पादप विज्ञान की शाखाएँ
आकारिकी
इसमें पौधे की बाहरी रूपरेखा, बनावट इत्यादि के बारे में अध्ययन होता है। यह अंत:आकारिकी से भिन्न है जिसमें पादपों की आन्तरिक शरीररचना (Anatomy) या ऊतकी (Histology) का अध्ययन किया जाता हैं। जड़ पृथ्वी की ओर नीचे की तरफ बढ़ती है। यह मूल रूप से दो प्रकार की होती है : एक तो द्विबीजपत्री पौधों में प्राथमिक जड़ बढ़कर मूसला जड़ बनाती है तथा दूसरी प्रकार की वह होती हैं, जिसमें प्राथमिक जड़ मर जाती है। और तने के निचले भाग से जड़ें निकल आती हैं। एकबीजपत्रों में इसी प्रकार की जड़ें होती हैं। इन्हें रेशेदार जड़ कहते हैं। जड़ के नीचे की नोक एक प्रकार के ऊतक से ढकी रहती है, जिसे जड़ की टोपी कहते हैं। इसके ऊपर के भाग को बढ़नेवाला भाग कहते हैं। इस हिस्से में कोशिकाविभाजन बहुत तेजी से चलता रहता है। इसके ऊपर के भाग को जल इत्यादि ग्रहण करने का भाग कहते हैं और इसमें मूल रोम (root hair) निकले होते हैं। ये रोम असंख्य होते हैं, जो बराबर नष्ट होते और नए बनते रहते हैं। इनमें कोशिकाएँ होती है तथा यह मिट्टी के छोटे छोटे कणों के किनारे से जल और लवण अपने अंदर सोख लेती हैं।
तना या स्तंभ बीज के कोलियाप्टाइल भाग से जन्म पाता है और पृथ्वी के ऊपर सीधा बढ़ता है। तनों में पर्वसंधि (node) या गाँठ तथा पोरी (internode) होते हैं। पर्वसंधि पर से नई शाखाएँ पुष्पगुच्छ या पत्तियाँ निकलती हैं। इन संधियों पर तने के ऊपरी भाग पर कलिकाएँ भी होती हैं। पौधे के स्वरूप के हिसाब से तने हरे, मुलायम या कड़े तथा मोटे होते हैं। इनके कई प्रकार के परिवर्तित रूप भी होते हैं। कुछ पृथ्वी के नीचे बढ़ते हैं, जो भोजन इकट्ठा कर रखते हैं। प्रतिकूल समय में ये प्रसुप्त (dormant) रहते हैं तथा जनन का कार्य करते हैं, जैसे कंद (आलू) में, प्रकंद (अदरक, बंडा तथा सूरन) में, शल्ककंद (प्याज और लहसुन) में इत्यादि। इनके अतिरिक्त पृथ्वी की सतह पर चलनेवाली ऊपरी भूस्तारी (runner) और अंत:भूस्तारी (sucker) होती हैं, जैसे दब, या घास और पोदीना में। कुछ भाग कभी कभी काँटा बन जाते हैं। नागफन और कोकोलोबा में स्तंभ चपटा और हरा हो जाता है, जो अपने शरीर में काफी मात्रा में जल रखता है।
पत्तियाँ तने या शाखा से निकलती हैं। ये हरे रंग की तथा चपटे किस्म की, कई आकार की होती है। इनके ऊपर तथा नीचे की सतह पर हजारों छिद्र होते हैं, जिन्हें रंध्र (stomata) कहते हैं। इनसे होकर पत्ती से जल बाहर वायुमंडल में निकलता रहता है तथा बाहर से कार्बनडाइऑक्साइड अंदर घुसता है। इससे तथा जल से मिलकर पर्णहरित की उपस्थिति में प्रकाश की सहायता से पौधे का भोजननिर्माण होता है। कुछ पत्तियाँ अवृंत (sessile) होती हैं, जिनमें डंठल नहीं होता, जैसे मदार में तथा कुछ डंठल सहित सवृंत होती हैं। पत्ती के डंठल के पास कुछ पौधों में नुकीले, चौड़े या अन्य प्रकार के अंग होते हैं, जिन्हें अनुपर्ण (stipula) कहते हैं, जैसे गुड़हल, कदम, मटर इत्यादि में। अलग अलग रूपवाले अनुपर्ण को विभिन्न नाम दिए गए हैं। पत्तियों के