बृहत्संहिता
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बृहत्संहिता वाराहमिहिर द्वारा ६ठी शताब्दी संस्कृत में रचित एक विश्वकोश है जिसमें मानव रुचि के विविध विषयों पर लिखा गया है। इसमें खगोलशास्त्र, ग्रहों की गति, ग्रहण, वर्षा, बादल, वास्तुशास्त्र, फसलों की वृद्धि, इत्रनिर्माण, लग्न, पारिवारिक सम्बन्ध, रत्न, मोती एवं कर्मकाण्डों का वर्णन है।
संरचना
वृहत्संहिता में १०६ अध्याय हैं। यह अपने महान संकलन के लिये प्रसिद्ध है।
- १-२६. पीठिका, विविध ज्यौतिषोपयोगी विषय, ग्राहचार, ग्रहभुक्ति, ग्रहयुद्ध इत्यादि ।
- (१- परिचय , २- ज्योतिष, ३-आदित्यचार, ४-चन्द्रचार, ५-राहुचार, ६-भौमचार, ७-बुधचार, ८-बृहस्पतिचार, ९-शुक्रचार, १०-शनैश्चरचार, ११-केतु, १२-अगस्त्य, १३-सप्तर्षि, १४-कूर्मविभाग, १५-नक्षत्रव्यूह, १६-ग्रहभक्तियोग, १७-ग्रहयुद्ध, १८-शशिग्रहसमागम, १९-ग्रहवर्षाफल, २०-ग्रहशृंगाटक, २१-गर्भलक्षण, २२-गर्भधारण, २३-प्रवर्षण, २४-रोहिणीयोग, २५-स्वातियोग, २६-आषाढ़ीयोग)
- २७-वातचक्र,
- २८-सद्योवर्षण (वर्षा का पूर्वानुमान),
- २९-कुसुमलता (समृद्धि, आरोग्य, वृष्टि, दुर्भिक्ष आदि का पूर्वानुमान)
- ३०-सन्ध्यालक्षण (संध्या काल में दिखने वाले विविध वर्णों के आधार पर सम्भावित घटनाओं का पूर्वानुमान
- ३१-दिग्दाह
- ३२-भूकम्पलक्षण
- ३३-उल्का
- ३४-परिवेक्षालक्षण (कभी कभार सूर्य और चन्द्रमा के चारों ओर दिखने वाली वृत्ताकार प्रकाश-रेखा)
- ३५-इन्द्रायुधलक्षण
- ३६-गन्धर्वनगरलक्षण
- ३७-प्रतिसूर्यलक्षण
- ३८-रजस्-लक्षण (धूलभरी आंधी के लक्षण)
- ३९-वात्या (आकाशीय बिजली)
- ४०-सश्य-जातक
- ४१-द्रव्य-निश्चय
- ४२-नक्षत्रराश्यानुगुण्येन वित्तस्फातिः, महार्घता, और मौल्यह्रास
- ४३-इन्द्रध्वज
- ४४-नीराजनविधि
- ४५-खञ्जनकलक्षण
- ४६-उत्पाताध्याय
- ४७-मयूराचित्रक
- ४८. पुष्यस्नान (पुष्य मास में राजाओं द्वारा किया जाने वाला मङ्गलस्नान)
- ४९. पट्ट (राजाओं द्वारा धारण किए जाने वाले मुकुट)
- ५०. खड्गलक्षण (खड्गों के लक्षण)
- ५१. अङ्गविद्या (शरीर के अंगों की परीक्षा से प्राप्त भवितव्य)
- ५२. पिटकलक्षण (मुहांसों से सूचित होने वाले भवितव्य)
- ५३. वास्तुवुद्या
- ५४. उदकार्गल (अर्थात्, पृथ्व्याः बाह्यैः कैश्चिन् चिह्नैरन्तर्जलानां शोधनं, वापीकूपतटाक निर्माणायोत्खननप्रसंगे मध्ये जायमानानां शिलानां भङ्गर्थम् अभ्युपायाः, लब्धे जले पानानर्हे तस्य पानार्हतासंपादनार्थं क्रियमाणाः क्रमाः । )
- ५५. वृक्षायुर्वेद (बागवानी)
- ५६. प्रासादलक्षण (मन्दिरों से सम्बन्धित)
