पार्वतीमंगल

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पार्वती-मंगल में श्रीतुलसीदास जी ने देवाधिदेव भगवान् शंकर के द्वारा जगदम्बा पार्वती के कल्याणमय पाणिग्रहण का काव्यरूप में रसमय चित्रण किया है. जगदम्बा पार्वती जी ने भगवान् शंकर को पतिरूप में पाने के लिए कैसी-कैसी साधना व तप किए हैं और किन-किन क्लेशों को उन्होंने सहन किया है, उनके आराध्यदेव ने उनकी कैसे-कैसे परीक्षा ली और अंत में किस तरह से पार्वती जी ने शंकर जी को प्राप्त किया उन सभी का वर्णन इस पार्वती-मंगल में में किया गया है. परम पूज्य तुलसीदास जी ने पार्वती जी की तपस्या व अनन्य निष्ठा का बहुत ही हृदयग्राही एवं मनोरम चित्र अपनी लेखनी द्वारा चित्रित किया है. शिव-बरात के वर्णन में तुलसीदास जी ने हास्य का पुट भी शामिल किया है. अंत में विवाह तथा विदाई का मार्मिक तथा रोचक वर्णन भी किया है.

ज्योतिषी दिलीप देव द्विवेदी द्वारा संकलित 

पार्वती-मंगल

बिनइ गुरहि गुनिगनहि गिरिहि गननाथहि ।

ह्रदयँ आनि सिय राम धरे धनु भाथहि ।।1।।

गावउँ गौरि गिरीस बिबाह सुहावन ।

पाप नसावन पावन मुनि मन भावन ।।2।।

अर्थ

गुरु की, गुणी लोगों अर्थात विज्ञजनों की, पर्वतराज हिमालय की और गणेश जी की वन्दना करके फिर जानकी जी की और भाथेसहित धनुष धारण करने वाले श्रीरामचन्द्र जी को स्मरण कर श्रीपार्वती और कैलासपति महादेव जी के मनोहर, पापनाशक, अन्तःकरण को पवित्र करने वाले और मुनियों के भी मन को रुचिकर लगने वाले विवाह का गान करता हूँ.


कबित रीति नहिं जानउँ कबि न कहावउँ ।

संकर चरित सुसरित मनहि अन्हवावउँ ।।3।।

पर अपबाद-बिबाद-बिदूषित बानिहि ।

पावन करौं सो गाइ भवेस भवानिहि ।।4।।

अर्थ

मैं काव्य की शैलियों को नहीं जानता और न कवि ही कहलाता हूँ, मैं तो केवल शिवजी के चरित्ररुपी श्रेष्ठ नदी में मन को स्नान कराता हूँ. और उसी श्रीशंकर एवं पार्वती-चरित्र का गान करके दूसरों की निंदा और वाद-विवाद से मलिन हुई वाणी को पवित्र करता हूँ.


जय संबत फागुन सुदि पाँचै गुरु छिनु ।

अस्विनि बिरचेउँ मंगल सुनि सुख छिनु छिनु ।।5।।

अर्थ

जय नामक संवत के फाल्गुन मास की शुक्ला पंचमी बृहस्पतिवार को अश्विनी नक्षत्र में मैंने इस मंगल विवाह-प्रसंग की रचना की है, जिसे सुनकर क्षण-क्षण में सुख प्राप्त होता है.


गुन निधानु हिमवानु धरनिधर धुर धनि ।

मैना तासु घरनि घर त्रिभुवन तियमनि ।।6।।

कहहु सुकृत केहि भाँति सराहिय तिन्ह कर ।

लीन्ह जाइ जग जननि जनमु जिन्ह के घर ।।7।।

मंगल खानि भवानि प्रगट जब ते भइ ।

तब ते रिधि-सिधि संपति गिरि गृह नित नइ ।।8।।

अर्थ

पर्वतों में शीर्षस्थानीय गुणों की खान हिमवान पर्वत धन्य हैं, जिनके घर में त्रिलोकी की स्त्रियों में श्रेष्ठ मैना नाम की पत्नी थी. कहो ! उनके पुण्य की किस प्रकार बड़ाई की जाय, जिनके घर में जगत के माता पार्वती ने जन्म लिया. जब से मंगलों की खान पार्वती प्रकट हुईं तभी से हिमाचल के घर में नित्य नवीन रिद्धि-सिद्धियाँ और संपत्तियाँ निवास करने लगीं.