भीतर कई प्रकार से नाड़ियाँ फैली होती हैं। इस को शिराविन्यास (venation) कहते हैं। द्विबीजपत्री में विन्यास जाल बनाता है और एकबीजी पत्री के पत्तियों में विन्यास सीधा समांतर निकलता है। पत्ती का वर्गीकरण उसके ऊपर के भाग की बनावट, या कटाव, पर भी होता है। अगर फलक (lamina) का कटाव इतना गहरा हो कि मध्य शिरा सींक की तरह हो जाय और प्रत्येक कटा भाग पत्ती की तरह स्वयं लगने लगे, तो इस छोटे भाग को पर्णक कहते हैं और पूरी पत्ती को संयुक्तपर्ण (compound leaf) कहते हैं। संयुक्तपूर्ण पिच्छाकार (pinnate), या हस्ताकार (palmate) रूप के होते हैं, जैसे क्रमश: नीम या ताड़ में। पत्तियों का रूपांतर भी बहुत से पौधों में पाया जाता है, जैसे नागफनी में काँटा जैसा, घटपर्णी (pitcher) में ढक्कनदार गिलास जैसा और ब्लैडरवर्ट में छोटे गुब्बारे जैसा। कांटे से पौधे अपनी रक्षा चरनेवाले जानवरों से करते हैं तथा घटपर्णी और ब्लैडरवर्ट के रूपांतरित भाग में कीड़े मकोड़ों को बंदकर उन्हें ये पौधे हजम कर जाते हैं। एक ही पौधे में दो या अधिक प्रकार की पत्तियाँ अगर पाई जाएँ, तो इस क्रिया को हेटेरोफिली (Heterophylly) कहते हैं।
फूल पौधों में जनन के लिये होते हैं। पौधों में फूल अकेले या समूह में किसी स्थान पर जिस क्रम से निकलते हैं उसे पुष्पक्रम (inflorescence) कहते हैं। जिस मोटे, चपटे स्थान से पुष्पदल निकलते हैं, उसे पुष्पासन (thalamus) कहते हैं। बाहरी हरे रंग की पंखुड़ी के दल को ब्राह्मदलपुंज (calyx) कहते हैं। इसकी प्रत्येक पंखुड़ी को बाह्यदल (sepal) कहते हैं। इस के ऊपर रंग बिरंगी पंखुड़ियों से दलपुंज (corolla) बनता है। दलपुंज के अनेक रूप होते हैं, जैसे गुलाब, कैमोमिला, तुलसी, मटर इत्यादि में। पंखुड़ियाँ पुष्पासन पर जिस प्रकार लगी रहती हैं, उसे पुष्पदल विन्यास या एस्टिवेशन (estivation) कहते हैं। पुमंग (androecium) पुष्प का नर भाग है, जिसें पुंकेसर बनते हैं। पुंमग में तंतु होते हैं, जिनके ऊपर परागकोष होते हैं। इन कोणों में चारों कोने पर परागकण भरे रहते हैं। परागकण की रूपरेखा अनेक प्रकर की होती है। स्त्री केसर या अंडप (carpel) पुष्प के मध्यभाग में होता है। इसके तीन मुख्य भाग हैं : नीचे चौड़ा अंडाशय, उसके ऊपर पतली वर्तिका (style) और सबसे ऊपर टोपी जैसा वर्तिकाग्र (stigma)। वर्तिकाग्र पर पुंकेसर आकर चिपक जाता है, वर्तिका से नर युग्मक की परागनलिका बढ़ती हुई अंडाशय में पहुँच जाती है, जहाँ नर और स्त्री युग्मक मिल जाते हैं और धीरे धीरे भ्रूण (embryo) बनता है। अंडाशय बढ़कर फल बनाता है तथा बीजाणु बीज बनाते हैं।