- ५७. वज्रलेपलक्षण (अतिदृढ वज्रलेप (सीमेन्ट) का निर्माण)
- ५८. प्रतिमालक्षण (मन्दिरों में स्थापित की जाने वली प्रतिमाओं से सम्बन्धित)
- ५९. वनसंप्रवेश (वन में प्रवेश)
- ६०. प्रतिमाप्रतिष्ठापन (मूर्ति की स्थापना)
- ६१-६७ गो-श्व –कुक्कुट- कूर्म –च्छागा –श्व –गजानां लक्षणानि ।
- ६८-पुरुषलक्षण
- ६९-पञ्चपुरुष या पञ्चमहापुरुष (पांच महान पुरुषों के लक्षण)
- ७०-कन्यालक्षण (स्त्रियों से सम्बन्धित)
- ७१. वस्त्रछेदलक्षण (वस्त्र के फटने से सम्बन्धित शकुन)
- ७२-चामरलक्षण (चामर से सम्बन्धित)
- ७३-छत्रलक्षण (छाते से सम्बन्धित)
- ७४. स्त्रीप्रशंसा
- ७५. सौभाग्यकरणम् (personality development)
- ७६. कान्दर्पिका (वीर्यवृद्धि के उपाय आदि)
- ७७. गन्धयुक्ति (सुगन्ध द्रव्य का निर्माण)
- ७८- पुंस्त्रीसमायोग (संभोग से सम्बन्धित कुछ विचार)
- ७९. शय्याशन (शय्या (बिस्तर) से सम्बन्धित)
- ८०-८३ मुक्ता पद्मरागमरकतानां लक्षणम्
- ८४. दीपलक्षणम्
- ८५. दन्तधावनार्थानां काष्ठानां लक्षणम्
- ८६-९६. विविधानि शुकनानि ।
- ९७. केषुचन नैसर्गिकेषु वैपरीत्येषु संभूतेषु तत्फल- जननसमयावधिः
- ९८-१००. तिथिनक्षत्रकरण संबध्दानां नित्यनैमित्तिकानां कर्मणां सुमुहूर्तदुर्मुहूर्तानि
- १०१-जन्मनक्षत्रा नुगुण्येन भविष्यकथनम्
- १०२- खगोलीयानां राशीनां विभागः
- १०३- विवाहपटल -- विवाहप्रसंगे ग्रहनक्षत्रादीनां स्थितिगतीरवलम्ब्य पूर्वानुमेयानि भवितव्यानि; विविधच्छन्दोबन्धानाम् उदाहरणनि च
- १०४-ग्रहगोचर
- १०५-रूपसत्र (नक्षत्रपुरुषोपासना)
- १०६. उपसंहार ।
बृहत्संहिता में गणित
बृहत्संहिता में सांयोजिकी (combinatorics) से सम्बन्धित यह श्लोक विद्यामान है-
- षोडशके द्रव्यगणे चतुर्विकल्पेन भिद्यमानानाम्।
- अष्टादश जायन्ते शतानि सहितानि विंशत्या॥
- (अर्थ: सोलह प्रकार के द्रव्य विद्यमान हों तो उनमें से किसी चार को मिलाकर कुल १८२० प्रकार के इत्र बनाए जा सकते हैं।
आधुनिक गणित की भाषा में कहें तो, 16C4 = (16 × 15 × 14 × 13) / (1 × 2 × 3 × 4) = 1,820
बृहत्संहिता के अनुसार सूर्य और चंद्र के दश ग्रास
- सव्यापसव्यलेहग्रसननिरोधावमर्दनारोहा: ।
- आघ्रातं मध्यतमस्तमोऽन्त्य इति ते दश ग्रासा:॥ (बृहत्संहिता, राहुचाराध्यायः, श्लोक ४३)
पृथ्वी के विभिन्न भागों में प्राय: चंद्र ग्रहण एक रूप का तथा सूर्य ग्रहण अलग-अलग आकृति का दिखता है।
- (१) सव्यग्रास : ग्रहण के समय में सूर्य या चंद्र से सव्य (दक्षिण भाग) में होकर राहु गमन करे तो संसार हर्षित, भय रहित और जल से पूर्ण होता है । संसार में सूख, शांती होती है ।
