वेश्यावृत्ति

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सन 1945: एक अमेरिकी फ़ौजी कलकत्ता के एक वेश्यालय में

वेश्यावृत्ति या जिस्मफ़रोशी एक क़िस्म का कारोबार होता है जिसमें पैसों के लिए शारीरिक रिश्ते बनाए जाते हैं। इस कारोबार को करने वाले शख़्स को वेश्या कहा जाता है। आधुनिक समय में वेश्या के स्थान पर यौन-कर्मी शब्द प्रयोग करने का चलन है।

इतिहास

वेश्यावृत्ति सभी सभ्य देशों में आदिकाल से विद्यमान रही है। यह सदैव सामाजिक यथार्थ के रूप में स्वीकार की गई है और विधि एवं परंपरा द्वारा इसका नियमन होता रहा है। सामंतवादी समाज में यह अभिजातवर्ग की कलात्मक अभिरुचि एवं पार्थिव गौरवप्रदर्शन का माध्यम थी। आधुनिक यांत्रिक समाज में यह हमारी विवशता, मानसिक विक्षेप, भोगैषणा एवं निरंतर बढ़ती हुई आंतरिक कुंठा के क्षणिक उपचार का द्योतक है। वस्तुत: यह विघटनशील समाज के सहज अंग के रूप में विद्यमान रही है। सामाजिक स्थिति में आरोह अवरोह आता रहा है, किंतु इसका अस्तित्व अक्षुण्ण, अप्रभावित रहा है। प्राच्य जगत् के प्राचीन देशों में वेश्यावृत्ति धार्मिक अनुष्ठानों के साथ संबंध रही है। इसे हेय न समझकर प्रोत्साहित भी किया जाता रहा। मिस्र, असीरिया, बेबीलोनिया, पर्शिया आदि देशों में देवियों की पूजा एवं धार्मिक अनुष्ठानों में अत्यधिक अमर्यादि वासनात्मक कृत्यों की प्रमुखता रहती थी तथा देवस्थान व्यभिचार के केंद्र बन गए थे। यहूदी अवश्य इसके अपवाद थे। उनमें मोजेज के अन्यान्य अध्यादेशों का उद्देश्य स्पष्टतया धर्म एवं प्रजातीय रक्त की शुद्धता और रतिरोगों से जनस्वास्थ्य को सुरक्षित रखना था। वेश्यावृत्ति प्रवासी स्त्रियों तक ही सीमित थी। यह यहूदी स्त्रियों के लिए निषिद्ध थी। पर धर्माध्यक्षों की कन्याओं के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों द्वारा नियमभंग करने पर किसी प्रकार के दंड का विधान नहीं था। तथापि देवस्थानों और यरूसलम में ऐसी स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था, तथापि पाश्र्व पथ उनके सदैव आकीर्ण रहते थे। बाद के अभ्युदयकाल में स्वेच्छाचारिता में और वृद्धि हुई।

प्राचीन यूनान

एथेंस नगर में वेश्यावृत्ति के संबंध में निर्धारित नियम जनस्वास्थ्य एवं शिष्टाचार को दृष्टिगत कर अभिकल्पित थे। वेश्यालयों पर राज्य का अधिकार था जो क्षेत्रविशेष में सीमित थे। वेश्याओं का परिधान विशिष्ट होता था तथा सार्वजनिक स्थलों में उनका प्रवेश निषिद्ध था। वे किसी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान में भाग नहीं ले सकती थीं। पर्शिया युद्ध के पश्चात् और अधिक वाध्यकारी कानून प्रभावशील हुए लेकिन अत्यधिक गुणसंपन्ना एवं प्रतिभाशालिनी गणिकाओं के सम्मुख वे टिक नहीं सके। समय की गति के साथ विनियमों को क्रियाशील तथा प्रभावकारी बनाए रखना प्रशासन के लिए दुष्कर होता गया। अन्य नगरों में वेश्यावृत्ति चरम सीमा पर थी। वासनापूर्ति के लिए विख्यात करिंथ नगर में देवी के मंदिर में सहस्रों वेश्याएँ सेविका रूप में रहती थीं और देवीपूजा यौनाचार पर आवरण बन गई थी।

