आजीविक
आजीविक या ‘आजीवक’, दुनिया की प्राचीन दर्शन परंपरा में भारतीय जमीन पर विकसित हुआ पहला नास्तिकवादी या भौतिकवादी सम्प्रदाय था।[१] भारतीय दर्शन और इतिहास के अध्येताओं के अनुसार आजीवक संप्रदाय की स्थापना मक्खलि गोसाल (गोशालक) ने की थी।[२] ईसापूर्व 5वीं सदी में 24वें जैन तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध के उभार के पहले यह भारतीय भू-भाग पर प्रचलित सबसे प्रभावशाली दर्शन था।[३]
विद्वानों ने आजीवक संप्रदाय के दर्शन को ‘नियतिवाद’ के रूप में चिन्हित किया है। ऐसा माना जाता है कि आजीविक श्रमण नग्न रहते और परिव्राजकों की तरह घूमते थे। ईश्वर, पुनर्जन्म और कर्म यानी कर्मकांड में उनका विश्वास नहीं था। आजीवक संप्रदाय का तत्कालीन जनमानस और राज्यसत्ता पर कितना प्रभाव था, इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि अशोक और उसके पोते दशरथ ने बिहार के जहानाबाद (पुराना गया जिला) दशरथ ने स्थित बराबर की पहाड़ियों में सात गुफाओं का निर्माण कर उन्हें आजीवकों को समर्पित किया था। तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में किसी भारतीय राजा द्वारा धर्मविशेष के लिए निर्मित किए गए ऐसे किसी दृष्टांत का विवरण इतिहास में नहीं मिलता।
आजीविक शब्द और संप्रदाय की उत्पत्ति
आजीविक शब्द के अर्थ के विषय में विद्वानों में विवाद रहा हैं किंतु आजीविक के विषय में विचार रखनेवाले श्रमणों के वर्ग को यह अर्थ विशेष मान्य रहा है। यह माना जाता है कि वैदिक मान्यताओं के विरोध में जिन अनेक श्रमण संप्रदायों का उत्थान बुद्धपूर्वकाल में हुआ उनमें आजीविक संप्रदाय सबसे लोकप्रिय और प्रमुख था। इतिहासकारों ने निर्विवाद रूप से आजीवक संप्रदाय को दार्शनिक-धार्मिक परंपरा में दुनिया का सबसे पहला संगठित संप्रदाय माना है। क्योंकि आजीवकों से पहले किसी और संगठित दार्शनिक परंपरा का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। महावीर और बुद्ध जरूर मक्खलि गोसाल के समकालीन थे पर उनके जैन और बौद्ध दर्शन का विकास एवं विस्तार आजीवक दर्शन के पश्चात् ही हुआ। चूंकि आजीवक संप्रदाय का प्रमाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है, इसलिए आजीवकों के दर्शन और इतिहास संबंधी जानकारी के लिए इतिहासकार पूरी तरह से बौद्ध और जैन साहित्य तथा मौर्ययुगीन शिलालेखों पर निर्भर रहे हैं। बावजूद इसके इतिहासकारों में इस बात को लेकर कोई मतैक्य नहीं है कि इस संप्रदाय का प्रभाव और प्रचलन पहली सदी तक संपूर्ण भारत में व्यापक तौर पर था। विद्वानों का स्पष्ट मत है कि बाद में विकसित और लोकप्रिय हुए जैन और बौद्ध दर्शन दोनों इसके प्रभाव से मुक्त नहीं हैं। प्रकारांतर से चार्वाक दर्शन भी आजीवक संप्रदाय के नास्तिक और भौतिकवादी ‘स्कूल’ की देन है। इतिहासकार मानते हैं कि मध्यकाल में इस संप्रदाय ने अपना पार्थक्य खो दिया।
आजीविक मत के अधिष्ठाता मक्खलि गोसाल
