बिस्मार्क
ऑटो एडुअर्ड लिओपोल्ड बिस्मार्क (1 अप्रैल 1815 - 30 जुलाई 1898), जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर तथा तत्कालीन यूरोप का प्रभावी राजनेता था। वह 'ओटो फॉन बिस्मार्क' के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। उसने अनेक जर्मनभाषी राज्यों का एकीकरण करके शक्तिशाली जर्मन साम्राज्य स्थापित किया। वह द्वितीय जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर बना। वह "रीअलपालिटिक" (realpolitik) की नीति के लिये प्रसिद्ध है जिसके कारण उसे "लौह चांसलर" के उपनाम से जाना जाता है।
वह अपने युग का बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ था। अपने कूटनीतिक सन्धियों के तहत फ्रांस को मित्रविहीन कर जर्मनी को यूरोप की सर्वप्रमुख शक्ति बना दिया। बिस्मार्क ने एक नवीन वैदेशिक नीति का सूत्रपात किया जिसके तहत शान्तिकाल में युद्ध को रोकने और शान्ति को बनाए रखने के लिए गुटों का निर्माण किया। उसकी इस 'सन्धि प्रणाली' ने समस्त यूरोप को दो गुटों में बांट दिया।
जीवनी
बिस्मार्क का जन्म शून हौसेन में 1 अप्रैल 1815 को हुआ। गाटिंजेन तथा बर्लिन में कानून का अध्ययन किया। बाद में कुछ समय के लिए नागरिक तथा सैनिक सेवा में नियुक्त हुआ। 1847 ई. में वह प्रशा की विधान सभा का सदस्य बना। 1848-49 की क्रांति के समय उसने राजा के "दिव्य अधिकार" का जोरों से समर्थन किया। सन् 1851 में वह फ्रैंकफर्ट की संघीय सभा में प्रशा का प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। वहाँ उसने जर्मनी में आस्ट्रिया के आधिपत्य का कड़ा विरोध किया और प्रशा को समान अधिकार देने पर बल दिया। आठ वर्ष फ्रेंकफर्ट में रहने के बाद 1859 में वह रूस में राजदूत नियुक्त हुआ। 1862 में व पेरिस में राजदूत बनाया गया और उसी वर्ष सेना के विस्तार के प्रश्न पर संसदीय संकट उपस्थित होने पर वह परराष्ट्रमंत्री तथा प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त किया गया। सेना के पुनर्गठन की स्वीकृति प्राप्त करने तथा बजट पास कराने में जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने पार्लमेंट से बिना पूछे ही कार्य करना प्रारंभ किया और जनता से वह टैक्स भी वसूल करता रहा। यह "संघर्ष" अभी चल ही रहा था कि श्लेजविग होल्सटीन के प्रभुत्व का प्रश्न पुन: उठ खड़ा हुआ। जर्मन राष्ट्रीयता की भावना से लाभ उठाकर बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के सहयोग से डेनमार्क पर हमला कर दिया और दोनों ने मिलकर इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया (1864)।