रोम

रोमवासियों के दृष्टिकोण में यहूदियों के जातीय गौरव एवं मिस्रवासियों के सार्वजनिक शिष्टाचार का सम्यक् समावेश था। समाज में स्त्रियों की प्रतिष्ठा थी। वेश्याओं के लिए पंजीकरण आवश्यक था। उन्हें राजकीय कर देना पड़ता था तथा भिन्न परिधान धारणा करना पड़ता था। वेश्यालयों पर राजकीय नियंत्रण था और वेश्यागमन को निंद्य माना जाता था। एक बार वेश्यावृत्ति अपनाने के पश्चात् इस व्यवसाय को सदा के लिए त्याग देने अथवा विवाहित हो जाने पर भी किसी स्त्री का पंजीयन समाप्त नहीं हो सकता था। ईसाई धर्म की स्थापना एवं प्रसार के पश्चात् इन समस्या के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाया गया। ईसाइयों ने वेश्याओं के पुनरुद्धार और समाज में पुन: प्रतिष्ठा हेतु प्रयास किया। सम्राट् जस्टिनियम की महिषी थियोडोरा ने, जो स्वयं वेश्या का जीवन व्यतीत कर चुकी थी, पतिता स्त्रियों के लिए एक सुधारगृह की स्थापना की। वेश्यालयों का संचालन दंडनीय था।

प्राचीन भारत

वेदों के दीर्घतमा ऋषि, पुराणों की अप्सराएँ, आर्ष काव्यों, रामायण एवं महाभारत की शताधिक उपकथाएँ मनु, याज्ञवल्क्य, नारद आदि स्मृतियों का आदिष्ट कथन, तंत्रों एवं गुह्य साधनाओं की शक्तिस्थानीया रूपसी कामिनियाँ, उत्सवविशेष की शोभायात्रा में आगे-आगे अपना प्रदर्शन करती हुई नर्तकियाँ किसी न किसी रूप में प्राचीन भारतीय समाज में सदैव अपना सम्मानित स्थान प्राप्त करती रही है। दशकुमारचरित, कालिदास की रचनाएँ, समयमातृका, दामोदर गुप्त का कुट्टनीमतम् आदि ग्रंथों में वीरांगनाओं का अतिरंजित वर्णन मिलता है। कौटिल्य अर्थशास्त्र ने इन्हें राजतंत्र का अविच्छिन्न अंग माना है तथा एक सहस्र पण वार्षिक शुल्क पर प्रधान गणिका की नियुक्ति का आदेश दिया है। महानिर्वाणतंत्र में तो तीर्थस्थानों में भी देवचक्र के समारंभ में शक्तिस्वरूपा वेश्याओं को सिद्धि के लिए आवश्यक माना है। वे राजवेश्या, नागरी, गुप्तवेश्या, ब्रह्मवेश्या तथा देववेश्या के रूप में पंचवेश्या हैं। स्पष्ट है कि समाज का कोई अंग एवं इतिहास का कोई काल इनसे विहीन नहीं था। इनके विकास का इतिहास समाजविकास का इतिहास है। त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) की सिद्धि में ये सदैव उपस्थित रही हैं। वैदिक काल की अप्सराएँ और गणिकाएँ मध्ययुग में देवदासियाँ और नगरवधुएँ तथा मुस्लिम काल में वारांगनाएँ और वेश्याएँ बन गर्इं। प्रारंभ में ये धर्म से संबद्ध थीं और चौसठों कलाओं में निपुण मानी जाती थीं। मध्युग में सामंतवाद की प्रगति के साथ इनका पृथक् वर्ग बनता गया और कलाप्रियता के साथ कामवासना संबद्ध हो गई, पर यौनसंबंध सीमित और संयत था। कालांतर में नृत्यकला, संगीतकला एवं सीमित यौनसंबंध द्वारा जीविकोपार्जन में असमर्थ वेश्याओं को बाध्य होकर अपनी जीविका हेतु लज्जा तथा संकोच को त्याग कर अश्लीलता के उस स्तर पर उतरना पड़ा जहाँ पशुता प्रबल है।स्वामी दयानंद सरस्वती ने इस कुप्रथा का विरोध किया तो नन्ही नाम की एक वेश्या ने उनकी हत्या कर दी।

वेश्यावृति के कारण

आधुनिक युग में स्त्रियों को वेश्यावृत्ति की ओर प्रेरित करनेवाले प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

आर्थिक कारण

अनेक स्त्रियाँ अपनी एवं आश्रितों की क्षुधा की ज्वाला शांत करने के लिए विवश हो इस वृत्ति को अपनाती हैं। जीविकोपार्जन के अन्य साधनों के अभाव तथा अन्य कार्यों के अत्यंत श्रमसाध्य एवं अल्वैतनिक होने के कारण वेश्यावृत्ति की ओर आकर्षित होती हैं। घनीवर्ग द्वारा प्रस्तु विलासिता, आत्मनिरति तथा छिछोरेपन के अन्यान्य उदाहरण भी प्रोत्साहन के कारण बनते हैं। कानपुर के एक अध्ययन के अनुसार लगभग 65 प्रतिशत वेश्याएँ आर्थिक आर्थिक कारणवश इस वृत्ति को अपनाती हैं।

सामाजिक कारण

एम्स्टर्डम लाल बत्ती जिले में वेश्याओं द्वारा किराए के कमरे के लिए ग्लास दरवाजे.

