कुंजापुरी सिद्धपीठ

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मुनी के रेती से 28 कि.मी., नरेन्द्र नगर से 13 कि.मी.ऊंचाई : समुद्र से 1,665 मीटर पर यह स्थित है।


पौराणिक कथा

स्कन्दपुराण के अनुसार राजा दक्ष की पुत्री, सती का विवाह भगवान शिव से हुआ था। त्रेता युग में असुरों के परास्त होने के बाद दक्ष को सभी देवताओं का प्रजापति चुना गया। उन्होंने इसके उपलक्ष में कनखल में यज्ञ का आयोजन किया। उन्होंने, हालांकि, भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया क्योंकि भगवान शिव ने दक्ष के प्रजापति बनने का विरोध किया था। भगवान शिव और सती ने कैलाश पर्वत, जो भगवान शिव का वास-स्थान है, से सभी देवताओं को गुजरते देखा और यह जाना कि उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। जब सती ने अपने पति के इस अपमान के बारे में सुना तो वे यज्ञ-स्थल पर गईं और हवन कुंड में अपनी बलि दे दी। जब तक शिव वहां पहुंचते तब तक वे बलि हो चुकी थीं।

भगवान शिव ने क्रोध में आकर तांडव किया और अपनी जटाओं से गण को छोड़ा तथा उसे दक्ष का सर काट कर लाने तथा सभी देवताओं को मार-पीट कर भगाने का आदेश दिया। पश्चातापी देवताओं ने भगवान शिव से क्षमा याचना की और उनसे दक्ष को यज्ञ पूरा करने देने की विनती की। लेकिन, दक्ष की गर्दन तो पहले ही काट दी गई थी। इसलिए, एक भेड़े का गर्दन काटकर दक्ष के शरीर पर रख दिया गया ताकि वे यज्ञ पूरा कर सकें।

भगवान शिव ने हवन कुंड से सती के शरीर को बाहर निकाला तथा शोकमग्न और क्रोधित होकर वर्षों तक इसे अपने कंधों पर ढोते विचरण करते रहें। इस असामान्य घटना पर विचार-विमर्श करने सभी देवतागण एकत्रित हुए क्योंकि वे जानते थे कि क्रोध में भगवान शिव समूची दुनिया को नष्ट कर सकते हैं। आखिरकार, यह निर्णय लिया गया कि भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र का उपयोग करेंगे। भगवान शिव के जाने बगैर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 52 टुकड़ों में विभक्त कर दिया। धरती पर जहां कहीं भी सती के शरीर का टुकड़ा गिरा, वे स्थान सिद्ध पीठों या शक्ति पीठों (ज्ञान या शक्ति के केन्द्र) के रूप में जाने गए। उदाहरण के लिए हिमाचल प्रदेश की नैना देवी वहां हैं, जहां उनकी आंखें गिरी थीं,सहारनपुर की शाकम्भरी देवी जहाँ उनका शीश गिरा था, ज्वाल्पा देवी वहां हैं, जहां उनकी जिह्वा गिरी थी, सुरकंडा देवी वहां हैं, जहां उनकी गर्दन गिरी थी और चंदबदनी देवी वहां हैं, जहां उनके शरीर का नीचला हिस्सा गिरा था।

उनके शरीर के ऊपरी भाग, यानि कुंजा उस स्थान पर गिरा जो आज कुंजापुरी के नाम से जाना जाता है। इसे शक्तिपीठों में गिना जाता है।

मंदिर

देवी कुंजापुरी मां को समर्पित मां कुंजापुरी देवी मंदिर से दर्शनार्थी गढ़वाल पहाड़ियों के रमणीय दृश्य को देख सकते हैं। आप कई महत्वपूर्ण चोटियों जैसे उत्तर दिशा में स्थित बंदरपंच (6,320 मी.), स्वर्गारोहिणी (6,248 मी.), गंगोत्री (6,672 मी.) और चौखम्भा (7,138 मी.) को देख सकते हैं। दक्षिण दिशा में यहां से ऋषिकेश, हरिद्वार और इन घाटी जैसे क्षेत्रों को देखा जा सकता है।


शक्तिपीठ

साँचा:seealso यह मंदिर उत्तराखंड में अवस्थित 51 सिद्ध पीठों में से एक है। मंदिर का सरल श्वेत प्रवेश द्वार में एक बोर्ड प्रदर्शित किया गया है जिसमें यह लिखा गया है कि यह मंदिर को 197वीं फील्ड रेजीमेंट (कारगिल) द्वारा भेंट दी गई है। मंदिर तक तीन सौ आठ कंक्रीट सीढ़ियां पहुंचती हैं। वास्तविक प्रवेश की पहरेदारी शेर, जो देवी की सवारी हैं और हाथी के मस्तकों द्वारा की जा रही है। कुंजापुरी मंदिर अपने आप में ही श्वेतमय है। हालांकि, इसके कुछ हिस्से चमकीले रंगों में रंगे गए हैं। इस मंदिर का 01 अक्टूबर 1979 से 25 फ़रवरी 1980 तक नवीकरण किया गया था मंदिर के गर्भ गृह में कोई प्रतिमा नहीं है - वहां गड्ढा है - कहा जाता है कि यह वही स्थान है जहां कुंजा गिरा था। यहीं पर पूजा की जाती है, जबकि देवी की एक छोटी सी प्रतिमा एक कोने में रखी है।

मंदिर के परिसर में भगवान शिव की मूर्ति के साथ-साथ भैरों, महाकाली नागराज और नरसिंह की मूर्तियां हैं।

मंदिर में प्रतिदिन प्रातः 6.30 और सायं 5 से 6.30 बजे तक आरती का आयोजन किया जाता है।

कुंजापुरी के पुजारी कुंवर सिंह भंडारी और धरम सिंह भंडारी -- उस वंश से आते हैं जिसने पीढ़ियों से कुंजापुरी मंदिर में पूजा की है। रोचक बात यह है कि गढ़वाल के अन्य मंदिरों, जहां पुजारी सदैव एक ब्राह्मण होता है, के उलट कुंजापुरी पुजारी राजपूत या जजमान होते हैं उन्हें जिस नाम से गढ़वाल में जाना जाता है। उन्हें इस मंदिर में बहुगुणा जाति के ब्राह्मणों के द्वारा शिक्षा दी जाती है।


कुंजापुरी मेला

वर्ष 1972 से प्रतिवर्ष दशहरा पर्व के पहले नवरात्रों के दौरान कुंजापुरी मंदिर में कुंजापुरी पर्यटन एवं विकास मेले का आयोजन किया जाता है।

यह इस क्षेत्र के सबसे बड़े पर्यटक आकर्षण केन्द्रों में से एक है। इसमें पड़ोसी क्षेत्रों के साथ-साथ दुनियाभर के लगभग 50,000 दर्शक भाग लेते हैं। यह मेला पर्यटन एवं विकास को बढ़ावा देने की दोहरी भूमिका निभाता है। कई प्रकार की अंतसांस्कृतिक प्रदर्शनियां और संगीत एवं नृत्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जिसमें देशभर के कलाकार हिस्सा लेते हैं। सरकार भी विकास के एक साधन के तौर पर इस मेले का उपयोग करती है तथा स्थानीय किसानों को फसलों और खेती की तकनीकों के बारे में जानकारी देने के लिए इस अवसर का उपयोग करती है।