इतालवी साहित्य
इटली में मध्ययुग में जिस सयम मोंतेकास्सीनो जैसे केंद्रों में लातीनी में अलंकृत शैली में पत्र लिखने, अलंकृत गद्य लिखने (आर्तेस दिक्तांदी, अर्थात् रचनाकला) की शिक्षा दी जा रही थी उस समय विशेष रूप से फ्रांस में तथा इटली में भी नवीन भाषा में कविता की रचना होने लगी थी। अलंकृत लययुक्त मध्ययुगीन लातीनी का प्रयोग धार्मिक क्षेत्र तथा राजदरबारों तक ही सीमित था, किंतु रोमांस बोलियों में रचित कविता लोक में प्रचलित थी। चार्ल्स मान्य तथा आर्थर की वीरगाथाओं को लेकर फ्रांस के दक्षिणी भाग (प्रोवेंसाल) में 12वीं सदी में प्रोवेंसाल बोली में पर्याप्त काव्यरचना हो चुकी थी। प्रोवेंसाल बोली में रचना करनेवाले दरबारी कवि (त्रोवातोरी) एक स्थान से दूसरे स्थान पर आश्रयदाताओं की खोज में घूमा करते थे और दरबारों में अन्य राजाओं का यश, यात्रा के अनुभव, युद्धों के वर्णन, प्रेम की कथाएँ आदि नाना विषयों पर कविताएँ रचकर यश, धन एवं सम्मान की आशा में राजा रईसों के यहाँ उन्हें सुनाया करते थे। इतालवी राजदरबार से संबंध रखनेवाला पहला दरबारी कवि (त्रोवातोरे) रामवाल्दो दे वाकेइरास कहा जा सकता है जो प्रावेंसा (फ्रांस) से आया था। इस प्रकार के कवियों के समान उसकी कविता में भी प्रेम, हर्ष, वसंत तथा हरे भरे खेतों और मैदानों का चित्रण है तथा भाषा मिश्रित है। सावोइया, मोंफेर्रातो, मालास्पीना, एस्ते और रावेन्ना के रईसों के दरबारों में ऐसे कवियों ने आकर आश्रय ग्रहण किया था। इटली के कवियों ने भी प्रावेंसाल शैली में इस प्रकार की काव्यरचना की। सोरदेल्लो दी गोइतो (मूत्यु 1270 ई.), लांफ्रोको क्वीगाला, पेरचेवाल दोरिया जैसे अनेक इतालवी त्रोवातोरी कवि हुए। दी गोइतो का तो दांते ने भी स्मरण किया है। इतालवी काव्य का आरंभिक रूप त्रोवातोरी कवियों की रचनाओं में मिलता है।
धार्मिक, नैतिक तथा हास्यप्रधान लोकगीत
इतालवी साहित्य के प्राचीनतम उदाहरण पद्यबद्ध ही मिलते हैं। 12वीं 13वीं सदी की धार्मिक पद्यबद्ध रचनाएँ तत्कालीन लोकरुचि की परिचायक हैं। धार्मिक आंदोलनों में आसीसी के संत फ्रांचेस्को (1182-1226) के व्यक्तित्व ने जनसामान्य के हृदय का स्पर्श किया था। ऊंब्रिया की बोली में रचित उनका सरल भावुकतापूर्ण गीत इल-कांतीको दी फ्राते सोले (सूर्य का गीत) तथा उनके अनुयायी ज्याकोमीको दा वेरोना की पद्यरचना दे जेरूसलेम चेलेस्ती (स्वर्गीय जेरूसलेम) तथा 13वीं सदी में रचित लाउदे (धार्मिक नाटकीय संवाद) इन सबमें लोकरुचि की धार्मिक भावना से युक्त कविता का स्वरूप मिलता है। उत्तरी इटली के ऊगोच्योने दा लोदी की धार्मिक नैतिक कृति लव्रो (पुस्तक), गेरारदो पेतेग का सुभाषित संग्रह (नोइए), वोनवेसीन देल्ला रोवा (मृत्यु 1313 ई. के लगभग) का नैतिक पद्यसंग्रह क्रोंत्रास्ती (विषमताएँ), त्रात्तातो देई मेसी (महीनों का परिचय-बारहमासा जैसा), लीव्रो देल्ले त्रे स्क्रीतूरे (तीन लेखों की पुस्तक) प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। इतालवी साहित्य को लययक्त पद्य इसी धारा ने प्रदान किया। इस काल में लोकगीत तथा मसखरों की पद्यबद्ध हल्के हास्य से युक्त रचनाएँ भी इतालवी साहित्य के विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। विवाहदि विभिन्न अवसरों पर गाए जानेवाले लोकनृत्य नाट्य का अच्छा उदाहरण बोलोन का अवावील का गीत है। लोक में प्रचलित इस काव्यधारा ने शिष्ट कवियों के लिए काव्य के नमूने प्रस्तुत किए। इसी प्रकार का एक रूप ज्यूल्लारी राजा रईसों के दरबारों में घूमा करते थे और स्वरचित तथा दूसरों की हास्यप्रधान रचनाओं को सुनाकर मनोरंजन किया करते थे। ऐसी रचनाओं में तोस्काना का साल्वा लो वेस्कोवो सेनातो (12वीं सदी, पीसा के आर्चबिशप की प्रशंसा) इतालवी साहित्य के प्राचीनतम उदाहरणों में से माना जाता है। सिएना के मसखरे (भाँड़) रूज्येरी अपूलिएसे (13वीं सदी का पूर्वार्ध) की रचनाएँ वांतो (अभिमान), व्यंग्यकविता पास्स्योने उल्लेखनीय हैं। लोककाव्य और शिष्ट साहित्यिक कविता के बीच की कड़ी मसखरों की कविताएँ तथा धार्मिक नैतिक पद्यबद्ध रचनाएँ प्रस्तुत करती हैं। किंतु इतालवी साहित्य का वास्तविक आरंभ सिसिली के सम्राट् फेदेरीको द्वितीय के राजदरबार के कवियों से हुआ।
सिचिलीय (सिसिलीय) और तोस्कन काव्यधारा
फेदेरीको द्वितीय (1194-1250) तथा मानफ्रेदी (मूत्यु 1266 ई.) के राजदरबारों में कवियों तथा विद्धानों का अच्छा समागम था। उनके दरबारों में इटली के विभिन्न प्रांतों से आए हुए अनेक कवि, दार्शनिक, संगीतज्ञ तथा नाना शास्त्रविशारद थे। इन कवियों के सामने प्रावेंसाल भाषा तथा त्रोवातोरी कवियों के नमूने थे। उन्हीं आदर्शों को सामने रखकर इन कवियों ने सिसली की तत्कालीन भाषा में रचनाएँ कीं। विषय, व्यक्त करने का ढंग, प्रवृत्तियों आदि अनेक की समानताएँ इन कवियों की कविताओं में मिलती हैं। इनमें से पिएर देल्ला विन्या, आर्रीगो तेस्ता द"अक्वीनो (जेनोवा निवासी), ज्याकोमो दा लेंतीनो तथा सम्राट् के पुत्र एँजो के नाम प्रसिद्ध हैं। इन्होंने साहित्यिक भाषा को एकरूपता दी। वेनवेंतो के युद्ध (1266 ई.) के पश्चात् सिसिली से साहित्यिक केंद्र उठकर तोस्काना पहुँचा। फ्लोरेंस का राजनीतिक महत्त्व भी इसके लिए उत्तरदायी था। वहाँ प्रेमपूर्ण विषयों के गीतिकाव्य की रचना पहले से ही प्रचलित थी। त्रोवातोरी कवियों का प्रभाव पड़ा चुका था। फ्लोरेंस की काव्यधारा में सबसे प्रधान कवि गुइत्तोने द"आरेज्जो (1225-94) है। इसने अनेक कवियों को प्रभावित किया। वोनाज्यूतां दा लूका, क्यारो दावांजाती आदि इस धारा के कवियों ने फ्लोरेंस में काव्य की ऐसी भूमि तैयार की जिसपर आगे चलकर सुंदर काव्यधारा प्रवाहित हुई। इस युग की रुचि पर प्रभाव डालनेवाला लेखक ब्रूनेत्तो लातीनी (1220-1293) था जिसका स्मरण दांते ने अपनी कृति में किया है। उनकी रूपक काव्यकृति तेसोरेत्तो (खजाना) में अनेक विषयों पर विचार किया गया है।
