किशोर अपराध
जब किसी बच्चे द्वारा कोई कानून-विरोधी या समाज विरोधी कार्य किया जाता है तो उसे किशोर अपराध या बाल अपराध कहते हैं। कानूनी दृष्टिकोण से बाल अपराध 8 वर्ष से अधिक तथा 16 वर्ष से कम आयु के बालक द्वारा किया गया कानूनी विरोधी कार्य है जिसे कानूनी कार्यवाही के लिये बाल न्यायालय के समक्ष उपस्थित किया जाता है। भारत में बाल न्याय अधिनियम 1986 (संशोधित 2000) के अनुसर 16 वर्ष तक की आयु के लड़कों एवं 18 वर्ष तक की आयु की लड़कियों के अपराध करने पर बाल अपराधी की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है। बाल अपराध की अधिकतम आयु सीमा अलग-अलग राज्यों मे अलग-अलग है। इस आधार पर किसी भी राज्य द्वारा निर्धारित आयु सीमा के अन्तर्गत बालक द्वारा किया गया कानूनी विरोधी कार्य बाल अपराध है।
केवल आयु ही बाल अपराध को निर्धारित नहीं करती वरन् इसमें अपराध की गंभीरता भी महत्वपूर्ण पक्ष है। 7 से 16 वर्ष का लड़का तथा 7 से 18 वर्ष की लड़की द्वारा कोई भी ऐसा अपराध न किया गया हो जिसके लिए राज्य मृत्यु दण्ड अथवा आजीवन कारावास देता है जैसे हत्या, देशद्रोह, घातक आक्रमण आदि तो वह बाल अपराधी मानी जायेगा।
परिचय
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से बाल अपराध के लिये आयु को अधिक महत्व नहीं दिया जाता क्योंकि व्यक्ति की मानसिक एवं सामाजिक परिपक्वता सदा ही आयु से प्रभावित नहीं होती, अतः कुछ विद्वान, बालक द्वारा प्रकट व्यवहार प्रवृति को बाल अपराध के लिए आधार मानते हैं, जैसे आवारागर्दी करना, स्कूल से अनुपस्थित रहना, माता-पिता एवं संरक्षकों की आज्ञा न मानना, अश्लील भाषा का प्रयोग करना, चरित्रहीन व्यक्तियों से संपर्क रखना आदि। किन्तु जब तक कोई वैध तरीका सर्वसम्मिति से स्वीकार नहीं कर लिया जाता तब तक आयु को ही बाल अपराध का निर्धारक आधार माना जायेगा। गिलिन एवं गिलिन के अनुसार समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से एक बाल अपराधी वह व्यक्ति है जिसके व्यवहार को समाज अपने लिए हानिकारक समझता है और इसलिए वह उसके द्वारा निषिद्ध होता है।
इस प्रकार बाल अपराध में बालको के असामाजिक व्यवहारों को लिया जाता है अथवा बालकों के ऐसे व्यवहारा का जो लोक कल्याण की दृष्टि से अहितकर होते हैं, ऐसे कार्यों को करने वाला बाल अपराधी कहला ता है। रॉबिन्सन के अनुसार आवारागर्दी, भीख माँगना, निरूद्देश्य इधर-उदर घूमना, उदण्डता बाल अपराधी के लक्षण है।
उपयुर्क्त परिभाषाओं के आधार पर कानून की अवज्ञा करने वाला एवं समाज विरोधी आचरण करने वाला बालक बाल अपराधी होता है जैसा कि न्यूमेयर का कहना है कि बाल अपराधी एक निश्चित आयु से कम वह व्यक्ति है जिसने समाज विराधी कार्य किया है तथा जिसका दुर्व्यवहार कानून को तोड़ने वाला है।
मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय अध्ययनों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि मनुष्य में अपराधवृत्तियों का जन्म बचपन में ही हो जाता है। अंकेक्षणों (स्टैटिस्टिक्स) द्वारा यह तथ्य प्रकट हुआ है कि सबसे अधिक और गंभीर अपराध करनेवाले किशोरावस्था के ही बालक होते हैं। इस दृष्टि से कैशोर अपराध (जुवेनाइल डेलिंक्वेंसी) को एक महत्वपूर्ण कानूनी, सामाजिक, नैतिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्या के रूप में देखा जाने लगा है।
कैशोर अपराधों का स्वरूप सामान्य अपराधों से भिन्न होता है। कानूनी शब्दावली में देश के निर्धारित कानूनों के विरुद्ध आचरण करना अपराध है, किंतु कैशोर अपराध समाजशास्रीय एवं मनोवैज्ञानिक प्रत्यय है। किशोर अवस्था के बालकों द्वारा किए गए वे सभी व्यवहार जो कानूनी ही नहीं वरन् किसी भी दृष्टि से समाज तथा व्यक्ति के लिये अहितकर हों, कैशोर अपराध की सीमा में आते है। यथा---विद्यालय से भागना कानूनी दृष्टि से अपराध नहीं है, किंतु सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हानिकर है। यह एक ओर तो सभी प्रकार के उत्तरदायित्वों से भागना सिखाती है और दूसरी ओर बालक को उचित कार्य से हटाकर अनुचित कार्यों की ओर प्रेरित करती है। इस प्रकार कैशोर अपराध का क्षेत्र अधिक व्यापक है।
किशोरावस्था में व्यक्तित्व के निर्माण तथा व्यवहार के निर्धारण में वातावरण का बहुत हाथ होता है; अत: अपने उचित या अनुचित व्यवहार के लिये किशोर बालक स्वयं नहीं वरन् उसका वातावरण उत्तरदायी होता है। इस कारण अनेक देशों में कैशोर अपराधों का अलग न्यायाविधान है; उनके न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधिकारी बालमनोविज्ञान के जानकार होते है। वहाँ बाल-अपराधियों को दंड नहीं दिया जाता, बल्कि उनके जीवनवृत्त (केस हिस्ट्री) के आधार पर उनका तथा उनके वातावरण का अध्ययन करके वातावरण में स्थित असंतोषजनक, फलत: अपराधों को जन्म देनेवाले, तत्वों में सुधार करके बच्चों के सुधार का प्रयत्न किया जाता है। अपराधी बच्चों के प्रति सहानुभूति, प्रेम, दया और संवेदना का व्यवहार किया जाता है। भारत में भी कुछ राज्यों में बालन्यायालयों और बालसुधारगृहों की स्थापना की गई है।
