हेगेल का दर्शन
सुप्रसिद्ध दार्शनिक जार्ज विलहेम फ्रेड्रिक हेगेल (1770-1831) कई वर्ष तक बर्लिन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे और उनका देहावसान भी उसी नगर में हुआ। उसके लिखे हुए आठ ग्रंथ हैं, जिनमें प्रपंचशास्त्र (Phenomelogie des Geistes), न्याय के सिद्धांत (Wissenschaft der Logic) एवं दार्शनिक सिद्धांतों क विश्वकोश (Encyclopedie der phiosophischen Wissenschaften), ये तीन ग्रंथ विशेषतया उल्लेखनीय हैं। हेगेल के दार्शनिक विचार जर्मन-देश के ही इमानुएल कांट, फिक्टे और शैलिंग नामक दार्शनिकों के विचारों से विशेष रूप से प्रभावित कहे जा सकते हैं, हालाँकि हेगेल के और उनके विचारों में महत्वपूर्ण अंतर भी है।
परिचय
हेगेल का दर्शन निरपेक्ष प्रत्ययवाद या चिद्वाद (Absolute Idealism) अथवा वस्तुगत चैतन्यवाद (Objective Idealism) कहलाता है; क्योंकि उनके मत में आत्मा-अनात्मा, द्रष्टा-दृश्य, एवं प्रकृति-पुरुष सभी पदार्थ एक ही निरपेक्ष ज्ञानस्वरूप परम तत्व या सत् की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। उनके अनुसार विश्व न तो अचेतन प्रकृति या पुद्गलों का परिणाम है और न किसी परिच्छिन्न व्यक्ति के मन का ही खेल। जड़-चेतन-गुण-दोष-मय समस्त संसार में एक ही असीम, अनादि एवं अनंत चेतन तत्व, जिसे हम परब्रह्म कह सकते हैं, ओतप्रोत है। उससे पृथक् किसी भी पदार्थ की सत्ता नहीं। वह निरपेक्ष चिद् या परब्रह्म ही अपने आपकी अपनी ही स्वाभाविक क्रिया से विविध वस्तुओं या नैसर्गिक घटनाओं के रूप में सतत प्रकट करता रहता है। उसे अपने से पृथक् किसी अन्य साधन या सामग्री की आवश्यकता नहीं। हेगेल के अनुसार पुद्गलात्मक विश्व और हमारे तन, परस्पर भिन्न होने पर भी, एक ही निरपेक्ष सक्रिय परब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ होने के नाते एक दूसरे से घनिष्ठतापूर्वक संबंधित एवं अवियोज्य हैं। हेगेल के विचार में संसार का सारा ही विकसात्मक क्रियाकलाप सक्रिय ब्रह्म का ही क्रियाकलाप है। क्या जड़ क्या चेतन, सभी पदार्थ और प्राणी उसी एक निरपेक्ष विद्रूप सत् के सीमित या परिच्छिन्न व्यक्त रूप हैं। जड़ीभूत प्रकृति, प्राणयुक्त वनस्पतिजगत्, चेतन पशुपक्षी तथा स्वचेतन मनुष्यों के रूप में वही एक परब्रह्म अपने आपको क्रमश: अभिव्यक्त करता है और उसकी अबतक की अभिव्यक्तियों में आत्मसंवित्तियुक्त मानव ही सर्वोच्च अभिव्यक्ति है, जिसके दार्शनिक, धार्मिक तथा कलात्मक उत्तरोत्तर उत्कर्ष के द्वारा ब्रह्म के ही निजी प्रयोजन की पूर्ति होती है। दूसरे शब्दों में, ब्रह्म अपने आपको विश्व के विविध पदार्थों के रूप में प्रकट करके ही अपना विकास करता है।
