हत्ती
हत्ती या हित्ती प्राचीन खत्तियों (हित्ताइत) की जाति और भाषा है। भाषा के रूप में खत्ती हिंद-यूरोपीय परिवार की है परंतु उसकी लिपि प्राचीन सुमेरी-बाबुली-असूरी है और उसका साहित्य अक्कादी (असूरी-बाबुली) अथवा उससे भी पूर्ववर्ती सुमेरी से प्रभावित है।
परिचय
तुर्की (एशियाई) साम्राज्य के एक बड़े भाग के स्वामी खत्ती थे, जिनका अपना साम्राज्य था। वह साम्राज्य मध्यपूर्व के साम्राज्यों में (ई. पू. 17वीं-12वीं सदियों में) तीसरा स्थान रखता था। उससे बड़े साम्राज्य अपने अपने राज्य में केवल मिस्रियों और असूरीबाबुलियों के ही रहे थे। खत्तियों का लोहा, उनके उत्कर्षकाल में, बाबुलियों और मिस्रियों दोनों में माना। फिलिस्तीन, लघुएशिया, सीरिया और दजला फरात के द्वाबे पर दीर्घकाल तक उनका दबदबा बना रहा। उनका पहला साम्राज्यकाल 17वीं से 15वीं सदी ई. पू. तक रहा और दूसरा 14वीं से 12वीं सदी ई. पू. तक। मिस्री फ़राऊन रामसेज़ से उनका दीर्घकाल तक युद्ध होता रहा था और अंत में दोनों में संधि हुई। उनके भेजे शिष्टमंडल का स्वागत करते समय रामसेज़ ने तोरस पर्वत के पार हिमपात के परिवेश में बसनेवाले खत्तियों पर बड़ा आश्चर्य प्रकट किया था।
जर्मन पुराविद् ह्य गो विंक्लर ने प्राचीन खत्ती राजधानी बोगाज़कोइ (प्राचीन का आधुनिक प्रतिनिधि) से खोदकर बीस हजार ईंटें और पट्टिकाएँ निकाल दीं। इनपर कीलाक्षरों में प्राचीनतर अन्यों का और स्वयं खत्तियों का साहित्य खुदा था। भारत के लिए इन ईंटों का बड़ा महत्व था क्योंकि वहीं मिली 14वीं सदी ई. पू. की एक पट्टिका पर ऋग्वेद के इंद्र, वरुण, मित्र, नासत्यों के नाम पादपाठ में खुदे मिले थे। यह पट्टिका खत्ती मितन्नी दो राष्ट्रों के युद्धांतर का संधिपत्र थी जिसपर पुनीत साक्ष्य के लिए इन देवताओं के नाम दिए गए थे। इस अभिलेख में आर्यों के संक्रमण ज्ञान पर प्रभूत प्रकाश पड़ा है।
ई. पू. की तृतीय सहस्राब्दी में कभी खत्तियों का लघुएशिया के पूर्वी भाग में प्रवेश हुआ और उन्होंने स्थानीय अनार्य संस्कृति की अनेक बातें सीखकर अपना लीं। खत्तियों का इस प्रकार अनेक भाषाओं और साहित्यों से संपर्क था और उन्होंने उनसे अपना ज्ञानभंडार भरा। बोगज़कोइ से मिली एक पट्टिका पर बराबर कालम बनाकर उनमें सुमेरी, अक्कादी, खत्ती आदि भाषाओं के शब्दपर्याय दिए हुए हैं। संसार के प्राचीनतम बहुभाषी शब्दकोशों में इसकी भी गणना है। अनेक बार तो बाबुली आदि साहित्यों के लिपिपाठ खत्तीसमानांतर अनूदित साहित्य से शुद्ध किए गए हैं। प्रसिद्ध सुमेरीबाबुली काव्य गिल्गमेशे के अनेक अंश, जो मूल पट्टिकाओं के टूट जाने से नष्ट हो गए थे, खत्ती पट्टिकाओं के मिलान से ही पूरे किए गए हैं।
