डहेलिया

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डहेलिया

डैलिया या डहेलिया (Dahlia) सूर्यमुखी कुल, द्विदली वर्ग का पौधा है। इसका वितरणकेंद्र मेक्सिको तथा मध्य अमरीका में है। यह बड़े आकार का अनेक रंगों और आकारों में पाया जाने वाला ऐसा आकर्षक फूल है जिसमें नीले रंग को छोड़कर विभिन्न रंगों और रूपाकारों की ५०,००० से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं।[१] रंगबिरंगे फूलों के कारण डैलिया के पौधे बागों की शेभा बढ़ाने के लिये लगाए जाते हैं। 'डाह्ल' (Dahl) नामक स्वीडिश वृक्षविशेषज्ञ की स्मृति में लिनीयस ने इस पौधे का नाम 'डैलिया' या 'डाहलिया' रखा। इसके पौधे दो-ढाई मीटर तक ऊँचे होते हैं, परंतु एक बौनी जाति केवल आधा मीटर ऊँची होती है। डैलिया के पौधों की जड़ों में खाद्य पदार्थ एकत्र होकर उन्हें मोटी बना देते हैं। इनके फूल सूर्यमुखी के सदृश होते हैं। इनकी नई किस्मों में गेंद के समान गोल तथा रंग बिरेंगे फूल जगते हैं।

डैलिया की नई किस्में बीज से पैदा की जाती हैं। डैलिया की जड़ें, जिनमें छोटी छोटी कलियाँ होती है, पौधों का रूप लेने की क्षमता रखती हैं। ये जड़ें छोटे छोटे टुकड़ों में इस प्रकार काटी जाती हैं कि हर टुकड़े में एक कली हो। इन टुकड़ों को जमीन में बोने पर, कलियों से नए पौधे निकलते हैं। कभी कभी इसके तने की कलम भी काटकर लगाई जाती है और उससे भी नए पौधे पैदा किए जाते हैं। डैलिया के पौधे अधिकतर खुली जगह तथा खादयुक्त, बलुई मिट्टी में भली भूंति विकसित होते हैं। अधिक शीत पड़ने पर इसके फुल मर जाते है। ऐसी दशा में इसकी जड़ें साफ करके दूसरे मौसम में बोने के लिये रख ली जाती है इसके पौधों पर कीड़े भी लगते हैं, जो संखिया के छिड़काव से मारे जाते हैं।

परिचय

यह उष्णकटिबन्धीय शीतोष्ण जलवायु में उगाया जाता है। डहेलिया के लिए सामान्य वर्षा वाली ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है। शुष्क एवं गर्म जलवायु इसकी सफल खेती में बाधक मानी गई है। दूसरी ओर सर्दी और पाले से फसल को भारी क्षति पहुँचती है। इसके लिए खुली धूप वाली भूमि उत्तम रहती है फूल बड़े आकार के बनते हैं जो देखने में अत्यन्त आकर्षक होते है, जबकि छाया में उगे पौधों के फूल आकार में छोटे और आकर्षक लगते हैं।

डहेलिया की सफल खेती के लिए भूमि का चयन एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है। डहेलिया के सुन्दर और बड़े आकार के फूल लेने के लिए उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट भूमि जिसका क्षारांक ६ हो, सर्वोत्तम रहती है। अधिक चिकनी और कम जल निकास वाली भूमि इसकी सफल खेती में बाधक मानी गई है, क्योंकि ऐसी भूमि में पौधों का समुचित विकास एवं बढ़वार नहीं हो पाती है। जिसके परिणामस्वरुप वांछित आकार-प्रकार व रंग-रूप वाले फूल नहीं मिल पाते हैं यदि किसी कारण चिकनी मिट्टी में इसकी खेती करनी पड़े, तो उस स्थिति में पर्याप्त मात्रा में गोबर की खाद, चावल का छिलका और राख मिलाकर भूमि की संरचना में सुधार किया जा सकता है। प्रथम जुताई ट्रैक्टर या मिट्टी पलटने वाले हल से करने के उपरान्त कुछ दिनों के लिए खुली धूप में छोड़ दी जाती है। उसके बाद खेत में पर्याप्त मात्रा में गोबर की खाद या पत्ती की खाद डालकर भली-भांति मिला कर सुविधानुसार पानी की नालियाँ और क्यारियाँ बनाई जाती हैं।