किशोर बालक अपराध क्यों करते है, इस संबंध में विभिन्न मत हैं। मानवशस्रियों (ऐंथ्रोपालोजिस्ट्स्) ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अपराध का संबंध वंशानुक्रम, शारीरिक बनावट एवं जातिगत विशेषताओं से है। इसी कारण अपराधी जाति (क्रिमिनल ट्राइब्ज़) के सभी व्यक्ति एक ही जातिगत विशेषताओं और एक सी शारीरिक बनावट के होते हैं तथा वे एक सा अपराध करते हैं। शरीरवैज्ञानिकों का मत भी इसी से मिलता जुलता है। उनके मतानुसार विशेष प्रकार की शारीरिक बनावट और प्रक्रियावाला व्यक्ति विशेष प्रकार का अपराध करेगा। किंतु मनोविज्ञान ने सिद्ध किया है कि अपराध का संबंध न तो उत्तराधिकार से होता है और न शारीरिक बनावट से ; उत्तराधिकार में केवल शारीरिक विशेषताएँ ही प्राप्त होती हैं, उनका व्यक्ति की भावनाओं, आकांक्षाओं, प्रवृत्तियों एवं बुद्धि से सीधा संबंध नहीं होता। समाजशास्रियों का कथन है कि अपराध का जन्मदाता दूषित वातावरण, यथा---गरीबी, उजड़े परिवार, अपराधी साथी आदि है। किंतु आधुनिक मनोवैज्ञानिक शोधों द्वारा यह जाना गया है कि एक ही वातावरण ही नही वरन् एक ही परिवार में पले, एक ही मातापिता के बच्चों में से एकआध ही अपराधी होता है, सभी नहीं। यदि अपराध का जन्मदाता वातावरण होता है तो अन्य भाई बहिनों को भी अपराधी बनना चाहिए।
आधुनिक मनोविज्ञान कैशोर अपराधों का मूल मनोवैज्ञानिक स्थितियों में ढूँढ़ता है। उसके अनुसार हर बच्चे की कुछ इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और आवश्यकताएँ होती हैं। उन्हें पूरा करने का वह प्रयत्न करता है। उसके इस प्रयास में अनेक बाधाएँ आती हैं, जिन्हें वह जीतने का प्रयत्न करता है। अपने प्रयत्नों के फल से वह या तो संतुष्ट होता है या असंतुष्ट अथवा उदासीन। किंतु उदासीनता के भाव कम ही हो पाते है। संतोष और असंतोष का संबंध सफलता या उपलब्धि से नहीं हैं वरन् संतोष आपेक्षिक प्रत्यय है। निर्धन किसान अपनी स्थिति में संतुष्ट रह सकता है; किंतु करोड़पति व्यवसायी नहीं। असंतोष को दूर करने का प्रयास मानव स्वभाव है। इसे दूर करने के समाज द्वारा स्वीकृत ढंग जब असफल हो जाते है तब व्यक्ति ऐसा ढंग अपनाता है जो सफल हो, भले ही वह समाज के लिये हानिकर और उसके द्वारा अस्वीकृत ही क्यों न हो। तभी वह अपराधी बन जाता है। यथा---कोई कमजोर विद्यार्थी अनुत्तीर्ण होने पर अपनी कमजोरी का ध्यान करके अपनी स्थिति में संतुष्ट रह सकता है; किंतु कक्षा का तेज विद्यार्थी तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण होने पर आत्महत्या तक कर सकता है। प्रश्न संतोष और असंतोष की मात्रा का है।
निष्कर्ष यह कि बच्चा चाहे शारीरिक कमजोरी से पीड़ित हो, उसकी बुद्धि कम हो, उसके माता पिता अपराधी हों, उसका वातावरण खराब हो, उसी उपलब्धियाँ निम्न स्तर की हों, फिर भी वह तब तक अपराधी नहीं बनेगा, जब तक कि वह अपनी स्थिति से असंतुष्ट न हो और असंतोष को दूर करने के उसके समाजस्वीकृत प्रयास असफल न हो चुके हों।
अपराध एक प्रकार का आत्मप्रकाशन तथा व्यवहार है। किशोर अवस्था के अपराध भी स्वाभाविक व्यवहार के ढंग हैं, केवल उनका परिणाम समाज तथा व्यक्ति के लिये अहितकर होता है। अत: समाज को इस अहितकर स्थिति से बचाने के लिये मनावैज्ञानिक की सहायता से अभिभावकों तथा अध्यापकों को यह देखना होगा कि बच्चे के अपराधी आचरण की कारणभूत कौन सी असंतोषजनक स्थितियाँ विद्यमान है। रोग के कारण को दूर कर दीजिए, रोग दूर हो जाएगा, यह चिकित्साशास्र का सिद्धांत है। अपराधी व्यवहार भी सामाजिक रोग हे। इसके कारण असंतोषजनक स्थिति को दूर करने पर अपराधी व्यवहार स्वयं समाप्त हो जाएगा और अपराधी बालक बड़ा बनकर समाज का योग्य सदस्य तथा देश का उत्तरदायित्वपूर्ण नागरिक बन सकेगा।
बाल अपराध की दर एवं प्रकृति
भारतीय समाज में बाल अपराध की दर दिनोदिन बढ़ती जा रही है, साथ ही इसकी प्रकृति भी जटिल होती जा रही है। इसका कारण है कि वर्तमान समय में नगरीकरण तथा औद्योगिकरण की प्रक्रिया ने एक ऐसे वातावरण का सृजन किया है जिसमें अधिकांश परिवार बच्चों पर नियंत्रण रखने में असफल सिद्ध हो रहे हैं। वैयक्तिक स्वंतत्रता में वृद्धि के कारण नैतिक मूल्य बिखरने लगे हैं, इसके साथ ही अत्यधिक प्रतिस्पर्धा ने बालकों में विचलन को पैदा किया है। कम्प्युटर और इंटरनेट की उपलब्धता ने इन्हें समाज से अलग कर दिया है। फलस्वरूप वे अवसाद के शिकार होकर अपराधां में लिप्त हो रहे हैं।
सन् 2000 के आँकड़ों के अनुसार भारतीय दंड संहिता के अन्तर्गत कुल 9,267 मामले पंजीकृत किये गये तथा स्थानीय एवं विशेष कानून के अन्तर्गत 5,154 मामले पंजीकृत किये गये। बाल अपराध की दर में विभिन्न वर्षो में उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है। 1997 में बालकों में अपराध की दर 0.8 प्रतिशत थी, वही बढ़कर सन् 1998 में 1,0 प्रतिशत था इसके पश्चात् सन 1999-200 मे 0.9 प्रतिशत रही।
बालकों द्वारा किये गये अपराधों मे से भारतीय दंड संहिता के अन्तर्गत सबसे अधिक सम्पत्ति सम्बन्धी थे। सन् 2000 में दण्ड संहिता के अन्तर्गत कुल संज्ञेय अपराधों में से चोरी (2,385), लूटमार (1,497) तथा सेंधमारी (1,241) के मामले पाये गये, इसके अलावा लैंगिक उत्पीड़न के (51.9), डकैती के (32 प्रतिशत), हत्या के (28.6 प्रतिशत), बलात्कार के (24.5 प्रतिशत) मामले पाये गये।