प्रेम की भावना से प्रेरित होकर कोमल पदावली में लिखने वाले कवियों की काव्यधारा का दांते ने "दोल्चे स्तील नुओवो" (मीठी नई शैली) नाम दिया। इस काव्यधारा का प्रभाव आगे की कई पीढ़ियों के कवियों पर पड़ता रहा। इस नई काव्यधारा के प्रवर्तक बोलोन के गुइदो गुइनीचेल्ली (1230-1276) माने जाते हैं। गूइदो कावाल्कांती (1252-1300) का गीत दोन्ना में प्रेगा पेर्के इओ वोल्या दीरे (महिला मेरी प्रार्थना क्यों करती है, मैं कहना चाहता हूँ) इस काव्यधारा का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है। कावालवांती वास्तव में प्रेम-काव्य-धारा का दांते के पूर्व सबसे बड़ा प्रतिनिधि कवि है। लायो ज्यान्नी, ज्यान्नी आल्फानी, चीनो दा पिस्ताइया (1270-1336), दीनो फ्रेस्कोवाल्दी (मृत्यु 1316 ई.) इस धारा के अन्य कवि हैं।
13वीं सदी में कविता की प्रधानता रही। गद्य अपेक्षाकृत कम लिखा गया। सिएना के हिसाबखातों में प्रयुक्त गद्य के उदाहरण तथा कुछ व्यापारिक पत्रों के अतिरक्त मार्को पोलो की यात्राओं का विवरण इल मिलियोवे, कहानीसंग्रह नोवेल्लीनो तथा धार्मिक और नेतिक विषयों पर लिखे गए पत्रों-ले लैत्तेरे-का संग्रह, कथासंग्रह लीव्रोदेई सेत्ते सावी आदि उल्लेखनीय गद्यरचनाएँ हैं। इन रचनाओं में लोक में प्रचलित सहज गद्य तथा कृत्रिम गद्यशैली दोनों रूप मिलते हैं।
नई मीठी शैली काव्यधारा के साथ ही एक और धारा प्रवाहित हो रही थी जिसमें साधारण श्रेणी के लोगों के मनोरंजन की विशेष सामग्री थी। खेलों, नृत्यों, साधारण रीति रिवाजों को ध्यान में रखकर ये कविताएँ लिखी जाती थीं। फोल्गोरे दा सान जिमीनियानो (दरबारी कवि) ने दिनों, महीनों, उत्सवों को लक्ष्य करके कई सॉनेट लिखे हैं। ऐसा ही कवि चेक्को ऑजियोलिएरी है, इसका प्रसिद्ध सॉनेट है-स"2--" फोस्से फोको, अरदेरेइ ल" मोंदो (अगर मैं आग होता तो संसार को जला देता)। इसी धारा में बुद्धिवादी उपदेशक कवि वोनवेसीन दा रीवा आदि रखे जा सकते हैं। धार्मिक साहित्य की दृष्टि से याकोपोने दा तोदी भी स्मरणीय हैं।
दांते, पेत्रार्का, बोक्याच्यो-मीठी नई शैली का पूर्णतम विकास तथा इतालवी साहित्य का बहुमुखी विकास इन तीन महान साहित्यकारों की कृतियों में मिलता है। इतालवी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं दांते अलिघिएरी (1265-1321)। दांते की प्रतिभा अपने समकालीन साहित्यकारों में नहीं, विश्वसाहित्य के सब समय के काव्यों में बहुत ऊँची है। समकालीन संस्कृति को आत्मसात् करके उन्होंने एक नया मोड़ दिया। उनका जीवन काफी घटनापूर्ण रहा। उनकी कविता का प्रेरणास्रोत उनकी प्रेमिका बेआत्रीचे थी। वीता नोवा (नया जीवन) के अनेक गीत प्रेमविषयक हैं। यह प्रेम आदर्शवादी प्रेम है। बेआत्रीचे की मृत्यु के बाद दांते का प्रेम जैसे एक नवीन कल्पना और सौंदर्य से युक्त हो गया था। वीता नोवा के गीतों में कल्पना, संगीत, आश्चर्य सबका सुंदर समन्वय है। इसी के समान अप्रौढ़ कृति इल कोंवीवियो (सहपान) है जिसमें इतालवी गद्य का प्रथम सुंदर उदाहरण मिलता है। इस कृति में दांते ने कुछ गीतों का व्याख्या की है, वे अलग भी ले रीमे में मिलते हैं। इतालवी भाषा पर लातीनी में दांते की कृति दे वुल्गारी एलोक्वेंतिया है। दांते की राजनीतिक विचारधारा का परिचय उनकी लातीनी कृति मोनार्किया में मिलता है। इन छोटी कृतियों के साथ ही उनके पत्रों-ले एपोस्तोले-आदि का भी उल्लेख किया जा सकता है। किंतु दांते और इतालवी साहित्य की सबसे श्रेष्ठ कृति कोम्मेदिया (प्रहसन) है। कृति के इन्फेर्नो (नरक), पुरगातोरिओ (शुद्धिलाक) और पारादीसो (स्वर्ग), तीन खंडों में 100 कांती (गीत) हैं। कोम्मेदिया एक प्रकार से शाश्वत मानव भावों के इतिहास का महाकाव्य है। दांते ने अपना परिचित सारा ऐतिहासिक, धार्मिक, दार्शनिक जगत् उसमें रख दिया है। इतिहास, कल्पना, धर्म आदि क्षेत्रों में व्यक्त कोम्मेदिया में मिलते हैं। कोमल, पुरुष, करुण, नम्र, भयानक, गर्व, अभिमान, दर्प, हास्य, हर्ष, विषाद आदि सभी भाव कोम्मेदिया में मिलते हैं और साथी अत्यंत उत्कृष्ट काव्य। मानव संस्कृति का यह एक अत्यंत उच्च शिखर है। इतालवी भाषा का इस कृति के द्वारा दांते ने रूप स्थिर कर दिया। कृति के प्रति श्रद्धा के कारण उसके साथ दिवीना (दिव्य) नाम जोड़ दिया गया। दिवीना कोम्मेदिया का प्रभाव इतालीय जीवन पर अभी भी बहुत है।
चौदहवीं शताब्दी
फ्रांचेस्को पेत्रार्का (1304-1375) को इटली का पहला मानवतावादी तथा नवीन धारा का पहला गीतिकवि कहा जा सकता है। प्राचीन लातीनी साहित्य का उसने गंभीर अध्ययन और यूरोप के अनेक देशों का भ्रमण किया था। अपने समय के अनेक प्रसिद्ध व्यक्तियों से उसका परिचय था। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में जिस प्रकार पेत्रार्का प्राचीनता का पक्षपाती था, राजनीति के क्षेत्र में भी प्राचीन राम के वैभव का वह प्रशंसक था। प्राचीन लातीनी कवियों की शैली पर पेत्रार्का ने अनेक ग्रंथ लातीनी में लिखे-ल"आफ्रीका लातीनी में लिखा प्रधान काव्य है। लातीनी गद्य में भी पेत्रार्का ने प्रसिद्ध पुरुषों की जीवनियाँ-दे वीरीस इलुस्त्रीवुस, धार्मिक प्रवचन-इल सेक्रेतुम तथा अन्य अनेक ग्रंथ लिखे। पेत्रार्का की इतालवी भाषा में लिखित गीति ले रीमे, कॉजोंनिएरे तथा ई त्रियोंफी है। लाउरा नामक एक युवती पेत्रार्का की प्रेयसी थी। इस प्रेम ने पेत्रार्का को अनेक गीत लिखने की प्रेरणा प्रदान की। कांजोनिएरे को पेत्रार्का के प्रेम का इतिहास कहा जा सकता है। रीमे में प्रेम, राजनीति, मित्रों तथा प्रशंसकों के विषय में कविताएँ हैं। त्रियोंफी रूपक काव्य है जिसे पेत्रार्का अंतिम रूप नहीं दे सका। प्रेम, मृत्यु, यश, काल, शाश्वतता जैसे विषयों पर रचनाएँ की गई हैं। पेत्रार्का की रचनाओं में सतर्क कलाकार के दर्शन होते हैं। बाह्म रूप को सजाकर रखने में वह अद्वितीय कवि है। उसकी समस्त गीतिरचनाएँ अपनी आत्मा से ही जैसे बातचीत का रूप हों। वास्तविकता या वर्णनात्मकता का उनमें प्राय: अभाव है। भाषा का रूप ऐसा सजाकर रखा है कि उनकी भाषा आधुनिक प्रतीत होती है।