दो वर्ष बाद बिस्मार्क ने आस्ट्रिया से भी संघर्ष छेड़ दिया। युद्ध में आस्ट्रिया की पराजय हुई और उसे जर्मनी से हट जाना पड़ा। अब बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी के सभी उत्तरस्थ राज्यों को मिलाकर उत्तरी जर्मन संघराज्य की स्थापना हुई। जर्मनी की इस शक्तिवृद्धि से फ्रांस आंतकित हो उठा। स्पेन की गद्दी के उत्तराधिकार के प्रश्न पर फ्रांस जर्मनी में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई और अंत में 1870 में दोनों के बीच युद्ध ठन गया। फ्रांस की हार हुई और उसे अलससलोरेन का प्रांत तथा भारी हर्जाना देकर जर्मनी से संधि करनी पड़ी। 1871 में नए जर्मन राज्य की घोषणा कर दी गई। इस नवस्थापित राज्य को सुसंगठित और प्रबल बनाना ही अब बिस्मार्क का प्रधान लक्ष्य बन गया। इसी दृष्टि से उसने आस्ट्रिया और इटली से मिलकर एक त्रिराष्ट्र संधि की। पोप की "अमोघ" सत्ता का खतरा कम करने के लिए उसने कैथॉलिकों के शक्तिरोध के लिए कई कानून बनाए और समाजवादी आंदोलन के दमन का भी प्रयत्न किया। इसमें उसे अधिक सफलता नहीं मिली। साम्राज्य में तनाव और असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो गई। अंततागत्वा सन् 1890 में नए जर्मन सम्राट् विलियम द्वितीय से मतभेद उत्पन्न हो जाने के कारण उसने पदत्याग कर दिया।
बिस्मार्क की नीतियाँ
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। उदारवादियों के सिद्धान्त का खंडन करते हुए बिस्मार्क ने 1862 में अपनी नीति इस प्रकार स्पष्ट की-
- जर्मनी का ध्यान प्रशा के उदारवाद की ओर नहीं है वरन् उसकी शक्ति पर लगा हुआ है। जर्मनी की समस्या का समाधान बौद्धिक भाषणों से नहीं, आदर्शवाद से नहीं, बहुमत के निर्णय से नहीं, वरन् प्रशा के नेतृत्व में रक्त और तलवार की नीति से होगा। इसका अर्थ था कि प्रशा के भविष्य का निर्माण सेना करेगी न कि संसद। 'रक्त और लोहे की नीति' का अभिप्राय था, युद्ध।
बिस्मार्क का निश्चित मत था कि जर्मनी का एकीकरण कभी भी फ्रांस, रूस, इंग्लैण्ड एवं ऑस्ट्रिया को स्वीकार नहीं होगा क्योंकि संयुक्त जर्मनी यूरोप के शक्ति सन्तुलन के लिए सबसे बड़ा खतरा होगा। अतः बिस्मार्क को यह विश्वास हो गया था कि जर्मनी के एकीकरण के लिए शक्ति का प्रयोग अनिवार्य है।
बिस्मार्क का मुख्य उद्देश्य प्रशा को शक्तिशाली बनाकर जर्मन संघ से ऑस्ट्रिया को बाहर निकालना एवं जर्मनी में उसके प्रभाव को समाप्त करके प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना था। इसके लिए आवश्यक था कि राज्य की सभी सत्ता व अधिकार राजा में केन्द्रित हों। बिस्मार्क राजतंत्र में विश्वास रखता था। अतः उसने राजतंत्र के केन्द्र बिन्दु पर ही समस्त जर्मनी की राष्ट्रीयता को एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया।
बिस्मार्क ने अपने सम्पूर्ण कार्यक्रम के दौरान इस बात का विशेष ध्यान रखा कि जर्मनी के एकीकरण के लिए प्रशा की अस्मिता नष्ट न हो जाए। वह प्रशा का बलिदान करने को तैयार नहीं था, जैसा कि पीडमोन्ट ने इटली के एकीकरण के लिए किया। वह प्रशा में ही जर्मनी को समाहित कर लेना चाहता था।
बिस्मार्क नीचे के स्तर से जर्मनी का एकीकरण नहीं चाहता था, अर्थात् उदारवादी तरीके से जनता में एकीकरण की भावना जागृत करने के बदले व वह ऊपर से एकीकरण करना चाहता था अर्थात् कूटनीति एवं रक्त एवं लोहे की नीतियों द्वारा वह चाहता था कि जर्मन राज्यों की अधीनस्थ स्थिति हो, प्रशा की नहीं। इस दृष्टि से वह प्रशा के जर्मनीकरण नहीं बल्कि जर्मनी का प्रशाकरण करना चाहता था।
