श्रीनगर, उत्तराखण्ड

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Srinagar
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दक्षिण से श्रीनगर का दृश्य
दक्षिण से श्रीनगर का दृश्य
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देशसाँचा:flag/core
प्रान्तउत्तराखण्ड
ज़िलापौड़ी गढ़वाल ज़िला
ऊँचाईसाँचा:infobox settlement/lengthdisp
जनसंख्या (2011)
 • कुल२०,११५
 • घनत्वसाँचा:infobox settlement/densdisp
भाषा
 • प्रचलितहिन्दी, गढ़वाली
समय मण्डलभारतीय मानक समय (यूटीसी+5:30)
पिनकोड246174
दूरभाष कोड01346-2
वाहन पंजीकरणUK 12
वेबसाइटpauri.nic.in

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श्रीनगर (Srinagar) भारत के उत्तराखण्ड राज्य के पौड़ी गढ़वाल ज़िले में स्थित एक नगर है। यह अलकनन्दा नदी के किनारे बसा हुआ है।[१][२][३]

विवरण

बद्रीनाथ के मार्ग में स्थित, श्रीनगर पौराणिक काल से ही महत्वपूर्ण रहा है। श्रीपुर या श्रीक्षेत्र उसके बाद नगर के बदलाव सहित श्रीनगर, टिहरी के अस्तित्व में आने से पहले एकमात्र शहर था। वर्ष 1680 में यहां की जनसंख्या 7,000 से अधिक थी तथा यह एक वाणिज्यिक केंद्र जो बाजार के नाम से जाना जाता था, पंवार वंश का दरबार बना। कई बार विनाशकारी बाढ़ का सामना करने के बाद अंग्रेजों के शासनकाल में एक सुनियोजित शहर के रूप में उदित हुआ और अब गढ़वाल का सर्वश्रेष्ठ शिक्षण केंद्र है। विस्थापन एवं स्थापना के कई दौर से गुजरने की कठिनाई के बावजूद इस शहर ने कभी भी अपना उत्साह नहीं खोया और बद्री एवं केदार धामों के रास्ते में तीर्थयात्रियों की विश्राम स्थली एवं शैक्षणिक केंद्र बना रहा है और अब भी वह स्वरूप विद्यमान है।

श्रीनगर के स्थानीय आकर्षणों तथा आस-पास के घूमने योग्य स्थान यहां के समृद्ध इतिहास से जुड़े हैं। चूकि यह गढ़वाल के पंवार राजवंश के राजाओं की राजधानी थी, इसलिए श्रीनगर उन दिनों सांस्कृतिक तथा राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र था, जिसे यहां के लोग गौरव से याद करते है। पौराणिक तौर पर यह आदी शंकराचार्य से भी जुड़ा है। इस शहर के अतीत से आज तक में कई नाटकीय परिवर्तन हुए हैं, जहां अब गढ़वाल विश्वविद्यालय के केम्पस तथा कई खोज संस्थान हैं। यहां की महत्ता इस तथ्य में भी है कि आप यहां से बद्रीनाथ तथा केदारनाथ की यात्रा आसानीपूर्वक कर सकते हैं। श्रीनगर से अशोककालीन शिलालेख मिला है.

इतिहास

साँचा:main उत्तराखंड के इतिहास पर एक स्थानीय इतिहासकार तथा कई पुस्तकों के लेखक एस.पी. नैथानी के अनुसार श्रीनगर के विपरीत अलकनंदा के किनारे रानीहाट के बर्तनों, हड्डियों एवं अवशेषों से पता चलता है कि 3,000 वर्ष पहले श्रीनगर एक सुसभ्य स्थल था जहां लोग शिकार के हथियार बनाना जानते थे तथा जो खेती करते थे एवं बर्तनों में खाना पकाते थे।

हिन्दुओं के पौराणिक लेखों में इसे श्री क्षेत्र कहा गया है जो भगवान शिव की पसंद है। किंवदन्ती है कि महाराज सत्यसंग को गहरी तपस्या के बाद श्री विद्या का वरदान मिला जिसके बाद उन्होंने कोलासुर राक्षस का वध किया। एक यज्ञ का आयोजन कर वैदिक परंपरानुसार शहर की पुनर्स्थापना की। श्री विद्या की प्राप्ति ने इसे तत्कालीन नाम श्रीपुर दिया। प्राचीन भारत में यह सामान्य था कि शहरों के नामों के पहले श्री शब्द लगाये जांय क्योंकि यह लक्ष्मी का परिचायक है, जो धन की देवी है।

