विश्वप्रपंच

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विश्वप्रपंच, जर्मनी के प्रसिद्ध प्राणिशास्त्री और भौतिकवादी दार्शनिक एर्न्स्ट हेक्केल की पुस्तक रिड्ल ऑफ द युनिवर्स का आचार्य शुक्ल द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है।

परिचय

अनुवाद के वक्तव्य में स्वयं आचार्य शुक्ल ने लिखा है 'रिड्ल ऑफ द युनिवर्स' अनात्मवादी आधिभौतिक पक्ष का सिद्धान्त-ग्रन्थ है। इसमें नाना विज्ञानों से पुष्ट उन सब तथ्यों का संग्रह है जिन्हें भूतवादी (materialists) अपने पक्ष के प्रमाण में उपस्थित करते हैं। जिस समय यह प्रकाशित हुआ युरोप में इसकी धूम-सी मच गयी। अकेले जर्मनी में दो महीने के भीतर इसकी 9000 प्रतियाँ खप गयीं। योरप की सब भाषाओं में इसके अनुवाद निकले। अँग्रेजी की तो लाखों कापियाँ पृथ्वी के कोने से लेकर दूसरे कोने तक पहुँच गयीं। इस पुस्तक ने सबसे अधिक खलबली पादरियों के बीच डाली जिनकी गालियों से भरी हुई सैकड़ों पुस्तकें इसके प्रतिवाद में निकलीं। जो पुस्तक अनात्मवादी आधिभौतिक पक्ष का सिद्धान्त-ग्रन्थ हो और जिसके प्रतिवाद में पादरियों की गालियों से भरी हुई सैकड़ों पुस्तकें निकली हों उसे सद्ग्रन्थ तो नहीं ही कह सकते ! लेकिन धर्म में आस्था रखनेवाले और विश्वासों में आस्तिक आचार्य शुक्ल अत्यन्त श्रम और उत्साह से इस पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद करते हैं जो कि कोई साहित्य की पुस्तक न होकर एक प्राणिशास्त्र की पुस्तक थी ! कहने की आवश्यकता नहीं कि उस समय हिन्दी में प्राणिशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण नहीं हुआ था।

आचार्य शुक्ल इस शब्दावली का भी निर्माण करते हैं और बहुत ही प्रांजल भाषा में 'रिड्ल ऑफ द युनिवर्स' का हिन्दी में अनुवाद प्रस्तुत कर हेक्केल के विचारों को सम्पूर्ण हिन्दी भाषी क्षेत्र में फैलाना चाहते हैं। हेक्केल पूँजीवाद के समर्थक थे लेकिन उनकी पुस्तक भाववादी दर्शन को अयुक्तियुक्त प्रमाणित कर भौतिकवादी दर्शन की स्थापना करती थी। रूस में अदालत ने इस पुस्तक के रूसी अनुवाद की सभी प्रतियों को जब्त कर आग में जला डालने का आदेश तक दिया। लेनिन ने रिड्ल ऑफ द युनिवर्स के बारे में लिखा है कि लेखक के पूँजीवादी राजनीतिक विचारों के बावजूद पूँजीपति-वर्ग के विरुद्ध यह लोकप्रिय पुस्तिका वर्ग-संघर्ष का हथियार बन गयी। (द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद की सरल रूप-रेखा प्रगति प्रकाशन, मास्को 1977 पृ.59) यह कैसा संयोग है कि रूस में लेनिन जिस पुस्तक का महत्त्व इतना बढ़-चढ़कर आँकते हैं भारत में आचार्य शुक्ल उसका भाषानुवाद प्रस्तुत करते हैं ! ताज्जुब नहीं, आचार्य शुक्ल के युग में नहीं, उसके बहुत बाद इस पुस्तक की खोज होती है और इसकी भूमिका भौतिकवादी चेतना के प्रसार का महत्वपूर्ण साधन बनती है।