भारतीय दंड संहिता के अन्तर्गत बाल अपराध की सर्वाधिक दर मध्यप्रदेश में 2,681 और महाराष्ट्र में (1,641) पायी गयी। इसी प्रकार महानगरों जैसे बम्बई, दिल्ली में भी बाल अपराध की उच्च दर पायी गयी।
बाल अपराध के प्रकार
बाल अपराध व्यवहार की शैली और समय में विविधता प्रदर्शित करता है। प्रत्येक प्रकार का अपना सामाजिक सन्दर्भ होता है। कारण होते है तथा विरोध और उपचार के अलग स्वरूप होते हैं जो कि उपयुक्त समझे जाते हैं। हावर्ड बेकर (1966) ने चार प्रकार के बाल अपराध बताएँ है।
- (क) वैयक्तिक बाल अपराध
- (ख) समूह समर्थित बाल अपराध
- (ग) संगठित बाल अपराध
- (घ) स्थितिजन्य बाल अपराध
वैयक्तिक बाल अपराध
यह वह बाल अपराध है जिसमें एक व्यक्ति ही अपराधिक कार्य करने में संलग्न होता है। और इसका कारण भी अपराधी व्यक्ति में ही खोजा जाता है। इस अपराधी व्यवहार की अधिकतर व्याख्याएँ मनोचिक्त्सिक समझाते हैं, उनका तर्क है कि बाल अपराध दोषपूर्ण पारिवारिक अन्तक्रिया प्रतिमानों से उपजी मनोवैज्ञानिक समस्याओं के कारण किये जाते हैं। हीले और ब्रोनर (1936) ने अपराधी युवकों की तुलना उन्हीं के अनपराधी सहोदारो से ही और उनके बीच अन्तरों का विश्लेषण किया। उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि 13.0 प्रतिशत अनपराधी सहोदारों की तुलना मे 90.0 प्रतिशत अपराधी किशारों का घरेलू जीवन दुःख भरा था और वेअपने जीवन की परिस्थितियों से असन्तुष्ट थे, उनकी अप्रसन्नता की प्रकृति भिन्न थी। कुछ तो माँ-बाप द्वारा उपेक्षित मानते थे तथा अन्य या तो हीनता का अनुभव करते थे या अपने सहोदरों से ईर्ष्या करते थे या फिर मानसिक तनाव से पीड़ित थे, इन समस्याओं के समाधान के लिए वे अपराध में लिप्त हो गये थे, क्योंकि इससे (अपराध) या तो उनके माता-पिता का ध्यान उनकी और आकर्षित होता था या उनके साथियों का समर्थन उन्हें मिलता था या उनकी अपराध भावना को कम करता था। बन्दूरा और वाल्टर्म ने श्वेत बाल अपराधियों के कृत्यों की तुलना अनपराधी लड़को से ही जिनमें आर्थिक कठिनाईयों के स्पष्ट संकेत नहीं थे, उन्हें पता चला की अपराधी अनपराधीयों से उनकी माताओं के साथ सम्बन्धों की दृष्टि से थोड़ा सा भिन्न ही है, लेकिन उनके पिताओं के साथ अपने सम्बन्धों में कुछ अधिक भिन्न थे, इस प्रकार अपराध में पिता पुत्र सम्बन्ध, माता पुत्र सम्बन्ध की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण दिखाई दिए क्योंकि अपने पिता में आदर्श भूमिका की अनुपस्थिति के कारण अपराधी लड़के नैतिक मूल्यों का अंतरीकरण नहीं कर सके, इसके साथ ही उनका अनुशासन अधिक कठोर था।
समूह समर्थित बाल अपराध
इस प्रकार के अपराध में बाल अपराध अन्य बालकों के साथ में घटित होता है और इसका कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व या परिवार में नही मिलता, बल्कि उस व्यक्ति के परिवार व पड़ोस की संस्कृति में होता है। थ्रेशर शॉ और मैके के अध्ययन भी इसी प्रकार के बाल अपराध की बात करते हैं, मुख्य रूप से यह पाया गया कि युवक अपराधी इसलिऐ बना क्योंकि वह पहले से ही अपराधी व्यक्तियों की संगति में रहता था, बाद में सदरलैंड ने इस तथ्य को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किये। जिसने विभिन्न संपर्क के सिद्धान्त का विकास किया।
संगठित बाल अपराध
इसमें वे अपराध सम्मिलित हैं जो औपचारिक रूप से संगठित गिरोहों द्वारा किये जाते हैं, इस प्रकार के अपराधों का विश्लेषण सन् 1950 के दशक में अमरीका में किया गया था तथा अपराधी उपसंस्कृति की अवधारणा का विकास किया गया था। यह अवधारणाउन मूल्यों और मानदण्डों की ओर संकेत करती है जो समूह के सदस्यों के व्यवहार को निर्देशित करते हैं, अपराध करने के लिए डन्हें प्रोत्साहित करते हैं, इस प्रकार के कृत्यों पर उन्हें प्रस्थिति प्रदान करते हैं और उन व्यक्तियों के साथ उनके संबधो को स्पष्ट करते है जो समूह मानदण्डों से बाहर के समूह होते हैं।
स्थितिजन्य अपराध
स्थितिजन्य अपराध की मान्यता यह है कि अपराध गहरी जड़े नहीं रखता और अपराध के प्रकार और इसके नियंत्रित करने के साधन अपेक्षाकृत बहुत सरल होते हैं, एक युवक की अपराध के प्रति गहरी निष्ठा के बिना अपराधी कृत्य में संलग्न हो जाता है, यह या तो कम विकसित, अन्तः निंयत्रण के कारण होता है या परिवार निंयत्रण में कमजोरी के कारण या इस विचार के कारण कि यदि वह पकड़ा भी जाता है तो भी उसकी अधिक हानि नहीं होगी। डेविड माटजा ने इसी प्रकार के अपराध का सदंर्भ दिया है।
बाल अपराधियों का वर्गीकरण
विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न आधरों पर बाल-अपराधियों का वर्गीकरण किया गया है। उदाहरणार्थ इन्हें 6 श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है।
1. अशाध्यिता उदाहरणार्थ : देर रात तक बाहर रहना,
2. स्कूल से भागना,
3. चोरी,
4 सम्पत्ति की क्षति,
5. हिंसा एवं
6. यौन-अपराध
ईनर और पॉक ने अपराधों के प्रकार के आधार पर पाँच प्रकारों मे वर्गीकरण किया हैं
1. छोटे-छोटे उल्लंघन : यातायात संबधी नियमों का उल्ल्ांघन
2. वृहत उल्लघन : वाहन चोरी संबधी
3. सम्पत्ति सम्बन्धी
4. मादक व्यसन
5. शारीरिक हानि
राबर्ट ट्रोजानोविज (1973) ने अपराधियों को आकस्मिक, असामाजिकतापूर्ण, आक्रामक, कदाचनिक और गिरोह संगठित में वर्गीकत किया है।