ज्योवान्नी बोक्काच्यो (1313-1375) भी प्राचीनता का प्रशंसक और लातीनी का अच्छा ज्ञाता था। पेत्रार्का को बोक्काच्यो बड़ी श्रद्धा और प्रेम से देखता था। दोनों बड़े मित्र थे किंतु पेत्रार्का के समान विद्वान् तथा गंभीर विचारक बोक्काच्यो नहीं था। उसने गद्य पद्य दोनों में अच्छी रचना की। इतालवी गद्य साहित्य की प्रथम गद्यकथा फीलोकोलो में स्पेन के राजकुमार फ्लोरिओ और व्यांचीफियोरे की प्रेमकथा है। फीलोस्त्रातो (प्रेम की विजय) पद्यबद्ध कथाकृति है। तेसेइदा पहली इतावली पद्यबद्ध प्रेमकथा है जिसमें प्रेम के साथ युद्धवर्णन भी है। निन्फाले द" अमेतो गद्यकाव्य है जिसमें बीच बीच में पद्य भी हैं। इसमें पशुचारक अमेतो की कल्पित प्रेमकहानी है जिसे रूपक का रूप दे दिया गया है। इसे पहली इतालवी पशुचारक प्रेमकथा कहा जा सकता है। फियामेता भी एक छोटी प्रेमकथा है जिसमें नायिका उत्तम पुरुष में अपनी प्रेम कथा कहती है। इस गद्यकृति में बोक्काच्यो ने प्रेम की वेदना का बड़ा सूक्ष्म चित्रण किया है। लघु कृतियों में निन्फाले फिएसोलानो सुंदर काव्यकृति है। बोक्काच्यो की सर्वप्रसिद्ध तथा प्रौढ़ कृति देकारमेरोन (दस दिन) है। कृति में सौ कहानियाँ हैं, जो दस दिनों में कही गई हैं। फ्लारेंस की महामारी के कारण सात युवतियाँ और तीन युवक शहर से दूर एक भग्न प्रासाद में ठहरते हैं और इन कहानियों को कहते सुनते हैं। ये कहानियाँ बड़े ही कलात्मक ढंग से एक दूसरी से जुड़ी हुई हैं। कृति में सुदंर वर्णन है। प्रत्येक कहानी कला का सुंदर नमूना कही जा सकती है। कुद कहानियाँ बहुत श्रृंगारपूर्ण हैं। भाषा, वर्णन, कला आदि की दृष्टि से देकामेरोन् अत्यंत उत्कृष्ट कृति हैं। इतालवी साहित्य में बहुत दिनों तक दिवीना कोम्मेदिया तथा देकामेरान् के अनुकरण पर कृतियाँ लिखी जाती रहीं। बोक्काच्यो ने लातीनी में भी अनेक कृतियाँ लिखी हैं तथा वह इटली का पहला इतिहासलेखक कहा जा सकता है। दांते का वह बड़ा प्रशंसक था; दांते की प्रशंसा में लिखी कृति त्रात्तातेल्लो इन लाउदे दी दांते (दांते की प्रशंसा में प्रबंध) तथा इल कोमेंते (टीका) दांते को समझने के लिए अच्छी कृतियाँ हैं।
14वीं सदी के अन्य साहित्याकारों में राजनीति से संबंधित पद्यरचयिता तथा गीतिकार फाज्यो देल्यी ऊवेरती अपने प्रबंधात्मक काव्य दीत्तामोंदो (संसारनिर्देश) के लिए प्रसिद्ध हैं। प्रेमादि भावों को लेकर कविता करनेवाले अंतोनियो बेक्कारी, सीमोने सेरदीनी, फ्रांक्रो साक्केत्ती (1330-1400), धार्मिक धारा में किसी अज्ञात लेखक की कृति ई फियोरेत्ती दी सान फ्रांचेस्को (संत फ्रांसिस की पुष्पिकाएँ) तथा याकोपो पासावांती की कृतियाँ, सांता कातेरिना का सीएन्न (1347-1380) के धार्मिक पत्र उल्लेखनीय हैं। समसामयिक परिस्थिति पर प्रकाश डालनेवाले विवरणों के लेखकों में दीनों कांपायी (1255-1324) तथा ज्योवान्नी विल्लानी (मृत्यु 1348 ई.) प्रसिद्ध हैं। विल्लानी ने अपने समय की अनेक रोचक सूचनाएँ दी हैं।
पन्द्रहवीं शताब्दी
15वीं सदी में मानववाद के प्रभाव के कारण इतालवी साहित्य के स्वच्छंद विकास में बाधा पड़ गई। पेत्रार्का के पहले ही प्राचीन युग के अध्येता अल्बेरतीनो मूस्सातो मानववाद की नींव डाल चुके थे। इनका मत था कि मानव आत्मा के सबसे अधिकारी अध्येता प्राचीन थे, उन प्राचीनों की कृतियों का अध्ययन मानववाद है। इस परंपरा के कारण प्राचीन लातीनी रचनाओं, इतिहास आदि का अध्ययन, भाषाओं का अध्ययन तो हुआ, लेकिन इतालवी के स्थान पर लातीनी में रचनाएँ होने लगीं जिनमें मौलिकता बहुत कम रह गई। सभी लेखक प्राचीन मूल साहित्य की ओर मुड़ गए और उसकी शैली की नकल करने लगे। पेत्रार्का से प्रभावित कोलूच्यो सालूताती, ग्रीक और लातीनी रचनाओं के अध्येता, संग्रहकर्ता नीक्कोलो निक्कोली, दार्शनिक प्रबंध और पत्रलेखक पोज्यो ब्राच्यलीनी भाषा, दर्शन, इतिहास पर लिखनेवाले लोरेंजो वाल्ला आदि प्रमुख लेखक हैं। इटली से यह नई धारा यूरोप के अन्य देशों में भी पहुँची और देशानुकूल इसमें परिवर्तन भी हुए। साहित्य के नए आदर्शो का भी मानववादियों ने प्रचार किया। फ्रांचेस्को फीलेल्फो (1398-1481) इस नए साहित्यिक समाज का 15वीं सदी का अच्छा प्रतिनिधि कहा जा सकता है। मानववादी धारा के कवियों का आदर्श प्राचीन कवियों की की रचनाएँ ही थीं, प्रकृति या समसामयिक समाज का इनके लिए कोई महत्त्व नहीं था, किंतु 15वीं सदी के उत्तरार्ध में अनेक साहित्यिक व्यक्तित्व हुए जिनमें से जीरोलामो सावोनारोला (1452-1498) कवि, लूइजी पुलची (1432-1484) सामान्य श्रेणी के हैं। पुलची का नाम उनकी वीरगाथात्मक कृति मोर्गाते के कारण अमर हैं। पुलची की कृति के समान ही मांतेओ मारिआ बोइयार्दो (1441-1494) की कृति ओरलांदो इन्नयोरातो (आसक्त ओरलांदो) हैं। यद्यपि कृति में प्राचीनता की जगह जगह छाप है, तथापि उसमें पर्याप्त प्रवाह और सजीवता है। अपनी सदी का यह सबसे उत्तम प्रेमगीति-काव्य है। कार्लोमान्यो (चार्लीमैग्ना) से संबंधित कथाप्रवादों से कृति का विषय लिया गया है। कृति अधूरी रह गई थी जिसे आरिओस्तो ने पूरा किया। ओरलांदो और रिनाल्दो दो वीर योद्धा थे जो कार्लोमान्यो की सेना में थे। वे दोनों आंजेलिका नामक सुंदरी पर अनुरक्त हो जाते हैं। यही प्रेमकथा नाना अन्य प्रसंगों के साथ कृति का विषय हैं। फ्लोरेंस का रईस लोरेंजो दे" मेदीची उपनाम इल मान्यीफिको (भव्य) (1449-1492) इस आधी सदी का महत्वपूर्ण व्यक्तित्व है। राजनीति तथा साहित्यजगत् दोनों में ही उसने सक्रिय भाग लिया। उसने स्वयं अनेक कृतियाँ लिखीं तथा अनेक साहित्यकों को आश्रय दिया। उनकी कृतियों में गद्य में लिखी प्रेमकथा कोतेंतो, पद्यबद्ध प्रेमकथाएँ-सेल्वे द" अमोरे (प्रेम का वन), आंब्रा, आखेटविषयक कविता काच्चा कोल फाल्कोने (गीध के साथ शिकार), आमोरी दी वेनेरे