विश्वप्रपंच की विशेषता यह है कि इसके साथ 126 पृष्ठों की एक भूमिका लगी है (द्वितीय संस्करण, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी) जिसमें पुस्तक में अभिव्यक्त विचारों के सम्बन्ध में आचार्य शुक्ल का अपना चिन्तन भी दिया गया है। इस भूमिका की तरफ हिन्दी पाठकों का ध्यान दिलाने का श्रेय डॉ॰ रामविलास शर्मा को है। ('आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना', द्वितीय संस्करण की भूमिका) और इसे सहज-सुलभ बनाने का श्रेय डॉ॰ नामवर सिंह को (चिन्तामणि, भाग-3)। यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि इस भूमिका की ओर ध्यान आचार्य शुक्ल के शिष्यों और उन आलोचकों का नहीं गया, जो अपने को उनकी परम्परा को विकसित करनेवाला आलोचक मानते हैं बल्कि उन आलोचकों का गया, जो हिन्दी के ‘विधर्मी’ और ‘परम्परा-द्रोही’ यानी मार्क्सवादी आलोचक हैं !

उक्त भूमिका के आरम्भ में ही हमें आचार्य शुक्ल का यह कथन मिलता है गत शताब्दी में योरप में ज्यों-ज्यों भौतिक विज्ञान, रसायन, भूगर्भ विद्या, प्राणिविज्ञान, शरीरविज्ञान इत्यादि के अन्तर्गत नयी-नयी बातों का पता लगने लगा और नये-नये सिद्धान्त स्थिर होने लगे, त्यों-त्यों जगत् के सम्बन्ध में लोगों की जो भावनाएँ थीं, वे बदलने लगीं। जहाँ पहले लोग छोटी-से-छोटी बात के कारण को न पाकर उसे ईश्वर की कृति मान सन्तोष कर लेते थे वहाँ चारों ओर नाना विज्ञानों के द्वारा कार्य-कारण की ऐसी विस्तृत शृंखला उपस्थित कर दी गयी कि किसी को बीच में ठिठकने की आवश्यकता न रह गयी। ज्ञान-दृष्टि को बहुत दूर तक बढ़ाने के लिए मार्ग खुल गया। (चिन्तामणि, भाग-3, पृ.113-14) इस कथन में वैज्ञानिक प्रगति में जो आस्था व्यक्त की गयी, वह ध्यान देने योग्य है। विज्ञान के प्रति आचार्य शुक्ल का दृष्टिकोण विज्ञान-यान पर चढ़ी हुई सभ्यता डूबने जाती है वाले दृष्टिकोण से कितना भिन्न है ! उन्होंने विज्ञान की सबसे बड़ी विशेषता-कार्य-कारण की शृंखला का अनुसन्धान को लक्ष्य कर लिया है, साथ ही उसके परिणाम को भी, जिससे जगत् के सम्बन्ध में लोगों की यह धारणा बदलने लगी हैं कि वह ईश्वरकृत है। आगे वे कहते हैं, जीवधारियों के सम्बन्ध में पहले लोगों की धारणा थी कि जितने प्रकार के जीव आजकल हैं, सब एक साथ सृष्टि के आरम्भ में ही उत्पन्न हो गये थे अर्थात् जितने प्रकार के जीवों के ढाँचे आदि में थे वे सब बिना किसी परिवर्तन के अब तक ज्यों के त्यों चले आ रहे हैं।

डारविन ने इस विश्वास का खंडन किया और ‘विकास सिद्धान्त’ की स्थापना करके यह सिद्ध कर दिया कि ये अनेक प्रकार के ढाँचों के जो इतने जीव दिखायी पड़ते हैं सब एक ही प्रकार के अत्यन्त सादे ढाँचे के क्षुद्र आदिम जीवों से क्रमशः करोड़ों वर्ष की वंश-परम्परा के बीच, स्थिति के अनुसार अपने अवयवों में भिन्न-भिन्न परिवर्तन प्राप्त करते हुए और उत्तरोत्तर भेदानुसार अनेक शाखाओं में विभक्त होते हुए उत्पन्न हुए हैं। इसी विकास क्रम के अनुसार मनुष्य जाति भी पूर्वयुग के उन जीवों से उत्पन्न हुई जिनसे बन्दर वनमानुष आदि उत्पन्न हुए अर्थात् वनमानुषों और मनुष्यों के पूर्वज एक ही थे। (उपर्युक्त पृ.124-25) आचार्य शुक्ल ने इसके बाद जो टिप्पणी की है वह दिलचस्प है इस विकासवाद से बड़ी खलबली मची। इसकी बात जनसाधारण के विश्वास और धर्मपुस्तकों की पौराणिक सृष्टि-कथा के विरुद्ध थी। हमारे यहाँ भी पुराणों में योनियाँ स्थिर कही गयी हैं और उनकी संख्या भी चौरासी लाख बता दी गयी है। गरूड़ पुराण में तो प्रत्येक वर्ग की योनियों की गिनती तक है। डारविन ने यह अच्छी तरह सिद्ध करके दिखा दिया है कि एक जाति के जीवों से ही क्रमशः दूसरी जाति के जीवों की उत्पत्ति हुई है। योनियाँ स्थिर नहीं हैं, स्थितिभेद के अनुसार असंख्य योनियों के बीच उनके अवयवों आदि में परिवर्तन होते गये हैं, जिससे योनि के जीवों से दूसरी योनि के जीवों की शाखा चली है। (उपर्युक्त पृ.125)

