लक्ष्मी पूजा

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वैदिक काल में अनेक प्रकार के यज्ञ हुआ करते थे। यज्ञ उस युग का सबसे बड़ा सांस्कृतिक समारोह होता था। ये यज्ञ साधारण भी होते थे--और असाधारण भी। कुछ यज्ञों को तो राजा-महाराजा ही कर सकते थे, जैसे अश्वमेध, राजसूय, आदि। पर कुछ यज्ञ नियमित रूप से सब आर्य गृहस्थों को करने पड़ते थे। इन यज्ञों का क्रम गोपद ब्राह्मण में इस प्रकार बताया गया है-

अग्न्याधान, पूर्णाहुति, अग्निहोत्र, दशपूर्णयास, आग्रहायण (ग्ववसस्येष्ठि) चातुर्मास्य, पशुवध, अग्नि-ष्टोम, राजसूय, बाजपेय, अश्वमेध, पुरूषमेध, सर्वमेध, दक्षिणावाले बहुत दक्षिणा-वाले और असंख्य दक्षिणावाले।

इनमें अग्न्याधान और अग्निहोत्र प्रतिदिन के यज्ञ थे। हर अमावस और पूर्णिमा के दिन दशपूर्णमास यज्ञ होते थे। फाल्गुन पूर्णिमा, आषाढ़ पूर्णिमा और कार्तिक पूर्णिमा को चातुर्मास्य यज्ञ किये जाते थे। उतरायण-दक्षिणायन के आरम्भ में जो यज्ञ होते थे--वे आग्रहायण वा नवसस्येष्ठि यज्ञ कहलाते थे। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के उद्देश्यों को लेकर भिन्न-भिन्न यज्ञ होते थे। यह आग्रहायण या नवसस्येष्ठि यज्ञ ही आगे दीपावली का त्यौहार बन गया।

यज्ञ चाहे छोटे हैं या बड़े, पर्वों ही में होते थे। पर्व, जोड़ या संधि को कहते हैं। यह सन्धि पर्व ऋतु और काल सम्बन्धी हुआ करती थी। सायं-प्रात: संधि, पक्ष संधि, मास संधि, ऋतु संधि, चातुर्मास्य संधि, अयन संधि, पर यज्ञ होते थे। ये संधियाँ पर्व कहाती थीं। यज्ञ समाप्ति पर अवभृथ स्नान होता था। अब यज्ञों की परिपाटी तो बन्द हो गई है, पर पर्वों पर विशेष तीर्थों पर स्नान अब भी धर्म कृत्य माना जाता था।

कार्तिक पूर्णिमा, वैसाखी पर्व, कुम्भ पर्व आदि में आज भी हरिद्वार-प्रयाग नासिक आदि क्षेत्रों में बड़े-बड़े स्नान होते हैं। कार्तिक पूर्णिमा का गंगा स्नान बहुत प्रसिद्ध है। आर्यों में उतरायण और दक्षिणायन का बहुत विचार किया जाता था। `नान्य: पन्था विद्यतेस्नाय' ऋतुओं में ही यज्ञ करने से यज्ञ कर्ता का नाम ऋत्विज अर्थात ऋतुओं में यजन करने वाला प्रसिद्ध हुआ। यजन से यज्ञों में ज्योतिष ज्ञान की आवश्यकता पड़ती थी, तथा यज्ञ समारोहों ही से ऋतु के साथ ग्रहनक्षत्रों के परिवर्तन का पता चल जाता था। मधुश्च माध्वश्च वासन्ति कावृतू (१३/२५) शुक्रश्च शुविश्च श्रेष्मावृतू (१४/६) नभश्च नभश्यश्च वार्षिकावृतू (१४/१५) तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू (१५/५७) (यजुर्वेद १५/५७) द्वेसूती अश्रुष्वं पितृणांमहं देवानायु (युजु १९/४०) षड़ाहु: शीतान् षडु यास उष्णनृतुं बूत (अथर्व ८/९/१७) दीवाली अयन परिवर्तन का त्यौहार है। इस समय सूर्य दक्षिणायन होते हैं। साथ ही नयाशस्य--धान्य आता है, इसलिए खील खाई जाती है, तथा दीपोत्सव मनाया जाता है। दिवाली के बाद गोवर्धन होता है। यह घरेलू पशुओं के पूजन का त्यौहार था, जिसे पशुन्द्य यज्ञ कहते थे। इसके बाद यम द्वितीया है, जब भाई