समाज ने अपनी मान्यताओं, रूढ़ियों और त्रुटिपूर्ण नीतियों द्वारा इस समस्या को और जटिल बना दिया है। विवाह संस्कार के कठोर नियम, दहेजप्रथा, विधवाविवाह पर प्रतिबंध, सामान्य चारित्रिक भूल के लिए सामाजिक बहिष्कार, अनमेल विवाह, तलाकप्रथा का अभाव आदि अनेक कारण इस घृणित वृत्ति को अपनाने में सहायक होते हैं। इस वृत्ति को त्यागने के पश्चात् अन्य कोई विकल्प नहीं होता। ऐसी स्त्रियों के लिए समाज के द्वारा सर्वदा के लिए बंद हो जाते हैं। वेश्याओं की कन्याएँ समाज द्वारा सर्वथा त्याज्य होने के कारण अपनी माँ की ही वृत्ति अपनाने के लिए बाध्य होती हैं। समाज में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की अपेक्षा अधिक होने तथा शारीरिक, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से बाधाग्रस्त होने के कारण अनेक पुरुषों के लिए विवाहसंबंध स्थापित करना संभव नहीं हो पाता। इनकी कामतृप्ति का एकमात्र स्थल वेश्यालय होता है। वेश्याएँ तथा स्त्री व्यापार में संलग्न अनेक व्यक्ति भोली भाली बालिकाओं की विषम आर्थिक स्थिति का लाभ उठाकर तथा सुखमय भविष्य का प्रलोभन देकर उन्हें इस व्यवसाय में प्रविष्ट कराते हैं। चरित्रहीन माता-पिता अथवा साथियों का संपर्क, अश्लील, साहित्य, वासनात्मक मनोविनोद और चलचित्रों में कामोत्तेजक प्रसंगों का बाहुल्य आदि वेश्यावृत्ति के पोषक प्रमाणित होते हैं।

मनोवैज्ञानिक कारण

वेश्यावृत्ति का एक प्रमुख आधार मनोवैज्ञानिक है। कतिपय स्त्री पुरुषों में कामकाज प्रवृत्ति इतनी प्रबल होती है कि इसकी तृप्ति, मात्र वैवाहिक संबंध द्वारा संभव नहीं होती। उनकी कामवासना की स्वतंत्र प्रवृत्ति उन्मुक्त यौनसंबंध द्वारा पुष्ट होती है। विवाहित पुरुषों के वेश्यागमन तथा विवाहित स्त्रियों के विवाहेतर संबंध में यही प्रवृत्ति क्रियाशील रहती है।

उन्मूलन के प्रयास

वेश्यावृत्ति समाज में व्याप्त एक आवश्यक बुराई है। इसे समाप्त करने के सभी प्रयास अब तक निष्फल गए हैं। समाजसुधारकों ने इस वृत्ति को सदैव हेय दृष्टि से देखा है, लेकिन वे इसे इस भय से सहन करते आए हैं कि इसके मूलोच्छेद से अनैतिकता में और अधिक वृद्धि होगी। सोवियत संघ और ब्रिटेन की सरकारें वेश्यावृत्ति को समाप्त करने में विफल रहीं। उन्मूलन के दुष्परिणामों को दृष्टिगत कर उन्हें अपनी नीति परिवर्तित करनी पड़ी। राजकीय नियंत्रण वेश्याओं की नियमित स्वास्थ्यपरीक्षा आदि कतिपय व्यवस्थाएँ कर संतोष करना पड़ा। लगभग ऐसे ही नियम अन्य यूरोपीय देशों में भी हैं।भारत में नियम हो ना चाहिए

भारत में वेश्यावृत्ति

भारत में वेश्यावृत्ति या देहव्यापार अभी भी अनैतिक देहव्यापार कानून के तहत आते हैं। समय - समय पर इसके कानूनी मान्यता को लेकर चर्चायें गर्म होती रहती हैं। सेक्सवर्करों तथा कुछ स्वयंसेवी संगठनों के द्वारा इस तरह की मांग उठती रहती है। कुछ वर्ष पहले महिला यौनकर्मियों का कोलकाता में एक अधिवेशन हुआ जिसमें यौनकर्मियों के संगठन `नेशनल नेटवर्क ऑफ सेक्सवर्कर्स` ने अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने का फैसला किया।

