वल्लभदेव
वल्लभवदेव संस्कृत के प्रसिद्ध टीकाकार थे। रघुवंश की प्रथम टीका उनकी ही प्राप्त होती है। उनके जीवन के विषय में बहुत कम ज्ञात है। उनका जीवनकाल १०वीं शताब्दी माना जाता है। उनकी कृतियों से पता चलता है कि उनके पिता का नाम 'आनन्ददेव' था।
वल्लभदेव कालिदास के प्राचीन टीकाकार हैं, ऐसी मान्यता है । जनार्दन, मल्लिनाथ, गुणविनयसूरि, चारित्रवर्धन और अन्य वल्लभदेव का नाम से या कभी-कभी नाम बिना भी निर्देश करते हैं। इस कारण कुछ लोग उनको कालिदास के प्रथम टीकाकार मानते हैं।
कृतियाँ
जे एच वोरा का मत है कि 'वल्लभदेव' नाम के २० व्यक्ति/रचनाकार मिलते हैं। वे काश्मीरी टीकाकार वल्लभदेव के नाम से ७ टीकाएँ बताते हैं-[१]
- (१) कुमारसम्भव की टीका
- (२) मेघदूत की टीका
- (३) रघुपञ्जिका की टीका
- (४) वक्रोक्तिपञ्चाशिका की टीका
- (५) शिशुपाल वध की टीका
- (६) सूर्यशतक की टीका
- (७) आनन्दवर्धन कृत देवीशतक की टीका
वल्लभदेव की बहुश्रुतता
वल्लभदेव बहुश्रुत थे। सामान्यतया सभी टीकाकार अलङ्कारशास्त्र और व्याकरणशास्त्र का अच्छा ज्ञान रखते हैं। वल्लभदेव भी उन शास्त्रों के ज्ञाता हैं । व्याकरणज्ञान के कारण वे कालिदास के 'प्रामादिक' प्रयोगों को चुनौती देते हैं। उन्होने पाणिनि, कात्यायन, पतञ्जलि और अन्यों की दृष्टि से कालिदास की टीका की है। वल्लभदेव अलङ्कारशास्त्र के भी ज्ञाता हैं। नाटक, वृत्ति, इत्यादि के सन्दर्भ में भरत के सन्दर्भों को वल्लभदेव उद्धृत करते हैं। यह बात उनके नाट्यशास्त्र से विशद रूप से परिचित होने द्योतक है। उनके यत्र-तत्र किए गए अलङ्कारनिर्देश तथा "ध्वन्यते" जैसे प्रयोगों से भी अलङ्कार के ग्रन्थों का उनका ज्ञान प्रकाशित होता है। शिष्ट संस्कृत साहित्य का उनका परिचय किरातार्जुनीयम् के उद्धरणों से प्रतीत होता है। उनकी मेघदूत, रघुवंश, कुमारसम्भव,और शिशुपालवध की टीकाएँ इसका प्रमाण हैं । संभव है कि वल्लभदेव ने वैदिक साहित्य का भी अध्ययन किया हो। वे अनेक स्थलों पर (कुमारसम्भव ५/४१, ८/४१, ८/४२) वैदिकसाहित्य में से भी उद्धरण देते हैं । कुमारसम्भवम् २/१२ में वे संहिता, पद और क्रमपाठों का उल्लेख भी करते हैं। वे उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के बारे में भी जानकारी रखते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में से कई श्लोक वे उद्धृत करते हैं। ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका और पतञ्जलि के योगसूत्र का परिचय भी प्रत्यक्ष होता है। योगदर्शन की आठ सिद्धियों की वल्लभदेव चर्चा करते हैं। गुण और भूतग्रामों के सन्दर्भ वल्लभदेव के सांख्यतत्त्वज्ञान को प्रत्यक्ष कराते हैं। मनुस्मृति से वे सुपरिचित हैं। 'कृच्छ्रचान्द्रायण' आदि के प्रयोग उनके स्मृतिग्रन्थों के परिचायक हैं। मत्स्यपुराण का नामोल्लेख और अनेक पुराणकथाओं की जानकारी उनके पुराण-साहित्य के ज्ञान का सूचक है। जलगुप्ति, अग्निदुर्गत्व और प्राकारगुप्ति के उल्लेख से वल्लभदेव के अर्थशास्त्र (ग्रन्थ) का ज्ञान प्रकट होता है। वे संगीतज्ञ थे। वल्लभदेव के कोशसाहित्य के ज्ञान का परिचय उनके द्वारा अप्रयुक्त शब्दों के प्रयोगों से होता है।
वल्लभदेव का प्रदान
कालिदास के 'रघुवंश' के जो श्लोक मल्लिनाथ और हेमाद्रि की टीकाओं में भी नहीं प्राप्त होते वैसे श्लोक और उन सब पर टीका लिखकर वल्लभदेव ने उनकी रक्षा की है। आज जब कालिदास का मूलपाठ हमें उपलब्ध नहीं है तब प्राचीन टीकाकार वल्लभदेव की टीका में से प्राप्त हुए नये श्लोकों का महत्त्व बढ़ता है।
व्याकरण, कोश, छन्द और अलङ्कारों की मदद से वल्लभदेव द्वारा सरलशैली में की हुई 'रघुपञ्जिका' रघुवंश के अभ्यासियों के लिए अत्यन्त शायक है।