विकासवाद का निरूपण करने और उस पर अपनी राय देते चलने के बाद आचार्य शुक्ल ने ‘विश्वप्रपंच’ की भूमिका में कहा है इसी विकासवाद को लेकर हैकल आदि ने अपने प्रकृतिवाद या अनात्मवाद की प्रतिष्ठा की है जिसका विरोध पौराणिक कथाओं तक ही नहीं रह जाता, बल्कि सारे ईश्वरवादी या आत्मवादी दर्शनों तक पहुँचता है। विकाससिद्धान्त को स्वीकार करते हुए भी अधिकांश दर्शन नित्य चेतन तत्त्व मानते हैं और उसकी भावना (आचार्य शुक्ल प्रायः इस शब्द का प्रयोग कल्पना के अर्थ में करते हैं।–ले.) कई प्रकार से करते हैं। हैकल चैतन्य को द्रव्य का एक परिणाम कहते हैं जिसका विकास जन्तुओं के मस्तिष्क ही में होता है। उनका कहना है कि आत्मा शरीर धर्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं। अतः उसे शरीर से पृथक् एक अभौतिक नित्य तत्त्व मानना भूल है। शरीर के साथ ही उसकी भी इतिश्री हो जाती है। अन्तःकरण को अपने व्यापारों का जो बोध होता है वही चेतना है। जिस प्रकार विषय सम्पर्क द्वारा इन्द्रियों और संवेदनसूत्रों में कई प्रकार के क्षोभ होते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्क में जाकर उनके द्वारा उत्पन्न संस्कारों का बोध भी होता है। अतः चेतना भी भौतिक अन्तःकरण का ही व्यापार है जो उस कारण के नष्ट होने पर नष्ट हो जाती है। (उपर्युक्त पृ.147) लेकिन यह हेक्केल या भौतिकवाद का पक्ष है, आचार्य शुक्ल का नहीं। आचार्य शुक्ल कहते हैं, अब प्रश्न यह होता है कि क्या विकासवाद जगत् के समस्त व्यापारों के मूल की सम्यक् व्याख्या कर देता है ? सच पूछिए तो उसकी पहुँच की भी हद है।

शरीर विकास और आत्मविकास को ही लीजिए। शरीर व्यापार और मनोव्यापार दोनो में, एक ही प्रकार के नियमों की चरितार्थता, दोनों का साथ-साथ उत्तरोत्तर क्रम से विकास, दिखाया गया है सही, पर दोनों एक नहीं सिद्ध हो सके हैं। विकासवाद के सारे निरूपण मन या आत्मा की प्रथमोत्पत्ति नहीं समझा सके हैं। और तो जाने दीजिए किस प्रकार संवेदनसूत्र का भौतिक (स्थूल) स्पन्दन संवेदन के रूप में परिणत हो जाता है यही रहस्य नहीं खुलता। इस प्रकार का और कोई परिणाम भौतिक जगत् में देखने में नहीं आता। इस कठिनता को कुछ लोग यह कहकर दूर किया चाहते हैं कि द्रव्य के प्रत्येक परमाणु में एक प्रकार की अन्तःसंज्ञा या अव्यक्त संवेदना होता है जो आकर्षण और अपसारण के रूप में प्रकट होता है। पर हम तो चेतना अर्थात् मन की अपने ही संस्कारों के बोध की वृत्ति की उत्पत्ति जानना चाहते हैं जिससे यह अन्तःसंज्ञा भिन्न है। हैकल ने मस्तिष्क के भीतर प्रतिबिम्ब या संस्कार ग्रहण करनेवाला जो एक प्राप्यकारी अवयव बताया है उससे भी चेतना का व्यापार समझने में सुभीता नहीं होता। केवल यही कह देने से कि एक वस्तु पर प्रतिबिम्ब पड़ रहा है यह समझ में नहीं आ जाता कि वह वस्तु यह बोध भी करती है कि मुझ पर प्रतिबिम्ब पड़ता है या प्रतिबिम्ब इस प्रकार का है।

