गिरी-सुमेल का युद्ध

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पृष्ठभूमि

राजस्थान की गौरवमयी धरा अनेकों युद्धों की साक्षी रही है। यहाँ के नर पुंगव वीरों ने सदियों से विदेशी आक्रांताओं के विरूद्ध अपनी मातृभूमि, संस्कृति एवं आत्मगौरव की रक्षार्थ अनेकों युद्धों में आत्माहुति दी है। इन्हीं बलिदानों की श्रृंखला में गिरी सुमेल युद्ध को विश्व इतिहास में गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त है। यह युद्ध ५ जनवरी, १५४४ (वि.सं. १६००) को दिल्ली के बादशाह शेरशाह सूरी और मरूधरा के वीर क्षत्रिय के बीच लड़ा गया। यह एक ऐसा अनोखा युद्ध था जिसमें आठ हजार वीरों ने शेरशाह के ८० हजार की सेना को लोहे के चने चबवाकर, अपनी आत्माहुति देकर अपना नाम विश्व इतिहास में अमर कर दिया। यह घटना १५वीं शताब्दी की है।

राव जैताजी राठौड़ एवं राव कुंपाजी राठौड़ महान राजपूत योद्धा थें । उन्होंने आज से लगभग 500 साल पहले अदम्य साहस, वीरता, पराक्रम एवं बलिदान का वो अध्याय लिखा था, जो सदियो तक विश्व मानवता को स्वाभिमान, पराक्रम और बलिदान के लिए प्रेरित करता रहेगा ।

गिरी सुमेल के युद्ध में उन्होंने अपने शौर्य,साहस और बलिदान का परिचय दिया । सन् 1544 ई० में लड़ा जाने वाला यह युद्ध, दिल्ली के सुल्तान- शेर शाह सूरी और जोधपुर के शाशक राव मालदेव के तरफ से राव जैता और कुम्पा के बीच हुआ । इस युद्ध में राजपूतों की सेना सिर्फ 8,000 की रही, जबकि शेर शाह सूरी के पास 80,000 का एक विशाल फौज था । लेकिन फिर भी राजपूतों की छोटी से सेना ने शेर शाह सूरी के 36,000 सैनिको को मौत के घाट उतार दिया और अंत में राव जैता और राव कुम्पा वीर गति को प्राप्त हुए ।

युद्ध के बाद शेरशाह के खुद के शब्द थे - "बोल्यो सूरी बैन यूँ, गिरी घाट घमसाण, मुठी खातर बाजरी, खो देतो हिंदवाण।" अर्थात : "आज मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए पूरे हिंदुस्तान कि सल्तनत खो देता।"

प्रस्तावना

राव मालदेव राठौड़ १५३१ ई. को मारवाड़ के शासक बने। राव मालदेव सोजत और जोधपुर परगने के बाद अपने पराक्रम से संपूर्ण राजपूताना की प्रमुख रियासतों अपने शासन में मिलाते हुए दिल्ली और आगरा के पास हिडोन, बयाना, फतेहपुर सीकरी और मेवात तक पहुंच गए। जब इस प्रतापी राजा की आंच दिल्ली सल्तनत के ५० मील के फासले तक पहुंची तो शेरशाह सूरी के माथे पर चितां की तस्वीरे उभर आई। सीमा विस्तार कर रहे राव मालदेव रोकने के लिए दिल्ली के बादशाह शेरशाह सूरी ने १५४३ ई. में लगभग ८० हजार सैनिकों की एक विशाल के सेना लेकर फतेहपुर मेड़ता होते हुए सुमेल आ पहुंचा। इधर सूचना मिलते ही राव मालदेव भी अपने सैनिको के साथ गिरी आ पहुंचे और पीपाड़ को संचालन केन्द्र बनाया। रोजाना दोनों सेनाओं में छुट-पुट लड़ाई होती, जिसमें शेरशाह की सेना का नुकसान होता। कई दिनों की अनिर्णीत लडा़इयों से शेरशाह तंग आ गया और उसने छुट-पुट लड़ाइयां बन्द कर दी। इस तरह कई दिनों तक सेनाएं आमने-सामने पडी़ रही। शेरशाह के सामने सैनिकों के राशन और हाथी-घोड़ो के लिए दाना-पानी की व्यवस्था चुनौती बन गई। शेरशाह के अनिर्णय की स्थिति मे लौट पाना भी असंभव था, ऐसी स्थिती में शेरशाह सूरी ने कूटनीतिक चाल चलते हुए मालदेव के सरदारो में फिरोजशाही मोहरे भिजवाई और नई ढालों के अंदर शेरशाह के फरमानों को सिलवा दिया था, उसमें लिखा था कि सरदार मालदेव को बंदी बनाकर शेरशाह को सौंप देंगे। यह जाली पत्र चालाकी से राव मालदेव के पास भी पहुंचा दिये, जिससे राव मालदेव को शंका पैदा हुई और वे रात्रि में ही युद्ध शिविर से वापस जोधपुर लौटने का निश्चय किया। जोधपुर सेना के सेनापति राव जैता, राव कूंपा व अन्य सरदारो ने मालदेव को समझाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन मालदेव ने अपना इरादा नहीं बदला और इस युद्ध को लड़ने से इंन्कार करते हुए तीन जनवरी देर रात को युद्ध शिविर से सेना लेकर जोधपुर के लिए रवाना हो गए। पीछे रह गए जैताजी व कूंपाजी ने अपने रजपूती गौरव व मूल्यों की रक्षार्थ और अपने ऊपर लगे कलंक को मिटाने के लिए अपने बचे हुए कुछेक सैनिको के सहयोग से युद्ध करने का निश्चय किया।