बहिन के घर जाता है। यह यम-यमी की स्मृति में है। जिसका उल्लेख देव में है। लक्ष्मी पूजा दिवाली पर लक्ष्मी पूजा होती है। यजुर्वेद के।।। श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पल्या, प्रसिद्ध मन्त्र है। इसमें श्री और लक्ष्मी नाम की दो देवियों का उल्लेख है। महीधर उवट भाषा में यही लिखा है। कालान्तर में श्री नामी देवी के अंशों को दुर्गा-काली, भवानी, भैरवी, चण्डी, अन्नपूर्णा, चामुण्डा आदि रूप कल्पित कर लिए गए। यह भावना मिस्र की असुर देवियों के अनुकरण में हुई है। मिस्र में भी आदिभामा ईसिस के अंशों से मिनर्वा, जुनो, वेनसा, ह्रीआ, हेक्ट्री, डायना और दया देवी पूजी जाती थी। उनकी पूजा चन्दन-अक्षत-धूप-दीप-मांस-रुधिर से होती थी। जिस तरह यहाँ श्री देवी दुर्गा ने महिषासुर को मारा जिसका मुँह भैंसे के समान था, उसी प्रकार मिस्र की देवी ईसिस--मिनर्वा ने हीकस हियो-पोटोमस (दरियायी घोड़े के समान मुंह वाले) राक्षस को मारा था। जिस प्रकार के नवरात्र यहां होते हैं । उसी प्रकार का नवरात्र उत्सव मिस्र में भी होता है। जिस तरह पूजन में यहां उदक पूर्ण कुम्भ रखा जाता है, उसी प्रकार मिस्र में भी रखा जाता है। वहां इस घट को `केनाव' कहते हैं। जिस प्रकार यहां घट पर स्वास्तिक आदि चिन्ह बनाये जाते हैं। उसी प्रकार मिस्र वाले भी स्वास्तिक-द्वित्व त्रिकोण-त्रिपुण्ड तथा त्रिशूल के चिन्ह बनाते हैं। मिस्र सुमेर, बावुल, असीरिया आदि देशों में मात्रसत्ता के कुल गोत्र चलते थे। इसी से वहां देवी पूजन प्रचलित हुआ । भारत में वहीं से यह प्रथा आई। वेद में माँ के लिए `न ना' पिता के लिए `त ता' शब्द आए हैं। (वैदिक इन्डिका) निघंटु में भी न ना शब्द है। ऋग्वेद (९/११८/३) में माता को न ना कहा गया है (उपल प्रक्षिणा न ना) सीरिया और एशिया माइनर में माता--देवी को `न ना' कहते थे। वैबिलोनिया में स्त्री देवता को पुरूष देवता के साथ मिलाते थे। परन्तु एरेख में एक सुमेरियन माता देवता की पूजा होती थी। जिसके नाम न ना इन्नकी, निना और अनुनित, होते थे। लक्ष्मी को धन की देवी और विष्णु की पत्नी माना गया है। परन्तु विष्णु सूर्य का नाम था। सूर्य मारीचि कश्यप और दक्षपुत्री अतिनि के कनिष्ट पुत्र थे। इनके पुत्र मनु वैवस्वत ने आर्य जाति की स्थापना की तथा सूर्य वंश चलाया। भारत में सूर्य वंश का राज्य समूह सूर्यमण्डल का विष्क्रमा कहाता था। (अस्य भारतवर्षस्य विष्कल्भातुल्य विस्तृतम्। मंडले भास्करंस्याथयोजनैलतन्मिरो धत। मत्स्य पुराण १३३ श्लोक) उनकी स्त्री का नाम संज्ञा था, जो त्वष्टा विश्वकर्म की पुत्री थी, तथा जो उत्तर कुरू के अधीश्वर थे। कहा जाता है कि समुद्र मंथन में विष्णु को लक्ष्मी प्राप्त हुई थी। पर यह अलंकारिक है। वास्तव में वह एक स्वर्ण खान के मिलने का प्रसंग है जो देव दैत्य नाग तीनों ने मिलकर प्राप्त की थी। पीछे जैसे सरस्वती नदी को विद्या की देवी मान लिया गया, उसी भांति धन-लक्ष्मी को धन की देवी मान लिया गया। और विष्णु ने उसे प्राप्त