हिन्दुस्तानी, हिन्दी एवं उर्दू के आधुनिक शब्दकोश

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हिन्दुस्तानी, हिन्दी और उर्दू के आधुनिक कोशों का निर्माणकार्य भी पाश्चात्य विद्वानों ने व्यापक पैमाने पर किया। इन भाषाओं एवं अन्य भारतीय भाषाओं के कोशों का निर्माण जिन प्रेरणाओं से पाश्चात्य विद्वानों ने किया उनमें दो बातें कदाचित् सर्वप्रमुख थीं;

(क) पन्थ का प्रचार करनेवाले ख्रीष्ट मतावलम्बी धर्मोंपदेशक चहते थे कि यहाँ की जनता में घुलमिलकर उनकी भाषा बोल और समझकर उनकी दुर्बलताओं को समझा जाय और तदनुरूप उन्हीं की बोली में इस ढंग से प्रचार किया जाय जिसमें सामाजिक रूढ़ियों और बन्धनों से पीड़ित वर्ग, इसाई पन्थ के लाभों के लालच में पडकर अपना पन्थ- परिवर्तन करे। फरतः यह आवश्यक था कि हिन्दी या हिन्दुस्तानी, उर्दू तथा बांग्ला, तमिल, मराठी, मलयालम, कन्नड, तेलगू, उडिया, असमिया आदि भाषाभाषियों के बीच ख्रीष्टीय मत के प्रचारक, उनकी भाषाएँ सीखें और उनमें धडल्लें से व्याख्यान दे सकें तखा ग्रन्थरचना कर सकें। परिणामतः इन भाषाओं के अनेक छोटे मोटे व्याकरण और कोशों की विदेशी माध्यम से रचना हुई।

(ख) दूसरा प्रमुख वर्ग था शासकों का, शासनकार्य की सुविधा और प्रौढता के लिये, शासित की भावना, संस्कृति, धार्मिक विचार, भाषा और उनके धर्मशास्त्र तथा साहित्य की जानकारी भी अनिवार्य थी। एतदर्थ भी इन भाषाओं के कोश बने।

इन दोनों के अतिरिक्त भारती विद्या भारतीय दर्शन, वैदिक तथा वैदिकेतर संस्कृत साहित्य के विद्याप्रेमी ऐर भाषावैज्ञानिक प्राय़ः निःस्वार्थ भाव से संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं के अनुशीलन में प्रवृत्त हुए तथा तत्तत् विषयों के ग्रन्थों की रचना की। इसी सन्दर्भ में महत्वपूर्ण कोशग्रन्थ भी बने। संस्कृतकोशों की चर्चा की जा चुकी है। 'ए डिक्शनरी आफ़ मोहमडन लॉ एण्ड बांग्ला रेवेन्यू टर्मस' (४ भाग— ई० १७९५), 'ए ग्लॉसरी आफ़ इण्डियन टर्मस' (८ भाग— १७९७ ई०), बंगाली सिविल सर्विस टर्मूस्' (एच्. एम. इलियट, १८४५ ई०), ए ग्लासरी आव् जुडिशल ऐंड रेबेन्यू टर्मस इत्यादि ग्रंथों का निर्माण किया गया। इनसे एक ओर तो शासनकार्य में सुविधा प्राप्त हुई और दूसरी ओर पाश्चात्य विद्वानों को भी भारतीय भाषा या संस्कृत के ग्रन्थों का अपनी अपनी भाषाओं में अनुवाद करने में सहायता मिली।

इन कोशों को अलावा पाश्चात्य विद्वानों अथवा उनकी प्रेरणा से भारतीय सुधियों द्वारा उसी पद्धति पर पाली, प्राकृत आदि के कोश भी बने और बन रहे हैं। राबर्ट सीजर ने पाली— संस्कृत— डिक्शनरी का 1875 ई० में प्रकाशन कराया था। 1912 ई० में पाली टैकस्ट सोसाइटी के निर्देश्न में पाली — अंग्रेजी—डिक्शनरी बनकर सामने आई। शतावधानी जैनमुनि श्रीनत्नचंद ने 'अर्धमागधी डिक्शनरी' का निर्माण किया। उसमें संस्कृत, गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी का प्रयोग उपयोग होने से उसे बहुभाषी शब्दकाश कहना संगत है। 'पाईसद्दमहष्णव' निश्चय ही प्राकृत का अत्यन्त विशिष्ट कोश है जिसका पुनः प्रकाशन किया गया है 'प्राकृत टोक्सट सोसाइटी ' की ओर से।