सन 1517 में श्रीनगर की केंद्रीय स्थिति को देखते हुए गढ़वाल के शासक, अभय पाल ने गढ़वाल की राजधानी देवलगढ़ से यहां स्थानांतरित की थी।[४]साँचा:rp 1803 में गोरखा आक्रमण तक गढ़वाल के राजाओं ने श्रीनगर से ही गढवाल पर शासन किया।[४]साँचा:rp गोरखा राज में भी यह क्षेत्र का प्रशासनिक मुख्यालय बना रहा। गोरखा राज के समय में गढ़वाल के महत्वपूर्ण नगरों का ह्रास होता चला गया, और वे ग्राम बनकर रह गए।[४]साँचा:rp ब्रिटिश शासनकाल में श्रीनगर के बजाय पौड़ी को गढ़वाल का मुख्यालय बना दिया गया। बाद के वर्षों में देहरादून, हरिद्वार तथा कोटद्वार जैसे नगरों तक रेल की पहुँच ने श्रीनगर के वाणिज्यिक महत्त्व को भी समाप्त कर दिया।[४]साँचा:rp

श्रीनगर का पुराना नगर अलकनन्दा नदी के तट पर नीचे की ओर बसा था,[४]साँचा:rp अऊर क्षेत्र का एक प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र था।[४]साँचा:rp 1803 में गढ़वाल में आये एक भीषण भूकंप ने इस नगर को तहस नहस कर दिया।[४]साँचा:rp इसके बाद क्षेत्र में गोरखा आक्रमण हो गया, जिस कारण इस नगर की दोबारा पुनर्स्थापना नहीं हो पायी।[४]साँचा:rp 1840 में जब ब्रिटिश शासन में गढ़वाल जिले का गठन हुआ, तो उसका मुख्यालय पौड़ी में बनाया गया।[४]साँचा:rp

जनसांख्यिकी

श्रीनगर में जनसंख्या[५]
वर्ष जन.
1901 २,०९१ एक्स्प्रेशन त्रुटि: < का घटक नहीं मिला
1911 २,३५७ 12.7%
1921 २,१७० −7.9%
1931 १,५१९ −30.0%
1941 १,९५७ 28.8%
1951 २,३८५ 21.9%
1961 ३,०३१ 27.1%
1971 ५,५६६ 83.6%
1981 ९,१७१ 64.8%
1991 १८,७९१ 104.9%
2001 १९,६५८ 4.6%
2011 २०,११५ 2.3%

2011 की भारत की जनगणना के अनुसार श्रीनगर की जनसंख्या 20,115 है, जिसमे से 10,751 पुरुष हैं, जबकि 9,364 महिलाएं हैं।[६] नगर में 4669 घर हैं, और प्रत्येक घर में औसत 4 लोग रहते हैं।[७] 0-6 वर्ष की उम्र के बच्चों की संख्या 2142 है, जो श्रीनगर की कुल जनसंख्या का 10.65 % है।[७] श्रीनगर नगर पालिका में लिंगानुपात 871 महिलाएं प्रति 1000 पुरुष है, जो राज्य के औसत, 963 से कम है।[७] नगर की साक्षरता दर 92.03 % है, जो राज्य की औसत 78.82 %से अधिक है।[७] नगर के 94.22 % पुरुष साक्षर हैं, जबकि महिलाओं में साक्षरता दर 89.51 % है। नगर की कुल जनसंख्या में से 15.60 % लोग अनुसूचित जाति से, जबकि 0.43 % लोग अनुसूचित जनजाति से सम्बंधित हैं।[७]