डहेलिया की प्रमुख प्रजातियों में भरी हुई पंखुरियों वाली प्रजातियों के लिए- डियाना ग्रिगोरी, हाल मार्क, लिटिल विल्लो, लिटिल मेरिआन, रोहण्डा, डब्ल्यू जे०एन०, विलियन जानसन, गोरडन लाक वुड, गिलिन प्लेस, विल्लो सरप्राइज, मार्टिल्स यैलो, लिस्मोरे पेग्गी तथा पेनेकोर्ड मेरियान विशेष रूप से जाने जाते हैं। छोटे आकार वाली प्रजातियों में एल्पन मरजोरी, डाउनलहम रायल, रेड एडमिरियल नेटी, विकटर डी, व्हाइट नेटी, ब्रुकसाइड डाइरड्रे, सी मिस, कोइनोनिया लोकप्रिय हैं। गोलाकार प्रजातियों में कनोरा फायर बाल, एल एन क्रेसे, डीप साउथ, वोटन क्यूपिड, पीटर नेल्सन, क्रीचटन हनी, सीनियर बाल, विस्टा, रस्कीन जीप्सी, स्नोहो टैम्पी, एल्टैमीर चैरी, फीओना स्टीवार्ट श्रेष्ठ समझे जाते हैं और भारतीय प्रजातियों में स्वामी विद्यानंद, ज्योत्सना, लार्ड बुद्धा, भिक्कुस मदर, स्वामी लोकेशवरानंद, डा बी०पी० पाल, ब्रोदर सम्पिलीसियस श्रेष्ठ हैं।[२]

डहेलिया की खेती

रोपाई:- डहेलिया की अधिक पैदावार लेने के लिए उसे सदैव पंक्तियों में उगाया जाता है। बड़े आकार और आकर्षक फूल लेने के लिए उन्हें उचित दूरी पर रोपते हुए दो पौधों के मध्य की दूरी सभी प्रकार की किस्मों यथा बड़ी, मध्यम या छोटी प्रजाति के लिए समान रखी जाती है जिसे ७० सेमी० उपयुक्त पाया गया है। दो पंक्तियों के मध्य की दूरी ५० सेमी० उपयुक्त समझी जाती है। एकान्तर रोपण सर्वोत्तम पाया गया है क्योंकि ऐसा करने से प्रत्येक पौधे को पर्याप्त स्थान मिल जाता है। जिसके कारण उसे पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्त्व और नमी मिल जाते हैं। जिससे पौधे का विकास एवं बढ़वार भली-भांति हो जाती है। अन्तत: पौधों से बड़े आकार के आकर्षक फूल मिलते है। रोपाई खुर्पी की सहायता से की जाती है। पौधे को रोपने के उपरान्त चारों ओर से भली-भांति दबाने के बाद फौव्वारे से हल्का पानी देना उपयुक्त रहता है। यदि अधिक क्षेत्र में रोपाई की गयी है तो हल्की सिंचाई की जाती है।

पर्वतीय क्षेत्रों में अंकुरित कंदों को सीधा बो दिया जाता कहने का अभिप्राय यह है कि पहले उन्हे गमलों में रोपकर अंकुरित नहीं किया जाता जैसा कि मैदानी क्षेत्रों में किया जाता है। इस विधि में अंकुरित कंदों को निर्धारित दूरी पर इस प्रकार रोपा जाता है कि कंद भूमि तल से लगभग ८ सेमी० नीचे रहें प्रथम सप्ताह में पानी नहीं दिया जाए और यदि आवश्यकता हो तो एक हल्की सिंचाई की जाए कभी भी पूरा कंद नहीं रोपना चाहिए बल्कि उसे विभाजित करके उसे गमलों में रोपकर नये पौधे बना लेने चाहिए।

सहारा देना:- डहेलिया के पौधों को जितनी जल्दी हो सके, सहारा देना चाहिए। अन्यथा उनके गिरने का भय बना रहता है, इसके पौधे तेज हवा, तेज वर्षा या खेत में अधिक पानी खङा रहने के कारण गिर जाते है पौधों को सहारा देने के लिए बाँस-खपचे या कोई अन्य कठोर लकड़ियों की छड़ों का उपयोग किया जा सकता है। पौधे के साथ बाँस की खपच्च को गाङकर उसे एक स्थान पर सुतली से इस प्रकार बाँधे कि वह अरबी भाषा की आठ संख्या जैसा दिखाई दे।