(उपर्युक्त पृ.165) इस प्रकार चेतना की उत्पत्ति और उसके स्वरूप को लेकर आचार्य शुक्ल उलझन में पड़ जाते हैं लेकिन वे आशा नहीं छोड़ते हैं। उनका यह कथन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है : ‘‘किण्व-सम्बन्धी रसायन बराबर उन्नति करता जा रहा है। कई प्रकार के किण्व या खमीर, पौधों या जन्तुओं से प्राप्त शरीर-द्रव्य के आश्रय के बिना, कुछ मूल द्रव्यों के परमाणुओं के योग से बना लिए गये हैं। सजीव द्रव्य की उत्पत्ति के पास तक यही विधान पहुँच सका है और इसी से बहुत कुछ आशा है। सजीवता का जीवन वास्तव में किण्व-परम्परा ही है। (उपर्युक्त पृ.160, बल लेखक का) यहीं पाद टिप्पणी में उन्होंने चार्वाक् की वह उक्ति उद्धृत की है, जिसमें कहा गया है कि चार भौतिक तत्त्वों के देहाकार में परिणत होने से मदशक्तिवत् चैतन्य उत्पन्न होता है और उनके नष्ट होने से वह भी नष्ट हो जाता है।

पश्चिम के वैज्ञानिकों में कुछ अनीश्वरवादी हुए हैं कुछ ईश्वरवादी और कुछ संशयवादी। आलिवर लॉज नामक एक वैज्ञानिक ने आत्मा की सत्ता पर बहुत बल दिया था। उनका मत विस्तार से उद्धृत करके उसके नीचे आचार्य शुक्ल ने अपनी यह टिप्पणी दी है, योरप और अमेरिका में कुछ दिनों से परोक्ष शक्ति के साधक भी खड़े हुए हैं जो अनेक प्रकार की सिद्धियाँ दिखाकर आत्मसत्ता का अस्तित्व प्रतिपादित करने का उद्योग करते हैं। ये मृत पुरुषों की आत्माओं से बातचीत करने उनके द्वारा अलौकिक घटनाओं के होने का हाल सुनाया करते हैं इनकी ओर से कई पत्रिकाएँ भी निकलती है। पर इनमें से अधिकतर छल और प्रपंच का आश्रय लेते हैं इससे शिक्षितों और वैज्ञानिकों की इन पर आस्था नहीं है। बहुतेरे अन्तःकरण की असामान्य वृत्तियों या अवस्थाओं (जैसे-दोहरी, चेतना आदि) को अपने प्रयोग में लाते हैं। पर इन युक्तियों से शिक्षितों का समाधान नहीं होता। (उपर्युक्त पृ.181) फिर समाधान क्या है ? आचार्य शुक्ल सत्य की खोज में थे। भाववादी दार्शनिक परम सत्य को एक बतलाते थे जो कि चेतन था। दूसरी ओर वैज्ञानिक भी परम तत्त्व को एक बतला रहे थे जोकि भूत था। आचार्य शुक्ल ने इससे दर्शन और विज्ञान को लेकर एक समीकरण तैयार किया और कहा कि भेदों में अभेद ज्ञान और धर्म दोनों का लक्ष्य है। विज्ञान इसी अभेद की खोज में है, धर्म इसी की ओर दिख रहा है। (उपर्युक्त, पृ.185) यहाँ कहा जा सकता है कि आचार्य शुक्ल ने विज्ञान और दर्शन अथवा विज्ञान और धर्म को एक बिन्दु पर ला खड़ा किया है, जबकि इन दोनों के बीच का फर्क उन्हें अच्छी तरह से मालूम था।