ए दी मारते (वेनस तथा मार्स का प्रेम) तथा बेओनी काव्यप्रसिद्ध कृतियाँ हैं। मान्यीफिको की प्रतिभा बहुमुखी थी। आंजेलो आंब्रोजीनी उपनाम पोलीत्सियानो (1454-1494) ने ग्रीक और लातीनी में भी रचनाएँ कीं। इतालवी रचनाओं में स्तांजे पेर ला ज्योस्त्रा (फ्लोरेंस के ज्योस्त्रा उत्सव की कविताएँ), संगीत-नाटच-कृति ओरफेओ तथा कुछ कविताएँ प्रधान हैं। पोलित्सियानो की सभी कृतियों का वातावरण प्राचीनता की याद दिलाता है। गद्यलेखकों में लेओन बातीस्ना आल्वेरती, लेओनारदो द" विंची (1452-1519), वेस्पासियानो द" विस्तीच्ची, मांतेओ पाल्मिएरी तथा गद्यकाव्य के क्षेत्र में याकोपो सान्नाज्जारो प्रधान हैं। उसकी कृति आर्कादिया की प्रसिद्धि सारे यूरोप में फैल गई थी। इस सदी में बुद्धिवादी आंदोलन के फलस्वरूप इटली में फ्लोरेंस, रोम, नेपल्स में अकादमियों की स्थापना हुई। मानववादी धारा के ही फलस्वरूप वास्तव में पुनर्जागरण (रिनेशाँ) का विकास इटली में हुआ। अरस्तू के पोएटिक्स के अध्ययन के कारण साहित्य और कला के प्रति दृष्टिकोण कुछ कुछ बदला।
सोलहवीं सदी
16वीं सदी में इटली की स्वाधीनता चली गई, किंतु साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से यह सदी पुनर्जागरण के नाम से विख्यात है। लातीनी और ग्रीक तथा प्राचीन साहित्य एवं इतिहास की खोज और अध्ययन करनेवाले पिएर, वेत्तारी, विंचेलो बोरघीनी, ओनोफ्रियो पानवीनियो जैसे अनेक विद्वान विभिन्न केंद्रो में कार्य कर रहे थे। लातीनी में साहित्य रचना भी इस सदी के पूर्वार्ध में होती रही, किंतु उसका वेग कम हो गया था। भाषा का स्वरूप भी बेंबो, कास्तील्योने, माक्यावेल्ली आदि ने फिर स्थिर कर दिया था। कविता, राजनीति, कला, इतिहास, विज्ञान सभी क्षेत्रों में एक नवीन स्फूर्ति 16वीं सदी में मिलती है। सदी के उत्तरार्ध में कुछ ह्रास के चिह्न अवश्य दिखने लगते हैं। पुनर्जागरण की प्रवृत्तियों की सबसे अच्छी अभिव्यक्ति लुदोविको आरिओस्तो (1474-1533) की कृति ओरलांदो फूरिओसी में हुई है। युद्धों और प्रणय का अद्भुत एवं आकर्षक ढंग से कृति में निर्वाह किया गया है। ओरलांदो का आंजेलिका के लिए प्रेम, उसका पागलपन और फिर शांति का जैसा वर्णन इस कृति में मिलता है वैसा शायद ही किसी अन्य इतालवी कवि ने किया हो। मध्ययुगीन वीरगाथाओं से कवि ने कथावस्तु ली होगी। कल्पना और कविता का बहुत ही सुंदर समन्वय इस कृति में मिलता है। सातीरे (व्यंग्य) आदि छोटी कृतियाँ आरिओस्तो की कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं हैं। जिस प्रकार 16वीं सदी के काव्य का प्रतिनिधि ओरलांदो फूरिओसो है उसी प्रकार पुनर्जागरण युग की मौलिक, स्वतंत्र खुली तथा मानव प्रकृति के यथार्थ चित्रण से युक्त विचारधारा नीक्कोलो माक्यावेल्ली (1467-1527) की कृतियों में मिलती है। नवीन राजनीतिविज्ञान की स्थापना माक्यावेल्ली ने "पिं्रचीपे" (युवराज) तथा "दिस्कोर्सी" (प्रवचन) कृतियों द्वारा की। बहुत ही स्पष्टतापूर्वक तार्किक पद्धति से इन कृतियों में व्यवहारवादी राजनीतिक आदर्शो का विवेचन किया गया है। इन दो कृतियों में जिन सिद्धांतों का माक्यावेल्ली ने प्रतिपादन किया है उन्हीं की एक प्रकार से व्याख्या अन्य कृतियों में की है। "देल्लार्ते देल्ला ग्वेर्रा" (युद्ध की कला) में प्राय: उन्हीं सामरिक सैनिक बातों की विस्तार से चर्चा है जिनका पहली दो कृतियों में संकेत किया जा चुका है। "ला वीता दी कास्त्रूच्यो (कास्त्रूच्यो का जीवन) भी ऐतिहासिक चरित्र है, जैसा "प्रिचीपे" में राजा का आदर्श बताया गया है। इस्तोरिए फियोरेंतीने (फ्लोरेंस का इतिहास) में इटली तथा फ्लोरेंस का इतिहास है। माक्यावेल्ली की विशुद्ध साहित्यिक कृतियों की भाषा तथा शैली भिन्न है। रूपककविता असीनो द" ओरो (सोने का गधा), कहानी बेल्फागोर तथा प्रसिद्ध नाटयकृति मांद्रागोला की शैली साहित्यिक है। मांद्रोगोला पाँच अंकों में समाप्त 16 वीं सदी की प्रसिद्धतम (कोमेदी) नाटक कृति है और लेखक की महत्वपूर्ण रचना है। माक्यावेल्ली के सिद्धांतो को सामने रखकर यूरोप में बहुत चर्चा हुई। इतालवी में इतिहास और राजनीति के उन सिद्धांतों के आधार बनाकर इतिहास लिखनेवालों में सर्वश्रेष्ठ फ्रांचेस्को ग्विच्यार्दीनी (1493-1540) हैं। उन्होंने तटस्थता और यथार्थ, सुक्ष्म पर्यवेक्षदृष्टि का अपनी कृतियों--स्तोरिया द इतालिया तथा ई रिकोर्दी (संस्मरण)-में ऐसा परिचय दिया है कि इस काल के वे श्रेष्ठतम इतिहासलेखक माने जाते हैं। ई रिकोर्दी में उनके विस्तृत और गहन अनुभव का परिचय मिलता है। लेखक ने अनेक व्यक्तियों पर निर्णय तथा अनेक घटनाओं पर अपना मत दिया है। इसी तरह स्तोरिया द" इतालिया में पुनर्जागरणकाल की इटली की विचारधारा की सबसे परिपक्व अभिव्यक्ति मिलती है। ग्विच्यार्दीनी सक्रिय राजदूत, कूटनीतिज्ञ और शासक थे। अपने जीवन से संबंधित दियारियो देल वियाज्जे इन स्पान्या (स्पेन यात्रा की डायरी), रेलत्सियोने दी स्पान्या (स्पेन का विवरण) जैसी अनेक कृतियाँ लिखी हैं। उल्लेख योग्य इतिहास और राजनीति विषयक अन्य साहित्य रचयिताओं में इस्तोरिए फियोरेंतीने (फ्लोरेंस का इतिहास) का लेखक बेर्नोर्दो सेन्यी, स्तोरिया द" एउरोपा (यूरोप का इतिहास) का लेखक ज्यांबूल्लारी हैं। प्रसिद्ध कलाकारों की जीवनी लिखनेवालों में ज्योर्ज्यो वासारी (1511-1574) का स्थान महत्वपूर्ण है। अत्यंत सुंदर आत्मकथात्मक ग्रंथ लिखनेवालों में वेनवेनूतो चेल्लीनी का स्थान श्रेष्ठ है। इस सदी की प्रतिनिधि कृति बाल्दास्सार कास्तील्योने (1478-1529) की कोर्तेज्यानो (दरबारी) भी है जिसमें तत्कालीन आदर्श दरबारी जीवन तथा रईसी का चित्रण है। उच्च समाज में भद्रतापूर्ण व्यवहार की शिक्षा देनेवाली ज्योवान्नी देल्ला कासा की कृति गालातेओ भी सुंदर है। पिएतरो अरेतीनो (1492-1556) अपनी अश्लील शृंगाररचना राजिओनांमेंसी के कारण इस सदी के बदनाम लेखक हैं। स्त्रियों के आदर्श सौंदर्य का वर्णन अन्योले फीरेंजुओला (1493-1543) ने देल्ले वेल्लेज्जे देल्ले दोन्ने (स्त्रियों के सौंदर्य के विषय में) किया है।