सेना का गठन

जब वर्धनोरा के ठिकानेदार नरा चौहान ने राव जैता-कूंपा के शाही सेना के साथ अकेले युद्ध लड़ने और राजा मालदेव के लौट जाने का समाचार सुना तब वह अपने तीन हजार सैनिकों के साथ युद्ध में भाग लेने पहुंच गए। ऐसे में जैता व कूंपा को जोश दुगुना हो गया और अपने सैन्यबल के साथ अफगान सेना का प्रतिरोध करने के लिए रात्रि मे ही निकल पड़े।

युद्ध

सवेरा होने पर जोश भरे पराक्रम व अदम्य साहस के साथ राव जैता, राव कूंपा, नरा चौहान व अन्य सेनानायक अपने ८ हजार सैनिकों के साथ शेरशाह की ८० हजार अफगान सेना पर काल बन कर पर टूट पड़े। सख्यां बल में कम, लेकिन जुनूनी पराक्रम से लबालब इन सेना नायकों ने शेरशाह की सेना में खौफ भर दिया। मरूभूमि के रणबांकुरो के समक्ष शत्रु सेना के पैर उखड़ने लगे। शेरशाह मैदान छोड़ने का निर्णय करने ही वाला था कि इसी समय संयोग से जलालुद्दीन जलवानी अतिरिक्त सैन्य बल के साथ वहां आ पहुंचे, जिससे पासा पलट गया और प्रमुख सांमत जैता राठौड़, कूंपा राठौड़, चांग के लखा चौहान के दो पुत्र व अनेक मारवाड़ के सरदार आखिरी वक्त तक शत्रु सेना से संघर्ष करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध के प्रमुख सेनापति राजपुरोहित प्रताप सिंह जी को बनाया गया (राव मालदेव ने पुनः जोधपुर जाते समय जैता कुंपा पर अविश्वास होने के बाद पुरोहित जी को सेना की बागडोर सौं दी।)

राव जैताजी, राव कूंपाजी, नरा जी चौहान, लखा जी चौहान, राव खींवकरण जी उदावत, राव पंचायण जी, राव अखैराज जी सोनगरा, राव अखैराज देवड़ा, राव सूजा जी, नींबाजी भाटी, मानजी चारण, लूम्बा जी भाट, अल्लदाद कायमखानी इत्यादि के नेतृत्व में राजपूत, मगरांचल क्षेत्र के राजपूत एवं अन्य जातियों के वीर योद्धा इस युद्ध में काम आए थे।

इस युद्ध में मगरांचल के ठिकानेदार नरा चौहान के अदम्य साहस व पराक्रम के प्रदर्शन पर जोधपुर नरेश राव मालदेव ने उनके पुत्र सूराजी को 'बर की जागीर' प्रदान की। नराजी चौहान की छत्री बर तालाब की पाल पर स्थित है जिस पर लगे हुए शिलालेख पर वि.सं. १६६८ अंकित है। मगरांचल के चीतावंशीय नरा चौहान के द्वारा युद्ध में प्रदर्शन किये गये अद्वितीय शौर्य एवं पराक्रम के बारे में इस दोहे में इस प्रकार दर्शाया गया है---

'चीतावंशीय नरा चव्हाण ने युद्ध खेला घमासान।

राव जैता-कुंपा की करी सहायता, करके रण शमशान।।

नाहर का युद्ध देखकर भाग गया, सुरी सुल्ताण।

बोल्यियों- मुट्ठी भर बाजरे ही खो देतो हिन्दवाण।।"

मारवाड़ व मगरांचल के रणबांकुरों के अद्वितीय शौर्य और पराक्रम को देखकर इस युद्ध के पश्चात् घायल शेरशाह को कहना पड़ा– "मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान की सल्तनत खो बैठता और इस तरह के शूरवीर मेरे साथ होते तो मैं विश्व विजय कर लेता।"

उपलब्ध ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार पूरे देश में ऐसा कोई दूसरा युद्ध नहीं हुआ, जिसमें राजा के सेना सहित लौट जाने के बावजूद सेनापतियों ने महज चौबीस घंटे में आठ हजार लोगों की फौज तैयार कर अपने से संख्या में दस गुनी बड़ी फौज को लोहे के चने चबवा दिए। मारवाड़ की संस्कृति, इस क्षेत्र के लोगों के विश्वास और मातृभूमि की रक्षा के लिए इस युद्ध में शहीद हुए वीरों की समाधियां गिरी और सुमेल दोनों स्थानों पर बनी हुई है, इसी स्थान को गिरी-सुमेल रणस्थली के रूप में पहचाना जाता है। यहां समारोह समिति के द्वारा १९८२ से प्रतिवर्ष ५ जनवरी को बलिदान दिवस कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है।

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सन्दर्भ