मनोवैज्ञानिकों ने बाल अपराधियों को उनके वैयक्ति गुणों या व्यक्तित्व की मनोवैज्ञानिक गत्यात्मकता के आधार पर चार भागों में बाँटा है, मानसिक रूप से दोषपूर्ण मनस्तापी, तणिकामय पीडित और स्थितिजन्य।
बाल अपराध के कारण
बाल अपराध एक सामाजिक समस्या है, अतः इसके अधिकांश कारण भी समाज में ही विद्यमान हैं, इसके कारणों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।
पारिवारिक कारण
परिवार बच्चों की प्रथम पाठशाला है, जहाँ वह अपने माता-पिता एवं भाई-बहनों के व्यवहारों से प्रभावित होता है। जब माता-पिता बच्चों के प्रति अपने दायित्वो का निर्वाह करने में असमर्थ रहते हैं, तो बच्चों से भी श्रेष्ठ नागरिक बनने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। परिवार से संबधित कई कारण बालक को अपराधी बनाने में उत्तरदायी है।
भौतिक वंशानुक्रमण
बच्चों के शरीर और स्वास्थ्य का संबध उसके वंशानुक्रमण से भी है जो कि उसकी शारीरिक और सामाजिक भूमिकाओं को प्रभावित करता है, इटली के अपराधाशास़ी लोम्ब्रोसो ने तो अपराधी प्रवृति को व्यक्ति की शारीरिक विशेषताओं से जनित ही माना था। गोडाई, रिचार्ड डुग्डेल एवं इस्टा बुक ने कालिकाक और ज्यूक परिवारों का अध्ययन करके पाया कि ये परिवार शारीरिक दृष्टि से क्षत थे तथा इन परिवारों की सभी पीढ़ियां अपराधी थी। भारत में भूतपूर्व अपराधी जनजातियों को भी वंशानुक्रमण के आधार पर अपराधी घोषित किया गया था, अपराधी को वंशानुक्रमण की देन मानने वाले विद्वान मेण्डल के वंशानुक्रमण के सिद्धान्त से प्रभावित थे।
किन्तु वर्तमान में अपराध शास्त्र में इस अवधारणा का बहिष्कार किया गया। बर्ट ओर गिलिन ने अपने अध्ययनों मे बाल अपराध को वंशानुक्रमण से संबधित नहीं पाया।
भग्न परिवार निम्न दो प्रकार से टूट सकते हैं - भौतिक रूप से तथा मानसिक रूप से। भौतिक रूप से परिवार के टूटने का अर्थ है - परिवार के सदस्य की मृत्यु हो जाना, लम्बे समय तक अस्पताल, जेल, सेना आदि में रहने के कारण अथवा तलाक और पृथक्करण के कारण सदस्यों का परिवार में साथ-साथ नहीं रहना है। मानसिक रूप से परिवार के टूटने का अर्थ हैं - सदस्य एक साथ तो रहते हैं किन्तु उनमें मनमुटाव, मानसिक संघर्ष एवं तनाव पाया जाता है। हंसा सेठ, कार, बर्ट, बेजहोट, सुलेन्जर व ग्लूक आदि अनेक विद्वानों ने अपने अध्ययनों में पाया कि भग्न परिवार बाल अपराध के जनक है।
अपराधी भाई-बहन
बच्चे अनुकरणप्रिय होते हैं, वे हर अच्छे बुरे काम को बड़ो से अनुकरण के आधार पर सीखते हैं, यदि परिवार में बड़े भाई-बहिन अपराधी हैं और उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं तो बच्चों का व्यक्तित्व विकृत हो जाता है, उनमें विद्रोही भावना के स्वर मुखरित हो जाते हैं, वे दुषित वातावरण से बाहर रहने लगते हैं और गलतसंस्कार प्राप्त कर अपराधी बन जाते हैं, अथवा माता पिता बच्चें को समान रूप से स्नेह नहीं देते, तो ऐसी स्थिति में भी बच्चे अपने को परिवार से अलग कर लेते हैं और उनके मन मे अपराध की भावना जागृत हो जाती हैं।
माता-पिता द्वारा तिरस्कार
माता-पिता द्वारा बच्चे के विकास और अन्तः करण पर सीधा प्रभाव डालते हैं। अंतविवेक की कमी होने के कारण शत्रुता की भावना के साथ मिलकर आक्रामकता को जन्म देती है, ऐण्ड्री (1960) ने भी माना है कि बाल अपराधी अपराधियों की अपेक्षा माता-पिता का प्यार कम पाते हैं।
इसी प्रकार दोषपूर्ण अनुशासन भी बाल अपराध के लिए जिम्मेदार कारक है, अनुशासन का प्रभुत्वपूर्ण दृष्टिकोण बच्चे के मित्र समूह सम्बन्धों को भी प्रभावित करता है क्योकि बच्चा अपने साथियों के साथ स्वतत्रता से व्यवहार नहीं कर पायेगा दूसरी और नम्र अनुशासन बच्चे के व्यवहार को निर्देशित करने के लिए आवश्यक नियंत्रण प्रदान नहीं करेगा, अनुचित या पक्षपातपूर्ण अनुशासन बच्चे में यथेष्ट अन्तः भावना का विकास करने में असफल रहता है।
परिवार की आर्थिक दशा
बच्चों की आवश्यकताओं को जुटा पाने में असमर्थ परिवार भी बच्चे में असुरक्षा पैदा कर सकता है ओर उस नियंत्रण की मात्रा को प्रभावित कर सकता है जो परिवार बच्चे पर डाल सकता है क्योंकि वह भौतिक समर्थन तथा सुरक्षा परिवार के बाहर खेजता है। पीटरसन और बेकर ने बताया कि अपराधियों के परिवार प्रायः भौतिक रूप से कमजोर होते हैं, जो कि बाल अपराधी के स्वंय के प्रत्यक्षण को प्रभावित कर सकते ह्रैं और उसको घर से भागने में सहायक हो सकते है।
भीड़-भाड़ युक्त परिवार
आधुनिक समाज में नगरीकरण के परिणामस्वरूप व्यक्ति को रहने का पर्याप्त स्थान नहीं मिल पता, बड़े परिवार को भी बहुत छोटे स्थान में रहना पड़ता है। इसके कारण माता-पिता न तो बच्चों पर पूर्ण ध्यान दे पाते हैं, न ही कोई आन्तरिक सुरक्षा उन्हें मिल पाती है, मनोरंजन के साधन भी उपलब्ध नहीं होते हैं, अतः बच्चे अपराध की ओर प्रवृत हो जाते हैं, माता-पिता स्वंय ही उन्हें बाहर भेजना पंसद करते है, जहाँ बच्चे अपराधी बालकों की संगति प्राप्त करते हैं और स्वयं भी अपराधी बन जाते हैं।
व्यक्तिगत कारण
पारिवारिक कारणों के अतिरिक्त स्वंय व्यक्ति में ही ऐसी कमियां हो सकती है जिनसे कि वह अपराधी व्यवहार को प्रकट करें।