उन्होंने विश्वप्रपंच की इसी भूमिका में लिखा है वैज्ञानिक निश्चय और दार्शनिक अनुमान में बड़ा भेद होता है। दार्शनिक संकेत मात्र देते हैं और वैज्ञानिक ब्योरों की छानबीन करते है। (उपर्युक्त पृ.126) लेकिन जैसा कि आरम्भ में कहा गया है आचार्य शुक्ल नवोदित शिक्षित भारतीय मध्यवर्ग के सदस्य थे। इस कारण उनके लेखन का एक निश्चित सामाजिक सन्दर्भ था। उनके समय में धार्मिक विवाद तीव्र रूप में चल रहे थे, जिससे समाज के विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच एक तनाव की स्थिति बनी रहती थी। स्वभावतः उन्होंने कहा कि नाना मतों और मजहबों की विशेष स्थूल बातों को लेकर झगड़ा टंटा करने का समय अब नहीं है। सब मतों और सम्प्रदायों में धर्म और ईश्वर की जो सामान्य भावना है उसी का पक्ष अब शिक्षित पक्ष के अन्तर्गत आ सकता है। ईश्वर साकार है कि निराकार, लम्बी दाढ़ीवाला है कि चार हाथवाला, अरबी बोलता है कि संस्कृत, मूर्ति पूजनेवालों से दोस्ती रखता है कि आसमान की ओर हाथ उठानेवालों से, इन बातों पर विवाद करनेवाले अब केवल उपहास के पात्र होंगे। इसी प्रकार सृष्टि के जिन रहस्यों को विज्ञान खोल चुका है उनके सम्बन्ध में जो प्राचीन पौराणिक कथाएँ और कल्पानाएँ (6 दिन में सृष्टि की उत्पत्ति; आदम हौवा का जोड़ा; चौरासी लाख योनि इत्यादि) हैं वे अब ढाल-तलवार का काम नहीं दे सकती। अब जिन्हें मैदान में जाना हो वे नाना विज्ञानों से तथ्य संग्रह करके सीधे उस सीमा पर जाएँ जहाँ दो पक्ष अड़े हुए हैं - एक ओर आत्मवादी, दूसरी ओर अनात्मवादी; एक ओर जड़वादी दूसरी ओर नित्य चैतन्यवादी। यदि चैतन्य की नित्य सत्ता सर्वमान्य हो गयी तो फिर सब मतों की भावना का समर्थन हुआ समझिए, क्योंकि चैतन्य सर्वस्वरूप है। नाना भेदों की अभेददृष्टि ही सच्ची तत्त्वदृष्टि है।

इसी के द्वारा सत्य का अनुभव और मतमतान्तर के राग-द्वेष का परिहार हो सकता है। (उपर्युक्त पृ.181-82) इस उद्धरण में कई बातें ध्यान देने योग्य हैं। एक तो यह कि आचार्य शुक्ल दर्शन को बौद्धिक जल्पनाओं से निकालकर उसे जीवन में उपयोगी बनाने के पक्ष में थे, जिससे कि समाज में मतमतान्तर जनित राग-द्वेष का परिहार हो सके। इसी से सम्बद्ध दूसरी बात यह है कि उनकी सबसे बड़ी चिन्ता भेदों में अभेद को देखने की थी, जिससे कि भेदभाव के स्थान में मानवीय सौहार्द और एकत्व की स्थापना हो सके। इसीलिए उन्होंने भूमिका के अन्त में पैगम्बरी एकेश्वरवाद का जोरदार शब्दों में विरोध और औपनिषदिक ब्रह्मवाद का समर्थन किया हैं क्योंकि उसमें 'एक सदविप्रा बहुधा वदन्ति' की ऋग्वैदिक भावना का विस्तार हुआ है। आचार्य शुक्ल दर्शन के क्षेत्र में छिड़े भाववाद और भौतिकवाद के संघर्ष को साफ-साफ देख रहे हैं। डॉ॰ रामविलास शर्मा ने "यदि चैतन्य की नित्य सत्ता सर्वमान्य हो गयी" में प्रयुक्त 'यदि' शब्द की ओर हमारा ध्यान दिलाया है जोकि बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसका मतलब यह है कि आचार्य शुक्ल भाववाद और भौतिकवाद के संघर्ष को निर्णय पर पहुँचा हुआ नहीं मानते। वे सिर्फ सत्य को जानने के इच्छुक हैं वे प्रतीक्षा कर रहे हैं कि सत्य सामने आये, आधिभौतिक अद्वैत के रूप में या आध्यात्मिक अद्वैत के रूप में। उनकी मुख्य चिन्ता समाज को लेकर है। उपर्युक्त उद्धरण में यह तीसरी ध्यान देने योग्य बात है।