बिस्मार्क की गृह नीति
बिस्मार्क 1862 में प्रशा का चान्सलर बना और अपनी कूटनीति, सूझबूझ रक्त एवं लौह की नीति के द्वारा जर्मनी का एकीकरण पूर्ण किया।
1871 ई. में एकीकरण के बाद बिस्मार्क ने घोषणा की कि जर्मनी एक सन्तुष्ट राष्ट्र है और वह उपनिवेशवादी प्रसार में कोई रूचि नहीं रखता। इस तरह उसने जर्मनी के विस्तार संबंधी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास किया। बिस्मार्क को जर्मनी की आन्तरिक समस्याओं से गुजरना पड़ा। इन समस्याओं के समाधान उसने प्रस्तुत किए। किन्तु समस्याओं की जटिलता ने उसे 1890 में त्यागपत्र देने को विवश कर दिया।
बिस्मार्क के समक्ष समस्याएँ
एकीकरण के पश्चात जर्मनी में औद्योगीकरण तेजी से हुआ। कारखानों में मजदूरों की अतिशय वृद्धि हुई, किन्तु वहाँ उनकी स्थिति निम्न रही उनके रहने-खाने का कोई उचित प्रबंध नहीं था। आर्थिक और सामाजिक स्थिति खराब होने के कारण समाजवादियों का प्रभाव बढ़ने लगा और उन्हें अपना प्रबल शत्रु मानता था।
पूरे जर्मनी में कई तरह के कानून व्याप्त थे। एकीकरण के दौरान हुए युद्धों से आर्थिक संसाधनों की कमी हो गयी थी। फलतः देश की आर्थिक प्रगति बाधित हो रही थी।
बिस्मार्क को धार्मिक समस्या का भी सामना करना पड़ा। वस्तुतः प्रशा के लोग प्रोटेस्टेन्ट धर्म के अनुयायी थे जबकि जर्मनी के अन्य राज्यों की प्रजा अधिकांशतः कैथोलिक धर्म की अनुयायी थी। कैथोलिक लोग बिस्मार्क के एकीकरण के प्रबल विरोधी थे क्योंकि उन्हें भय था कि प्रोटेस्टेन्ट प्रशा उनका दमन कर देगा। ऑस्ट्रिया और फ्रांस को पराजित कर बिस्मार्क ने जर्मन कैथोलिक को नाराज कर दिया था, क्योंकि ये दोनों कैथोलिक देश थे। रोम से पोप की सत्ता समाप्त हो जाने से जर्मन कैथोलिक कु्रद्ध हो उठे और उन्होंने बिस्मार्क का विरोध करना शुरू कर दिया।
बिस्मार्क द्वारा उठाए गए कदम
आर्थिक एकता और विकास के लिए बिस्मार्क ने पूरे जर्मनी में एक ही प्रकार की मुद्रा का प्रचलन कराया। यातायात की सुविधा के लिए रेल्वे बोर्ड की स्थापना की और उसी से टेलीग्राफ विभाग को संबद्ध कर दिया। राज्य की ओर से बैंको की स्थापना की गई थी। विभिन्न राज्यों में प्रचलित कानूनों को स्थागित कर दिया गया और ऐसे कानूनों का निर्माण किया जो संपूर्ण जर्मन साम्राज्य में समान रूप से प्रचलित हुए।
समाजवादियों से निपटने के लिए बिस्मार्क ने 1878 में एक अत्यंत कठोर अधिनियम पास किया जिसके तहत समाजवादियों को सभा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। उनके प्रमुख नेताओं को जेल में डाल दिया गया। समाचार-पत्रों और साहित्य पर कठोर पाबंदी लगा दी गई। इन दमनकारी उपायों के साथ-साथ बिस्मार्क ने मजदूरों को समाजवादियों से दूर करने के लिए "राज्य-समाजवाद" (State socialism) का प्रयोग करना शुरू किया। इसके तहत उसने मजदूरों को यह दिखाया कि राज्य स्वयं मजदूरों की भलाई के लिय प्रयत्नशील है। उसनके मजदूरों की भलाई के लिए अनेक बीमा योजनाएँ, पेंशन योजनाएँ लागू की। स्त्रियों और बालकों के काम करने के घंटों को निश्चित किया गया। बिस्मार्क का यह 'राज्य समाजवाद' वास्तविक समाजवाद नहीं था, क्योंकि वह जनतंत्र का विरोधी था और पूंजीवाद का समर्थन था।