- (२) अपसव्य : यदि राहु वाम भाग से होकर भ्रमण करें तो अपसव्य ग्रास होता है, जिसके कारण राजा और चोरों को पीडा होती है तथा प्रजा का नाश होता है ।
- (३) लेह ग्रास : यदि राहु, सूर्य तथा चंद्रबिंब को जिभ से चाटता हुआ प्रतित हो तो लेह नामक ग्रास होता है जिसके कारण पृथ्वी हर्षित होकर सम्पूर्ण प्राणियों से युत तथा जल पूर्ण होती है ।
- (४) ग्रसन ग्रास : यदि सूर्य या चंद्र का बिंब राहु द्वारा तृतीयांश, चतुर्थांश या आधा ग्रसित होता हो तो ग्रसन नामक ग्रास होता है। जिसके कारण स्फीत देश के राजा का धन नाश होता है तथा वंहा के रहिवासियों को अत्यंत पीडा होती है।
- (५) निरोध ग्रास : यदि सूर्य या चंद्रमंडल को राहु चारो ओर से ग्रसित करके मध्य भाग में पिंडाकार होकर बैठा हो तो निरोध नामक ग्रास होता है। यह ग्रास संसार के सभी प्राणियों को आनंद देने वाला होता है।
- (६) अवमर्दन ग्रास : यदि सूर्य या चंद्रमंडल के संपूर्ण भाग को ढककर राहु बहुत समय तक स्थिर रहे तो अवमर्दन ग्रास होता है। जिसके कारण प्रधान राजा और उस देश का नाश करता है।
- (७) आरोहण ग्रास : यदि सूर्य या चंद्रमा के ग्रहण के बाद उसी समय फिर से राहु दिखाई दे तो आरोहण नामक ग्रास होता है। विषेशत: यह ग्रास गणित सिद्ध न होने के कारण ऐसी स्थिती नहीं बनती, लेकिन आचार्य ने पूर्व शास्त्र के अनुसार इसे लिखा है।
- (८) आघ्रात ग्रास : यदि सूर्य या चंद्र का मंडल ग्रहण के समय भाप निकलती हुई नि:श्वास वायु से मलिन हुए दर्पण की तरह दिखाई दे तो आघ्रात नामक ग्रास होता है । जिसके कारण अच्छी बारिश होती है तथा प्राणियों की वृद्धी होती है ।
- (९) मध्यतम ग्रास : यदि सुर्य या चंद्रमा का मध्य भाग राहु से ढका हो और चारो ओर निर्मल बिंब हो तो मध्यतम नामक ग्रास होता है । जिसके कारण पेट की बीमारिया और मध्य भाग में स्थित देशो का नाश होता है।
- (१०) तमोन्त्य ग्रास : यदि सूर्य या चंद्र मंडल के बाहरी भाग में अधिक और मध्य भाग में कम राहु देखने में आवे तो तमोन्त्य नामक ग्रास होता है । जिसके कारण धान्यो की समाप्ति और प्राणियो को चोर का भय होता है ।
बाहरी कड़ियाँ
- बृहत्संहिता (संस्कृत विकिस्रोत)
- वराहमिहिर द्वारा रचित बृहत्संहिता
- बृहत्संहिता का अंग्रेजी अनुवाद (भाग-१)
- वराहमिहिर की बृहत्संहिता में भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त
- वराहमिहिर का उदकार्गल (जल की रुकावट ; भाग-१)
- वराहमिहिर का उदकार्गल (भाग-२)
- वराहमिहिर का उदकार्गल (भाग-३)