रजनी पनिक्कर

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रजनी पनिक्कर (११ सितंबर १९२४- १८ नवम्बर १९७४) का जन्म लाहौर में हुआ था। वहीं से उन्होंने अंग्रेजी और हिंदी में एम० ए० किया। बचपन से ही उनकी रूचि लेखने में थी। उन्होंने बंबई में प्रकाशित होने वाली कहानी की एक पत्रिका का संपादन किया। भारत विभाजन के बाद वे पंजाब सरकार के सूचना विभाग के पाक्षिक हिंदी पत्र 'प्रदीप' की संपादिका बनीं और आकाशवाणी के लखनऊ, कलकत्ता, दिल्ली, जयपुर आदि विभिन्न केंद्रों पर अनेक वर्ष तक अधिकारी के रूप में रहीं। उन्होंने दिल्ली स्थित महत्त्वपूर्ण सस्था लेखिका संघ की स्थापना की तथा उसकी प्रथम अध्यक्षा भी रहीं।

विवाह पूर्व उनका नाम रजनी नैयर था। फौजी अफसर ट्रावनकोर के श्रीधर पनिक्कर से विवाह हो जाने के बाद वे नैयर से रजनी पनिक्कर बन गईं। वे अपने निर्भीक और ओजपूर्ण लेखन के कारण जानी जाती हैं। उन्होंने उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। उन्होंने लगभग एक दर्जन उपन्यासों की रचना की है, जो हिंदी संसार में बहुचर्चित रहे। (१९४९) में 'ठोकर' नाम से अपना पहला उपन्यास रजनी नैयर नाम से ही लिखा था। इसमें शिक्षित मध्यमवर्गीय परिवार की स्वछंदता का सफल चित्रण देखा जा सकता है। उनके उपन्यास 'पानी की दीवार' (१९५४) की कथा प्रेम के स्वस्थ और शालीन दृष्टिकोण को उभारती है। यह उपन्यास मनोवैज्ञानिक पर आधारित है।

'मोम के मोती' (१९५४) में रजनी पनिक्कर ने पुरूषों की उद्दंड कामुकता और इससे उत्पन्न सामाजिक वातावरण में नौकरीपेशा नारी की समस्याओं को उजागर किया है। 'प्यासे बादल' (१९५५) में उन्होंने सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार का महत्व प्रदर्शित किया है और बताया है कि इससे समाज का कोढ़ समझा जानेवाला आदमी भी सुधर सकता है। 'जाड़े की धूप' (१९५८) नौकरीपेशा नारी और उसके बदलते प्रेम संबंधों की कहानी है जिसमें दांपत्य से विचलन और निस्सरता की बात की गई है। 'काली लड़की' (१९५८) साँवली सूरत वाली लड़की की सामाजिक कठिनाइयों की कहानी है। 'महानगर की मीता' ([[१९५६]) में मीता अपनी शर्त पर जीवन जीने की चाह रखती है और जीकर दिखाती है। इसके अतिरिक्त रजनी पनिक्कर के 'एक लड़कीः दो रूप', 'दूरियाँ', 'अपने-अपने दायरे', 'सिगरेट के टुकड़े' (१९५६), 'सोनाली दी', 'प्रेम चुनरिया बहुरंगी' आदि उपन्यास भी महत्वपूर्ण हैं।

उनकी कई रचनाएं उत्तरप्रदेश सरकार, केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय और यूनेस्को द्वारा पुरस्कृत हुई हैं। पचास वर्ष की छोटी सी जीवन अवधि में ही उन्होंने हिंदी कथा लेखन में अपने अनुभवों को जो विस्तार दिया वह हिन्दी साहित्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।