परागकण की परागकोष से वर्तिकाग्र तक पहुँचने की क्रिया को परागण कहते हैं। अगर पराग उसी फूल के वर्तिकाग्र पर पड़े तो इसे स्वपरागण (Self-pollination) कहते हैं और अगर अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर पड़े तो इसे परपरागण (Cross-pollination) कहेंगे। परपरागण अगर कीड़े मकोड़े, तितलियों या मधुमक्खियों द्वारा हो, तो इसे कीटपरागण (Entomophily) कहते हैं। अगर परपरागण वायु की गति के कारण से हो, तो उसे वायुपरागण (Anemophily) कहते हैं, अगर जल द्वारा हो तो इसे जलपरागण (Hydrophily) और अगर जंतु से हो, तो इसे प्राणिपरागण (Zoophily) कहते हैं। गर्भाधान या निषेचन के उपरांत फल और बीज बनते हैं, इसकी रीतियाँ एकबीजपत्री तथा द्विदलपत्री में अलग अलग होती हैं। बीज जिस स्थान पर जुड़ा होता है उसे हाइलम (Hilum) कहते हैं। बीज एक चोल से ढँका रहता है। बीज के भीतर दाल के बीच में भ्रूण रहता है जो भ्रूणपोष (Endosperm) से ढँका रहता है।
फल तीन प्रकार के होते हैं : एकल (simple), पुंज (aggregate) और संग्रथित (multiple or composite)। एकल फल एक ही फूल के अंडाशय से विकसित होकर जनता है और यह कई प्रकार का होता है, जैसे (1) शिंब (legume), उदाहरण मटर, (2) फॉलिकल, जैसे चंपा, (3) सिलिकुआ, जैसे सरसों, (4) संपुटी, जैसे मदार या कपास, (5) कैरियाप्सिस, जैसे धान या गेहूँ, (6) एकीन जैसे, क्लीमेटिस, (7) डØप, जैसे आय, (8) बेरी, जैसे टमाटर इत्यादि। पुंज फल एक ही फूल से बनता है, लेकिन कई स्त्रीकेसर (pistil) से मिलकर, जैसा कि शरीफा में। संग्रथित फल कई फूलों से बनता है, जैसे सोरोसिस (कटहला) या साइकोनस (अंजीर) में।
बीज तथा फल पकने पर झड़ जाते हैं और दूर दूर तक फैल जाते हैं। बहुत से फल हलके होने के कारण हवा द्वारा दूर तक उड़ जाते हैं। कुछ फलों के ऊपर नुकीले हिस्से जानवरों के बाल या चमड़े पर चिपककर इधर उधर बिखर जाते हैं। जल द्वारा भी यह कार्य बहुत से समुद्रतट के पौधों में होता है।
शरीर (Anatomy)
प्रत्येक जीवधारी का शरीर छोटी छोटी कोशिकाओं से मिलकर बना होता है। आवृतबीजियों के शरीर में अलग अलग अंगों की आंतरिक बनावट विभिन्न होती है। कोशिकाएँ विभिन्न आकार की होती हैं। इन्हें ऊतक कहते हैं। कुछ ऊतक विभाजन करते हैं और इस प्रकार नए ऊतक उत्पन्न होते हैं जिन्हें विमज्यातिकी (meristematic) कहते हैं। यह मुख्यत: एधा (cambium), जड़ और तने के सिरों पर या, अन्य बढ़ती हुई जगहों पर, पाए जाते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य ऊतक स्थायी हो जाते हैं और अपना एक निश्चित कार्य करते हैं, जैसे (1) मृदूतक (Parenchyma), जिसमें कोशिका की दीवारें पतली तथा समव्यास होती है; (2) हरित ऊतक (Chlorenchyma) भी इसी प्रकार का होता है, पर इसके अंदर पर्णहरित भी होता है; (3) कोलेनकाइमा में कोशिका के कोने का हिस्सा मोटा हो जाता है; (4) स्क्लेरेनकाइमा में दीवारें हर तरफ से मोटी होती हैं यह वह रेशे जैसे आकार धारण कर लेती हैं। इनके अतिरिक्त संवहनी ऊतक भी होते हैं, जिनका स्थान, संख्या, बनावट इत्यादि द्विदलपत्रीय और एकदलपत्रीय मूल तथा तने के अंदर काफी भिन्न होती है। संवहनी ऊतकों का कार्य यह है कि जल तथा भोजन नीचे से ऊपर की ओर ज़ाइलम द्वारा चढ़ता है और बना हुआ भोजन पत्तियों से नीचे के अंगों को फ्लोयम द्वारा आता है। इनके अतिरिक्त पौधों में कुछ विशेष ऊतक भी मिलते हैं, जैसे ग्रंथिमय ऊतक इत्यादि। पौधे का भाग चाहे जड़ हो, तना या