इस प्रकार, हेगेल का निरपेक्ष ब्रह्म एक सक्रिय मूर्त सार्वभौम (Concrete universal) या गत्यात्मक (Dynamic) एवं ठोस सार्वभौत तत्व है, अमूर्त सार्वभौम (Abstract universal) नहीं। वह शंकराचार्य के ब्रह्म के सदृश न तो शांत या कूटस्थ (Static) है और न भेदशून्य। हेगेल ने शैलिंग के भेदशून्य (Differenceless) ब्रह्म को एक ऐसी अंधकारपूर्ण रात्रि के समान बताकर, जिसमें विविध रंगों की सभी गौएँ काली दिखाई पड़ती हैं, सभी भेदशून्य ब्रह्मवादियों की कटाक्षपूर्ण आलोचना की है। शैलिंग चराचरात्मक समस्त विश्व की आविर्भूति ब्रह्म से स्वीकार करते हुए भी उसे सब प्रकार के भेदों से रहित तथा प्रपंच के परे मानते थे। परंतु भेदशून्य अगत्यात्मक, तत्व से भेदपूर्ण तथा गत्यात्मक सृष्टि के उदय या विकास को स्वीकार करना हेगेल को युक्तियुक्त नहीं प्रतीत हुआ। उन्होंने ब्रह्म को विश्वातीत नहीं माना। हेगेल का ब्रह्म किसी हद तक श्रीरामानुजाचार्य के ईश्वर से मिलता जुलता है। वे, श्रीरामानुजाचार्य की तरह, ब्रह्म के सजातीय विजातीय भेद तो नहीं मानते, परंतु उसमें स्वगतभेद अवश्य स्वीकार करते हैं। उन्होंने उसे भेदात्मक अभेद (Identity-in difference) या अनेकतागत एकता (unity-in-diversity) के रूप में स्वीकार किया है, शुद्ध अभेद या कोरी एकता के रूप में नहीं। इसी प्रकार, श्रीरामानुजचार्य का सिद्धांत भी विशिष्टाद्वैत है, शुद्धाद्वैत या अद्वैत नहीं। हेगेल छांदोग्योपनिषद् के "सर्व खल्विदं ब्रह्म" (3.14.1), ऋग्वेद के "पुरुष एवेदं सर्वम्" तथा श्रीमद्भगवद्गीता के "सर्वत: परिणपावं" (13.13) आदि सिद्धांत के अनुमोदक तो अवश्यमेव कहे जा सकते हैं। परंतु मांडूक्योपनिषद् के "अमात्रश्चतुर्थो व्यवहार्य: प्रपंचोपशमा..." (12) सिद्धांत के माननेवाले नहीं।
हेगेल ने क्रियात्मक एवं गतिशील विश्व के विभिन्न रूपों में होनेवाली ब्रह्म की आत्माभिव्यक्ति को एक विशेष यौक्तिक या बौद्धिक नियम के अनुसार घटित होनेवाली माना है। उनका कहना था कि सत्य यौक्तिक है और यौक्तिक सत्य है। दूसरे शब्द में, उनके अनुसार बौद्धिक विचार का नियम और संसार के विकास का नियम एक ही है और उन्होंने यह नियम विरोध या विरोध का नियम (Law of Contradiction) बतलाया है। इसके अनुसार जड़ात्मक जगत एवं वैयक्तिक मन (mind) दोनों ही के रूप में निरपेक्ष ब्रह्म के विकास का हेतु उस तत्व का आंतरिक विरोध (opposition) या व्याघात (Contradiction) ही है। हेगेल के अनुसार दो विरोधी या परस्पर व्याघातक विचारों या पदार्थों का समन्वय एक तीसरे विचार या पदार्थ में हुआ करता है। उदाहरणार्थ, हमारे मन में सर्वप्रथम "सत्" (being) का विचार उदय होता है, या यों कहिए कि संसार के समस्त पदार्थों की आदि अवस्था "सत्" ही है। परंतु "केवल सत्" या "सन्मात्र" वस्तुत: असत् सदृश है। अत: सत् के अंतस्थल में ही असत् या अभाव (non-being) सन्निहित है। और सत् असत् की यह विप्रतिपत्ति ही सत् के भावी विकास का मूल हेतु बन जाती है। चूँकि विप्रतिपत्ति या विरोध यौक्तिक विचार को सह्य नहीं, अत: यह स्वभाव से ही उसके निराकरण की ओर अग्रसर हो जाता है तथा सत् और असत् नामक विरोधी प्रत्ययों के समन्वय का निष्पादन "भव" (becoming) नामक प्रत्यय में कर देता है। हेगेल प्रारंभिक प्रत्यय को पक्ष या निघान (Thesis), उसके विरोधी प्रत्यय को प्रतिपक्ष या प्रतिधान (Antithesis) तथा उनके मिलानेवाले