शारीरिक कारक : जब बालक किसी प्रकार की शरीरिक अक्षमता का शिकार होता है तो उसमें हीनता की भावना विकसित हो जाता है वे अपराध की ओर प्रवृत हो जाते है, सिरिल, बर्ट, हीले तथा ब्रोनर एवं ग्लूक आदि ने बाल अपराधियों के अध्ययन मे ऐसा पाया, हट्टन ने अनेक प्रकार के शारीरिक दोषों जैस बहरापन, स्थाई रोग, शरीरिक अपंगता, बुद्धि की कमी को बाल अपराध का कारण माना है।
मनोवैज्ञानिक कारण
मनौवैज्ञानिकों ने मानसिक असमानताओं को भी बाल अपराध के लिए उत्तरदायी माना हैं, मानसिक कारणों में दो कारक महत्वपूर्ण हैं
मानसिक अयोग्यता
गोडार्ड, हीले एवं ब्रोनर आदि ने अध्ययनो द्वारा यह पाया कि बाल अपराधी मानसिक रूप से पिछडे होते है, क्लेश एवं चासो ने कोलम्बिया विश्विद्यालय में सन् 1935 में अपना एक लेख ‘‘दी रिलेशन बिटविन मोरलिटी एण्ड इण्टलेक्ट प्रकाशित किया जिसमें दर्शाया कि कमजोर मस्तिष्क वाले परिवारों का झुकाव अपराध की ओर अधिक था, मानसिक पिछड़ेपन के कारण उनमें तर्क शक्ति का अभाव होता है।
भावात्मक अस्थिरता और मानसिक संघर्ष
भावात्मक अस्थिरता के कारण भी बच्चे अपराधी हो जाते है, सिरिल बर्ट, हीले एवं ब्रोनर ने अध्ययनों में पाया कि प्रायः बाल अपराधी स्वयं को असुरक्षित अनुभव करते है एवं मानसिक संघर्ष से ग्रसित रहते हें, इसी कारण वे अपराधों की ओर प्रवृत होते हैं।
सामुदायिक कारण
जिस समुदाय में बच्चा रहता है यदि उसका वातावरण अनुपयुक्त है तो वह बालक को अपराधी बना सकता है, सामुदायिक कारकों में से कुछ प्रमुख का हम यहाँ उल्लेख करेंगे।
पड़ोस
पड़ोस का प्रभाव नगरीय क्षेत्रों में अधिक दिखाई देता है, परिवार के अलावा बच्चा अपना अधिकतर समय पड़ोस के बच्चों के साथ व्यतीत करता है, पड़ोस अपराध में व्यक्तित्व सम्बन्धी आवश्यकताओं में व्यवधानबनकर, संस्कृतिक-संघर्ष करके तथा असामाजिक मूल्यों को पोषित करने में सहायक हो सकता है, भीड-भाड़ वाले तथा अपर्याप्त मनोरंजन की सुविधाओं वाले पड़ोस बच्चों की खेल की प्राकृतिक प्रेरणाओं की उपेक्षा करता हैऔर अपराधी समूहों के निर्माण को प्रोत्साहित करता है, पड़ोस में गृह सस्ते होटल, आदि भी अपराधिक गतिविधियाँ के जन्म स्थल होते हैं।
स्कूल
विद्यालय के वातावरण का प्रभाव बच्चों पर अत्यधिक पड़ता है। अध्यापकों का व्यवहार, स्कूल के साथी छात्रों व अध्यापकों के साथ सम्बन्ध, पाठ्यक्रमों की कठोरता, मनोरंजन का अभाव, अयोग्य छात्रों की पदोन्नति आदि कुछ ऐसे कारण है जो बच्चों के कोमल मस्तिष्क को प्रभावित करे उसे अपराधी बना देते हैं। कम अंक प्राप्त करने या फेल होने पर बच्चों को स्कुल छुड़वा दिया जाता है या अध्यापकों द्वारा उनका उत्पीड़न किया जाता है या छात्रों द्वारा मजाक उड़ाया जाता है इससे वे हीनता की भावना से ग्रसित होते हैं और अपराध की ओर प्रवृत हो जाते है।
चलचित्र और अश्लील साहित्य
अनैतिकता, मद्यपान, धूम्रपान से भरे चलचित्र और कामुक पुस्तकें बच्चों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़त हैं। कई बार वे अपराध के तरीके भी सीखते हैं, हमारे देश के कई भागों मे चोरी, सेंधमारीऔर अपहरण आदि सिनेमा के तरीकों का प्रयोग करने के जुर्म में अनेक बालक पकड़े जाते हैं। वे दावा करते हैं कि उन्होंने सिनेमा से अपराध के तरीके सीखे थे। चलचित्र सरलता से धन प्राप्त करने की इच्छा जागृत करके, इन उपलब्धिया ें के लिय विधियाँ सुझाकर और साहस की भावना भरकर, यौन भावनाएँ भड़का कर और दिवास्वप्न दिखाकर भी बच्चों में अपराधी व्यवहार की अभिरूचि का विकास करते हैं।
अपराधी क्षेत्र
अपराधी क्षेत्र में निवास का भी अपराधी प्रवृति से घनिष्ठ संबध है, वेश्याओं के अड्डे, जुआरियों, शराबियों के पास निवास स्थान होने पर बच्चों के अपराधी होने के अवसर अधिक रहते हैं क्योंकि बच्चों मे अनुकरण एवं सुझाव -ग्रहरणशीलता अधिक होने के कारण अपराधी प्रवृतियों के सीखने की संभावना रहती है, शॉ और मैनेंने ने यह बताया कि कई स्थान बच्चों को रखने की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं, शहर केन्द्र एवं व्यापारी क्षेत्र में अपराध अधिक होते हैं, ज्यों-ज्यों शहर के केन्द्र से परिधि की ओर जाते हैं अपराध की दर घटती जाती है, हीले एव ं ब्रोनर की मान्यता है कि अपराध के प्रचलित प्रतिमानों से प्रभावित होकर गंदी बस्तियों के बच्चे अपराध करते हैं। उपयुर्क्त कारकों के अतिक्तिक बाल अपराध के लिए कुछ अन्य कारक भी उत्तरदायी है जैसे मूल्यो के भ्रम, सांस्कारिक भिन्नता एवं संघर्ष, नैतिक पतन, स्वंतत्रता में वृद्धि, आर्थिक मन्दी आदि। स्पष्ट है कि बालकको अपराधी बनाने मे किसी एक कारक का ही हाथ नहीं होता वरन् अनेक कारकों की सह-उपस्थितियों ही बालक को अपराधी बनाने में योग देती है।
बाल अपराध सम्बन्धी सिद्धान्त
मर्टन थ्रेशर, शॅ एवं मैके, भीड कोहेन, क्लोवर्ड और ओहलिन आदि समाशास्त्रीय सिद्धान्तवादियो ने बाल अपराध के अपराधशास्त्रीय ज्ञान में प्रमुख योगदान दिया है जैसे मर्टन का मानक शून्यता सिद्धान्त, यह है कि जब पर्यावरण के भीतर उपलब्ध संस्थात्मक सांधनो ओर उन लक्ष्यों के, जिन्हें व्यक्तियो ने अपने परिवेश मे चाहा था, क बीच कोई विसंगति रह जाती है, तब तनाव या कुण्ठा पैदा होती है ओर प्रतिमान टूटते हैं परिणास्वरूप विचलित व्यवहार का जन्म होता है।