पत्री हो, इनमें बाहर की परत बाह्यत्वचा (या जड़ में मूलीय त्वचा, epiblema) होती है। पत्ती में इस पर रंध्र का छिद्र और द्वारकोशिका (guard cell) होती है तथा इसके ऊपर उपत्वचा (cuticle) की भी परत होती है। बाह्यत्वचा के नीचे अधस्त्वचा (hypodermis) होती है, जिसकी कोशिका बहुधा मोटी होती है। इनके नीचे वल्कुल (cortex) के ऊतक होते हैं, जो अवसर पतले तथा मृदूतक से होते हैं। इनके अंदर ढोल के आकार की कोशिकावाली परिधि होती हैं, जिसे अंतस्त्वचा (Endodermis) कहते हैं। इनके भीतर संवहनी सिलिंडर होता है, जिसका कार्य जल, लवण, भोजन तथा अन्य विलयनों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरण के लिये रास्ता प्रदान करना है।
कौशिकानुवंशिकी (Cytogenetics)
कोशिका के अंदर की रचना तथा विभाजन के अध्ययन को कहते हैं। लैंगिक जनन द्वारा नर और मादा युग्मक पैदा करनेवाले पौधों के गुण नए, छोटे पौधों में उत्पन्न होने के विज्ञान को आनुवंशिकी (genetics) कहते हैं। चूँकि यह गुण कोशिकाओं में उपस्थित वर्णकोत्पादक (chromogen) पर जीन (gene) द्वारा प्रदत्त होता है, इसलिये आजकल इन दोनों विभागों को एक में मिलाकर कोशिकानुवंशिकी कहते हैं। प्रत्येक जीवधारी की रचना कोशिकाओं से होती है। प्रत्येक जीवित कोशिका के अंदर एक विलयन जैसा द्रव, जिसे जीवद्रव्य (protoplasm) कहते हैं, रहता है। जीवद्रव्य तथा सभी चीज़े, जो कोशिका के अंदर हैं, उन्हें सामूहिक रूप से जीवद्रव्यक (Protoplast) कहते हैं। कोशिका एक दीवार से घिरी होती है। कोशिका के अंदर एक अत्यंत आवश्यक भाग केंद्रक (nucleus) होता है, जिसके अंदर एक केंद्रिक (nuclelus) होता है। कोशिका के भीतर एक रिक्तिका (vacuole) होती है, जिसके चारों ओर की झिल्ली को टोनोप्लास्ट (Tonoplast) कहते हैं। कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) के अंदर छोटे छोटे कण, जिन्हें कोशिकांग (Organelle) कहते हैं, रहते हैं। इनके मुख्य प्रकार माइटोकॉन्ड्रिया (mitochondria, जिनमें बहुत से एंजाइम होते हैं), क्लोरोप्लास्ट इत्यादि हैं। केंद्रक साधारणतया गोल होता है, जो केंद्रकीय झिल्ली से घिरा होता है। इसमें धागे जैसे वर्णकोत्पादक होते हैं जिनके ऊपर बहुत ही छोटे मोती जैसे आकार होते हैं, जिन्हें जीन कहते हैं। ये रासायनिक दृष्टि से न्यूक्लियोप्रोटीन (nucleoprotein) होते हैं, जो डी. एन. ए. (DNA) या डीआक्सिराइबो न्यूक्लिइक ऐसिड कहे जाते हैं। इनके अणु की बनावट दोहरी घुमावदार सीढ़ी की तरह होती हैं, जिसमें शर्करा, नाइट्रोजन, क्षारक तथा फॉस्फोरस होते हैं। आर. एन. ए. (RNA) की भी कुछ मात्रा वर्णकोत्पादक में होती है, अन्यथा यह न्यूक्लियोप्रोटीन तथा कोशिकाद्रव्य (माइटोकॉन्ड्रिया में भी) होता है। प्रत्येक कोशिका में वर्णकोत्पादक की संख्या स्थिर और निश्चित होती है। कोशिका का विभाजन दो मुख्य प्रकार का होता है : (1) सूत्री विभाजन (mitosis), जिसमें विभाजन के पश्चात् भी वर्णकोत्पादकों की संख्या वही रहती हैं और (2) अर्धसूत्री विभाजन (meiosis), जिसमें वर्णकोत्पादकों की संख्या आधी हो जाती है।