भारतीय आधुनिक भाषाओं में हिन्दी के विशिष्ट स्थान और महत्त्व की घोषणा किए बिना भी पाश्चात्य विद्वानों ने उसे हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा मान लिया तथा हिन्दी या हिदुस्तानी— दोनों ही नामों का उसके लिये— मेरी समझ में— प्रयोग किया। उर्दू को भी उसी की शैली समझा। अतः हिन्दुस्तानी और हिन्दी के कोशों की ओर उन्होंने विशेष ध्यान दिया। नीचे इसकी चर्चा हो रही है।

हिन्दी-हिन्दुस्तानी के कोश

हिन्दी या हिन्दुस्तानी या उर्दू के कोशों का निर्माण भी इसी क्रम में हुआ। जानसन का लघुकोश 'ए लिस्ट आफ़ वन थाउज़ेण्ड इमपॉर्ण्टेट- वर्ड्स' आरम्भिक प्रयास था। इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कार्य था विलियम हण्टर की हिन्दुस्तानी— इंग्लिश— डिक्शनरी (1808 ई०)। इसका मुख्य आधार था कैप्टन जोसफ टेलक की 'ए डिक्शनरि आफ़ हिन्दुस्तानी एण्ड इंग्लिश'। टेलर ने अपने उपयोग के लिये इसका निर्माण किया था। हण्टर का कोश निरन्तर संशोधित और पिरवर्धित संस्करणों में क्रमश— 1819, 1820 और 1834 ई० में प्रकाशित होता रहा। जान शेक्सपियर भी कोश का कार्य करते रहे। पर उनके कोश से पूर्व हण्टर का कोश तथा एम० टी० आदम की कृति 'दि डिक्शनरी आफ़ हिन्दी एण्ड इंग्लिश' प्रचलित था। डा० गिल- क्राइस्ट की डिक्शनरी 'इंग्लिश एण्ड हिन्दुस्तानी' 1786—96 में प्रकाशित हो चुकी थी। उसका संक्षिप्त रूप उन्होने ही रोबुक के सहसंपाद- कत्व में 1820 ई० में प्रकाशित किया था। डा० रोजेरी ने उसी को ए डिक्शनरी आफ़ 'इंग्लिश बांग्ला एण्ड हिन्दुस्तानी' नाम से संक्षिप्ततर रूप में कलकत्ता से 1837 ई० में प्रकाशित कराया था। जे० बी० थामसन की उर्दू— अंग्रेजी डिक्शनरी 1838 ई० में प्रकाशित हुई। 1817 ई० में शेक्सपियरद्वारा लन्दन से 'अंग्रेजी हिन्दुस्तानी और हिन्दुस्तानी अंग्रेजी' कोश प्रकाशित हुआ परन्तु इन सबमें रोमन या फालकी लिपि का प्रयोग मुख्यतः होता रहा। इसी बीच 1812 ई० में पादरी एम० टी० आदम का महत्वशाली कोश भी सामने आया, जो— जैसा प्रथम संस्करण की भूमिका के पृ० १ में बताया गया है— हिन्दी कोश के नाम से कलकत्ता में प्रकाशित हुआ। इसे नागरी का प्रथम कोश कह सकते हैं जिसमें हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का व्यवहार किया गया। डा० हरकोटस ने भी 'ए डिक्शनरी इंग्लिश एण्ड हिन्दुस्तानी' बनाई थी। मद्रास के डा० हैरिस ने बड़े व्यापक पैमाने पर एक हिन्दुस्तानी— अंग्रेजी कोश का सपादन — कार्य आरम्भ किया था। बे बहुत काफी कार्य कर भी चुके थे। पर इसके पूर्ण होने से पहले ही वे दिवंगत हो गए। यह बहुत ही प्रामाणिक ग्रन्थ था। सामान्य सन्द्रभ की भी इसमें सहयाजना थी। इसकी सबसे बडी विशेषथा यह थी कि इसमें दक्खिनी हिन्दी के शब्दों का उपयोग हुआ था।

जान शेक्सपियर ने अपने कोश के निर्माण में इसकी पाण्डुलिपियों का पूर्ण उपयोग किया। उन्हें इसका हस्तलेख मिला था इण्डिया हाउस के आफिस में। इसके शब्दों और अर्थों के संकलन में डा० हैरिस ने भारतीय विद्वानों की पूरी सहायता ली थी।