खत्ती ऐतिहासिक साहित्य का अधिकांश राजवृत्तों से भरा है। लेखक वृत्तगद्य की साहित्यिक शैली में वृत्त लिखते थे और उनके नीचे अपना हस्ताक्षर कर देते थे। इन वृत्तों में अनेक प्रकार का ऐतिह्य है - असुरी-बाबुली-मिस्री राजाओं और सम्राटों के साथ सुलहनामे और अहदनामे, राजघोषणाएँ और राजकीय दानपत्र, नगरों के पारस्परिक विवादों में मध्यस्थता और सुलह, विद्रोही सामंतों के विरुद्ध साम्राज्य के अपराध परिगणन, सभी कुछ इन खत्ती अभिलेखों में भरा पड़ा है। इनमें विशेष महत्व के वे अगणित पत्र हैं जो खत्ती सम्राटों ने अन्य समकालीन नरेशों को लिखे थे या उनसे पाए थे। इन पत्रों को साधारणत: अमरना के टीले (तेल-एल-एमरना) के पत्र कहते हैं। प्राचीन काल की यह पत्रनिधि सर्वथा अद्वितीय और अनुपम है। इन पत्रों में एक बड़े महत्व का है। उसे खत्तियों के राजा शुप्पिलुलिउमाश के पास मिस्र की रानी ने भेजा था। उसमें रानी ने लिखा था कि खत्ती नरेश कृपया अपने एक पुत्र को उसका पुत्र बनने के लिए भेज दें। कुछ काल बाद इस निमित्त राजा का एक पुत्र मिस्र भेजा गया। परंतु मिस्रियों ने उसे शीघ्र पकड़कर मार डाला।
बोगजकोइ के उस भांडार से एक बड़ा महत्वपूर्ण खत्ती और मिस्र के बीच अंतरराष्ट्रीय संधिपत्र उपलब्ध हुआ। जब खत्ती नरेश मुत्तालिश की सेनाओं ने मिस्री विजेता रामसेज द्वितीय की सेनाओं को 1288 ई. पू. में एक देश के युद्ध में बुरी तरह पराजित कर दिया तब मुत्तालिश के उत्तराधिकारी खत्तुशिलिश तृतीय और मिस्रराज के बीच संधि हुई। उसमें तय पाया कि मिस्र और खत्ती साम्राज्य के बीच बराबर मैत्री और पारस्परिक शांति बनी रहेगी। ई. पू. 1272 में य अहदनामा लिख डाला गया। अहदनामा चाँदी की पट्टिका पर खुदा है और उसमें 18 पैराग्राफ हैं। खोदकर वह रामसेज के पास भेजा गया था। उसकी मुख्य शर्तें इस प्रकार थीं - दोनों में से कोई दूसरे पर आक्रमण न करेगा, दोनों पक्ष दोनों साम्राज्यों के बीच की पहली संधियों का फिर से समर्थन करते हैं, दोनों शत्रु के आक्रमण के समय एक दूसरे की सहायता करेंगे, विद्रोही प्रजा के विरुद्ध दोनों का सहयोग होगा और राजनीतिक भगोड़ों का दोनों परिवर्तन कर लेंगे। यह संधि इतनी महत्वपूर्ण समझी गई कि मिस्रों और खत्ती रानियों ने भी संधि की खुशी में एक दूसरे को बधाई के पत्र भेजे। पश्चात् खत्ती नरेश की कन्या मिस्र भेजी गई जो रामसेज द्वितीय की रानी बनी।
बोगजकोइ की पट्टिकाओं पर प्राय: 200 पैरों के खत्ती कानून की धाराएँ खुदी हैं। साधारणत: खत्तियों की दंडनीति असूरी, बाबुली, यहूदी दंडनीति से कहीं मृदुल थी। प्राणदंड अथवा नाक कान काटने की सजा शायद ही कभी दी जाती थी। कुछ यौनापराध संबंधी दंड तो इतने नगण्य थे कि खत्तियों की आचारचेतना पर विद्वानों को संदेह होने लगता है। उस विधान का एक बड़ा अंश राष्ट्र के आर्थिक जीवन से संबंध रखता है। उससे प्रगट है कि वस्तुओं के मूल्य, नाप तौल के पैमाने, बटखरे आदि निश्चित कर लिए गए थे। कृषि और पशुपालन संबंधी प्रधान समस्याओं का उसमें आश्चर्यजनक मृदु हल खोजा गया है। उसमें कानून और न्याय के प्रति प्रकटित आदर वस्तुत: अत्यंत सराहनीय है। अनेक अभिलेखों में महार्ध धातुओं के प्रयोग, युद्धबंदियों के प्रबंध, चिकित्सक, शालिहोत्र आदि पर खत्ती में प्रचुर साहित्य उपलब्ध है। मध्यपूर्व में संभवत: पहले पहल अश्व का प्रयोग शुरु हुआ। उस दिशा में अश्वविज्ञान पर पहला साहित्य शायद खत्तियों के आर्य पड़ोसी मितन्नियों ने प्रस्तुत किया। उनसे खत्तियों ने सीखा फिर पड़ोसियों तथा उत्तरवर्ती सभ्यताओं को वे उसे सिखा गए।