श्रीनगर गढ़वाल के प्राचीनतम नगरों में से एक है। वर्ष 1680 में यहां की जनसंख्या 7,000 से अधिक थी तथा यह गढ़वाल राज्य की राजधानी होने के साथ साथ एक प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र तथा बाजार के रूप में भी जाना जाता था। कुमायूं के आयुक्त, जॉर्ज विलियम ट्रेल के अनुसार 1821 में श्रीनगर की जनसंख्या 2344 थी, जो 1865 तक मात्र 1951 रह गयी थी।[४]साँचा:rp 1872 की प्रथम जनगणना के समय इसकी जनसंख्या 2044 थी।[४]साँचा:rp वर्ष 1887 के इम्पीरियल गज़ेटियर में इसे गढ़वाल जिले का एक प्रमुख ग्राम बताया गया है, तथा 1881 की जनगणना के आधार पर यहां की जनसंख्या 2100 बताई गयी है।[८] 1951 में स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना में इसकी जनसंख्या 2385 थी, जो 2001 में बढ़कर 19658 हो गयी।[५]

साँचा:bar box हिन्दू धर्म तथा इस्लाम नगर के मुख्य धर्म हैं। नगर की कुल जनसंख्या में से 91.08 प्रतिशत लोग हिन्दू धर्म का जबकि 7.65 प्रतिशत लोग इस्लाम का अनुसरण करते हैं।[९] इसके अत्रिरक्त नगर में अल्पसंख्या में सिख, ईसाई तथा जैन भी रहते हैं। श्रीनगर में 0.25 प्रतिशत लोग सिख धर्म का, 0.22 प्रतिशत लोग ईसाई धर्म का, 0.48 प्रतिशत लोग जैन धर्म का तथा 0.07 प्रतिशत लोग बौद्ध धर्म का अनुसरण करते हैं।[९] इसके अतिरिक्त नगर की कुल जनसंख्या में से 0.24 प्रतिशत लोग या तो आस्तिक हैं, या किसी भी धर्म से ताल्लुक नहीं रखते।[९] हिन्दी तथा गढ़वाली नगर में बोली जाने वाली मुख्य भाषायें हैं।

नगर की कुल जनसंख्या में से 6,588 लोग किसी न किसी काम-धंधे में लगे हुए हैं।[९] इनमे से 5,373 पुरुष हैं, और 1,215 महिलाएं हैं।[९] इन 6588 लोगों में से 88.16 % मुख्य कार्यों में संलग्न पाए गए, जबकि 11.84 % लोग छिटपुट कार्य करते हैं।[९]

सभ्यता

साँचा:main गढ़वाल के 17 पंवार राजाओं का आवास होने के नाते श्रीनगर एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक तथा प्रशासनिक केंद्र रहा है। यही वह जगह है जहां निपुण चित्रकार मौलाराम के अधीन चित्रकारी स्कूल विकसित हुआ। यहां के पुराने राजमहलों में गढ़वाली पुरातत्व के सर्वोत्तम उदाहरण मौजूद हैं तथा यहां राजाओं ने कला को प्रोत्साहित एवं विकसित किया। आज उसी वैधता को यह शहर आगे बढ़ाता है और ज्ञान का प्रमुख स्थल बना है, जहां गढ़वाल विश्वविद्यालय स्थित है।

परंपराएं

साँचा:main वाल्टन के अनुसार वर्ष 1901 की जनगणना के अनुसार यहां की जनसंख्या 2,091 थी जिसमें ब्राह्मण, राजपूत, जैन, अग्रवाल, बनिया, सुनार तथा कुछ मुसलमान भी शामिल थे। वह बताता है कि व्यापारी मुख्यतः नजीबाबाद से कार्य करते थे जहां से वे कपड़े, गुड़ तथा अन्य व्यापारिक वस्तुएं प्राप्त करते थे।

एटकिंस बताता है कि श्रीनगर के वासी अधिक पुराने एवं जिले के अधिक महत्वपुर्ण परिवारों के हैं जिनमें से कई सरकारी कर्मचारी हैं, इर्द-गिर्द के मंदिरों के पूजारी हैं तथा बनिये हैं जो नजीबाबाद (जिला बिजनौर) से आकर यहां बस गये।

भूगोल

श्रीनगर, अलकनंदा नदी के किनारे स्थित है जो नदी यह गढ़वाल हिमालय की ओर बहती है। यह बद्रीनाथ मंदिर के रास्ते के केंद्रीय स्थल तथा उन सड़कों के मिलनस्थल पर है जो कोटद्वार, ऋषिकेश, टिहरी गढ़वाल, केदारनाथ तथा बद्रीनाथ को जाती हैं।