किया था--इसलिए वह विष्णु की चरणसेविका बन गई। परन्तु `श्री' नाम से लक्ष्मी भी, देवी पार्वती भी और दुर्गा भी तीनों का समावेश किया गया । पूजा आर्य लोग भजन करते थे--पूजन नहीं। परन्तु देवी-देवताओं का आगे पूजन आरम्भ हो गया। वेद में पूजा का कोई संकेत नहीं है। पूजा में पुष्प-दीप, अक्षत और चंदन का महत्त्व है। साधारणतया पूजा के अर्थ का सम्बन्ध लोग पूज् धातु पर आधारित करते हैं। परन्तु पूज् धातु प्राचीन संस्कृत में नहीं है। यह शब्द द्रविड़ शब्द `पू' का पर्याय है, जिसका अर्थ `पुष्प' होता है। द्रविड़ का ही दूसरा शब्द `जे' है, जिसका अर्थ है करना। इस प्रकार पूजे का अर्थ हुआ `पुष्पकर्म'। आर्यों का यज्ञ पशुकर्म था, पर द्रविड़ों का `पुष्पकर्म'। कालान्तर में आर्यों ने पुष्पकर्म ग्रहण कर उसे पूजा का नाम दे दिया। एक द्रविड़ धातु `पुसु' भी है जिसका अर्थ लेपन है। लेपन से चन्दन या सिन्दूर लेपन का अर्थ भी निकलता है। इस प्रकार जहां देवी की प्रतिष्ठा अनार्य पद्धति है, वहाँ पूजा भी द्रविड़ या आग्नेय परिपाटी है इस प्रकार दिवाली का वह प्राचीन त्यौहार, जो वास्तव में अयन यज्ञ था, द्रविड़ और आग्नेय संस्कृतियों से मिलकर लक्ष्मी पूजा का त्यौहार बन गया .गणेश पूजा गणेश आरम्भ का देवता है। सब शुभ कर्मों के आरम्भ में गणेश पूजन होता है। आजकल पण्डित लोग मिट्टी के एक ढेले पर कलावा लपेट कर उसे गणेश का प्रतिनिधि बना--ओं गणनात्वा गणपति -उन्क्नोत्न् मर्क्- ह नामहे।।। मन्त्र से गणेश की पूजा करते हैं। इस मन्त्र में `गणपति' शब्द आया है इसी से अन्धपरम्परा से यह मन्त्र गणेश पूजा का मन्त्र बन गया है। वास्तव में गणेश पूजन से इस मन्त्र का कोई सरोकार ही नहीं है। यह यजुर्वेद का मन्त्र है--और अश्मेध यज्ञ से सम्बन्धितहै। महीधर ने इस मन्त्र के अपने भाष्य में गणपति का अर्थ घोड़ा किया है (अस्मिन्मन्त्रे गणपति शब्दादृश्योवाजी गृहीतव्य इति) वास्तव में `गणेश' ओउम का प्रतीक है। वेद मन्त्रों के आरम्भ में `ओउम'आता है। ओउम मंगलाचरण का प्रतीक है, उसी प्रकार गणेश भी मंगलाचरण का प्रतीक बन गया। `ओउम' और गणेश के रूप सदृश्य है। वैदिक परम्पराओं और विदेशी द्रविड़ और आग्नेय जातियों आदि के सम्पर्क से वृक्षों पशु-पक्षियों आदि की पूजा का प्रचलन भी हिन्दुओं में हो गया। बुद्धकाल में अनेक प्रकार के पशुओं का पूजन होता था और उनके अलग-अलग सम्प्रदाय बने हुए थे। चूलनिद्देस में लिखा है-- `हत्थिवन्तिकानं' हत्थि देवता। अस्सवतिकानं अस्सा देवता, गोवतिकानं गवि देवता, कुक्कुटवति कानं कुकुटा देवता, काकवतिकानं काकदेवता, नागवानि-वानं नागदेवता--आग्गेवतिकानं अग्निदेवता।।।।।। ' इस प्रकार हाथी, घोड़ा, गाय, कुत्ता, मुर्गा, कौवा, नाग आदि पशु-पक्षियों को देवता मानकर पूजने वालों के सम्प्रदाय चल पड़े थे। इनमें जो हस्तिवृत्तिक थे, उन्होंने उक्त ओंकार के मंगलाचरण को हाथी का रूप देकर गणेश का वर्त-मान रूप बना दिया। इस सम्बन्ध में गणेश पुराण में कुछ श्लोक भी है जो हमारे मत की पुष्टि