औद्योगिक उन्नति के लिए बिस्मार्क ने जर्मन उद्योगों को संरक्षण दिया जिससे उद्योगो और उत्पादन में वृद्धि हुई। तैयार माल को बेचने के लिए नई मंडियों की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता ने बिस्मार्क की औपनिवेशिक नीति अपनाने के लिए पे्ररित किया। फलतः 1884 ई. में बिस्मार्क ने अफ्रीका के पूर्वी ओर दक्षिणी-पश्चिमी भागों में अनेक व्यापारिक चौकियों की स्थापना की और तीन सम्राटों के संघ से बाहर हो गया। उसने कहा कि बिस्मार्क ने एक मित्र का पक्ष लेकर दूसरे मित्र को खो दिया है।
बिस्मार्क के लिए ऑस्ट्रिया की मित्रता ज्यादा लाभदायक थी क्योंकि आस्ट्रिया के मध्य सन्धि होने की स्थिति में जर्मनी का प्रभाव ज्यादा रहता अतः 1879 में एक द्विगुट संधि (ष्ठह्वड्डद्य ्नद्यद्यiड्डnष) हुई। 5 रूस का जर्मनी से विलग हो जाना बिस्मार्क के लिए चिन्ता का विषय बन गया। उसे लगा कि कहीं रूस फ्रांस के साथ कोई मैत्री संधि न कर ले। अतः उसने तुरन्त ही रूस के साथ सम्बन्ध सुधारने का प्रयत्न किया। 1881 में उसे सफलता भी मिली। अब जर्मनी, रूस और ऑस्ट्रिया के बीच सन्धि हो गयी।
5 अब बिस्मार्क ने इटली की ओर ध्यान दिया और इटली से सन्धि कर फ्रांस को यूरोपीय राजनीति में बिल्कुल अलग कर देना चाहा। इसी समय फ्रांस और इटली दोनों ही अफ्रीका में स्थित ट्यूनिस पर अधिकार करने को इच्छुक थे। बिस्मार्क ने फ्रांस को ट्यूनिस पर अधिकार करने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि फ्रांस में जर्मनी के पक्ष में सद्भावना फैल जाए और फ्रांस साम्राज्यवाद में उलझा जाए, जिससे जर्मनी से बदला लेने की बात दूर हो जाए। 1881 में फ्रांस ने ट्यूनिस पर अधिकार कर लिया जिससे इटली नाराज हुआ। इटली की नाराजगी का लाभ उठाकर बिस्मार्क ने 1882 में इटली, जर्मनी और ऑस्ट्रिया के बीच त्रिगुट संधि (Triple Alliance) को अन्जाम दिया।
विदेश नीति के अन्तर्गत उठाए गए कदम
बिस्मार्क ने नई 'सन्धि प्रणाली' को जन्म दिया। सन्धि कर उसने विभिन्न गुटों का निर्माण किया। इस सन्धि प्रणाली की विशेषता यह थी कि सामान्यतया इतिहास में जितनी भी संधियाँ हुई हैं वे युद्धकाल में हुई थी। किन्तु बिस्मार्क ने शांतिकाल में सन्धि प्रणाली को जन्म देकर एक नवीन दृष्टिकोण सामने रखा।