पुनर्जागरणकाल में इस प्रकार सभी के आदर्श रूपों के प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ। काव्य, विशेषकर गीतिकाव्य का मौलिक रूप बहुत कम कवियों में मिलता है। ज्योवान्नी देल्ला काता, पिएतरो, प्रसिद्ध कलाकार माकेलांजेलो बुओनार्रोती (1475-1564), लुइजी लांसी"ल्लो (1510-1568) की गीतिरचनाओं में इस काल की विशेषताएँ मिलती हैं। व्यंग्यपूर्ण तथा आत्मपरिचयात्मक कविता के प्रसंग में फ्रांचेस्को बेरनी (1498-1535), कथा और वर्णनकाव्यों के प्रसंग में आन्नीवाल कारो तथा नाटककारों में ज्यांबातीस्ता जीराल्दी, पिएतरो अरेतीनो तथा कथासाहित्य के क्षेत्र में आंयोलो फारेंजुओला, फोलेन्गो (1491-1544), उल्लेखनीय साहित्यिक हैं। पुनर्जागरणकाल की अंतिम महान साहित्यिक विभूति तोरक्वातो तास्सो (1544-1595) हैं। तास्सो की प्रारंभिक कृतियों में 12 सर्गो का प्रेम-वीर-काव्य रिनाल्दो, चरवाहे अमिता और अप्सरा सिल्विया की प्रेमकथा से संबंधित काव्य, अमिता तथा विभिन्न विषयों से संबंधित पद्य "रीमे" हैं। तास्सो को महत्त्व प्रदान करनेवाली उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति "जेरूसलेम्मे लीबेराता" (मुक्त जेरूसलेम) है। कृति में गोफ्रेदो दी बूल्योने के सेनापतित्व में ईसाई सेना द्वारा जेरूसलेम को विजय करने की कथा है। यह एक प्रकार का धार्मिक भावना लिए हुए वीरकाव्य है। ताल्सो की लघुकृतियों "दियालोगी" (कथोपकथन) तथा लैतेरे (पत्र) में से पहली में नाना विषयों पर तर्कपूर्ण शैली में विचार किया गया है तथा दूसरी में लगभग 1,700 पत्रों में दार्शनिक और साहित्यिक विषयों पर विचार किया गया है। अंतिम कृतियों में जेरूसलेमे कोंक्विस्ताता, तोरितिमोंदो (दु:खांत नाटक) तथा काव्यकृति मोंदोक्रेआतो हैं।
इस काल के उत्तरार्ध में प्रसिद्ध दार्शनिक लेखक ज्योर्दानो ब्रूनो (1548-1670), तोमास्सो कांपानेल्ला, प्रसिद्ध वैज्ञानिक गालीलेओ गालीलेई (1564-1642) वैज्ञानिक गद्य के लिए तथा राजनीति इतिहास को नया दृष्टिकोण प्रदान करने की दृष्टि से पाओलो सारपी उल्लेखनीय हैं।
सत्रहवीं सदी
17वीं सदी इतालीय साहित्य का ह्रासकाल है। 16वीं सदी के अंत में ही काव्य में ह्रास के लक्षण दिखने लगे थे। नैतिक पतन तथा उत्साहहीनता ने उस सदी में इटली को आक्रांत कर रखा था। इस काल को बारोक्को काल कहते हैं। तर्कशास्त्र में प्रयुक्त यह शब्द साहित्य और शिल्प के क्षेत्र में अति सामान्य, भद्दी रुचि का प्रतीक है। इस युग में साहित्य के बाह्म रूप पर ही विशेष ध्यान दिया जाता था, ग्रीक रोमन कृतियों का भद्दा अनुकरण हो रहा था, कविता में मस्तिष्क् की प्रधानता हो गई थीं, अलंकारों के भार से वह बोझिल हो गई थी, एक प्रकार का शब्दों का खिलवाड़ ही प्रधान अंग हो गया था एवं कहने के ढंग ने ही प्रधान स्थान ले लिया था। इस काल के कवियों पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा ज्यांबातीस्ता मारोनो (1569-1625) का; इसी कारण इस धारा के अनेक कवियों को मारोनिस्ती तथा काव्यधारा को कभी कभी मारीनिज्म कहा जाता है। मारीनो ने प्राचीन काव्य से बिल्कुल संबंध नहीं रखा, प्राचीन परंपरा से संबंध एकदम तोड़ दिया और ग्वारीनी तथा तास्सो जैसे कवियों से प्रेरणा प्राप्त की। कविता को मारोनो बौद्धिक खेल समझता था। मारीनो की कृतियों में विविध विषयों से संबंधित कविताओं का संग्रह लीरा तथा बारोक युग का प्रतिनिध काव्य आदोने है। यह कृति लंबे लंबे 20 सर्गो में समाप्त हुई हैं। कृति में वेनेरे और चीनीरो की अलंकृत शैली में प्रेमकथा कही गई है। समसामयिकों ने इसे अदोने की कला का अद्भूत नमूना कहकर स्वागत किया और अनेक कवियों को इस कृति ने प्रभावित किया। कवियों में गाब्रिएल्लो-क्याबरेरा (1552-1638) फुलियो नेस्ती, फ्रांचेस्को ब्राच्योो लीनी (1566-1545) तथा कथासाहित्य और नाट्यसाहित्य के क्षेत्र में फेदेरीक़ो देल्ला वाल्ले (मृत्यु 1628), ज्योवान्नी देल्फीनो (मृत्यु 1619) आदि मुख्य हैं। इस सदी में बोलियों में भी काव्यरचना हुई। रोमानो में ज्यसेघे बेरनेरी आदि ने तथा हास्य-व्यंग्य-काव्य की ज्यांबातीस्ता बासीले (1575-1632) ने अच्छी रचनाएँ की। 17वीं सदी के अंतिम वर्षों तथा 18वीं के आरंभिक वर्षों में इटली की सांस्कृतिक विचारधारा में परिवर्तन हुआ, उसपर यूरोप की विचारधारा का प्रभाव पड़ा। किंतु इस विचारधारा के साथ इतालवी विचारकों की अपनी मौलिकता भी साथ में थी। 17वीं सदी के साहित्यिक ह्रास के प्रति इटली के विचारक स्वयं सतर्क थे। अत: नवीन विचाधारा को लेकर काफी वाद विवाद चला। काव्यरुचि को लेकर ज्यूसेफे ओरसी, आंतोन मारिया साल्वीनी, एयूस्ताकियो मांफ्रेदी आदि ने नवीन रुचि की स्थापना का प्रयत्न किया। ज्यान विंचेसो ग्रावीना (1664-1718), लूदोविको आंतोनियो मूरालोरी, आंतोनियो कोंती (1670-1749) आदि ने काव्यसमीक्षा पर ग्रंथ लिखकर नवीन मोड़ देने का प्रयत्न किया। इन्होंने यूरोप की तत्कालीन विचारधारा को इतालवी प्राचीन परंपरा के साथ समन्वित करने का प्रयत्न किया। इसी प्रकार इतिहास का भी नवीन दृष्टि से अध्ययन किया गया। साहित्य, इतिहास और काव्यसमीक्षा को नया मोड़ देनेवालों में इस सदी के सबसे प्रमुख विचारक ज्याँ बातीस्ता वीको (1668-1744) हैं। उनकी बेजोड़ कृति पिं्रचिपी दी शिएँजा नोवा (नए विज्ञान के सिद्धांत) में उनके गूढ़ विचार और गहन अध्ययन, चिंतन के परिणाम व्यक्त हुए हैं। कविता के लिए कल्पना आदि जिन आवश्यक तत्वों की उन्होंने चर्चा की उनका काव्यसमीक्षा तथा कवियों पर काफी प्रभाव पड़ा।
