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प्रेमचन्द हंस से संतुष्ट न थे। वे एक सप्ताहिक पत्र भी निकालना चाहते थे। अवसर मिलते ही उन्होंने विनोदशंकर व्यास से जागरण ले लिया और २२ अगस्त, १९३२ को उनके सम्पादकत्व में इसका पहला अंक निकला, किन्तु आर्थिक हानि के कारण उन्हें इसका अन्तिम अंक २१ मई, १९३४ को निकाल कर इसे बन्द करना पड़ा।[१]
सन्दर्भ