श्रीनगर की जलवायु अपेक्षाकृत गर्म होने के कारण यहां शीशम, आम, पीपल, कचनार, तेजपत्ता एवं सिमल के पेड़ काफी होते हैं। श्रीनगर के आस-पास के क्षेत्रों में पर्णागों की कई प्रजातियां खासकर मानसूनी महीनों में पायी जाती है।

श्रीनगर के इर्द-गिर्द बिल्ली प्रजाति के कई जीव यहां पाये जाते है जिनमें तेंदुआ, सिवेट बिल्ली, चीता एवं जंगली बिल्ली शामिल हैं। इसके अलावा गीदड़, सांभर (हिरण), गुराल, साही भी मिलते हैं। आमतौर पर बंदर देखे जाते हैं।

गढ़वाल के इस भाग में पक्षियों के 400 से अधिक प्रजातियां हैं। इनमें कस्तूरिका, काला सिर का पक्षी, काले माथे का पीला बुलबुल, गुलाबी मिनिवेट, हंसोड़ सारिका, स्वर्णिम पीठ का कठफोरबा तथा नीली मक्खी पकड़ने वाला पक्षी शामिल हैं। जल पक्षियों में हंस, बत्तख, कढ़े पर का पक्षी तथा बगुला शामिल हैं, जो नदी के किनारे पाये जाते हैं।

स्थानीय आकर्षण

प्राचीन काल से ही श्रीनगर को महत्त्ता बनी हुई थी तथा पंवार वंश के राजाओं ने जब इसे राजधानी बनाने का फैसला किया तो यह एक प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक केंद्र में परिवर्तित हो गया। अपने उतार-चढ़ाव के इतिहास के बावजूद श्रीनगर ने अपनी सामाजिक, संस्कृतिक तथा धार्मिक महत्त्व के स्थान की प्रधानता बनाये रखा। कुछ मंदिरों ने बाढ़ को झेला, बाढ़ जो पुराने शहर को बहा ले गया और यही इस शहर के प्राचीन गरिमा के प्रमाण हैं।

शहर

दिल्ली की तरह ही श्रीनगर का कई बार विध्वंश एवं पुनर्निर्माण हुआ, तथा दिल्ली की तरह ही यह शहर प्राचीनता एवं आधुनिकता का रूचिकर मिश्रण है।[४]साँचा:rp श्रीनगर यात्रियों को सभी प्रकार की आधुनिक सेवाएं एवं सुविधाएं देता है। फिर भी इस शहर के स्थलों से गुजरते हैं तो आपके सामने प्राचीन एवं भूतकाल के कुछ अवशेष दिखाई देंगे- एक मंदिर या मठ। इस शहर में नाव यात्रा भी सहज है। वर्ष 1894 में तत्कालीन उपायुक्त (जिलाधीश) ए के पो द्वारा तैयार किया हुआ मास्टर प्लान के आधार पर वर्तमान शहर का निर्माण हुआ है। जो योजना शहर के विध्वंशक बाढ़ में प्राचीन शहर के ध्वस्त हो जाने के बाद तैयार किया गया था। अधिकांश स्थान जिसे आप देखना चाहेंगे वह मुख्य सड़क के या तो ऊपर है या नीचे। अलकनंदा नदी के किनारे बसा यह सम्पूर्ण शहर एक सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है।

आज श्रीनगर का एक विश्वविद्यालयी शहर बनना अधिक महत्त्वपूर्ण है, जो सम्पूर्ण क्षेत्र का सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक केंद्र बन गया है। एक बड़े जनान्दोलन के बाद वर्ष 1973 में यहां राज्य का प्रमुख विश्वविद्यालय गढ़वाल विश्वविद्यालय स्थापित हुआ। इसका परिसर चौरास नदी के पार स्थित है। चौरास तक पहुंचने का रास्ता कीर्ति नगर से है। यद्यपि चौरास श्रीनगर से 500 फीट लंबे झूलते पुल से जुड़ा है, जो श्रीकोट स्थित ऐसे सबसे लंबे पुलों में से एक है।