करते हैं-- औंकार रूपी भगवान यो वेदादी प्रतिष्ठित:। यं सदा मुनयो देवास्मरणन्तन्द्रदियो वेदि। आकार रूपी भगवानुक्तस्तु गणनायक: । यथा सर्वेषु कर्मसु पूज्यते सो विनायक:। (गणेश पुराण) गणेश की ओंकारमयी भावना सोरूपी शताब्दी में ज्ञानेश्वर ने की थी। गणेश का रंग लाल कहा जाता है। मंगोलों की कुछ जातियां लाल रंग की थी। सम्भव है आरम्भ में मंगोल, शक, हूण, कुषाण जातियां इस हस्तिवृतिक धर्म को लाई हों। और उनके हिन्दू धर्म में मिल जाने के बाद उनका हस्तिवृतिक और आर्यों का वैदिक ओउम् मिलकर हाथी के सिरवाले चूहे की सवारी करते और मोदक खाने वाला गणेश बन गया हो। ओंकार के अकार गणेश का सिर और शरीर है। `ओ' का `आ' सूंढ और `२' एकदन्त तथा मोदक है। प्लुत का `३' चूहा है। गणेश की कल्पना आरम्भ में `विघ्नेश' के रूप में स्थापित हुई। मनुष्य की देह पर हाथी का भयावह रूप देख भय से उन्हें पूजने लगे। पर जब बौद्धों की महायान शाखा का प्रादुर्भाव हुआ तो उसमें विघ्नेश धीरे `विघ्न हर' बन गए। पौराणिक समाज में वे विघ्न हर ही माने जाते हैं। परन्तु उत्तर भारत में तो उनकी मूर्तियां छोटी-छोटी ही बनती हैं । दक्षिण के मन्दिरों में बड़ी-बड़ी विशाल मूर्तियां हैं। जो भयानक भी है । महाराष्ट्र में शारदा उनकी पत्नी मानी जाती हैं। पर दक्षिण भारतीय उन्हें ब्रह्मचारी ही मानते हैं। तन्त्रों में गणेश के अपूर्व-विग्रह है। विक्रम की पांचवीं-छठी शताब्दी में गणेश पूजा आरम्भ हो गई होगी। क्योंकि पुराणों में उसकी चर्चा है। तन्त्रों में तो है ही। बुद्ध और महावीर ने गणेश का नाम नहीं लिया। परन्तु जब आर्यों ने पड़ोसी अनार्यों से गधे पर सवारी करने वाली शीतलादेवी, कुत्ते पर सवारी गांठने वाले भैरव, को देवता रूप में ग्रहण किया तब मूषक वाहन विघ्नेश गणेश को भी ग्रहण कर उन्हें विघ्नेश बना डाला। और किसी तरह शब्द साम्य की तुक मिलाकर एक वेद मन्त्र भी उनकी पूजा पाति में सम्मिलित कर लिया तथा बाद में उपनिषद भी बना लीगई। साथ ही गणेश बौद्धों की महायान शाखा में भी प्रसिद्ध हो गए। गणेश-देवताओं का कुल देवता उत्तर भारत में गणेश पूजन मंगल आरम्भ के तौर पर होता है। परन्तु दक्षिण में गणेश को कुल देवता की भांति पूजा जाता है। गणेश पेशवाओं के कुल देवता थे। इसी से जो तिलक ने महाराष्ट्र में गणेशोत्सव का प्रचलन किया जो अब उसकी भांति भाद्रपद मास में धूमधाम से होता है, जैसा आश्विन मास में बंगाल में दुर्गा पूजन। पेशवा चित्पावन ब्राह्मण थे, तो तिलक भी चित्पावन थे। चित्पावन ब्राह्मण आर्य नहीं है, मिस्र से आये हुए यहूदी हैं । इसी से चिम्पावनों के रोटी बेटी के व्यवहार महाराष्ट्र के ब्राह्मणों से नहीं हैं। महाराष्ट्रीय ब्राह्मण देशस्थ कहाते हैं और चित्पावन कोकणस्थ। इनका उत्कर्ष शिवाजी के कारण हुआ। शिवाजी ने जब राजा पद धारण करना चाहा तब महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र (कुर्मी) होने के कारण राजा मानने से इन्कार कर दिया। पीछे चित्पावनों ने उनका पौरोहित्य किया जिससे उन्हें पेशवा पदवी मिली और राजा के बाद सब सैनिक और राजनीतिक अधिकार उनके हाथ आ गए। बाद में पेशवा ही महाराष्ट्र के कर्ताधर्ता बन गए। इसी से चित्पावनों के अभ्युदय के साथ गणेश भी महाराष्ट्र के जन देव बन गये .