थ्रेशर का गिरोह सिद्धान्त
यह सिद्धान्त समूह अपराध पर केन्द्रीत है थ्रेशर का कहना है कि गिरोह बाल अपराध में सहयोग करता है, गिरोह किशोरावस्था की अवधि में निरन्तर खेल-समूहों और अन्य समूहों के बीच संघर्ष से उत्पन्न होता है और फिर अपने सदस्यों के अधिकारों की रक्षा तथा उन आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिये उस गिरोह में परिवर्तित हो जाताहै, जो उनका पर्यावरण और उनका परिवार उन्हें प्रदान नहीं करता है।
धीरे-धीरे गिरोह विशिष्ठ गुणों का विकास करता है, जैसे कार्य करने की विधि, अपराधी तकनीकों को प्रचारित करता है, पारस्परिक हितों और अभिरूचियो को उकसाता है और अपने सदस्यों को सुरक्षा प्रदान करता है।
शॉ और मैके का सांस्कृतिक संक्रमण का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधीक्षेत्र बाल अपराध की ऊँची दर में सहायक हैं- अपराधी क्षेत्र निम्न आय तथा भोतिक रूप से अवांछित क्षेत्र होते हैं, जिनके सदस्य आर्थिक उपेक्षाओं का शिकार होते हैं, इन क्षेत्रों में मौजूद अपराधी परम्पराओं का प्रभाव ही उन्हें अपराधी बनाता है।
जार्ज हरबर्ट भीड का 'स्व' का सिद्धान्त और भूमिका सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार कुछ सीमित संख्या में ही व्यक्ति अपराधी पहचान धारण करते हैं जबकि अधिक संख्या में लोग कानून पालक ही रहते हैं, अपराधी बनने तथा अपराधी पहचान धारण करने में कानून उल्लघंन करने वालों की केवल संगति करने से भी कुछ अधिक सम्मिलित होता है। इस प्रकार के संपर्क व्यक्ति के लिए सार्थक होने चाहिए और ‘‘स्व’’ तथा ‘‘भूमिका’’ की उप अवधारणाओं के समर्थक होने चाहिये जिनके प्रति वह समर्पित होना चाहता है। एलबर्ट कोहेन का श्रमिक वर्ग के लड़के तथा मध्यमवर्गीय मानदण्ड मानता है कि अपराध मुख्य रूप से श्रमिक वर्ग की घटना है, श्रमिक वर्ग का लड़का जब कभी मध्यमवर्गीय जगत में जाता है तो वह स्वंय को स्थिति में सबसे नीचे जाता है वह मध्यमवर्गीय मूल्यों को एक स्तर तक मानता है और कुछ सीमा तक वह स्वंय को मध्यमवर्गीय मानकों में कर लेता है। इसलिये उसके समक्ष समायोजन की समस्या आती है। अपराधी उपसंस्कृति इन बालकों को स्थिति का आकार प्रदान करके समायोजन की समस्या हल करती है। अपनी सफलता के लिये प्रतिस्पर्धात्मक संघर्ष का सामना करने के लिये व्यवहार कुशन न होने के कारण श्रमिक वर्ग के लड़के कुण्ठा का अनुभव करते हैं, मध्यमवर्गीय मूल्यों तथा मानकों के विरूद्ध प्रतिक्रिया करते हैं और उनके अनुपयोगी मूल्यों को अपनाते हैं, समूह या गिरोह की अपराधी क्रिया मध्यमवर्गीय संस्थाओं के विरूद्ध वैधताऔर समर्थन प्रदान करती है।
क्लोवार्ड और ओहलिन का सफल लक्ष्यों और अवसर संरचना सिद्धान्त के अनुसार जब कभी बाल अपने लक्ष्यों को वैद्य तरीकों से प्राप्त करने मे बाधाओं और अपनी आंकाक्षाओं को निम्न स्तर तक लाने में असमर्थता के कारण, निम्नवर्गीय युवक गहन कुण्ठाओं का अनुभव करते हैं जो उन्हें अवैध विकल्पों और अवज्ञा की खोज में व्यस्त कर देता है।
वाल्टर मिलर का निम्नवर्गीय संरचन सिद्धान्त
निम्नवर्गीय संस्कृति की बात करता है जो प्रवाव, प्रवजन और गतिशीलता के परिणामस्वरूप उभरती है वे व्यक्ति जो इन प्रक्रियाओ के फलस्वरूप पिछड़ जाते हैं वे निम्न वर्ग के सदस्य होते हें वे एक अलग प्रकार के व्यवहार को विकसित कर लेते हैं जो विशिष्ट रूप से कठोरता, चुस्ती, उत्तेजना, भाग्य और स्वायतत्ता जैस गुणों पर आधारित होता है।
डेविड माट्जा का बहाव सिद्धान्त
माटजा का मानना है कि व्यक्ति न तो पूर्णरूपेण स्वंतत्र है न ही व पूर्णरूपेण निंयत्रित है बल्कि बहवा स्वंतत्रता और नियंत्रण के कहीं बीच में है, इसलिये युवक अपराधी तथा परम्परात्मक क्रिया के बीच बहाव रहता है, यद्यपि युवक की अधिकांश क्रियाऐं कानून के अनुसार होती हैं, फिर भी यदा-कदा वह अपराध की ओर बह जाता है क्योंकि सामन्य परम्परात्मक नियंत्रण जो अपराधी व्यवहार में मौजूद होते हैं बहाव की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप निष्प्रभावी हो जाते है। जब वह अपराध में लिप्त हो जाता है तो फिर वह परम्परात्मकता की ओर वापस बहकता है। इस प्रकार माट्जा ने ‘‘अपराध’’ की इच्छाओं पर जोर दिया है।
यदि हम बाल अपराध से सम्बन्धित सभी समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों पर विचार करें तो यह कहा जा सकता है कि सभी समाजशास्त्रियों ने पर्यावरण, सामजिक संरचना और सीखने की प्रक्रिया पर बल दिया है।
बाल अपराधियों के उपचार की विधियाँ
मनोचिकित्सा
यह मनौवैज्ञानिक साधनों से संवेगात्मक और व्यक्तित्व संबधी समस्याओं का निदान करती है, यह बाल अपराधी के विगत जीवन में कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों के विषय में भावनाओं ओर अभिधारणाओं को बदलकर उपचार करती हैं। जब बच्चें के संबध प्रारम्भिक अवस्था में अपने माँ-बाप से अच्छे नहीं होते, तो उसका संवेगात्मक विकास अवरूद्ध हो जाता है, परिणामस्वरूप अपने परिवार के भीतर ही सामन्य तरीकों से संतुष्ट न होकर वह अपनी बाल आकांक्षाओं को संतुष्ट करने के प्रयत्न में अक्सर आवेगी हो जाता है। इन आकांक्षाओंएवं आवेगों की संतुष्टि असामाजिक व्यवहार का रूप धारण कर सकती है। मनोचिकित्सा के माध्यमसे अपराधी को चिकित्सक द्वारा स्नेह और स्वीकृति के वातावरण में विचरण करने ि दया जाता है।