लेकिन बगैर कानूनी मान्यता के भी पूरे देश में यह कारोबार धरल्ले से चल रहा है। देश में आज कुल ग्यारह सौ सत्तर रेड लाईट एरिया है। इसमें व्यापारिक दृष्टिकोण से सबसे ज्यादा धंधा वाला एरिया है कोलकात्ता और मुम्बई। एक आकड़े के अनुसार करोड़ों रूपयो का साप्ताहिक बाज़ार है अकेले मुम्बई का रेडलाईट एरिया। राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा एक ऐसा क्षेत्र है जहां देह व्यापार की प्रथा का एक लम्बा इतिहास है। इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो पहले जो ` मुजरा ´ तथा नाच - गानों के केन्द्र के रूप में जाने जाते थे वही बाद में वेश्यावृत्ति के अड्डों के रूप में मशहूर हो गए।

एक अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में यौनकर्मियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही हैं। 1997 में यौनकर्मियों की संख्या 20 लाख थी जो 2003-04 तक बढ़कर 30 लाख हो गई। 2006 में महिला और बाल विकास विभाग द्वारा तैयार रिपोर्ट में यह भी पाया गया था कि देश में 90 फीसदी यौनकर्मियों की उम्र 15 से 35 साल के बीच है।

ऐसे भी मामले देखने में आए हैं जिसमें झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और उत्तरांचल में 12 से 15 वर्ष की कम उम्र की लड़कियों को भी वेश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकात्ता से सटा दक्षिण 24 - परगना ज़िले के मधुसूदन गांव में तो वेश्यावृत्ति को ज़िन्दगी का हिस्सा माना जाता है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि वहां के लोग इसे कोई बदनामी नहीं मानते। उनके अनुसार यह सब उनकी जीवनशैली का हिस्सा है और उन्हें इस पर कोई शर्मिंन्दगी नहीं है। इस पूरे गांव की अर्थव्यवस्था इसी धंधे पर टिकी है।

देश में रोजाना 2000 लाख रूपये का देह व्यापार होता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के एक अध्ययन के मुताबिक भारत में 68 प्रतिशत लड़कियों को रोजगार के झांसे में फंसाकर वेश्यालयों तक पहुंचाया जाता है। 17 प्रतिशत शादी के वायदे में फंसकर आती हैं। वेश्यावृत्ति में लगी लड़कियों और महिलाओं की तादाद 30 लाख है। मुम्बई और ठाणे के वेश्यावृत्ति के अड्डों से तो खण्डित रूस और मध्य एशियाई देशों की युवतियों को पकड़ा गया है। भारत में वेश्यावृत्ति के बाजार को देखते हुए अनेक देशों की युवतियां वेश्यावृत्ति के जरिए कमाई करने के लिए भारत की ओर रूख कर रही हैं।

मुम्बई पुलिस के दस्तावेजों के मुताबिक बाहर से आकर यहां वेश्यावृत्ति में लिप्त युवतियों में उज्बेकिस्तान की युवतियाँ सबसे ज्यादा हैं। गृह मंत्रालय के वर्ष 2007 के आंकडे़ के अनुसार भारत में तमिलनाडु और कर्नाटक देहव्यापार में शिर्ष पर हैं। 2007 के आंकडे़ के अनुसार वेश्यावृत्ति के 1199 मामले तमिलनाडु में और 612 मामले कर्नाटक में दर्ज किए गए। ये मामले वेश्यावृत्ति निवारण कानून के तहत दर्ज किए गए हैं।

वेश्यावृत्ति और कानून (भारत)

वेश्या और ग्राहक, एम्सटर्डम

भारतवर्ष में वैवाहिक संबंध के बाहर यौनसंबंध अच्छा नहीं समझा जाता है। वेश्यावृत्ति भी इसके अंतर्गत है। लेकिन दो वयस्कों के यौनसंबंध को, यदि वह जनशिष्टाचार के विपरीत न हो, कानून व्यक्तिगत मानता है, जो दंडनीय नहीं है। "भारतीय दंडविधान" 1860 से "वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक" 1956 तक सभी कानून सामान्यतया वेश्यालयों के कार्यव्यापार को संयत एवं नियंत्रित रखने तक ही प्रभावी रहे हैं। वेश्यावृत्ति का उन्मूलन सरल नहीं है, पर ऐसे सभी संभव प्रयास किए जाने चाहिए जिससे इस व्यवसाय को प्रोत्साहन न मिले, समाज की नैतिकता का ह्रास न हो और जनस्वास्थ्य पर रतिज रोगों का दुष्प्रभाव न पड़े। कानून स्त्रीव्यापार में संलग्न अपराधियों को कठोरतम दंड देने में सक्षम हो। यह समस्या समाज की है। समाज समय की गति को पहचाने और अपनी उन मान्यताओं और रूढ़ियों का परित्याग करे, जो वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहन प्रदान करती हैं। समाज के अपेक्षित योगदान के अभाव में इस समस्या का समाधान संभव नहीं है।

बाहरी कड़ियाँ