प्रत्यय को समन्वय या समाधान (Synthesis) कहते हैं और उनकी यह पक्ष से समन्वयोन्मुखी पूरी प्रक्रिया विरोध समन्वय न्याय या द्वंद-समन्वय विधि (Dialetical method) अथवा त्रिकवाव (Dialecticism) नाम से जानी जाती है। उपर्युक्त उदाहरण में "सत्" पक्ष, "असत्" प्रतिपक्ष तथा "भव" समन्वय है। इस प्रकार हेगेल के विरोध-समन्वय-न्याय में पक्ष, प्रतिपक्ष, एवं समन्वय तीनों ही का समाहर होता है। इसे कुछ और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए हम अपने बाह्य ज्ञान को लें और देखें कि उसमें यह नियम किस प्रकार लागू होता है। हेगेल के कथनानुसार, किसी को भी बाह्य ज्ञान तभी होता है जब पहले ज्ञेय पदार्थ का विषय द्वारा ज्ञाता या विषयी का विरोध होता है (अर्थात् वह विषय उस तथाकथित विषयी को उसके बाहर निकालता है) और तत्पश्चात् वह विषयी उस विषय से विशिष्ट होकर अपने आपमें समाविष्ट होता है। यहाँ "विषयी" पक्ष तथा "विषय" प्रतिपक्ष है और उनका समन्वय विषयी द्वारा प्राप्त विषय संबंधी ज्ञान से होता है।
वस्तुत: हेगेल के मत में विचार एवं विश्व के सारे ही विकास की प्रगति, अनिवार्य रूप से, इसी विरोध समन्वय न्याय के अनुसार होती है। उन्होंने अनुभव या संसार के प्राय: सभी क्षेत्रों की व्याख्या में इस न्याय की प्रयुक्तता को प्रदर्शित करने का दु:साध्य किंतु प्रशंसनीय प्रयत्न किया है। उनका कथन है कि विश्व में जो कुछ भी होता है वह सब इस नियम के अनुसार होता है और इसके परिणामस्वरूप उत्तरोत्तर नवीन भेदप्रभेद या पदार्थों का आविर्भाव होता रहता है। कोई भी भेद कभी भी निरपेक्ष प्रत्यय या परब्रह्म के बाहर नहीं होता और न वह ब्रह्म ही कभी प्रापंचिक पदार्थों से पृथक् होता है परंतु संसार में कभी ब्रह्म की संभाव्यताओं (Potentialities) का अंत नहीं होता और इस दृष्टि से हम उसे संसारातीत भी कह सकते हैं। हेगेल ने इसी ब्रह्म या निरपेक्ष प्रत्यय में समस्त भूत, वर्तमान एवं भावी भेदों का समन्वय करने का प्रयत्न किया है।
हेगेल का ब्रह्म
"हेगेल का ब्रह्म व्यक्ति है अथवा नहीं ?" यह प्रश्न विवादग्रस्त है। हैलडेन आदि पंडित उसे व्यक्ति मानते हैं; परंतु प्रो. मैकटैगार्ट आदि विद्वानों की सम्मति में वह व्यक्ति नहीं कहा जा सकता।
हेगेल, निसंदेह, एक कट्टर सत्कार्यवादी विचारक थे। उनके अनुसार कार्य अपने कारण में अपनी अभिव्यक्ति से पूर्व भी मौजूद रहता है। वस्तुत: वे कारण एवं कार्य तथा गुणी और गुण को एक दूसरे से अभिन्न और अन्योन्याश्रित मानते थे। जिस प्रकार कारणों के अभाव में कार्य नहीं हो सकता अथवा गुण बिना गुणी के नहीं रह सकता, उसी प्रकार, हेगेल के मत में, कार्य के अभाव में भी कोई घटना या वस्तु कारण नहीं कहला सकती, ठीक वैसे ही जैसे बिना गुण के गुणी नहीं।