17वीं सदी की कुरुचि को दूर करने के लिए रोम में कुछ लेखक और विद्वानों ने मिलकर "आर्कादिया (ग्रीस के रमणीय स्थान आर्कादिया के नाम पर) नामक एक अकादमी की सन् 1690 में स्थापना की। आर्कादिया धीरे धीरे इटली की बहुत प्रसिद्ध अकादमी हो गई और उस समय के सभी कवि और लेखक उससे संपर्क रखते थे। परंपरा के भार से लदी कविता को आर्कादिया के कवियों ने एक नई चेतना प्रदान की। अनेक छोटे बड़े कवि आर्कादिया ने बनाए जिनमें एयूस्ताकियो मानफ्रेदी (1674-1739), फेरनांदो आंतोनियो गेदीनी (1684-1767), फ्रांचेस्को मारिया जानोत्ती (1692-1777), ज्याँ बातीस्ता ज़ापी (1667-1719), पाओलो रोल्ली, लुदोविको सावियोली, याकोपो वीतोरेल्ली आदि प्रमुख हैं। यद्यपि आर्कादिया ने कोई महान कवि उत्पन्न नहीं किया, किंतु फिर भी इस अकादमी ने ऐतिहासिक महत्त्व का यह सबसे बड़ा कार्य किया कि 17वीं सदी की काव्यसुरुचि को बदल दिया। आर्कादिया काल के प्रसिद्धतम लेखक पिएतरो मेतास्तासिया (1698-1782) ने इटली के रंगमंच को ऐसी कृतियाँ दीं जो कविता के बहुत समीप हैं। 18वीं सदी इटली में नाटक साहित्य की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। येनास्तासियो ने अपने नाटकों के विषय इतिहास, लोककथा एवं ग्रीस रोम की धार्मिक अनुश्रुतियों से चुने। प्रेम और वीरता इसके नाटकों के प्रिय भाव हैं। अन्य लेखकों में दु:खांत नाटकों के लिए याकोपो नेल्ली तथा साहित्य में ज्याँ बातीस्ता कास्ती, पिएतरो क्यारी तथा विविध विषयों की सूचना से समन्वित संस्मरण लिखनेवाले प्रसिद्ध ज्योकोमो कासानोवा (1725-1798) उल्लेखनीय हैं। कासानोवा अपने मेम्वायर्स (संस्मरण) के लिए सारे यूरोप में प्रसिद्ध हैं। बोलियों में कविता लिखनेवालों में ज्योवान्नी मेली (1740-1815) की बूकोलिका प्रसिद्ध कृति है।
अट्ठारहवीं सदी
18वीं सदी के उत्तरार्ध में इतालवी साहित्य पर यूरोपीय विचारधारा, विशेषकर फ्रांसीसी, का प्रभाव पड़ा; इसको इलूमिनिस्तिक विचारधारा नाम दिया गया है। फ्रांस से इलूमिनिस्म (बुद्धिवादीं) धारा सारे यूरोप में फैली। इटली में नवीन भावधारा के दो प्रधान केंद्र नेपल्स और मिलान थे। मिलान का केंद्र इटली की विशेष परिस्थितियों के समन्वय का भी पक्षपाती था। पिएतरों वेर्री (1728-1797) ने अपनी अनेक कृतियों द्वारा इस नवीन विचारधारा की व्याख्या की। इस विचारधारा की प्रवृत्तियों को लेकर काफ्फे नामक एक पत्र निकला जिसमें चेसारे बेस्कारिया (1738-1794) आदि इलूमिनिस्म के सभी प्रसिद्ध साहित्यकारों ने सहयोग दिया। इस धारा के प्रसिद्ध लेखक व्याख्यता फ़्रांचेस्को आल्गारोत्ती (1712-1764), गास्यारे रयाकार्लो गोज्जी, सावेरियों बेत्तीनेल्ली (1718-1808) तथा जूसेप्पे बारेत्ती (1719-1789) हैं। नई काव्यधारा के विषय में इन सभी ने कृतियाँ लिखीं। फ़्रांसीसी बुद्धिवाद के अनुकरण का इतालवी भाषा और शैली पर भी बुरा प्रभाव पड़ा। फ़्रांसीसी शब्दों, मुहावरों, वाक्यगठन आदि का अंधानुकरण होने के कारण इतालवी भाषा का स्वाभाविक प्रवाह रुक गया जिसकी आगे चलकर प्रसिद्ध कवि फोस्कोलो, लेयोपारदी, कारदूच्ची आदि सभी ने भर्त्सना की। आर्कादिया और इलूमिनिस्तिक धारा को जोड़नेवाले मध्यममार्गी सुप्रसिद्ध नाटककार कार्लो गोल्दोनी (1707-1793) हैं। मेतास्तिसियों के प्रहसनप्रधान नाटकों से भिन्न गोल्दोनी की नाटयकृतियाँ गंभीर कलापूर्ण है तथा उनसे भी महत्वपूर्ण उनका सुधारवादी दृष्टिकोण हैं। उनकी अनेक रचनाओं में से कुछ रोसमुंदा, ग्रीसेल्दा, गोंदोलिएरे वेनेत्सियान्यो, बोतेगा देल काफ्फे देल बूज्यार्दो, फामील्या देल्लांतीक्वारियों, रूस्तेगी हैं। मेम्वायर्स (संस्मरण) में उन्होंने रंगमंच आदि के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं।
ज्यूसेप्पे पारीनी (1729-1791) की रचनाओं में नैतिक स्वर की प्रधानता है। अपने युग से वे बहुत प्रसन्न नहीं थे और उसकी आलोचना उन्होंने अत्यंत साहसपूर्वक की है। अपने समय के रईसों की पतित अवस्था पर उन्होंने अपनी दो काव्यकृतियों-मात्तीनो (प्रभात) और मेज्जोज्योरनो (दोपहर)--में कटु व्यंग्य किया है। पारीनी ने प्रसिद्ध गीत भी लिखे हैं-ल"इंपोस्तूरा, इल वीसोन्यी। उनके प्रसिद्ध ओदों (ओड्स) में से ला वीता रूस्तीका, इल दोनो, आसिल्विया आदि हैं। व्यंग्यकाव्य का अच्छा उदाहरण इल ज्योर्नो (दिन) हैं जिसमें एक निठल्ले राजकुमार पर व्यंग्य किया गया है। इस सदी का सबसे बड़ा कवि तथा नाटककार वीत्तोरियो आल्फिएरी (1749-1803) है। आल्फिएरी एक ओर तो फ्रांसीसी बुद्धिवादियों से प्रभावित था, दूसरी ओर उसका ह्दय स्वच्छंदतावादी भावना से भरा हुआ था। उसके राजनीतिक विचारों का परिचय उसकी प्रारंभिक कृति देल्लीतीरान्नीदे से मिलता है। अन्य प्रारंभिक कृतियों में एत्रूरिया वेंदीकाता, सातीरे, मीसोगाल्लो हैं। रीमे में कवि की प्राय: सभी विशेषताएँ मिलती हैं। आल्फिएरी की दु:खांत नाटक कृतियों में उसके समय की विशेषताएँ तथा उसके व्यक्तिगत उत्साहभाव मिलते हैं। साउल, मीर्रा, आगामेन्नोने, ओत्तविया, मेरोपे, अंतीगोने, ओरेस्ते आदि प्रमुख रचनाएँ हैं। उसकी कृतियों में कार्य मंथर गति से बढ़ता हैं तथा प्रगति तत्त्व की प्रधानता मिलती है। वास्तव में वह प्रधान रूप से कवि था और इसी रूप में उसने आगे के कवियों को प्रभावित किया।
उन्नीसवीं सदी
