जय हिन्द

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
imported>Imroznadeem17 द्वारा परिवर्तित ११:२६, ३ मार्च २०२२ का अवतरण (छोटा सा सुधार किया।)
(अन्तर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अन्तर) | नया अवतरण → (अन्तर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
"जय हिन्द" का यादगारी डाक चिह्न


जय हिन्द विशेषरुप से भारत में प्रचलित एक देशभक्तिपूर्ण नारा है जो कि भाषणों में तथा संवाद में भारत के प्रति देशभक्ति प्रकट करने के लिये प्रयोग किया जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ "भारत की विजय" है। यह नारा भारतीय क्रान्तिकारी आबिद हसन सफ़रानी द्वारा दिया गया था |[१][२]। तत्पश्चात यह भारतीयों में प्रचलित हो गया एवं नेता जी सुभाषचन्द्र बोस द्वारा आज़ाद हिन्द फ़ौज के युद्ध घोष के रूप में प्रचलित किया गया।

सुभाषचन्द्र बोस के अनुयायी तथा नौजवान स्वतन्त्रता सेनानी ग्वालर (वर्तमान नाम ग्वालियर), मध्य भारत के रामचन्द्र मोरेश्वर करकरे ने तथ्यों पर आधारित एक देशभक्तिपूर्ण नाटक "जय हिन्द" लिखा तथा "जय हिन्द" नामक एक हिन्दी पुस्तक प्रकाशित की। कुछ वर्षों पश्चात रामचन्द्र करकरे केन्द्रीय भारतीय प्रोविंस के काँग्रेस अध्यक्ष बने। उन्होंने प्रसिद्ध क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद के साथ स्वतन्त्रता संग्राम में हिस्सा लिया।

इतिहास

जय हिन्द' नारे का सीधा सम्बन्ध नेताजी से है, मगर सबसे पहले प्रयोगकर्ता नेताजी सुभाष चन्द्र बोस नहीं थे। आइये देखें यह किसके हृदय में पहले पहल उमड़ा और आम भारतीयों के लिए जय-घोष बन गया।

“जय हिन्द” के नारे की शुरूआत जिनसे होती है, उन क्रान्तिकारी 'चेम्बाकरमण पिल्लई' का जन्म 15 सितम्बर 1891 को तिरूवनंतपुरम में हुआ था। गुलामी के आदी हो चुके देशवासियों में आजादी की आकांक्षा के बीज डालने के लिए उन्होने कॉलेज के दौरान “जय हिन्द” को अभिवादन के रूप में प्रयोग करना शुरू किया। 1908 में पिल्लई जर्मनी चले गए। अर्थशास्त्र में पी.एच.डी करने के बाद जर्मनी से ही अंग्रेजो के विरूद्ध क्रान्तिकारी गतिविधियाँ शुरू की। प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तो उन्होने जर्मन नौ-सेना में जूनियर अफसर का पद सम्भाला।

पिल्लई 1933 में आस्ट्रिया की राजधानी वियना में नेताजी सुभाष से मिले तब “जय हिन्द” से उनका अभिवादन किया। पहली बार सुने ये शब्द नेताजी को प्रभावित कर गए। इधर नेताजी आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना करना चाहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने जिन ब्रिटिश सैनिको को कैद किया था, उनमें भारतीय सैनिक भी थे। 1941 में जर्मन की क़ैदियों की छावणी में नेताजी ने इन्हे सम्बोधित किया तथा अंग्रेजो का पक्ष छोड़ आजाद हिन्द फौज में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। यह समाचार अखबारों में छपा तो जर्मन में रह रहे भारतीय विद्यार्थी आबिद हुसैन ने अपनी पढ़ाई छोड़ नेताजी के सेक्रेट्री का पद सम्भाल लिया। आजाद हिन्द फौज के सैनिक आपस में अभिवादन किस भारतीय शब्द से करे यह प्रश्न सामने आया तब हुसैन ने”जय हिन्द” का सुझाव दिया।

उसके बाद २ नवम्बर 1941 को “जय-हिन्द” आजाद हिंद फ़ौज का युद्धघोष बन गया। जल्दी ही भारत भर में यह गूँजने लगा, मात्र काँग्रेस पर तब इसका प्रभाव नहीं था। 1946 में एक चुनाव सभा में जब लोग “काँग्रेस जिन्दाबाद” के नारे लगा रहे थे, नेहरूजी ने लोगो से “जय हिन्द” का नारा लगाने के लिए कहा। अब तक “वन्दे-मातरम” ही काँग्रेस की अहिंसक लड़ाई का नारा रहा था, 15 अगस्त 1947 को नेहरू जी ने आजादी के बाद, लाल किले से अपने पहले भाषण का समापन, “जय हिन्द” से किया। डाकघरों को सुचना भेजी गई कि नए डाक टिकट आने तक, डाक टिकट चाहे अंग्रेज राजा जोर्ज की ही मुखाकृति की उपयोग में आये लेकिन उस पर मुहर “जय हिन्द” की लगाई जाये. यह 31 दिसम्बर 1947 तक यही मुहर चलती रही। केवल जोधपुर के गिर्दीकोट डाकघर ने इसका उपयोग नवम्बर 1955 तक जारी रखा। आज़ाद भारत की पहली डाक टिकट पर भी “जय हिन्द” लिखा हुआ था।

इन्हें भी देखें

  • जय हिन्द डाक चिह्न
  • जय हिन्दी गुजराती समाचार पत्र

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