हेगेल का निरपेक्ष प्रत्यय या ब्रह्म, जिसे वे कभी कभी ईश्वर भी कहते हैं, काँट की "पारमार्थिक या अपने आपमें की वस्तुओं" (Things-in-themselves) के सदृश अज्ञेय नहीं। वह हमारे चिंतन का विषय बन सकता है, क्योंकि हम और हमारी चिंतनशक्ति, बुद्धिपरिच्छिन्न होने पर भी, उसी के अनुरूप हैं। दूसरे शब्दों में चूँकि हमारे सीमित विचार के नियम वही हैं जो सार्वभौम ईश्वर या उसके विचाररूप विश्व के, अत: वह (ईश्वर) हमें बुद्धि द्वारा अवगत हो सकता है। हेगेल के इस विचाररूप प्रयत्न से निस्संदेह ही उस चौड़ी खाई को पाटने का श्लाघनीय कार्य किया जो काँट ने पारमार्थिक और व्यावहारिक वस्तुओं के बीच में, उन्हें क्रमश: अज्ञेय एवं ज्ञेय बताकर, खोद डाली थी।
समीक्षा
हेगेलीय दर्शन, एक अत्यंत महत्वपूर्ण, उत्कृष्ट एवं उत्कट बौद्धिक प्रयास होने पर भी, आपत्तियों से मुक्त नहीं। उसके विरुद्ध, संक्षेप में निम्नांकित बातें प्रस्तुत की जा सकती हैं-
- (1) हेगेलीय दर्शन की सत्यता स्वीकार कर लेने पर हमारी निजी सुदृढ़ स्वातंत्र्य भावना को इतना भारी धक्का लगता है कि वह जड़सहित हिल जाती है। जब प्राकृतिक एवं मानसिक सारी ही सृष्टि की गति वस्तुत: परब्रह्म की ही गति या क्रिया है, तो फिर हमारे वैयक्तिक स्वतंत्र प्रयत्न के लिए स्थान अथवा अवसर कहाँ? हेगेल मानवीय स्वतंत्रता को मानते हुए उसे ईश्वरीय स्वतंत्रता द्वारा सीमित स्वीकार करते हैं। परंतु उनकी यह मान्यता मानव को अस्वतंत्र मानने के समान ही प्रतीत होती है। जिस क्षेत्र, जिस अर्थ, जिस मात्रा और जिस समय में हम स्वतंत्र कहे जा सकते हैं, उसी क्षेत्र, उसी अर्थ, उसी यात्रा एवं उसी समय में हमारी स्वतंत्रता सीमित या परतंत्र नहीं कही जा सकती। उसे सीमित करने का स्पष्ट अर्थ है उसे छीन लेना।
- (2) हेगेल निरूपाधि ब्रह्म को एक ओर तो पूर्ण एवं काल से अपरिच्छिन्न स्वीकार करते हैं और दूसरी ओर, विश्व के रूप में उसका कालगत विकास भी मानते हैं। परंतु इन दोनों मान्यताओं में विरोध मालूम होता है। हेगेल इन दो प्रकार की बातों को एक दूसरी के साथ ठीक ठीक संबंधित नहीं कर सके।
- (3) हेगेल सार्वभौम चित् या निरुपाधि ब्रह्म को बुद्धि द्वारा ज्ञेय मानते हैं। परंतु, यथार्थत:, जो कुछ बुद्धि से ज्ञात होता है, या हो सकता है, वह सार्वभौम या निरुपाधि नहीं हो सकता। हेगेल ने बुद्धि में ब्रह्मज्ञान की क्षमता मानकर बुद्धि का अनुचित महत्व प्रदान कर दिया है। बौद्धिक विचार स्वभाव से ही द्वैत या भेद में भ्रमण करके जीवित रहनेवाले होते हैं। अत: सार्वभौम चित् या निरुपाधि ब्रह्म, जो एक या परिपूर्ण सत् है, बौद्धिक विचार का विषय नहीं बन सकता। ब्रैडले महोदय की यह धारणा कि ब्रह्म को हम अपरोक्षानुभूति द्वारा ही अनुभव कर सकते हैं, बुद्धि द्वारा जान नहीं सकते, हेगेल के विचार की अपेक्षा कहीं अधिक समीचीन प्रतीत होती है। केनोपनिषद् ने "मतं यस्य न वेद स:" इन शब्दों द्वारा ब्रह्म के बौद्धिक ज्ञान का खंडन किया है, तथा माण्डूक्योपनिषद् ने "एकात्मप्रत्ययसार" इस कथन से ब्रह्म की अपरोक्षानुभूति ही संभव बतलाई है। और ऐसी ही बात आधुनिक युग के प्रख्यात दार्शनिक हेनरी बर्गसाँ ने भी स्वीकार की है।
इन्हें भी देखें
- द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति (Dialectics)
- नवहेगेलवाद (Neohegelianism)