19वीं सदी के प्रारंभ में इतालवी से साहित्य में राष्ट्रीय चेतना के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। प्राचीन कृतियों का प्रकाशन बिब्लियोतेका दे" क्लास्सीची इतालियानी (1804-14) तथा इतालवी विचारधारा को समझने का प्रयास हो रहा था। इस कार्य का केंद्र मिलान था जो इटली के हर भाग के कवियों, लेखकों तथा विचारकों का कार्यकेंद्र था। माक्यावेल्ली, सारपी, वीको की विचारधारा का मंथन किया जा रहा था और साहित्यिक तथा राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र इटली की नींव डाली जा रही थी। इन विचारकों में फ्रांचेस्को लोमोनाको (1772-1810), विचेंसो कुओको (1770-1823), दोमेनीको रोमान्योसी (1761-1835) प्रमुख हैं। काव्यसमीक्षा के क्षेत्र में अभिनव प्राचीन (नेओक्लासिक) रुचि स्थापित की जा रही थी जिसमें आसन्न स्वच्छंदतावाद के बीज भी दिखते हैं। कविता के अतिरिक्त कलात्मक गद्य लिखने की परिपाटी का सूत्रपात आंतोनियो चेसारी (1760-1828) कर रहा था जिसने प्राचीन इतालवी साहित्य से शब्द छाँट छाँटकर अपनी कृति बेल्लेज्जे दी दाँते (दांते का सौंदर्य) रची, कूस्का के कोश का पुन: संपादन किया तथा इसी शैली में अनेक अन्य कृतियाँ लिखीं। विंचेंसो मोंती तथा उसके सहयोगियों ने और जूलियो पेरतीकारी (1779-1832) ने भी भाषाशैली को विशुद्ध रूप देने का प्रयास किया। शैलीकार के रूप में पिएतरो ज्योर्दानी (1774-1848) का स्थान ऊँचा है। उसकी शैली में ओज तथा राष्ट्रीय महानता की गूँज है। सारे जीवन वह गद्य का सरल तथा उत्कृष्ट रूप देने का प्रयास करता रहा। नेओक्लासिक पीढ़ी का प्रतिनिधि कवि विंचेंसो मोंती (1754-1828) हैं। मोंती की विचाधारा बदलती रही, पोप के यहाँ रहते हुए उसने बास्वील्लीयाना नामक कृति लिखी जिसमें नरेशवाद की ओर झुकाव है। मिलान में रहते हुए नेपोलियन की विजय से उत्साहित हो प्रोमेतेओ लिखी। मोंती कल्पना और श्रुतिमधुर शब्दों का कवि है। हृदयपक्ष गौण है। होमर की कृति इलियड का मोंती ने स्वतंत्र अनुवाद भी किया था। इस धारा के अन्य छोटे कवियों में चेसारे अरीची तथा फीलीपो पान्नी का उल्लेख किया जा सकता है।
सारे यूरोप और विशेषकर इटली में साहित्यिक क्षेत्र में जब एक प्रकार की अनिश्चितता का वातावरण फैला था उस समय ऊगो फोस्कोलो (1778-1827) की प्रतिभा ने सभी महत्वपूर्ण और अच्छे पक्षों को ग्रहण करके भविष्य के लिए अच्छी परंपरा तैयार की। इतालवी काव्य को फोस्कोलो ने नवीन स्फूर्ति, नई गीतिकविता तथा कई नई दृष्टि प्रदान की। कवि, पत्रकार, लेखक सभी रूपों में फोस्कोलो ने अपनी छाप छोड़ी है उसने यूरोपीय स्वच्छंदतावाद की विशेषताओं को आत्मसात् किया तथा इतालवी सांस्कृतिक परंपरा से भी संबंध बनाए रखा। सॉनेट, ओड, सेपोल्क्री, ग्रात्जिए फ़ोस्कोलो की काव्यकृतियाँ हैं। इतालवी काव्यसाहित्य में सेपोल्क्री का नई भाषा, हृदय स्पर्श करने की शक्ति, व्यंजना, प्रस्तुत अप्रस्तुत का स्वाभाविक संबंध आदि अनेक दृष्टियों से ऊँचा स्थान है। गद्य रचनाओं में कथाकृतियाँ आर्तीस और लाउरा प्रसिद्ध हैं।
स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के सिद्वांतो का प्रवेश इटली में 19वीं सदी के दूसरे तीसरे दशकों में हुआ। इसका प्रधान केंद्र उत्तरी इटली, विशेष रूप से मिलान था। लुदोवोको दी ब्रेमे (1780-1820) वेरशेत, बोरसिएरी, मांजोनी, मात्सीनी के लेखों द्वारा स्वच्छंदतावाद का प्रारंभ हुआ। काफ्फे, कोंचिलियातोरे पत्रों में अनेक लेख इस धारा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए निकले। ज्यूसेफे मात्सीनी (1805-1862) सबसे अधिक इस धारा से प्रभावित हुए। उनके व्यक्तित्व और विचारों का इटली के पुनरुत्थान आंदोलन पर तथा कला के क्षेत्र में भी बहुत प्रभाव पड़ा। उनके साहित्यिक लेखों-देल्ल" आमोर पात्रियों दी दांते (दांते का मातृभूमि प्रेम), दी उना लेत्तेरात्तूरा इउरोपा (एक यूरोपीय साहित्य पर)-से बहुत साहित्यिक प्रभावित हुए। इतिहास को राष्ट्रीय दृष्टि से लिखनेवालों ने भी इतालवी एकता की राष्ट्रीय भावना को जगाया। चेस्तरे वाल्दो जीनो काप्पोनी आदि इसी प्रकार के लेखक हैं। इतालवी साहित्य का नवीन दृष्टि से इतिहास लिखनेवाले फ्रांचेस्को दे सांक्टीस की कृति स्तोरिया देल्ला लेत्तेरातूरा इतालियाना महत्वपूर्ण है। साहित्य को समाज का प्रतिबिंब समझने का दृष्टिकोण तथा अनेक साहित्यिक समस्याओं को नए ढंग से परखने का नवीन प्रयास दे सांक्टीस की कृति में मिलता है। इसी प्रकार का दृष्टिकोण लूइजी सेतेंबरीनी की कृति लेत्सियोनी दी लेत्तेरात्तूरा इतालियाना में भी मिलता है। पुनरुत्थानयुग की कृतियों में सिल्वीको पेल्लीको (1789-1854) की कृति मिए प्रिज्योनी भी उल्लेखनीय है जिसमें उस युग की आशा निराशाओं का वर्णन है। मास्सीमो दाजेल्यो के संस्मरण इ मिएई रिकोर्दी भी रोचक हैं।
स्वच्छंदतावादी धारा में अनेक भावुकताप्रधान गद्य-पद्य-कृतियाँ लिखी गईं। इन साधारण कवियों में अलेआरदो आलेआरदी (1812-1878) की कृतियाँ मोंते चीरचेल्लो, ले प्रीमे स्तोरिए तथा ऐतिहासिक उपन्यासों में तोमास्सो ग्रोसी का मार्को वीस्कोंती, दाजेल्यो का एत्तोरे फिएरामोस्का तथा ज्योनान्नी बेरशेत (1783-1851) की गीतिकविताएँ सुंदर हैं। नीकोलो तोम्मासेओ के शब्द कोश, दांते की कृति की टीका तथा आत्मकथात्मक दियारियो इंतीमो, पद्यबद्ध कथा उना सेरवा तथा ग्रीक के अनुवाद उसे महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं। अन्य कवियों में बोलियों में रचना करनेवाले कारलो पोर्ता तथा जी.जी. वेल्ली उल्लेखनीय हैं। इतालवी रोमांटिक संस्कृति युग के दो महान साहित्यकार हैं मांजोनी तथा लियोपार्दी। दोनों ही 17वीं सदी के फ्रांसीसी वातावरण से प्रभावित इलुमिनिस्टिक युग में पलकर क्रमश: रोमांटिक अर्थो में भावुक तथा धार्मिक अनुभूतियों से प्रभावित होते गए। मांजोनी उदार कैथोलिक प्रवृत्ति का था। लियोपार्दी में सृष्टि के प्रति खिन्नता की प्रवृत्ति दिखती है। दोनों ही नवीन काव्यधारा से प्रभावित थे ओर उसके आधारभूत सिद्धांतों को स्वीकार करते हैं। मांजोनी में लोंबार्द प्रांत की सजीव उन्मुक्त प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। लियोपार्दी प्रतिक्रियावादी रूढ़िवादी वातावरण में पले थे अत: इनकी छाप उनमें मिलती है। मांजोनी की कृतियों में वर्णन की पूर्णता, वास्तविक कविता, नई उन्मुक्त भाषा तथा अधिक प्रेषणीयता मिलती है। लियोपार्दो अपनी अपार करुणा के लिए अकेले हैं। आलेसांद्रो मांजोनी (1775-1873) ने अनेक ऐतिहासिक ग्रंथ लिखे। काव्यशास्त्र पर भी उसकी कृतियाँ हैं। उसने गीति कविताएँ और नाटक लिखे। उसकी एक महत्वपूर्ण कृति उसका उपन्यास ई प्रोयेस्सी स्पोस्सी है जिसमें मिलान के जीवन का चित्रण है तथा जो इतालवी भाषा का बहुत ही सुंदर आदर्श रूप प्रस्तुत करता है। ज्याकोमो लियोपार्दी (1798-1830) ने स्तोरिया देल्ल अस्त्रोनोमिया, पुराने लोगों की भ्रांतियों पर निबंध, भारतीय गुण तथा ईजिप्ट में पोंपेया, दार्शनिक वार्ताएँ आदि नाना विषयों पर गद्य कृतियाँ लिखीं जिनमें 18वीं सदी की रुचि दिखती है। किंतु धीरे धीरे उसका स्वभाव बदला और वह काल्पनिक कविता छोड़ अनुभूतिप्रधान कविता करने लगा। आसिल्विया (सिल्विया से), सेरा देल दी दि फेस्ता (उत्सव के दिन की संध्या), अला लूना (चंद्र से) उसकी सुंदर कविताएँ हैं। जीवाल्दोने में उसकी अनेक प्रकार की गद्य कृतियाँ संगृहीत हैं। दोनों ही लेखक यूरोपीय प्रसिद्धि के लेखक हैं। इन दोनों ने इतालवी साहित्य को समय से साथ पहुँचा दिया।