तीन सम्राटों का संघ : विदेशनीति के क्षेत्र में सन्धि प्रणाली के तहत बिस्मार्क का पहला कदम था। 1872 में तीन सम्राटों के संघ का निर्माण किया इसमें ऑस्ट्रिया का सम्राट फ्रांसिस जोजफ, रूस का जार द्वितीय तथा जर्मनी का सम्राट विलियन प्रथम शामिल था। यद्यपि यह इन तीन देशों के मध्य कोई लिखित सन्धि नहीं थी, तथापि कुछ बातों पर सहमति हुई थी। वे इस बात पर सहमत हुए थे कि यूरोप में शान्ति बनाए रखने तथा समाजवादी आन्दोलन से निपटने के लिए वे एक-दूसरे के साथ सहयोग एवं विचार विनिमय करते रहे। यह सन्धि बिस्मार्क की महान कूटनीतिक विजय थी, क्योंकि एक तरफ तो उसने सेडोवा की पराजित शक्ति ऑस्ट्रिया को मित्र बना लिया तो दूसरी तरफ फ्रांस के लिए आस्ट्रिया एवं रूस की मित्रता की सम्भावना को समाप्त कर दिया। किन्तु कुछ समय पश्चात यह संघ टूट गया क्योंकि बाल्कन क्षेत्र में रूस और ऑस्ट्रिया के हित आपस टकराते थे। अतः बिस्मार्क को रूस और ऑस्ट्रिया में से किसी एक को चुनना था। 1878 की बर्लिन की संधि में बिस्मार्क को रूस और ऑस्ट्रिया में से किसी एक को चुनना था, जिसमें उसने ऑस्ट्रिया का पक्ष लिया। फलतः रूस उससे नाराज हो गया।
धार्मिक मुद्दों से निटपने और राज्य को सर्वोपरि बनाने के लिए बिस्मार्क ने चर्च के विरूद्ध कई कानून पास किए। 1872 में जेसुइट समाज का बहिष्कार कर दिया और प्रशा तथा पोप का सम्बन्ध-विच्छेद हो गया। 1873 में पारित कानून के अनुसार विवाह राज्य न्यायालयों की आज्ञा से होने लगा जिसमें चर्च की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी। शिक्षण संस्थाओं पर राज्य का अधिकार हो गया तथा चर्च को मिलने वाली सरकारी सहायता बन्द कर दी गई। इन कानूनों के बावजूद भी कैथोलिक झुके नहीं। अतः बिस्मार्क ने समाजवादियों की चुनौतियों को ज्यादा खतरनाक समझते हुई कैथोलिकों के साथ समझौता किया। इसके तहत कैथोलिक के विरूद्ध कानून रद्द कर दिए गए और पोप से राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित किया।
बिस्मार्क की विदेश नीति का वर्णन
जर्मनी के एकीकरण के पश्चात 1871 में बिस्मार्क की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य यूरोप में जर्मनी की प्रधानता को बनाए रखना था। नीति निर्धारण के तौर पर उसने घोषित किया कि जर्मनी संतुष्ट राज्य है और क्षेत्रीय विस्तार में इसकी कोई रूचि नहीं है। बिस्मार्क को फ्रांस से सर्वाधिक भय था क्योंकि एल्सेस-लॉरेन का क्षेत्र उसने फ्रांस से प्राप्त किया था, जिससे फ्रांस बहुत असंतुष्ट था। बिस्मार्क को विश्वास था कि फ्रांसीसी अपनी 1870-71 की पराजय और एलसेस-लॉरेन क्षेत्र को नहीं भूलेंगे। अतः उसकी विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य फ्रांस को यूरोप में मित्रविहीन रखना था ताकि वह जर्मनी से युद्ध करने की स्थिति में न आ सके। इस तरह बिस्मार्क की विदेश नीति के आधारभूत सिद्धान्त थे- व्यावहारिक अवसरवादी कूटनीति का प्रयोग कर जर्मन विरोधी शक्तियों को अलग-थलग रखना एवं फ्रांस को मित्र विहीन बनाना, उदारवाद का विरोध एवं सैन्यवाद में आस्था रखना।
उसकी सन्धि प्रणाली ने प्रतिसन्धियों को जन्म दिया। फलतः यूरोप में तनावपूर्ण वातावरण बन गया और इस प्रकार यूरोप प्रथम विश्वयुद्ध के कगार पर पहुंच गया।