किसी भी पौधे या अन्य जीवधारी का हर एक गुण जीन के कारण ही होता है। ये अपनी रूपरेखा पीढ़ी दर पीढ़ी बनाए रखते हैं। हर जीन का जोड़ा भी अर्धगुणसूत्र (sister chromatid) पर होता है, जिसे एक दूसरे का एलिल कहते हैं। जीन अर्धसूत्रण के समय अलग अलग हो जाते हैं और ये स्वतंत्र रूप से होते हैं। अगर एलिल जीन दो गुण दिखाएँ, जैसे लंबे या बौने पौधे, रंगीन और सफेद फूल इत्यादि, तो जोड़े जीन में एक प्रभावी (dominant) होता है और दूसरा अप्रभावी (recessive)। दोनों के मिलने से नई पीढ़ी में प्रभावी लक्षण दिखाई पड़ता है, पर स्वयंपरागण द्वारा इनसे पैदा हुए पौधे फिर से 3 : 1 में प्रभावी लक्षण और अप्रभावी लक्षण दिखलाते हैं।
उत्पत्ति या विकास (Evolution)
उस विज्ञान को कहते हैं जिससे ज्ञात होता है किसी प्रकार का एक जाति बदलते बदलते एक दूसरी जाति को जन्म देती है। पुरातन काल में मनुष्य सोचता था कि ईश्वर ने सभी प्रकार के जीवों का सृजन एक साथ ही कर दिया है। ऐसे विचार धीरे धीरे बदलते गए। आजकल के वैज्ञानिकों का मत है कि प्रकृति में नाना विधियों से जीन प्रणाली एकाएक बदल सकती है। इसे उत्परिवर्तन (mutation) कहते हैं। ऐसे अनेक उत्परिवर्तन होते रहते हैं, पर जो जननक्रिया में खरे उतरें और वातावरण में जम सकें, वे रह जाते हैं। इस प्रकार नए पौधे की उत्पत्ति होती है। वर्णकोत्पादकों की संख्या दुगुनी, तिगुनी या कई गुनी हो कर नए प्रकार के गुण पैदा करती हैं। इन्हें बहुगुणित कहते हैं। बहुगुणितता (polypoidy) द्वारा भी नए जीवों की उत्पत्ति का विकास होता है।
परिस्थितिकी (Ecology)
जीवों या पौधों के वातावरण, एक दूसरे से संबंध या आश्रय के अध्ययन को परिस्थितिकी कहते हैं। पौधे समाज में रहते हैं। ये वातावरण को बदलते हैं और वातावरण इनके समाज की रूपरेखा को बदलता है। यह क्रम बार बार चलता रहता है। इसे अनुक्रमण (succession) कहते हैं। एक स्थिति ऐसी आती है जब वातावरण और पौधों के समाज एक प्रकार से गतिक साम्य (dynamic equilibrium) में आ जाते हैं। बदलते हुए अनुक्रमण के पादप समाज को क्रमक (sere) कहते हैं और गतिक साम्य को चरम अवस्था (climax) कहते हैं। किसी भी जलवायु में एक निश्चित प्रकार का गतिक साम्य होता है। अगर इसके अतिरिक्त कोई और प्रकार का स्थिर समाज बनता हो, तो उसे चरम अवस्था न कह उससे एक स्तर कम ही मानते हैं। ऐसी परिस्थिति को वैज्ञानिक मोनोक्लाइमेक्स (monoclimax) विचार मानते हैं और जलवायु को श्रेष्ठतम कारण मानते हैं। इसके विपरीत है पॉलीक्लाइमेक्स (polyclimax) विचारधारा, जिसमें जलवायु ही नहीं वरन् कोई भी कारक प्रधान हो सकता है।
पौधों के वातावरण के विचार से तीन मुख्य चीजें जलवायु, जीवजंतु तथा मिट्टी हैं। आजकल इकोसिस्टम विचारधारा और नए नए मत अधिक मान्य हो रहे हैं। घास के मैदान, नदी, तालाब या समुद्र, जंगल इत्यादि इकोसिस्टम के कुछ उदाहरण हैं। जल के विचार से परिस्थितिकी में पौधों को
(1) जलोदभिद (Hydrophyte), जो जल में उगते हैं,