विकासवाद के प्रभाव से आचार्य शुक्ल ने सम्पूर्ण मानव-सभ्यता को विकासमान माना। उन्होंने लिखा है कि इस सिद्धान्त के अनुसार जिस प्रकार यह असिद्ध है कि शा से उन्नति करते-करते सभ्य दशा को प्राप्त हुई है। मनुष्य ऐसा प्राणी सृष्टि के आदि में ही एक बार उत्पन्न हो गया, उसी प्रकार यह भी असिद्ध है कि मनुष्य जाति के बीच धर्म, ज्ञान और सभ्यता आदिम काल में भी उतनी ही या उससे बढ़कर थी जितनी आजकल है। आधुनिक मत यह है कि मनुष्य जाति असभ्य द धीरे-धीरे उस ज्ञान की वृद्धि होती गयी है। इसी प्रकार धर्मभाव भी पहले बहुत स्वल्प और सादे रूप में था, पीछे सामाजिक व्यवहारों की वृद्धि के साथ-साथ उसका भी अनेक रूपों में विकास होता गया। (उपर्युक्त पृ,.155-56) आगे उन्होंने धर्म के बारे में और भी स्पष्टता से कहा है कि लोकव्यवहार और समाजविकास की दृष्टि से ही धर्म और आचार की व्याख्या की गयी है, परलोक और अध्यात्म की दृष्टि से नहीं। दूसरों के प्रति जो आचरण हम करते हैं उसी में अच्छे और बुरे का आरोप हो सकता है। व्यवहार-सम्बन्ध से ही क्रमशः सदसदविवेक बुद्धि उत्पन्न हुई है। (उपर्युक्त पृ.156) इन कथनों में आचार्य शुक्ल ने सामाजिक व्यवहार या व्यवहार सम्बन्ध की जो बात कही है उसका खुलासा यह है कि सभ्यता और धर्म का विकास समाज के भीतर हुआ है। उसी के कारण हुआ है उससे अलग रहकर नहीं।

समाज से अलग किसी सभ्यता और संस्कृति का विकास सम्भव नहीं है। स्पष्टतः यह भौतिकवादी दृष्टि का इजहार है। मामला चूँकि धर्म का है जिसका अलौकिकता से अनिवार्य सम्बन्ध माना जाता रहा है, इसलिए आचार्य शुक्ल विकासवाद की एतत्सम्बन्धी मान्यता का पुनः उल्लेख करते हुए उसका समर्थन करते है विकासवाद की व्याख्या के अनुसार धर्म कोई अलौकिक, नित्य और स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। समाज के आश्रय से ही उसका क्रमशः विकास हुआ है। धर्म का कोई ऐसा सामान्य लक्षण नहीं बताया जा सकता जो सर्वत्र और सब काल में मनुष्य जाति की जब से उत्पत्ति हुई है तब से अब तक बराबर मान्य रहा है। समाज की ज्यों-ज्यों वृद्धि होती गयी त्यों-त्यों धर्म की भावना में भी देशकालानुसार फेरफार होता गया। कोई समय था जब एक कुल दूसरे कुल की स्त्रियों को चुराना या लड़कर छीनना अच्छा समझता था। देवताओं की वेदियों पर नर-बलि देने में किसी के रोंगटे खड़े नहीं होते थे। बाइबिल में इसके कई उल्लेख हैं, शुनःशेप की वैदिक गाथा भी एक उदाहरण है। (उपर्युक्त पृ,.156-57) संक्षेप में कहें तो आचार्य शुक्ल की विश्व-दृष्टि परलोकवादी न होकर लोकवादी थी, जिसके निर्माण में धर्म और भाववादी दर्शन से अधिक वैज्ञानिक अनुसन्धान और चिन्तन का योग था। उनकी यही दृष्टि, जोकि निरन्तर विकासमान है उनके सामाजिक राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक चिन्तन में अभिव्यक्त हुई है।

'विश्व प्रपन्च' हिन्दी अनुवाद विधा का पथप्रदर्शक है |

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