इसके आधार पर और संकलित भाग का पूर्ण उपयोग करते हुए अपने कोशो का शेक्सपियर ने परिवर्धित संस्करण १८१४८ ई० में और दूसरा संशोधित संस्करण १८६१ ई० में प्रकाशित कराया। इस विशाल शब्दकोश के दोनों अंशों में बहुत परिवर्धन संशोधन हुआ। दोनों अंस 'हिंतुस्तानी ऐंड इंग्लिश डिक्शनरी' तथा 'इंग्लिश ऐंड हिंदुस्तानी डिक्शनरी ' एक साथ प्रकाशित किए गए। य़ह शब्दकोश विशेष महत्त्व का है। इसमें सबसे पहले रोमन वर्णों द्वारा शब्दनिर्देशन है, तदनन्तर यथा, एस्= संस्कृत, एच् =हिन्दी या हिन्दुस्तानी, पी=फारसी संकेतों द्वारा काश के शब्द से संबद्ध मूलभाषास्त्रोत का निर्देश हुआ है और हिंदी, हिन्दुस्तानी, फारीस, अरबो, अंग्रेजी, पुर्तगाली, तुर्की, ग्रीक, लातिन, तामिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड, बंगला, मराठी, गुजराती आदि के सकेत हैं। तदनतर फारसी में कोशशब्द यथास्थान दिए हुए हैं। यदि आवश्यक हुआ तो नागरी रूप भी दिया गया है। रोमन में फिर वही शब्द है और अंत में अंग्रेजी पर्याय।

इसी युग में डंकन फोर्बस का कोश— डिक्शनरी हिंदुस्तानी (1848 ई०) का भी प्रकाशन किया गया। इसमें कोशशब्दों को फारसी और रोमन में तथा अर्थपर्याय अंग्रेजी में दिया गया है।

'ए न्यू हिन्दुस्तानी इंग्रिश डिक्शनरी ' का फैलन ने बड़े श्रम के साथ सम्पादन किया ओर उसे प्रकाशित कराया। उसका महत्त्व इस वर्ग के कोशों में सर्वाधिक माना गया। आधुनिक कोशविद्या की पद्धित से निर्मित यह ऐसा कोश है जिसमे पर्यायवाची शेला का भी योग है। इसमें उदाहृत अंश एक आर तो हिन्दुस्तानी साहित्य से गृहित हैं दुसरा ओर लोकगीतों के उदाहरण भी दिए गए हैं। इतना ही नहीं, बोलचाल की भाषा और महिलाओं की शुद्ध बोलियों का पहली बार उदाहरण के रूप में यहां उपयोग किया गया है। हिन्दुस्तानी शब्दों के अर्थों को बोलचाल की भाषा से ही संकलित करके देने का प्रयास हुआ है। व्युत्पत्तिमूलक अर्थों को पुराने रूपों के आधार पर दिया गया है और कुछ हिन्दी शब्दों के धातुओं का भी निर्धारण हुआ है। यह कोश व्युत्पत्ति की दृष्टि से भी महत्वबूर्ण है तथा उदाहरणों और तदाधारित अर्थनिर्देश की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्व रखता है। इसका कारण यह है कि इसमें बोलचाल की भाषा का मन्थन और निकट से सूक्ष्मदर्शन किया गया है। इन्होंने इंग्लिश हिन्दुस्तानी का भी कोश तैयार किया। इन कोशों का विवरण संक्षेप में नीटे दिया जा रहा है।

गिलक्राइस्ट की हिन्दुस्तानी इंग्लिश डिक्शनरी, जो अपनी प्राचीनता के कारण बड़े महत्त्व की है, 1786 में बनी थी। इसमें भूमिक देने के अलावा भाषासम्बन्धी कुछ आवश्यक बातें तथा युद्ध की कहानियाँ भी संगृहीत है। संज्ञा, सर्वनाम, क्रियाविशेषण, अव्यय आदि के शब्द हैं। इसमें संस्कृत तत्सम शब्दों को छो़ दिया गया है परन्तु तदभव, देशज एवं भारत में प्रचलित अरबी फारसी के शब्दों की ले लियटा गया है। रोमन वर्णमाला के अनुसार शब्दक्रम है। शब्दों की व्याख्या कम की गई है और अंग्रेजी पर्याय अधिक हैं।

जे० टी० थामसन ने दो शब्दकोश—(१) उर्दू और अंग्रेजी तथा (२) हिन्दी और अंग्रेजी— बनाए। फ़्रांसिस गलेडविड ने पर- शियन, हिन्दुस्तानी और अंग्रेजी की डिक्शनरी निर्मित की। जे० डी० बेटमस ने ए डिक्शनरी आफ़ हिन्दी लैग्वेज (1875 ई० में) बनाई।

