पिलू पोचखानवाला

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पिलू पोचखानवाला (१९२३ - १९८६) भारत की पहली कुछ महिला मूर्तिकारों में से एक थीं।[१] मूर्तिकार बनने से पहले उन्होंने विज्ञापन के क्षेत्र में काम किया था। अपने गतिशील कार्यों के बल पर, पोचखानवाला ने अपने समकालीनों के बीच स्वयं को आधुनिक मूर्तिकला के अग्रणी के रूप में स्थापित किया था।[२] उनके कार्य प्रकृति से प्रेरित थे या अक्सर मानव आकृतियों का रूप लेते थे।[३] एक स्व-शिक्षित कलाकार के तौर पर उन्होंने अपनी कलाकृतियों में धातु, पत्थर एवं लकड़ी सहित अन्य मीडिया का उपयोग किया था।[४]

एक कलाकार होने के साथ ही, पोचखानवाला बॉम्बे में कला की एक सूत्रधार और मध्यस्थ भी थीं। उन्होंने १९६० के दशक से कई वर्षों तक बॉम्बे आर्ट फेस्टिवल का आयोजन किया था। [१] अपने साथी कलाकारों के साथ, उन्होंने सर कोवासजी जहांगीर हॉल को नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट, मुंबई में बदलने में भी प्रमुख भूमिका निभाई थी। यह गैलरी अब देश के प्रमुख समकालीन कला संग्रहालयों में से एक है।[३]

जीवन एवं शिक्षण

पोचखानवाला का जन्म एक पारसी परिवार में हुआ था जो प्राचीनतम पारसी धर्म का पालन करता था। उनका पालन-पोषण उनके दादा-दादी के घर हुआ था जहाँ तीन बच्चों और ग्यारह पोते-पोतियों का संयुक्त परिवार रहता था। उनके परिवार के सदस्य कावासजी दिनशॉ एंड ब्रदर्स के मालिक थे। बंबई में उनकी कंपनी का मुख्य कार्यालय होने के साथ ही, उनका व्यवसाय अरब, अफ़्रीका और अदन में भी फैला हुआ था। पोचखानवाला ने बचपन में इन जगहों का दौरा किया था, जिनमें से ज़ांज़ीबार ने उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित किया, खासकर उसके अफ़्रीकी वूडू पंथ के संस्कारों के कारण।[५]

परिवार के कठोर रीति-रिवाजों का पालन करने के बजाय, पोचखानवाला को माध्यमिक विद्यालय एवं कॉलेज, दोनों में अपने साथियों की संगति में विविध दृष्टिकोणों से रूबरू होने का मौका मिला था। उनकी युवावस्था में भारतीय स्वतंत्रता का संघर्ष अपने चरम पर था। वह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत छोड़ो आंदोलन के उदय के साथ हो रहे सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों का हिस्सा बनीं थीं। १९४५ में उन्होंने वाणिज्य में कॉलेज की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात एक विज्ञापन एजेंसी में काम करना शुरू किया था।[५]

करियर और प्रेरणा

विज्ञापन उद्योग में काम करते समय पोचखानवाला की अपनी इच्छा से चित्रकारी करने की लालसा दब गयी थी। कॉलेज में शिक्षण के दौरान, उनकी किताबें आँकड़ों के बजाय रेखाचित्रों से भरी होती थीं। विज्ञापन एजेंसी में अपने अनुभव के बाद उन्हें विश्वास हो गया था कि दृश्य कला में जाना ही उनके लिए उचित है।[५]

मूर्तिकला में प्रवेश

१९५० - ५१ में पोचखानवाला ने अपनी पहली यूरोपीय यात्रा की थी। वह एयर इंडिया के लिए पोस्टर एवं विज्ञापन प्रदर्शित करने के असाइनमेंट पर थी। इस बीच, उन्होंने अन्य समकालीन मूर्तिकारों जैसे कॉन्स्टेंटिन ब्रैंकुसी और हेनरी मूर द्वारा रचित प्रतिष्ठित कार्यों को देखा था। इस अनुभव ने दृश्य कला में आगे बढ़ने की उनकी इच्छा को पुनः जागृत किया और उन्हें मूर्तिकार बनने के लिए प्रेरित किया था। मुंबई लौटने के बाद उन्होंने खुद को मूर्तिकला के लिए पूरी तरह से समर्पित करने का फैसला किया।[५]

भारतीय कला से प्रेरणा

पोचखानवाला की देशव्यापी मंदिर स्थलों की यात्रा ने भारतीय मूर्तिकला एवं इतिहास में उनकी रुचि को बढ़ाया था। उन्होंने इन मूर्तियों की तरलता एवं जीवंतता को सराहा, जिसका गहरा प्रभाव उनकी रचनाओं पर पड़ा।

स्वतंत्रता के बाद, रामकिंकर बैज (शांतिनिकेतन में) और शंको चौधरी (बड़ौदा में) ने मूर्तियां बनाने के नए दृष्टिकोण के प्रचार की जिम्मेदारी संभाली थी। पोचखानवाला ने मुंबई में आदि डेवियरवाला के साथ, उन मूर्तियों पर काम किया, जो उनकी मान्यताओं को प्रदर्शित करती थीं और २०वीं सदी के बदलते भारत में जीने के अपने अनुभव को व्यक्त करती थीं।[५]

१९८६ में उनकी मृत्यु हो गई।[१]

संदर्भ

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  5. Pochkhanawala, Pilloo R.; Clerk, S. I. (1979). "On My Work as a Sculptor". Leonardo. 12 (3): 192–196. doi:10.2307/1574206. ISSN 0024-094X. JSTOR 1574206.