कमलेश्वर/सिद्धेश्वर मंदिर

साँचा:main यह श्रीनगर का सर्वाधिक पूजित मंदिर है। कहा जाता है कि जब देवता असुरों से युद्ध में परास्त होने लगे तो भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र प्राप्त करने के लिये भगवान शिव की आराधना की। उन्होंने उन्हें 1,000 कमल फूल अर्पित किये (जिससे मंदिर का नाम जुड़ा है) तथा प्रत्येक अर्पित फूल के साथ भगवान शिव के 1,000 नामों का ध्यान किया। उनकी जांच के लिये भगवान शिव ने एक फूल को छिपा दिया। भगवान विष्णु ने जब जाना कि एक फूल कम हो गया तो उसके बदले उन्होंने अपनी एक आंख (आंख को भी कमल कहा जाता है) चढ़ाने का निश्चय किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान कर दिया, जिससे उन्होंने असुरों का विनाश किया।

शंकर मठ

यह पूराने श्रीनगर का एक प्राचीन मंदिर है जो वर्ष 1894 की बाढ़ को झेलने के बाद भी विद्यमान है जबकि इसका निचला भाग टनों मलवे से भर गया। इस मंदिर के निर्माणकर्त्ता पर मतभेद है, पर केदार खंड में देवल ऋषि तथा राजा नहुष का वर्णन है जिन्होंने यहां तप किया था। इस स्थान को ठाकुर द्वारा भी कहते हैं। वर्ष 1670 में फतेहपति शाह द्वारा जारी एक ताम्र-पात्र के अनुसार तत्कालीन धर्माधिकारी शंकर धोमाल ने यहां यह जमीन खरीदा तथा राजमाता की अनुमति से यहां एक मंदिर की स्थापना की। मंदिर में एक बड़ा मंडप है और चूंकि इसमें कोई खंभा नहीं है, अत: यह तत्कालीन पत्थर वास्तुकला की खोज का उदाहरण है।

मंदिर का निर्माण पत्थरों के टुकड़ों को काटकर उत्तराखंड की विशिष्ट वास्तुकला शैली में हुआ है। मंदिर की मूर्त्तियां एवं प्रतिमाएं भी सुंदर एवं मनोरम मूर्त्तिकला के नमूने हैं, जो गर्भगृह में लक्ष्मी नारायण, शालिग्राम निर्मित भगवान विष्णु है। दरवाजे पर बंगला, तामिल तथा तेलगु भाषा में शिलालेख हैं, यद्यपि अब ये स्पष्ट नहीं रहे हैं।

केशोराय मठ

अलकनंदा के किनारे अवस्थित श्रीनगर में यह सबसे बड़ा मंदिर हैं। शंकरमठ की तरह ही यह पत्थरों के टुकड़ों से बना है जिसका विशाल आकार आश्चर्य चकित कर देता है। वर्ष 1682 में केशोराय द्वारा निर्मित यह मंदिर वर्ष 1864 की बाढ़ में डूबकर भी खड़ा रहा। कहा जाता है कि बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा का निश्चय करते समय केशोराय बूढ़ा हो गया था। जब वह इस खास स्थल पर विश्राम कर रहा था तो नारायण ने सपने में उसे वह जगह खोदने को कहा जहां वह लेटा था। उसने जब इसे खोदा तो उसे नारायण की एक मूर्त्ति मिली और उसने इसके इर्द-गिर्द मंदिर की स्थापना कर दी।

इसके ध्वंशावशेष से प्रतीत होता हैं कि मंदिर कितना सुंदर रहा होगा जिसे ढहकर नष्ट होने दिया गया। इसकी छत पर पीपल के पेड़ उग आये हैं। प्रवेश द्वार नष्ट हो चुका है तथा जिस जगह प्रतिमा थी, वह जगह खाली है।

जैन मंदिर

वर्ष 1894 की बाढ़ के बाद काफी खर्च कर भालगांव के जैनियों ने मूल पारसनाथ जैन मंदिर का पुनर्निर्माण किया। मंदिर का निर्माण वर्ष 1925 में प्रताप सिंह एवं मनोहर लाल की पहल पर हुआ तथा श्रीनगर के दांतू मिस्त्री ने प्रभावकारी नक्काशी की। छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देते हुए विशाल प्रवेश द्वार, केंद्रीय कक्ष एवं डंदीयाल या बरामदे का पुनर्निर्माण किया गया। गर्भ गृह में एक राजस्थानी शैली में निर्मित सिंहासन है तथा चौपाये सिंहासन पर मूर्ति विराजमान है। वर्ष 1970 में प्रसिद्ध जैन मुनि श्री विद्यानंदजी यहां आकर कुछ दिनों तक ठहरे थे।

