कृपाचार्य
कृपाचार्य कौरवों और पांडवों के गुरू थे। सात चिरंजीवियों में वे भी एक हैं।
कृपाचार्य महर्षि गौतम शरद्वान् के पुत्र। शरद्वान की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र ने जानपदी नामक एक देवकन्या भेजी थी, जिसके गर्भ से दो यमज भाई-बहन हुए। पिता-माता दोनों ने इन्हें जंगल में छोड़ दिया जहाँ महाराज शांतनु ने इनको देखा। इनपर कृपा करके दोनों को पाला पोसा जिससे इनके नाम कृप तथा कृपी पड़ गए। इनकी बहन कृपी का विवाह द्रोणाचार्य से हुआ और उनके पुत्र अश्वत्थामा हुए। अपने पिता के ही सदृश कृपाचार्य भी परम धनुर्धर हुए। कुरुक्षेत्र के युद्ध में ये कौरवों के साथ थे और उनके नष्ट हो जाने पर पांडवों के पास आ गए। बाद में इन्होंने परीक्षित को अस्त्रविद्या सिखाई। भागवत के अनुसार सावर्णि मनु के समय कृपाचार्य की गणना सप्तर्षियों में होती है ।
जन्म की कथा
गौतम ऋषि के पुत्र का नाम शरद्वान था। उनका जन्म बाणों के साथ हुआ था। उन्हें वेदाभ्यास में थोडा़ भी रुचि नहीं थी और धनुर्विद्या से उन्हें अत्यधिक लगाव था। वे धनुर्विद्या में इतने निपुण हो गये कि देवराज इन्द्र उनसे भयभीत रहने लगे। इन्द्र ने उन्हें साधना से डिगाने के लिये नामपदी नामक एक देवकन्या को उनके पास भेज दिया। उस देवकन्या के सौन्दर्य के प्रभाव से शरद्वान इतने कामपीड़ित हुये कि उनका वीर्य स्खलित हो कर एक सरकंडे पर आ गिरा। वह सरकंडा दो भागों में विभक्त हो गया जिसमें से एक भाग से कृप नामक बालक उत्पन्न हुआ और दूसरे भाग से कृपी नामक कन्या उत्पन्न हुई। कृप भी धनुर्विद्या में अपने पिता के समान ही पारंगत हुये। भीष्म जी ने इन्हीं कृप को पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा-दीक्षा के लिये नियुक्त किया और वे कृपाचार्य के नाम से विख्यात हुये।
सन्दर्भ
बाहरी सम्पर्क
सुखसागर के सौजन्य से