जैन और बौद्ध शास्त्रों ने आजीविकों के तीर्थंकर के रूप में मक्खली गोसाल का उल्लेख करते हुए उन्हें बुद्ध और महावीर का प्रबल विरोधी घोषित किया है। जैन-बौद्ध शास्त्रों से ही हमें यह पता चलता है कि आजीवक मत को सुव्यवस्थित व संगठित रूप देने तथा उसे लोकप्रिय बनाने वाले एकमात्र तीर्थंकर मक्खलि गोसाल थे। गोसाल चित्र के जरिए धार्मिक-नैतिक उपदेश देकर जीविका चलाने वाले मंख के पुत्र थे। उनकी माता का नाम भद्रा था। मक्खलि का जन्म गोशाला में हुआ था। इसी से उनके नाम के साथ ‘गोसाल’ (गोशालक) जुड़ा। जैन परंपरा के अनुसार ‘मक्खलि’ ‘मंख’ से बना है। मंख एक ऐसा समुदाय था जिसके सदस्य भाट जैसा जीवन यापन करते थे। जैन साहित्य के अनुसार मक्खलि हाथ में मूर्ति लेकर भटका करते थे। इसीलिए जैनों और बौद्धों ने उन्हें ‘मक्खलिपुत्त गोशाल’ कहा है। प्राचीन ग्रंथों में उन्हें ‘मस्करी गोशाल’ भी कहा गया है क्योंकि आजीवक श्रमण हाथ में ‘मस्करी’ (दंड अथवा डंडा) लिए रहते थे। गोसाल स्वयं को चौबीसवां तीर्थंकर कहते थे। गोसाल श्रमण परंपरा से आए थे क्योंकि जैन-बौद्ध ग्रंथों में उनके पहले के कई आजीविकों का उल्लेख मिलता है। मक्खलि से पूर्व किस्स संकिच्च और नन्दवच्छ नामक दो प्रमुख आजीविकों के नाम मिलते हैं। भगवती सूत्र के आठवें शतक के पांचवें उद्देशक में महावीर ने 12 आजीविकों के नाम भी आए हैं जो इस प्रकार हैं: ताल, तालपलंब, उव्विह, संविह, अवविह, उदय, नामुदय, ण्मुदय, अणुवालय, संखुवालय, अयंपुल और कायरय।
जैनागम भगवती के अनुसार 'गोशालक निमित्त-शास्त्र के भी अभ्यासी थे। हानि-लाभ, सुख-दुख एवं जीवन-मरण विषयक भविष्य बताने में वे कुशल और सिद्धहस्त थे। आजीवक लोग अपनी इस विद्या बल से आजीविका चलाया करते थे। इसीलिए जैन शास्त्रों में इस मत को आजीवक और लिंगजीवी कहा गया है।'[४]
“जैन आगमों में मक्खली गोशाल को गोसाल मंखलिपुत्त कहा है (उवासगदसाओ) । संस्कृत में उसे ही मस्करी गोशालपुत्र कहा गया है। (दिव्यावदान पृ. १४३)। मस्करी या मक्खलि या मंखलि का दर्शन सुविदित था। महाभारत में मंकि ऋषि की कहानी में नियतिवाद का ही प्रतिपादन है। (शुद्धं हि दैवमेवेदं हठे नैवास्ति पौरुषम्, शान्तिपर्व १७७/११-४)। मंकि ऋषि का मूल दृष्टिकोण निर्वेद या जैसा पतंजलि ने कहा है शान्ति परक था, अर्थात् अपने हाथ-पैर से कुछ न करना। यह पाणिनिवाद का ठीक उल्टा था। मंखलि गोसाल के शुद्ध नाम के विषय में कई अनुश्रुतियां थीं। जैन प्राकृत रूप मंखलि था। भगवती सूत्र के अनुसार गोसाल मंख संज्ञक भिक्षु का पुत्र था (भगवती सूत्र १५/१)। शान्ति-पर्व का मंकि निश्चयरूप से मंखलि का ही दूसरा रूप है।"[५]
मक्खलि गोसाल के समय में उनके अलावा पूर्ण कस्सप, अजित केशकंबलि, संजय वेलट्ठिपुत्त और पुकुद कात्यायन चार प्रमुख श्रमण आचार्य थे। पांचवे निगंठ नाथपुत्त अर्थात महावीर और इसी श्रमण परंपरा में छठे दार्शनिक सिद्धार्थ यानी गौतम बुद्ध हुए। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि महावीर के ‘जिन’ अथवा ‘कैवल्य’ और बुद्ध को बोध की प्राप्ति, या उनके प्रसिद्ध होने से बहुत पहले ही उपरोक्त पांचों काफी प्रतिष्ठा, लोकप्रियता और जनसमर्थन बटोर चुके थे।