खत्तियों के साहित्यभंडार में सबसे अधिक भाग धर्म का मिला है। खत्तियों के देवताओं की संख्या विपुल थी और प्राय: छह अन्याधारों से वे लिए गए थे। ऊपर संधिपत्रों पर देवसाक्ष्य का उल्लेख किया जा चुका है। इन्हीं संधिपत्रों पर देवताओं के नाम खुदे हैं जो सुमेरा, बाबुली, हुर्री, कस्सी, खत्ती और भारतीय हैं। इन देवताओं के अतिरिक्त खत्ती आकाश, पृथ्वी, पर्वतों, नदियों, कूपों, वायु और मेघों की भी आराधना करते थे, जैसा उनके इस धार्मिक साहित्य के सन्दर्भों से प्रमाणित है।
पौराणिक आनुवृत्तिक साहित्य में प्राधान्य उनका है जो सुमेरी बाबुली से ले लिए गए हैं। खत्तियों में बाबुली आधार से अनूदित "गिल्गमेश" महाकाव्य बड़ा लोकप्रिय हुआ उस काव्य के अनेक खंड अक्कादी, खत्ती और हुर्री में लिखे बोगजकोइ के उस भंडार में मिले थे। हुर्री में लिखे "गिल्गमेश के गीत" तो पंद्रह से अधिक पट्टिकाओं पर प्राप्त हुए थे। खत्तियों से ही ग्रीकों ने गिल्गमेश का पुराण पाया। खत्तियों के उस धार्मिक साहित्य में अक्कादी साहित्य की ही भाँति सूत्र और गायन थे। मंदिरों आदि में होनेवाली यज्ञादि क्रियाओं को नर और नारी दोनों ही प्रकार के पुरोहित संपन्न करते थे। दोनों के नाम अनुष्ठानों में लिखे जाते थे। अनुष्ठान मंत्रदोष, प्रायश्चित्त आदि के संबंध के थे। अपनी संस्कृति के निर्माण में जितना योग अन्य संस्कृतियों से सर्वथा उदार भाव से खत्तियों ने लिया उतना संभवत: किसी और जाति ने नहीं। कोशनिर्माण का एक प्रयत्न उन्होंने ही अनेक भाषाओं के पर्याप्त एक साथ समानांत स्तंभों में लिखकर किया। विविध भाषाओं के समानांतर पर्यायों से ही भाषाविज्ञान की नींव की पहलीं ईंट रखी जा सकी। वह ईंट खत्तियों ने प्रस्तुत की। खत्तियों के अंतकाल में आर्य ग्रीकों (एकियाई दोरियाइ) के आक्रमण ग्रीस पर हुए और लघुएशिया पर भी उनका दबदबा धीरे धीरे बढ़ा जब उन्होंने त्राय का प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर नष्ट कर दिया।
बाहरी कड़ियाँ
- Hittite online - The University of Texas at Austin
- The Hittite Grammar Homepage
- Hethitologie Portal Mainz (in German)
- ABZU - a guide to information related to the study of the Ancient Near East on the Web
- Hittite Dictionary
- Hattusas/Bogazköy
- The Hittite Home Page
- Arzawa, to the west, throws light on Hittites
- Pictures of Boğazköy, one of a group of important sites
- Pictures of Yazılıkaya, one of a group of important sites
- Der Anitta Text (at TITUS)
- Tahsin Ozguc
- Hittites.info
- Hittite Period in Anatolia
- Hethitologieportal Mainz, by the Akademie der Wissenschaften, Mainz, corpus of texts and extensive bibliographies on all things Hittite