यथार्थ चिकित्सा
यथार्थ चिकित्सा इस विचार पर आधारित है कि अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति न कर पाने वाले व्यक्ति अनुत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार करते हैं, यथार्थ चिकित्सा का उद्देश्य अपराधी बालक के जिम्मेदारी से काम करने में सहायता प्रदान करना अर्थात् असामाहिक क्रियाओं से बचाना है। यह विधि व्यक्ति के वर्तमान व्य वहार का अध्ययन करती है।
व्यवहार चिकित्सा
इसमें नवीन सीखने की प्रक्रियाओं के विकास द्वारा बाल अपराधी के सीखे हुए व्यवहार मे ंसुधार लाया जाता है। व्यवहार के पुरस्कार या दण्ड द्वार बदला जाता है, नकारातमक प्रबलन निषेधात्मक व्यवहार (अपराधी क्रियाओं) को कम करेगा जबकि सकरात्मक प्रबलन (जैसे पुरस्कार) सकरात्मक व्यवहार को बनाए रखेगा। व्यवहार को बदलने में दोनों ही प्रकार के कारकों का प्रयोग किया जा सकता है।
क्रिया चिकित्सा
कई बच्चों में समूह स्थितियो मे प्रभावी ढंग से मौखिक संवाद करने की क्षमता नहीं होती, क्रिया चिकित्सा विधि में बच्चों को उनमुक्त वातावरण में कुछ न कुछ कार्य करवाये जाते हैं। जहाँ वह अपनी आक्रामकता की भावना को रचनातमक कार्यों में, खेल या शैतानी में अभिव्यक्त कर सकता है।
परिवेश चिकित्सा विधि
यह ऐसा वातावरण पैदा करती है जो सुविधाजनक अर्थपूर्ण परिवर्तन तथा संजोषजनक समायोजन प्रदान करता है, यह उन लोगों के लिये प्रयोग किया जाता है, जिनका विचलित व्यवहार जीवन की विषम स्थितियों के प्रतिक्रियास्वरूप होता है।
उपर्युक्त विधियों के अतिरिक्ति बाल अपराधियों को उपचार में तीन और विधियों का प्रयोग भी किया जाता है :
- 1. व्यक्तिगत समाज कार्य अर्थात् कुसमायोजित बच्चे को उसकी समस्याओं से निपटने में सहायता करता है। व्यक्तिगत समाजिक कार्यकर्ता परिवीक्षा अधिकारी कारगार सलाहकार हो सकता है।
- 2. व्यक्तिगतसलाह अथा्र्त अपराधीबालक को उसकी तुरन्त स्थिति को समझना और अपनी समस्या का समाधान करने के लिये पुनर्शिक्षित करना
- 3. व्यवसायिक सलाह अर्थात् बाल अपराधी को उसके भावी जीवन के चुनाव में सहायता करना है।
बाल अपराध को रोकने के उपाय
बाल अपराधों को रोकने के लिये वर्तमान में दो प्रकार के उपाय किये गए हैं प्रथम उनके लिए नए कानूनों का निर्माण किया गया है ओर द्वितीय सुधार संस्थाओं एव स्कूलों का निर्माण किया गया है जैसे उन्हें रखने की सुविधाएँ हैं, यहाँ हम दोनों प्रकार के उपायों का उल्लेख करेंगे।
कानूनी उपाय
बाल अपराधियों को विशेष सुविधा देने ओर न्याय की उचित प्रणाली अपनाने के लिये बाल-अधिनियम और सुधारालय अधिनियम बनाए गए है। भारत मे बच्चों की सुरक्षा के लिए 20वीं सदी की दूसरी दशाब्दी में कई कानून बनें सन् 1860 में भारतीय दण्ड संहिता के भाग 399 व 562 में बाल अपराधियों को जेल के स्थान पर रिफोमेट्रीज में भेजने का प्रावधान किया गया। दण्ड विधान के इतिहास में पहली बार यह स्वीकार किया कि बच्चों को दण्ड देने के बजाच उनमें सुधार किया जाए एवं उन्हें युवा अपराधियों से पृथक रखा जाए।
संपूर्ण भारत के लिए सन् 1876 में सुधारालय स्कूल अधिनियम बना जिसमें 1897 में संशोधन किया गया, यह अधिनियम भारत के अन्य स्थानों पर 15 एवं बम्बई में 16 वर्ष के बच्चों पर लागू होता था, इस कानून में बाल-अपराधियों को औद्योगिक प्रशिक्षण देने की बात भी कही गयी थी, अखिल भारतीय स्तर के स्थान पर अलग-अलग प्रान्तों मे बाल अधिनियम बने, सन् 1920 में मद्रास, बंगाल, बम्बई, दिल्ली, पंजाब में एवं 1949 में उत्तरप्रदेश मै और 1970 में राजस्थान मे बाल अधिनियम बने, बाल अधिनियमों में समाज विरोधी व्यवहार व्यक्त करने वाले बालकों को प्रशिक्षण देने तथा कुप्रभाव से बचाने के प्रयास किये गए, उनके लिये दण्ड के स्थानपर सुधार को स्वीकार किया गया। 1986 में बाल न्याय अधिनियम पारित किया गया जिसमें सारे देश में एक समान बाल अधिनियम लागू कर दिया गया। इस अधिनियम के अनुसार 16 वर्ष की आयु से कम के लड़के व 18 वर्ष की आयु से कम की लड़की द्वारा किए गए कानूनी विरोधी कार्यो को बाल अपराध का श्रेणी में रखा गया। इस अधिनियम में उपेक्षित बालकोंं तथा बाल अपराधियों को दूसरे अपराधियो के साथ जेल मे रखने पर रोकलगा दी गई, उपेक्षित बालकों को बाल गृहों का अवलोकन गृहों में रखा जाएगा। उन्हें बाल कल्याण बोर्ड के समक्ष लाया जाएगा जबकि बाल अपराधियों को बाल न्यायलाय के समक्ष। इस अधिनियम में राज्यों को कहा गया कि वे बाल अपराधियों के कल्याण और पुनर्वास की व्यवस्था करेंगे।
बाल न्यायालय
भारत में 1960 के बाल अधिनियम के तहत बाल न्यायालय स्थापित किये गये है। सन् 1960 के बाल अधिनियम का स्थान बाल न्याया अधिनियम 1986 ने ले लिया है। इस समय भारत के सभी राज्यों मे बाल न्यायालय है। बाल न्यायालय मे एक प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट, अपराधी बालक, माता-पिता, प्रोबेशन अधिकारी, साधारण पोशक मे पुलिस, कभी-कभी वकील भी उपस्थित रहते हैं, बाल न्यायालय का वातावरण इस प्रकार का होता है कि बच्चे के मष्तिष्क में कोर्ट का आंतक दूर हो जाए, ज्यों ही कोई बालक अपराध करता है तो पहले उसे रिमाण्ड क्षेत्र में भेजा जाता है और 24 घंटे के भीतर उसे बाल न्यायालय के सम्मुख प्रस्त्ुत किया जाता है, उसकी सुनवाई के समय उस व्यक्ति को भी बुलाया जाता है जिसके प्रति बालक ने अपराध किया। सुनवाई के बाद अपराधी बालकों को चेतवनी देकर, जुर्माना करके या माता-पिता से बॉण्ड भरवा कर उन्हें सौंप दिया जाता है अथवा उन्हें परिवीक्षा पर छोड़ दिया जाता है या किसी सुधा र संस्था, मान्यता प्राप्त विद्यालय परिवीक्षा हॉस्टल में रख दिया जाता है।