बिस्मार्क की विदेशनीति ने यूरोप में सैन्यीकरण एवं शस्त्रीकरण को बढ़ावा दिया। इस नीति ने यूरोप को प्रथम विश्वयुद्ध की दहलीज तक पहुँचा दिया। बिस्मार्क ने सभी सन्धियाँ परस्पर विरोधी राष्ट्रों के साथ की थी। उनके बीच समन्वय बनाए रखना अत्यंत दुष्कर कार्य था, जिसे केवल बिस्मार्क जैसा कूटनीतिज्ञ ही कर सकता था। अतः 1890 में पद त्याग करने के पश्चात यह पद्धति घातक हो गई और जर्मनी के विरूद्ध फ्रांस, रूस आदि गुटों का निर्माण हुआ। इस प्रकार बिस्मार्क की विदेश नीति ने प्रकारांतर से प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि का निर्माण कर दिया। बिस्मार्क की गुटबंदी की नीति के कारण जर्मनी के विरूद्ध दूसरा गुट बना और अंत में संपूर्ण यूरोप दो सशस्त्र एवं शक्तिशाली गुटों में विभाजित हो गया। जिसकी चरम परिणति प्रथम विश्वयुद्ध में दिखाई पड़ी।
1887 में बिस्मार्क ने रूस के साथ पुनराश्वासन सन्धि (Reassurance treaty) की जिसके तहत दोनों ने एक-दूसरे को सहायता देने का वचन दिया। यह सन्धि गुप्त रखी गई थी। यह बिस्मार्क की कूटनीतिक विजय थी क्योंकि एक ही साथ जर्मनी को रूस और ऑस्ट्रिया की मित्रता प्राप्त हुई।
बिस्मार्क ने ब्रिटेन के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न किया। बिस्मार्क का मानना था कि ब्रिटेन एक नौसैनिक शक्ति है और जब तक उसकी नौसेना को चुनौती नहीं दी जाएगी, तब तक वह किसी राष्ट्र का विरोधी नहीं होगा। अतः ब्रिटेन को खुश करने लिए बिस्मार्क ने जर्मन नौसेना को बढ़ाने को कोई कदम नहीं उठाया। ब्रिटेन की खुश करने के लिए उसने घोषणा की कि जर्मनी साम्राज्यवादी देश नहीं है। दूसरी तरफ इंग्लैण्ड की फ्रांस के साथ औपनिवेशिक प्रतिद्वन्दिता थी जिसका लाभ उठाकर बिस्मार्क ने ब्रिटेन के साथ मधुर सम्बन्ध बनाए।
बाहरी कड़ियाँ
- Life of Otto von Bismarck
- Gedanken und Erinnerungen "Thoughts and Remeniscences" by Otto von Bismarck Vol. I
- Gedanken und Erinnerungen "Thoughts and Remeniscences" by Otto von Bismarck Vol. II
- Bismarck's Memoirs Vol. II. In English at archive.org
- Complete German text of Bismarck's autobiography
- The correspondence of William I. and Bismarck : with other letters from and to Prince Bismarck at archive.org
- The Kaiser vs. Bismarck : suppressed letters by the Kaiser and new chapters from the autobiography of the Iron Chancellor at archive.org
- Bismarck: his authentic biography. Including many of his private letters and personal memoranda at archive.org
- The love letters of Bismarck; being letters to his fiancée and wife, 1846-1889; authorized by Prince Herbert von Bismarck and translated from the German under the supervision of Charlton T. Lewis at archive.org
- Prince Bismarck's Letters to His Wife, His Sister, and Others, from 1844-1870
- Rede des Reichskanzlers Fürsten Bismarck über das Bündniss zwischen Deutschland und Oesterreich Speech of Reich Chancellor Prince Bismarck on the League between Germany and Austria Oct. 7 1879