आजीविकों का दर्शन
दर्शन और इतिहास के विद्वानों ने आजीवक दर्शन को ‘नियतिवाद’ कहा है। आजीविकों के अनुसार संसारचक्र नियत है, वह अपने क्रम में ही पूरा होता है और मुक्तिलाभ करता है। आजीवक पुरुषार्थ और पराक्रम को नहीं मानते थे। उनके अनुसार मनुष्य की सभी अवस्थाएं नियति के अधीन है।
आजीविकों के दर्शन का स्पष्ट उल्लेख हमें ‘दीघ-निकाय’ के ‘समन्न्फल्सुत्र सुत्त’ में मिलता है। जब अशांतचित्त अजातशत्रु अपने संशय को लेकर गौतम बुद्ध से मिलते हैं और छह भौतिकवादी दार्शनिकों के मतों का संक्षिप्त वर्णन करते हैं। अजातशत्रु गौतम बुद्ध से कहता है, ‘भंते अगले दिन मैं मक्खलि गोसाल के यहां गया। वहां कुशलक्षेम पूछने के पश्चात पूछा, ‘महाराज, જુस प्रकार दूसरे शिल्पों का लाभ व्यक्ति अपने इसी जन्म में प्राप्त करता है, क्या श्रामण्य जीवन का लाभ भी मनुष्य इसी जन्म में प्राप्त कर सकता है?’ मक्खलि गोसाल जवाब में कहते हैं, ‘घटनाएं स्वतः घटती हैं। उनका न तो कोई कारण होता है, न ही कोई पूर्व निर्धारित शर्त। उनके क्लेश और शुद्धि का कोई हेतु नहीं है। प्रत्यय भी नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के सत्व क्लेश और शुद्धि प्राप्त करते हैं। न तो कोई बल है, न ही वीर्य, न ही पराक्रम। सभी भूत जगत, प्राणिमात्र आदि परवश और नियति के अधीन हैं। निर्बल, निर्वीर्य भाग्य और संयोग के फेर से सब छह जातियों में उत्पन्न हो सुख-दुख का भोग करते हैं। संसार में सुख और दुख बराबर हैं। घटना-बढऩा, उठना-गिरना, उत्कर्ष-अपकर्ष जैसा कुछ नहीं होता। जैसे सूत की गेंद फेंकने पर उछलकर गिरती है और फिर शांत हो जाती है। वैसे ही ज्ञानी और मूर्ख सांसारिक कर्मों से गुजरते हुए अपने दुख का अंत करते रहते हैं।’
मज्झिम निकाय के अनुसार आजीविकों का आचार था - ‘एक साथ भोजन करनेवाले युगल से, सगर्भा और दूधमूंहे बच्चे वाली स्त्री से आहार नहीं ग्रहण करते थे। जहां आहार कम हो और घर के बाहर कूत्ता भूखा खड़ा हो, वहां से भी आहार नहीं लेते थे। हमेशा दो घर, तीन घर या सात घर छोड़कर भिक्षा ग्रहण किया करते थे।[६]
‘पाणिनी ने 3 तरह के दार्शनिकों की चर्चा की है- आस्तिक, नास्तिक (नत्थिक दिट्ठि) और दिष्टिवादी (दैष्टिक, नीयतिवादी-प्रकृतिवादी)। मक्खलि गोसाल दिष्टिवादी थे।’[७] उनका दर्शन ‘दिट्ठी’ था। इस दिट्ठी के आठ चरम थे- ‘1. चरम पान 2. चरम गीत 3. चरम नृत्य 4. चरम अंजलि (अंजली चम्म-हाथ जोड़कर अभिवादन करना) 5. चरम पुष्कल-संवर्त्त महामेघ 6. चरम संचनक गंधहस्ती 7. चरम महाशिला कंटक महासंग्राम 8. मैं इस महासर्पिणी काल के 24 तीर्थंकरों में चरम तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध होऊंगा यानी सब दुःखों का अंत करूंगा।'[८]
भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ ने आजीवक दर्शन के बारे में कई प्रमाणों के आधार पर लिखा है-"अन्य प्रमाण से भी इंगित होता है कि पाणिनि को मस्करी के आजीवक दर्शन का परिचय था। (अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः सूत्र में, ४/४/६०) आस्तिक, नास्तिक, दैष्टिक तीन प्रकार के दार्शनिकों का उल्लेख है। आस्तिक वे थे जिन्हें बौद्ध ग्रंथों में इस्सर करणवादी कहा गया है, जो यह मानते थे कि यह जगतु ईश्वर की रचना है। (अयं लोको इस्सर निमित्तो)। पाली ग्रन्थों के नत्थिक दिठि दार्शनिक पाणिनि के नास्तिक थे। इसमें केशकम्बली के नत्थिक दिठि अनुयायी प्रधान थे। (इतो परलोक गतं नाम नत्थि अयं लोको उच्छिज्जति, जातक ५/२३६) । यही लोकायत दृष्टिकोण था जिसे कठ उपनिषद् में कहा है-अयं लोको न परः इति मानी। पाणिनि के तीसरे दार्शनिक दैष्टिक या मक्खलि के नियतिवादी लोग थे जो पुरुषार्थ या कर्म का खंडन करके दैव की ही स्थापना करते थे।" [९]
जैनागम भगवती सुत्र के अनुसार आजीवक श्रमण ‘माता-पिता की सेवा करते। गूलर, बड़, बेर, अंजीर एवं पिलंखू फल (पिलखन, पाकड़) का सेवन नहीं करते। बैलों को लांछित नहीं करते। उनके नाक-कान का छेदन नहीं करते और ऐसा कोई व्यापार नहीं करते जिससे जीवों की हिंसा हो।’[१०]
आजीविकों का नियतिवाद क्या भाग्यवाद है?
इतिहासकारों ने आजीविकों के दर्शन और इतिहास पर बात करते हुए हमेशा यह कहा है कि आजीवक कौन थे? उनका दर्शन क्या था? यह सब द्वितीयक और विरोधी स्रोतों पर आधारित है।[११] आजीविकों के बारे में हमारे पास प्राथमिक सा्रेत की जानकारी बिल्कुल नहीं है। इसलिए जैन-बौद्ध ग्रंथों के आधार पर आजीविकों के दर्शन को ‘नियतिवाद’ ‘अकर्मण्यवाद’ या ‘भाग्यवाद’ मान लेना गंभीर भूल होगी। आजीविक लोग अपनी जीविका या पेशा करते हुए श्रमण बने हुए थे इसलिए उन्हें किसी भी सूरत में ‘कर्म’ का विरोधी नहीं कहा जा सकता। मध्यकाल के वे सभी नास्तिक संत, जैसे कबीर व रैदास, अपना जातिगत पेशा करते हुए ही अनिश्वरवाद का अलख जगाए हुए थे। चार्वाक भी इसी नास्तिकवादी और भौतिकवादी परंपरा के थे। अतः नियतिवाद भाग्यवाद नहीं है बल्कि वह प्रकृतिवाद है जिसे आदिवासियों के बीच आज भी देखा जा सकता है। आदिवासी दर्शन परंपरा यह मानता है कि सबकुछ प्रकृति-सृष्टि के अधीन है। मनुष्य अपने पराक्रम से उसमें कोई हेर-फेर करने की क्षमता नहीं रखता है। आदिवासी दर्शन की समझ नहीं रखने के कारण दर्शन और इतिहास के अध्येता आजीविकों के दर्शन को नियतिवाद मान बैठे। [१२]
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- Doctrines and History of the Ajivikas, University of Cumbria, UK
- The Ajivikas B.M. Barua (1920), University of Calcutta, West Bengal
- The Ajivikas, A. Banerji (1926), Bihar and Orissa Government Press
- A New Account of the Relations between Mahavira and Gosala, Helen M. Johnson, The American Journal of Philology, Vol. 47, No. 1 (1926), pages 74-82
- Rock-cut cave halls of Ajivikas Government of Bihar, India
- Ajivikas in Malhar, South Kosala, Inscriptions and artwork related to Ajivikas in Chhattisgarh, India, by Ed Murphy (Harvard Law School)