श्री गुरूद्वारा/हेमकुंड साहिब

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कहा जाता है कि जहां आज गुरूद्वारा बना है वहां कभी एक बागान था जिसमें तीर्थ यात्रियों के ठहरने की एक छोटी जगह थी। एक तीर्थ यात्री गुरू गोविंद सिंह लिखित कुछ ग्रंथ ले आये और इसे सहेज कर रखने के लिये गुरूद्वारा का निर्माण हुआ। वे अब भी गुरूद्वारा में संरक्षित हैं। वर्ष 1937 में हेमकुंड साहिब की तीर्थ यात्रा होने पर ही इस धार्मिक स्थान पर पैदल यात्रा कर रहे भक्तों को भोजन एवं आवास मुहैया कराने के लिये एक गुरूद्वारा समिति की स्थापना हुई। हेमकुंड साहिब के रास्ते कई गुरूद्वारों का निर्माण हुआ तथा यह गुरूद्वारा हरिद्वार एवं ऋषिकेश के बाद तीसरा है।

पुराणिक सन्दर्भ

उत्तराखंड का गढ़वाल क्षेत्र 'देवभूमि' कहा गया है और प्राचीन ग्रन्थों में इसे 'श्री क्षेत्र' कहा गया है। किंवदन्ति है कि महाराज सत्यसंग को गहरी तपस्या के बाद श्री विद्या का वरदान मिला जिसके बाद उन्होंने कोलासुर राक्षस का वध किया। एक यज्ञ का आयोजन कर वैदिक परम्परानुसार शहर की पुनर्स्थापना की। श्री विद्या की प्राप्ति ने इसे तत्कालीन नाम 'श्रीपुर' दिया।

वर्तमान नाम श्रीनगर एक विशाल पत्थर पर खीचें श्रीयंत्र से लिया गया माना जा सकता है। जब तक श्रीयंत्र को प्रार्थनाओं से तुष्ट किया जाता रहा तब तक शहर में खुशहाली थी। जब लोगों ने इसे पूजना बंद कर दिया तो यह द्रोही हो गया। जो भी इस पर नजर डालता वह तत्काल मर जाता और कहा जाता है कि इस प्रकार 1,000 लोगों की मृत्यु यहां हुई। वर्तमान 8वीं सदी में हिन्दु धर्मोद्धार के क्रम में जब आदी शंकराचार्य श्रीनगर आये तब उन्होंने श्री यंत्र को ऊपर से नीचे घुमा दिया तथा इसे अलकनंदा नदी में फेंक दिया। यह आज भी नदी में ही है तथा लोग बताते हैं कि यह 50 वर्ष पहले तक जल के स्तर से ऊपर दिखाई देता था। इस क्षेत्र को श्री यंत्र टापू कहा जाता है।

श्रीनगर वह जगह है जहां आदि शंकराचार्य को देवी की शक्ति का भान हुआ। कहा जाता है कि दस्त के कारण वे बहुत कमजोर हो गये तथा पानी मांगा। एक सुंदर महिला पानी लेकर उनके सामने आई और उनसे पूछा कि उनके वेदान्त का ज्ञान उनके शरीर को सबल बनाने में क्यों असमर्थ है तथा क्या उनका शरीर शक्ति के बिना कार्य करता है। उसी समय से वे शक्ति एवं देवी की पूजा करने लगे।