स्वस्तिक स्वस्तिक को भी हिन्दू मंगल चिन्ह की भांति मानते हैं। यह भी वास्तव में ओउम का ही भ्रष्ट रूप है। ओंकार ही आगे चलकर स्वस्तिक चिन्ह बन गया है। यह स्वस्तिक प्राचीन मिस्र और अमेरिका के पेरू तथा मैक्सिको में शुभ चिन्ह माना जाता था .सरस्वती हिन्दू और जैन दोनों ही सरस्वती को वाग्देवी मानते हैं। प्राचीन यूनानी अनेक विद्यादेवियां `म्यूज' नाम से मानते थे। जो भिन्न-भिन्न कलाओं और विज्ञानों का पृथक प्रभुत्व करती थी। परन्तु हिन्दू और जैन धर्म दोनों ही सरस्वती देवी को सामूहिक रूप से सब विद्याओं की अधिष्ठात्री मानते हैं। सरस्वती को ब्रह्मा की पुत्री कहा है। ऋग्वेद में ब्रह्म का अर्थ है प्रार्थना मन्त्र और उसे गाने वाले को ब्रह्मा कहते थे। पीछे यज्ञ के अष्यक्ष को ब्रह्मा कहने लगे। (एवं विद्ध वै ब्रह्मा यज्ञं यजमानं सर्वाश्चाहिर्वजो श् भिरक्षति तस्मा देवमेव ब्राह्मणं बुर्वीत। छान्दोग्य उपनिषद ४/१७/१०) इस प्रकार ब्रह्मा भी वेदों का उद्गाता होने के कारण सब विद्याओं का स्रोत है इसीसे सरस्वती उसकी पुत्री वाग्देवी है। हिन्दू लक्ष्मी को प्राधान्य देते हैं। परन्तु जैनी सरस्वती को। कार्तिक कृष्णा अमावस्या को दीपावली के दिन हिन्दू लक्ष्मी पूजन करते हैं, वहां कार्तिक शुक्ला पंचमी (ज्ञान पंचमी) को श्वेताम्बा जैन सरस्वती पूजन करते हैं, इस अवसर पर वे अपने धर्म ग्रन्थों की जांच पड़ताल झाड़ पोंछ, सफाई तथा नवीन वेष्टनों से वेष्टित कर सन्दली पर सजाते हैं और सामूहिक पूजन करते हैं। अर्हन्तदेव के अतिरिक्त भी जैन धर्म में अनेक देवी देवता माने जाते हैं। जैसे शासन देवता, यक्ष यक्षिणी, क्षेत्रपाल, दिक्पाल, नवग्रह, योगिनी, अष्टमात्रिका, प्रसाद, सम्प्रदाय-देवियां, कुल-देवियां। इन सब में सरस्वती प्रधान मानी जाती है। जैन शास्त्रों में सरस्वती पूजन का फल सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र आदि गुणों की उपलब्धि करना बताया है (विद्या प्राय: षोड़षदृग्लिशुद्धि: पुरोगमार्हन्त्य कृदर्थ रागा: .) जैन धर्म में सोलह विद्या देवी मानी जाती है। (प्रविष्टासारोद्धार) उन सबमें सरस्वती अधीश्वरी है। दिगम्बर उसका वाहन मयूर बताते हैं। पर श्वेताम्बर हंस। श्वेत वर्णा श्वेत वस्त्र धारिणी हंस वाहना श्वेतसिंहासनासीना।।। चतुर्भुजा। श्वेताव्ज वीणालंकृता वामकरा पुस्तक मुद्राक्ष मालालंकृत दक्षिणकरा।।। । नानावृत-पदन्यास वर्णालंकार हारिणा सन्मार्गाग् ई सिता जैनी प्रसन्ना न: सरस्वती। (श्रीदेवातकल्प) ऐसा प्रतीत होता है कि सरस्वती पूजन हिन्दुओं की अपेक्षा जैनी लोग प्राचीन काल से करते थे। जैन सरस्वती मूर्ति ई। पू। पहली शताब्दी की प्राप्त है--जबकि हिन्दू मूर्ति पांचवी शताब्दी के बाद की उपलब्ध हुई है। मध्ययुगीन संगीत उत्तर और दक्षिण का भेद भारतीय संगीत की समृद्धि का युग मुसलमानों के भारत प्रवेश से कुछ प्रथम था। मुस्लिम प्रवेश और आंतरिक कलह ने उत्तर भारत को शताब्दियों तक क्षुब्ध रखा। उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में शान्ति थी और वहां हिन्दू राजाओं का कालथा। इससे उत्तर की अपेक्षा दक्षिणी संगीत अधिक शास्त्रीय और शुद्ध रहा .