(2) समोद्भिद (Mesophyte), जो पृथ्वी पर हों एवं जहाँ सम मात्रा में जल मिले, तथा
(3) जीरोफाइट, जो सूखे रेगिस्तान में उगते हैं, कहते हैं।
इन पौधों की आकारिकी का अनुकूलन (adaptation) विशेष वातावरण में रहने के लिये होता है, जैसे जलोद्भिद पौधों में हवा रहने के ऊतक होते हैं, जिससे श्वसन भी हो सके और ये जल में तैरते रहें।
जंगल के बारे में अध्ययन, या सिल्विकल्चर, भी परिस्थितिकी का ही एक भाग समझा जा सकता है। परिस्थितिकी के उस भाग को जो मनुष्य के लाभ के लिये हो, अनुप्रयुक्त परिस्थितिकी कहते हैं। जो पौधे बालू में उगते हैं, उन्हें समोद्भिद कहते हैं। इसी प्रकार पत्थर पर उगनेवाले पौधे शैलोद्भिद (Lithophyte) तथा अम्लीय मिट्टी पर उगनेवाले आग्जीलोफाइट कहलाते हैं। जो पौधे नमकवाले दलदल में उगते हैं, उन्हें लवणमृदोद्भिद (Halophyte) कहते हैं, जैसे सुंदरवन के गरान (mangrove), जो तीव्र सूर्यप्रकाश में उगते हैं उन्हें आतपोद्भिद (heliophyte) और जो छाँह में उगते हैं, उन्हें सामोफाइटा कहते हैं।
शरीरक्रिया विज्ञान (Physiology)
इसके अंतर्गत पौधों के शरीर में हर एक कार्य किस प्रकार होता है इसका अध्ययन किया जाता है। जीवद्रव्य कोलायडी प्रकृति का होता है और यह जल में बिखरा रहता है। भौतिक नियमों के अनुसार जल या लवण मिट्टी से जड़ के रोम के कला की कोशिकाओं की दीवारों द्वारा प्रवेश करता है और सांद्रण के बहाव की ओर से बढ़ता हुआ संवहनी नलिका में प्रवेश करता है। यहाँ से यह जल इत्यादि किस प्रकार ऊपर की ओर चढ़ेंगे इसपर वैज्ञानिकों में सहमति नहीं थी, पर अब यह माना जाता है कि ये केशिकीय रीति से केशिका नली द्वारा जड़ से ऊँचे तने के भाग में पहुँच जाते हैं। पौधों के शरीर का जल वायुमंडल के संपर्क में पत्ती के छिद्र द्वारा आता है। यहाँ भी जल के कण वायु में निकल जाते हैं, यदि वायु में जल का सांद्रण कम है। जैसे भीगे कपड़े का जल वाष्पीभूत हो वायु में निकलता है, ठीक उसी प्रकार यह भी एक भौतिक कार्य है। अब प्रश्न यह उठता है कि पौधों को हर कार्य के लिये ऊर्जा कहाँ से मिलती है तथा ऊर्जा कैसे एक प्रकार से दूसरे प्रकार में बदल जाती है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि पर्णहरित पर प्रकाश पड़ने से प्रकाश की ऊर्जा को पर्णहरित पकड़ कर कार्बनडाइआक्साइड और जल द्वारा ग्लूकोज़ और आक्सीजन बनाता है। ये ही ऊर्जा के स्रोत हैं (देखें प्रकाश संश्लेषण)। प्रकृति में पौधों द्वारा नाइट्रोजन का चक्र भी चलता है। पौधों की वृद्धि में प्रकाश का योग बड़े महत्व का है। प्रकाश से ही पौधों का आकार और भार बढ़ते हैं तथा नए ऊतकों और आकार या डालियों का निर्माण होता है। जिन पादपों को प्रकाश नहीं मिलता, वे पीले पड़ने लगते हैं। ऐसे पादपों को पांडुरित (etiolated) कहते हैं। प्रकाश के समय, दीप्तिकाल (photo period), पर ही पौधे की पत्ती बनना, झड़ना, तथा पुष्प बनना निर्भर करता है। इसे दीप्तिकालिता (Photoperiodism) कहते हैं। 