कैप्टन टेलर का शब्दकोश (हिन्दुस्तानी अंग्रेजी) बना था अपने व्यक्तिगत उपयोग के निमित्त। हण्टर ने उसी का आधार लेकर विस्तत कोश बनाया था। कोशकार के कथनानुसार उसका शब्दसंकलन जनता से हुआ था। संस्कृत के तत्सम, तदभव और देशज शब्दों के साथ साथ आरबी, फारसी, ग्रीक, अंग्रेजी, पुर्तगाली के तद्भव शब्द भी और कभी कभी तत्सम और देशज शब्द भी उसमें लिए गए हैं। दक्खिनी हिन्दी और बंगाली के शब्द भी नहीं छोडे गए हैं। शब्दों की वैकल्पिक और भूगोलमूलक भिन्नताओं का स्थान स्थान पर संकेत भी किया गया है। रीति रिवाजों का भी अनेक स्थान पर काफी विवरण मिलता है। कुछ व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के प्रयोग में पौराणिक और प्राचीन कथाओं का वर्णन बी मिल जाता है।

1817 में निर्मित शेक्सपियर की हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी डिक्शनरी में प्रर्याप्त शब्दों की व्युत्पत्ति देने का प्रयत्न लक्षित होता है। शब्दों के पूर्व ही संकेताक्षरों द्वारा भाषाओं का निर्दश हुआ है। शब्दक्रम की योजना में फारसी लिपिमाला का अनुसरण है परन्तु संस्कृत से व्युत्पन्न शब्द नागरी लिपि में हैं। इस कोश के अनेक संस्करहण हुए। चतुर्थ संस्करण में दक्खिनी भाषा के अनेक कवियों से भी शब्द संकलित हुए हैं।

इन कोशों की रचना में धर्म-प्रचार के अतिरिक्त मुख्य उद्देश्य था विदेशी शासन के अधिकारी वर्ग को भारतीय भाषा सिखाना। अतः शब्दसंकलन के क्रम में बोलचाल के शब्दों को इन कोशकारों ने प्रमुखता दी और अप्रचलित या अल्पप्रचलित ततद्सम या तदभव शब्दों के अनावश्यक संकलन से कोशकलेवर को विस्तार से बचानेका उन्होंने प्रयत्न किया। हिन्दुस्तानी के इन कुछ कोशों में अधिकतः उर्दू शब्दों का प्राधान्य है और बेटस तथा एकाध और कोशकारों के कोशों को छो़डकर प्रायः सबमें शब्द— क्रम— योजना का आधार फ़ारसी वर्णमाला है। फैलन के कोश में चूँकि मुख्य रूप से बोलचाल की भाषा का आधार गृहीत हुआ था, अतः जॉन टी० प्राट्स ने उर्दू और हिन्दी के साहित्यिक ग्रन्थों में प्रयुक्त शब्दों के संकलन की ओर विशेष ध्यान दिया। पादरियों और अंग्रेजी शासकों ने निश्चिय हिन्दी या हिन्दुस्तानी के एकभाषी, द्विभाषी, कोशों और नवीन कोश-रचना-पद्धति का प्रवर्तन किया। लल्लू जी लाल जैसे लोगों ने भी त्रिभाषी कोश बनाए। श्रीराधेलाल का शब्दकोश (1873 ई०), पादरी बेटस का काशी सो (1875 ई० में) प्रकाशित हिन्दीकोश और मुं० दुर्गाप्रसाद का अंग्रेजी उर्दू कोश (1890 ई०) —इस दिशा के अनवरत चलते रहनेवाले प्रयास के उदाहरण हैं। 1873 ई० से लेकर और उन्नीसवीं शती के अंत तक— भारत और बाहर (पेरिस आदि में) इस दिशा के कार्यों का सिंहावलाकन प्रथम संस्करण की भूमिका (पृ० 102) में दिया गया है।

हिन्दी के नव-कोशों की आद्य रचना और प्रेरणा पश्चिम के कोशकारों द्वारा ही प्राप्त हुई। फलतः हिन्दी ही नहीं, उसकी बोलियों के भी अनेक कोश बने। ब्रजभाषा का कदाचित् सर्वप्रसिद्ध कोश है श्री द्वाराकाप्रसाद चतुर्वेदी द्वारा निर्मित शब्दार्थपाजित। सूर ब्रजभाषा कोश भी डा० टण्डन ने बनाया है। अबधी का प्रसिद्ध 'नवकोश' श्री रामाज्ञा द्विवेदी द्वारा सम्पादित कराकर हिंदुस्तानी एकाडमी ने प्रकाशित किया है। उदयपुर से इधर एक विशाल राजस्थानी सब्द कोश भी प्रकाश में आ रहा है। इसी प्रकार मैथिली कोश भी प्रकाशित हो चुका है।

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