श्रीनगर से संबद्ध एक और रूचिपूर्ण एवं जटिल रहस्य है जो नारद मुनि एवं उनके मायाजाल में फंसने से संबंधित है। माना जाता है कि भगवान शिव गोपेश्वर में समाधिस्थ थे तो उनकी समाधि में कामदेव द्वारा विघ्न डाला गया और क्रोधित होकर उन्होंने उसे भस्म कर दिया। अपनी पत्नी सती से बिछुड़ने के बाद समाधिस्थ भगवान शिव की समाधि को भंग करने के लिये कामदेव को सभी देवताओं ने मिलकर भेजा था क्योंकि भयंकर राक्षस ताड़कासूर को केवल भगवान शिव का पुत्र ही वध कर सकता था। देवताओं की इच्छा थी कि भगवान शिव फिर से विवाह करें ताकि वे पुत्र का सृजन कर सकें (इस बीच उमा के रूप में सती का पुनर्जन्म हो चुका था)। कामदेव को नष्ट करते हुए भगवान शिव ने उसे शापित किया कि गोपेश्वर में तप करने वाले को उसका हाव-भाव प्रभावित नहीं कर सकेगा। ‌‌द्वापर युग में भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरूद्ध के रूप में पुनर्जन्म लेकर कामदेव का अपनी पत्नी के साथ पुनर्मिलन हुआ।

इसे बिना जाने ही नारद मुनि ने गोपेश्वर में अपनी तपस्या पूरी की और घमंडी हो गये। उन्होंने भगवान विष्णु के सामने आत्म प्रशंसा की तो भगवान विष्णु ने उन्हें पाठ पढ़ाना चाहा क्योंकि उन्हें उस पृष्ठभूमि का ज्ञान था। आज जहां श्रीनगर अवस्थित है उस जगह भगवान विष्णु ने एक स्वर्ग रूपी नगर का सृजन किया तथा अपनी पत्नी को एक सुंदर स्त्री के रूप में अपना स्वयंवर आयोजित करने को राजी कर लिया। नारद मुनि ने पत्नी पाने का निश्चय कर किया। उन्होंने भगवान विष्णु से एक सुंदर शरीर उधार लिया और स्वयंवर में जा पहुंचे। जब लक्ष्मी ने उनकी ओर नहीं देखा तो वे परेशान हुए और तब उन्हें भान हुआ कि भगवान विष्णु ने उन्हें अपने एक अवतार बानर का चेहरा दे दिया था। वे क्रोधित होकर भगवान विष्णु को शाप दिया कि जैसे वे (नारद) दांपत्य सुख से वंचित हुए है, वैसे ही भगवान विष्णु भी हों (इसलिये भगवान राम ने अपनी पत्नी सीता के बिना ही काफी दिन व्यतीत किया) जब उन्हें गोपेश्वर तथा भगवान शिव के बारे में बताया गया तो वे पश्चाताप में डूब गये और भगवान शिव से कहा कि बानर ही उन्हें अपनी पत्नी से मिलायेंगे। बानर सेना ने ही सीता को फिर पाने एवं रावण से युद्ध करने में भगवान राम की सहायता की थी।

महाभारत युग में श्रीनगर राजा सुबाहु के राज्य की राजधानी थी तथा वन पर्व के दौरान गंधमर्दन पर्वत के रास्ते पाण्डवों ने सुबाहु का आतिथ्य ग्रहण किया था।

महाभारत काल में, यह राजा सुबाहु के राज्य की राजधानी थी तथा माना जाता है कि अपने वाण पर्व के दौरान गंधमर्दन पर्वत के रास्ते पांडवों को सुबाहु का आतिथ्य मिला था। वर्तमान नाम श्रीनगर श्री यंत्र से विकसित हुआ हो सकता है जो एक विशाल पत्थर पर अंकित है जिसकी बलि वेदी पर देवों को प्रसन्न करने मानवों की बलि दी जाती होगी। वर्तमान 8वीं सदी के दौरान हिंदू धर्म के पुनरूद्धार के क्रम में आदि शंकराचार्य ने इस प्रक्रिया का विरोध कर इसे रोक दिया तथा और इस पत्थर के चट्टान को अलकनंदा में डाल दिया जो आज भी वहां हैं।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  2. "Uttarakhand: Land and People," Sharad Singh Negi, MD Publications, 1995
  3. "Development of Uttarakhand: Issues and Perspectives," GS Mehta, APH Publishing, 1999, ISBN 9788176480994
  4. साँचा:cite book
  5. साँचा:cite book
  6. साँचा:cite news
  7. साँचा:cite web
  8. साँचा:cite book
  9. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Census नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।