19वीं सदी के उत्तरार्ध में मांजोनो और लियोपार्दी से प्रभावित होकर रचनाएँ होती रहीं तथा कुछ लोग स्वच्छंदतावाद को हल्के अर्थ में लेकर रचनाएँ करते रहे। स्वतंत्र व्यक्तित्ववाले महत्वपूर्ण कवियों में जोसूए कारदूच्ची (1835-1906) का स्थान ऊँचा है, किंतु मांजोनी की तुलना में उनका व्यक्तित्व भी प्रांतीय जैसा लगता है। उनकी काव्यकृतियों में से कुछ ज्यांबी एद एपोदी, रीमे नुओवे, ओदी, बारवारे, नोस्ताल्जिया, सान मारतीनो, सूई काम्मी दी मारेंगो, आले फोंती देल क्लितुन्नो है। कारदूच्ची की भाषा व्यक्तिगत छाप लिए हुए हैं। मृत्यु से कुछ समय पहले उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। मांजोनी का अनुसरण करते हुए गद्य पद्य लिखनेवालों में एदमोंदो दे अमीचीस दी ओनेल्या (1846-1908), शिशुओं के लिए प्रसिद्ध कृति पिनोक्यो के लेखक कोल्लोदी फोगाज्जारो तथा स्वतंत्र कथा साहित्य लिखनेवालों में ज्योवान्नी वेरगा (1840-1922) प्रसिद्ध हैं। वेरगा की प्रसिद्ध कृतियाँ वीतादेई कांपी, मालावोल्या, नोवेल्ले रूस्तीकाने तथा नाटक कावाल्लेरिया रूस्तीकाना हैं। सामान्य जनसमूह को लेकर वेरगा ने अपनी यथार्थवादी कृतियाँ लिखी हैं। अनेक उपन्यासों तथा काव्यग्रंथों की रचना करनेवाली नोबेल पुरस्कार प्राप्त करनेवाली सारदेन्या की महिला ग्रात्जिया देलेद्दा (1871-1936) की रचनाओं में स्थानीय रंग बहुत मिलता है।
बीसवीं सदी
20वीं सदी के प्रारंभ में इतालवी संस्कृति के सामने एक संकट की स्थिति उत्पन्न थी। अशांति, नवीन योजनाओं, अतिआधुनिक यूरोपीय विचारधाराओं का उसे सामना करना पड़ा। वह अपनी संकीर्ण प्रांतीयता से बाहर निकलने के लिए उत्सुक थी; उच्च मध्यवर्ग की रुचि से वह जैसे ऊबी हुई थी। काव्य के क्षेत्र में भी एक प्रकार की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्ति दिखाई देती थी। किंतु एक दूसरी धारा आधुनिक संस्कृति के निकट भी थी। उस स्थिति को समझकर बेनेदेत्तो क्रोचे (1866-1952) ने अपनी एस्तेतीका कृति द्वारा पथप्रदर्शन किया। एस्तेतीका 1902 में प्रकाशित हुई, तब से लेकर 1943 तक इतालिया दर्शन और साहित्य का वह पथप्रदर्शन करती रही। क्रोचे की साहित्यिक गवेषणाओं का संपूर्ण इतालवी साहित्य पर प्रभाव पड़ा-लेत्तेरात्तूरा देल्ला नुओवा इतालिया (नई इटली का साहित्य) जैसी महत्वपूर्ण कृति के फलस्वरूप संपूर्ण साहित्य की नई दृष्टि से समीक्षा की गई। आज के साहित्यसमीक्षक काव्य के इतिहास की समीक्षा करते समय क्रोचे के सिद्धांत का सहारा लिए बिना नहीं रह सकते। इतिहास, दर्शन, साहित्य, तीनों के क्षेत्र में उनके सिद्धांत समान महत्त्व रखते हैं। इस सदी के अनेक लेखकों में दोनों सदियों की विशेषताएँ मिलती हैं।
गाब्रिएले द" अनुंजियो (1863-1938) में अनेक विशेषताओं का समन्वय मिलता है। द" अनुंजियो की प्रसिद्धि बहुत है, किंतु उसकी रचनाएँ उतनी प्रिय नहीं हैं। उसकी प्रसिद्धि का कारण उसके जीवन की साहसिक घटनाएँ भी हैं। वह बहादुर सिपाही तथा योद्धा था। उसकी कृत्तियों-कांतो नोवो, तेर्रा वेरजीने--पर कारदूच्ची तथा वेरगा का प्रभाव लक्षित होता है। पोएमा पारादीस्याको पर यूरोप की काव्यधारा का प्रभाव तथा उपन्यास कृतियों-ज्योवान्नी एपीसकोपो आदि--पर रूसी कथा साहित्य का प्रभाव प्रतीत होता है। द"अनुंजियो ने प्राय: सभी साहित्यरूपों में रचनाएँ की हैं। उसकी शैली बहुत बोझिल हैं; बाह्म रूप पर वह बहुत ध्यान देता था। सरल भाषाशैली, नवीन यथार्थ भावना से प्रेरित, सीधी, हृदयस्पर्शी कविता करनेवालों में आर्तूरो ग्राफ (1848-1913), एनरीको थोवेन (1869-1925), ज्योवान्नी पास्कोली (1855-1912) का यश सारे यूरोप तथा संसार के साहित्यिक क्षेत्र में फैला। कहानी, उपन्यास लिखने के बाद पीरांदेल्लो ने नाटकरचना प्रारंभ की। विषयों की मौलिकता, दृश्यसंगठन, टेकनीक, सभी दृष्टियों से पीरांदेल्लो के नाटक उत्कृष्ट हैं। निम्न मध्यम वर्ग के समाज से इसने विषय चुने। पीरांदेल्लो की कहानियाँ और उपन्यास 24 जिल्दों में तथा नाटक कई बड़ी-बड़ी जिल्दों में प्रकाशित हुए हैं। पीरांदेल्लो को नोबेल पुरस्कार भी मिला था। कथासाहित्य के क्षेत्र में इनालो स्वेत्ते (1861-1928) का नाम भी उल्लेखनीय है। अन्य आधुनिक कथा-साहित्य-लेखकों में ज्योवान्नी पानीनी (1881-1957) रिक्वार्दी वाक्केल्ली (1891-), आल्दो पाल्लाजेस्की (1885-), आल्वेरतो मारोविया (1907-), इन्यात्सियो सीलोने (1900-), कार्लो एमीलियो गाद्दा (1893-), ज्यानी स्तूपारिक (1891-), वास्को प्रातोलीनी (1913-), चेस्तरे पावेसे (1908-1950), आदि प्रमुख हैं। आधुनिक काल के कवियों में दीनो कांपाना (1885-1932), आतूॅरो ओनो फ्री (1885-1928), उत्वेरतो साबा (1883-1958), ज्यूसेप्पे उँगारेत्ती (1888-), एऊजेनियो मोंताले (1896-), साल्वातोरे क्वासीमोदो (1901-), (1959 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित), आलफोन्ल गात्तो (1909-), दिएगो वालेरी (1887-), आदि प्रमुख हैं। अनेक साहित्यिक पत्रों ने भी इतालवी साहित्य में अनेक नवीन काव्यधाराओं का प्रतिनिधित्व किया है। इसमें "वोचे", "रोंदा", "फिएरा लितेरारिया" आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।