जयदेव और उनका गीत गोविन्द जयदेव का जन्म ११वीं शताब्दी में बंगाल के बोलपुर के पास बेन्दुला ग्राम में हुआ। जयदेव स्वयं भी गायक थे। परन्तु उन्होंने जिस राग और ताल का संकेत गीत गोविन्द में किया है उसका ज्ञान किसी गीत गायक को नहीं था। शारंगदेव १३वीं शताब्दी के पूर्वाध में दक्षिण में यादवों की राजधानी देवगिरि में शारंगदेव हुए। संगीत-रत्नाकार लिखा, जिस पर १४५६-७७ के बीच विजयनगर के राजा प्रतापदेव के आदेश पर काल्लिनाथ ने टीका लिखी। यह ग्रन्थ ६०० वर्षों से संगीत-शास्त्रियों का पथ प्रदर्शक रहा। शारंगदेव के पिता काश्मीर निवासी थे, जो बाद में जा बसे थे। शारंगदेव पर दक्षिणी संगीत का विशेष प्रभाव पड़ा। उनके ग्रन्थ से पता चलता है--कि उनके पूर्ववर्ती संगीतज्ञ दक्षिण में बहुत थे। संगीत-रत्नाकार में संगीत पद्धति की जो स्थापना की गई है, उसे अब बहुत कम लोग समझते मानते हैं। शारंगदेव का मुख्य मेल `मुखारी' है यह दक्षिणी संगीत का मुख्य मेल है। मुस्लिम धाराओं का समावेश तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी में भारतीय संगीत में मुस्लिम धाराओं का समावेश हुआ। यह समावेश उत्तर पद्धति में ही हुआ इससे उसके रूप में अन्तर आने लगा और दक्षिण और उत्तर का अन्तर बहुत बढ़ गया। मुसलमान बादशाह शुद्ध संगीत के आश्रयदाता न थे। फिर भी अब संगीत बड़े-बड़े दरबार की ही बात रह गई थी। अमीर खुसरो अमीर खुसरो बड़े भारी संगीतज्ञ थे। उन्होंने सितार का आविष्कार किया था। वे सात बादशाहों के दरबार में रहे। अलाउद्दीन खिलजी संगीत का शौकीन था। उसने अमीर खुसरो की इस कला को प्रश्रय दिया। खुसरो ने सर्वप्रथम कब्बाली गाने की धुन निकाली इसके अतिरिक्त दूसरे चालू राग जैसे जीलाफ, साजगिरि, सापर्द आदि भी प्रचलित किए। गोपाल नायक गोपाल नायक अमीर खुसरो तथा अलाउद्दीन के समकालीन थे। संगीत रत्नाकार की टीका में कल्लिनाथ ने उन्हें कुक्कड़ताल में प्रवीण बताया है। दक्षिण को विजय करके मलिक काफूर ने दक्षिण के बड़े-बड़े कलावन्तों को दिल्ली भेजा था गोपाल नायक उनमें एक थे। राग तरंगिणी लोचन कवि ने सम्भवत: १५ शताब्दी में राग तरंगिणी लिखी। इस पुस्तक में विद्यापति के मैथिल पदों की चर्चा है। विद्यापति की गीतावली भी दो है। इस ग्रन्थ में रागों और स्वरों के शुद्ध नाम उत्तर भारत पद्धति के हैं। मूर्धना और जाति से राग उत्पन्न करने की पद्धति उन दिनों कदाचित न थी। चैतन्य कीर्तन ई। स। १४८५-१५३३ में चैतन्य ने बंगाल में कीर्तन प्रथा चलाई। इससे संगीत को बहुत प्रश्रय दिया। संकीर्तन और नगर कीर्तन के संगीत प्रबन्ध इसी काल में बने।