24 घंटे के चक्र में कितना प्रकाश आवश्यक है ताकि पौधों में फूल लग सके, इसे क्रांतिक दीप्तिकाल कहते हैं। कुछ पौधे दीर्घ दीप्तिकाली होते हैं और कुछ अल्प दीप्तिकाली और कुछ उदासीन होते हैं। इस जानकारी से जिस पौधे में फूल न चाहें उसमें फूल का बनना रोक सकते हैं और जहाँ फूल चाहते हैं वहाँ फूल असमय में ही लगवा सकते हैं। वायुताप का भी पौधों पर, विशेषकर उनके फूलने और फलने पर, प्रभाव पड़ता है। इसके अध्ययन को फीनोलॉजी (Phenology) कहते हैं। यह सब हार्मोन नामक पदार्थों के बनने के कारण होता है। पौधों में हार्मोनों के अतिरिक्त विटामिन भी बनते हैं, जो जंतु और मनुष्यों के लिये समान रूप से आवश्यक और हितकारी होते हैं। पौधों में गमनशीलता भी होती है। ये प्रकाश की दिशा में गमन करते हैं। ऐसी गति को प्रकाशानुवर्ती और क्रिया को प्रकाश का अनुवर्तन (Phototropism) कहते हैं। पृथ्वी के खिंचाव के कारण भी पौधों में गति होती हैं, इसे जियोट्रॉपिज़्म (Geotropism) कहते हैं।
पादपाश्म विज्ञान (Palaeobotany)
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इसके अंतर्गत उन पौधों का अध्ययन किया जाता है, जो करोड़ों वर्ष पूर्व पृथ्वी पर रहते थे, पर अब कहीं नहीं पाए जाते और अब फॉसिल बन चुके हैं। उनके अवशेष पहाड़ की चट्टानों, कोयले की खानों इत्यादि में मिलते हैं। चूँकि पौधे के सभी भाग एक से जुड़े नही मिलते, इसलिये हर अंग का अलग अलग नाम दिया जाता है। इन्हें फॉर्मजिनस कहते हैं। पुराने समय के काल को भूवैज्ञानिक समय कहते हैं। यह कैंब्रियन-पूर्व-महाकल्प से शुरु होता है, जो लगभग पाँच अरब वर्ष पूर्व था। उस महाकल्प में जीवाणु शैवाल और कवक का जन्म हुआ होगा। दूसरा पैलियोज़ोइक कहलाता है, जिसमें करीब 60 करोड़ से 23 करोड़ वर्ष पूर्व का युग सम्मिलित है। शुरू में कुछ समुद्री पौधे, फिर पर्णहरित, पर्णगौद्भिद और अंत में अनावृतबीजी पौधों का जन्म हुआ है। तदुपरांत मध्यजीवी महाकल्प (Mesozoic era) शुरू होता है, जो छह करोड़ वर्ष पूर्व समाप्त हुआ। इस कल्प में बड़े बड़े ऊंचे, नुकीली पत्तीवाले, अनेक अनावृतबीजी पेड़ों का साम्राज्य था। जंतुओं में भी अत्यंत भीमकाय डाइनासोर और बड़े बड़े साँप इत्यादि पैदा हुए। सीनाज़ोइक कल्प में द्विवीजी, एवं एकबीजी पौधे तथा स्तनधारियों का जन्म हुआ।
आर्थिक वनस्पति विज्ञान
इनके अतिरिक्त जो पादप मनुष्य के काम आते हैं, उन्हें आर्थिक वनस्पति कहते हैं। यों तो हजारों पौधे मनुष्य के नाना प्रकार के काम में आते हैं, पर कुछ प्रमुख पौधे इस प्रकार हैं :
अन्न - गेहूँ, धान, चना, जौ, मटर, अरहर, मक्का, ज्वार इत्यादि।
फल - आम, सेब, अमरूद, संतरा, नींबू, कटहल इत्यादि।
पेय - चाय, काफी इत्यादि।
साग सब्जी - आलू, परवल, पालक, गोभी, टमाटर, मूली, नेनुआ, ककड़ी, लौकी इत्यादि।
रेशे बनानेवाले पादप - कपास, सेमल, सन, जूट इत्यादि।
लुगदीवाले पादप - सब प्रकार के पेड़, बाँस, सवई घास, ईख इत्यादि।
दवावाले पादप - एफीड्रा, एकोनाइटम, धवरबरुआ, सर्पगंधा और अनेक दूसरे पौधे।
इमारती लकड़ीवाले पादप - टीक, साखू, शीशम, आबनूस, अखरोट इत्यादि।