- Ajivakas in Manimekhalai, Rao Bahadur Aiyangar (Translated from Tamil), Madras University, pages 54-57
- Ajivaka, A New Dictionary of Religions, Blackwell Reference (1995), Editor: John R Hinnells
- Early Asceticism in India: Ājīvikism and Jainism, Piotr Balcerowicz, Routledge Advances in Jaina Studies, Routledge, 2015
- खाँटी किकटिया, मक्खलि गोसाल के जीवन पर आधारित मगही उपन्यास, प्यारा केरकेट्टा फाउण्डेशन, रांची, 2018
सन्दर्भ
- ↑ James Lochtefeld, "Ajivika", The Illustrated Encyclopedia of Hinduism, Vol. 1: A–M, Rosen Publishing. ISBN 978-0823931798, page 22
- ↑ Beni Madhab Barua, The Ajivikas, Volume 1, Calcutta University, 1920
- ↑ Arthur Llewellyn Basham, History and Doctrines of the Ajivikas, a Vanished Indian Religion, Motilal Banarsidass Publ., 1951
- ↑ आचार्य हस्तीमलजी महाराज, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, जैन इतिहास समिति, जयपुर, चतुर्थ संस्करण 1999, पृ. 729
- ↑ भगवई : विआहपण्णत्ती : खण्ड-4: शतक (12-16) (मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य तथा अभय देव सूरिकृत वृत्ति एवं परिशिष्ट-शब्दानुक्रम आदि सहित), सम्पादक और भाष्यकार, आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं, राजस्थान, प्रथम संस्करण, अक्टूबर, 2007, पृ. 240-241
- ↑ आचार्य हस्तीमलजी महाराज, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, जैन इतिहास समिति, जयपुर, चतुर्थ संस्करण 1999, पृ. 732
- ↑ डॉ. धर्मवीर, महान आजीवक: कबीर, रैदास और गोसाल, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 34
- ↑ भगवई: विआहपण्णत्ती: खण्ड-4: शतक (12-16) (मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य तथा अभय देव सूरिकृत वृत्ति एवं परिशिष्ट-शब्दानुक्रम आदि सहित), सम्पादक और भाष्यकार, आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं, राजस्थान, प्रथम संस्करण, अक्टूबर, 2007, पृ. 300
- ↑ भगवई : विआहपण्णत्ती : खण्ड-4: शतक (12-16) (मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य तथा अभय देव सूरिकृत वृत्ति एवं परिशिष्ट-शब्दानुक्रम आदि सहित), सम्पादक और भाष्यकार, आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं, राजस्थान, प्रथम संस्करण, अक्टूबर, 2007, पृ. 240
- ↑ आचार्य हस्तीमलजी महाराज, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, जैन इतिहास समिति, जयपुर, चतुर्थ संस्करण 1999, पृ. 729-730
- ↑ Bronkhorst, J., “Ājīvika Doctrine Reconsidered,” in: P. Balcerowicz, ed., Essays in Jaina Philosophy and. Religion, LSJRS 20, Delhi, 2003, 153–178
- ↑ अश्विनी कुमार पंकज, 'खाँटी किकटिया' (मक्खलि गोसाल के जीवन पर आधारित मगही उपन्यास), प्यारा केरकेट्टा फाउण्डेशन, रांची, 2018, भूमिका