरा कर हवा में ही उसको पकड़ते देखा जाता है।[१३] उनका कप रुपी घोंसला किसी पेड़ की शाखा में बनाया जाता है[५] तथा इसमें आमतौर पर तीन से चार अंडे दिए जाते हैं। अंडे क्रीम श्वेत रंग के होते हैं जिसमें लाल-भूरे से धब्बे होते हैं, जो कि चौड़े छोर पर अधिक घने होते हैं।[१२]
संस्कृति में
सामान्य सीटी का स्वर जो ये निकालते हैं इनके स्थानीय नाम का कारण बनता है, भारत के कई भागों में इन्हें कोतवाल कहते हैं (जिसका अर्थ है "पुलिसवाला" अथवा "चौकीदार", जो अपनी सीटी से मिलता-जुलता स्वर निकालता है), अन्य स्थानों में काले ड्रोंगो पर एक अन्य नाम लागू होता है भीमराज अथवा भृंगराज .[२६] भारत में 1950 के दशक से पहले अक्सर लोगों के द्वारा इसे पिंजरे में रखा जाता था। इसे बहुत दृढ़ माना जाता है तथा किसी कौवे की तरह किसी भी प्रकार के आहार पर रह लेता है।[२७][२८]
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
सन्दर्भ
- ↑ Lamba, BS (1963) The nidification of some common Indian birds. 3. The Black Drongo (Dicrurus macrocercus Viellot). Res. Bull. Panjab Univ. 14(1–2):1–9.
- ↑ Shukkur EAA, Joseph KJ (1980). "Annual rhythm in the Black Drongo Dicrurus adsimilis (family Dicruridae, Passeriformes, Aves)". Comparative Physiology and Ecology. 5 (2): 76–77.
- ↑ "Journal of the Asiatic Society of Bengal: Volume 66," Pg 666, Asiatic Society of Bengal, 1898, " ... Bhimraj (Dissemurus paradiseus) ... "
- ↑ साँचा:cite journal
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