सुधारात्मक संस्थाएँ
बाल अपराधियों को रोकने का दूसरा प्रयास सुधारात्मक संस्थाओं एवं सुधरालयों की स्थापना करने किया गया है जिनमें कुछ समय तक बाल अपराधियों को रखकर प्रशिक्षण दिया जाता है, हम यहाँ कुछ ऐसी संस्थाओं का उल्लेख करेंगें -
- रिमाण्ड क्षेत्र या अवलोकन - जब बाल अपराधी पुलिस द्वारा पकड़ लिया जाता है तो उसे सुधारात्मक रख जाता है। जब तक उस पर अदालती कार्यवाही चलती है, अपराधी इन्हीं सुधरालयों में रहता है। यहाँ पर परिवीक्षा अधिकारी बच्चे की शारीरिक व मानसिक स्थितियों का अध्ययनकरता हैं उन्हें मनोरंजन, शिक्षा एवं प्रशिक्षण आदि दिया जाता है ऐसे गृहों में बच्चें से सही सूचनाएँ प्राप्त की जाती हैं जो वे न्यायाधीश के सम्मुख देने से घबराते है। भारत में दिल्ली एवं अन्य 11 राज्यों में रिमाण्ड होना है। अब इनका स्थान सम्प्रेक्षण गृहों ने ले लिया है।
- प्रमाणित या सुधारत्मक विद्यालय - प्रमाणित विद्यालय में बाल अपराधियों को सुधार हेतु रखा जाता है। इन विद्यालयों को सरकार से अनुदान प्राप्त ऐच्छिक संस्थाओं चलाती है। इन स्कूलों में बाल अपराधियों को कम से कम तीन वर्ष और अधिकतम सात वर्ष की अवधि के लिये रखे जाते है। 18 वर्ष की आयु के बाल अपराधी के बोस्टले स्कूल के स्थानान्तरित कर दिये जाते हैं। इन स्कूलों में सिलाई, खिलौने बनाने, चमड़े की वस्तुएँ बनाने और प्रशिक्षण दिया जाताहै। प्रत्येक प्रशिक्षण कार्यक्रम दो वर्ष के लिए होता है, बच्चों को स्कूल से ही कच्चा माल प्राप्त होता है और उसके द्वारा निर्मित वस्तुओं को बाजार में बेच दिया जाता है और लाभ उसके खाते मेंं जमा कर दिया जाता है। जमा की गई धनराशि एक निश्चित मात्रा तक पहुँचने के बाद स्कूल के बच्चें के केवल राज्य के उपयोग के लिए ही वस्तुओं का उत्पादन करना होता है। बच्चों के 5वें दर्जे तक की बुनियादी शिक्षा भी दी जाती है वर्ष के अन्त में उसको विद्यालय निरीक्षक द्वारा संचालित परीक्षा में भी भाग लेना होता हैं। यदि कोई बाल पाँचवी कक्षा के बाद भी पढ़ना चाहता है तो उसे बाहर के किसी विद्यालय में प्रवेश दिला दिया जाता है।
बोस्टल स्कूल इस प्रणाली के जन्मदाता एल्विन रेगिल्स ब्रादूस थे, यहाँ उन्हीं बालको को रखा जाता है जिसकी आयु 15 से 21 वर्ष तक की होती है। उन्हें यहाँ प्रशिक्षण एवं निर्देशन दिये जाते हैं तथा अनुशासन में रखकर उसका सुधार किया जाता है। अवधि समाप्त होने, अच्छे आाचरण का आश्वासन देने एवं भविष्य में अपराध न करने का वचन देने पर अपराधी को इस विद्यालय से मुक्त किया जाता है। ये स्कूल अपराधी का समाज से पुनः सांमजस्य कराने में योग देते है।
- परिवीक्षा होस्टल - यह बाल अपराधियों के परिवीक्षा अधिनिमय के अन्तर्गत् स्थापित उन बाल अपराधियों के आवासीय व्यवस्था एवं उपचार के लिए होते है जिन्हें परिवीक्षा अधिकारी की देखरेख में परिवीक्षा पर रिहा किया जाता है। परिवीक्षा हॉस्टल निवासियों को बाजार जाने की तथा अपनी इच्छा का काम चुनने की पूर्ण स्वंतत्रता होती है। विभिन्न देशों की भाँति भारत में भी बाल अपराधियों को सुधारने के लिये प्रयास किये गये हैं और बाल अपराध की पुनरावृति में कमी आयी है फिर भी इन उपायों में अभी कुछ कमियाँ हैं जिन्हें दूर करना आवश्यक है। बालक अपराध की ओर प्रवेश नहीं हो, इसके लिए आवश्यक है कि बालकों को स्वस्थ मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराये जाँए, अश्लील साहित्य एवं दोषपूर्ण चलचित्रों पर रोक लगायी जाए, बिगड़े हुए बच्चें को सुधारने में माता-पिता की मदद करने हेतु बाल सलाकार केन्द्र गठित किये जायें तथा सम्बन्धित कार्मिकों को उचित प्रशिक्षण दिया जाए, संक्षेप मे बाल अपराध की रोकथाम के लिए सरकारी एजेन्सियों (जैसे समाज कल्याण विभाग) शैक्षिक संस्थाओं, पुलिस, न्यायपालिका, सामाजिक कार्यकताओं तथा स्वैच्छिक संगठनों के बीच तालमेल की आवश्यकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
- बर्ट, सी : दि यंग डेलिंक्वेंट;
- क्वैरेसियस : जुवेनाइल डेलिंक्वेंसी ऐंड दि स्कूल ;
- हूटन : क्राइम ऐंड दि मैन;
- इस्लर : सर्चलाइट्स आन् डेलिक्वेंसी (संकलन) ;
- हीली ऐंड ब्रानर : न्यू लाइट्स आन डेलिंक्वेंसी ऐंड इट्स ट्रीटमेंट;
- थ्रैशर : जुवेनाइल डेलिंक्वेंसी ऐंड क्राइम प्रिवेंशन (लेख) ;
- आइकहार्न : दि वेवर्ड यूथ ;
- स्मिथ, एच0 : अवर टाउंस : ए क्लोज अप;
- शा ऐंड मैकी : जुवेनाइल डेलिंक्वेंसी ऐंड अरबन एरियाज़;
- यंग : सोशल ट्रीटमेंट इन प्रोबेशन ऐंड डेलिंक्वेंसी;
- गोरिंग : दि इंग्लिश कन्विक्ट;
- लांब्रासा : क्राइम्, इट्स काज़ेज ऐंड रेमेडीज़;
- अपराध संबंधी भारत सरकार की रिपोर्टें;
- किशोरसदन, बरेली की रिपोर्टें।