रोपने का उचित समय:- डहेलिया के रोपण को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है यथा पर्वतीय क्षेत्रों में और मैदानी क्षेत्रों में रोपाई का समय एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्न होता है। श्रीनगर, शिलाँग, दार्जलिंग, उटकमण्ड, पिथौरागढ, के लिए डहेलिया के पौधों की रोपाई का उपयुक्त समय अप्रैल और मई है और बंगलौर के लिए मई और जून उपयुक्त समय है। कोलकाता में पौध रोपण का उपयुक्त समय सितम्बर से नवम्बर तक है। सितम्बर से दिसम्बर तक का समय दिल्ली, लखनऊ, राँची, भुवनेश्वर, देवधर, नागपुर, गुवाहाटी के लिए उपयुक्त है मुम्बई के लिए अक्टूबर और नवम्बर और चेन्नई के लिए अक्टूबर सर्वोत्तम समय है।

खरपतवार-नियंत्रण:- डहेलिया की क्यारियों में अनेक खरपतवार उग आते है, जो भूमि में पोषक तत्त्वों नमी, धूप, स्थान और हवा के लिए प्रतिस्पर्धा करते है इसके अतिरिक्त कीड़ों और रोगों को भी आश्रय प्रदान करते हैं। जिसके कारण उत्तम गुणवत्ता वाले फूल नहीं मिल पाते। अत: आवश्यकतानुसार निराई-गुङाई करनी चाहिए। डहेलिया उथली जङ वाली फसल है। अत: गहरी निराई-गुङाई नहीं करनी चाहिए आमतौर पर १० दिन के अंतर से निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।

कीट-नियंत्रण:- डहेलिया के पौधों को एफिड, थ्रिप्स विशेष रूप से क्षति पहुँचाते है, ये दोनों पौधे के विभिन्न भागों का रस चूसते हैं। इनकी रोकथाम समय पर करनी चाहिए। रोकथाम- रोगार (२.५ मिलि० प्रति लीटर पानी) का छिड़काव करना चाहिए।

रोग-नियंत्रण:- चूर्णी फफूंदी- यह रोग एक प्रकार की फफूंदी के कारण होता है। जिसके कारण पत्तियों की ऊपरी सतह पर सफेद या भूरे रंग का चूर्ण दिखाई पङता है यह रोग शुरु की अवस्था में अधिक लगता है और दुबारा जब फूल आने बंद हो जाते है, यह रोग लगता है इस रोग के कारण बीजों के सिरे गल जाते हैं। इस रोग को लगते ही इसकी रोकथाम करनी चाहिए।

रोकथाम:- बावस्टिन, मोरेस्टान या बेनलेट २ ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोलकर छिड़काव करें। इनमें किसी एक दवा का उपयोग करना होगा यदि इन दवाइयों में से कोई उपलब्ध न हो तो उस स्थिति में घुलनशील गंधक (२ ग्राम प्रति लीटर पानी) का उपयोग करें। चारकोल गलन- यह रोग गर्म और वर्षा वाले मौसम में डहेलिया को अधिक क्षति पहुँचाता है। यह रोग मुख्य तने और सभी शाखाओं के आधार पर लगता है। यदि समय पर उसकी रोकथाम न की जाय तो पौधा मर जाता हैं। रोकथाम- कैप्टान (२ ग्राम प्रति लीटर) प्रति सप्ताह भूमि पर छिड़कना चाहिए।

कटाई:- फूलों की कटाई किस अवस्था में और किस समय की जाये। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय है जिसकी ओर आमतौर पर कम ध्यान दिया जाता है फूलों की कटाई उसके उगाये जाने के उद्देश्य पर निर्भर करती है। यदि आप फूलों की कटाई घट प्रदर्शनी के लिए कर रहे हैं तो उनकी कटाई सुबह को करनी चाहिए। जहाँ तक संभव हो उतनी लम्बाई में फूल काटना चाहिए कटाई ४५ डिग्री के कोण पर करनी चाहिए और काटे गये तनों को तुरन्त पानी से भरी बाल्टी में रखनी चाहिए। फूलों वाली बाल्टी को ठंडे और स्वच्छ स्थान पर रखना चाहिए, ताकि फूलों पर मिट्टी धूल न लग सके फूलों से गमला बनाते समय आवश्यकतानुसार तनों को छोटा करने की स्थिति में उनकी कटाई करनी चाहिए।

चित्र दीर्घा

सन्दर्भ

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