नित नव सकल कल्यान मंगल मोदमय मुनि मानहिं ।

ब्रह्मादि सुर नर नाग अति अनुराग भाग बखानहीं ।।

पितु मातु प्रिय परिवारु हरषहिं निरखि पालहिं लालहिं ।

सित पाख बाढ़ति चंद्रिका जनु चंदभूषन भालहिं ।।1।।

अर्थ

मुनिजन सब प्रकार के नित्य नवीन मंगल और आनंदमय उत्सव मनाते हैं. ब्रह्मादि देवता, मनुष्य एवं नाग अत्यंत प्रेम से हिमवान के सौभाग्य का वर्णन करते हैं. पिता, माता, प्रियजन और कुटुंब के लोग उन्हें निहारकर आनंदित होते हैं और उनका प्रेम से लालन-पालन करते हैं. ऐसा लगता था, मानो शुक्ल पक्ष में चंद्रशेखर भगवान् महादेव जी के ललाट में चन्द्रमा की कला वृद्धि को प्राप्त हो रही हो.


कुँअरि सयानि बिलोकि मातु-पितु सोचहिं ।

गिरिजा जोगु जुरिहि बरु अनुदिन लोचहिं ।।9।।

एक समय हिमवान भवन नारद गए ।

गिरिबरु मैना मुदित मुनिहि पूजत भए ।।10।।

अर्थ

कुमारी पार्वती जी को सयानी हुई देख माता-पिता चिंतित हो रहे हैं और नित्यप्रति यह अभिलाषा करते हैं कि पार्वती के योग्य वर मिले. एक समय नारद जी हिमवान के घर गए. उस समय पर्वतश्रेष्ठ हिमवान और मैना ने प्रसन्नतापूर्वक उनकी पूजा की.


उमहि बोलि रिषि पगन मातु मेलत भई ।

मुनि मन कीन्ह प्रणाम बचन आसिष दई ।।11।।

कुँअरि लागि पितु काँध ठाढ़ि भइ सोहई ।

रूप न जाइ बखानि जानु जोइ जोहई ।।12।।

अर्थ

माता (मैना) ने पार्वती को बुलाकर ऋषि के चरणों में डाल दिया. मुनि नारद ने मन ही मन पार्वती जी को प्रणाम किया और वचन से आशीर्वाद दिया. उस समय पिता हिमवान के कंधे से सटकर खड़ी हुई कुमारी पार्वती जी बड़ी शोभामयी जान पड़ती थी. उनके स्वरुप का कोई वर्णन नहीं कर सकता. उसे जिसने देखा वही जान सकता है.


अति सनेहँ सतिभायँ पाय परि पुनि पुनि ।

कह मैना मृदु बचन सुनिअ बिनती मुनि ।।13।।

तुम त्रिभुवन तिहुँ काल बिचार बिसारद ।

पारबती अनुरूप कहिय बरु नारद ।।14।।

अर्थ

अत्यंत प्रेम और सच्ची श्रद्धा से बार-बार पैरों पड़कर मैना ने कोमल वचनों से कहा – “हे मुने ! हमारी विनती सुनिए. आप तीनों लोकों में और तीनों कालों में बड़े ही विचार-कुशल है, अतः हे नारदजी ! आप पार्वती के अनुरूप कोई वर बतलाइए”.


मुनि कह चौदह भुवन फिरउँ जग जहँ जहँ ।

गिरिबर सुनिय सरहना राउरि तहँ तहँ ।।15।।

भूरि भाग तुम सरिस कतहुँ कोउ नाहिन ।

कछु न अगम सब सुगम भयो बिधि दाहिन ।।16।।

अर्थ

नारद मुनि कहते हैं कि “ब्रह्माण्ड के चौदहों भुवनों में जहाँ-जहाँ मैं घूमता हूँ, हे गिरिश्रेष्ठ हिमवान ! वहाँ-वहाँ तुम्हारी बड़ाई सुनी जाती है. तुम्हारे समान बड़भागी कहीं कोई नहीं है. तुम्हारे लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है, सब कुछ सुलभ है क्योंकि विधाता तुम्हारे अनुकूल सिद्ध हुए हैं”.


दाहिन भए बिधि सुगम सब सुनि तजहु चित चिंता नई ।

बरु प्रथम बिरवा बिरचि बिरच्यो मंगला मंगलमई ।।

बिधिलोक चरचा चलति राउरि चतुर चतुरानन कही ।

हिमवानु कन्या जोगु बरु बाउर बिबुध बंदित सही ।।2।।

अर्थ

“ईश्वर तुम्हारे अनुकूल सिद्ध हुए हैं अतः तुम्हारे लिए सब कुछ सुलभ है” – यह जानकर नवीन चिंताओं को त्याग दो. ब्रह्माजी ने वर रूप पौधे को पहले रचा है और तब मंगलमयी मंगला को. तुम्हारी चर्चा ब्रह्मलोक में भी चल रही थी, उस समय चतुर चतुरानन ने कहा था कि “हिमवान की कन्या (पार्वती) के योग्य वर है तो बावला, परन्तु निश्चय ही वह देवताओं से भी वन्दित (पूजित) हैं”.


मोरेहुँ मन अस आव मिलिहि बरु बाउर ।

लखि नारद नारदी उमहि सुख भा उर ।।17।।

सुनि सहमे परि पाइ कहत भए दंपति ।

गिरिजहि लगे हमार जिवनु सुख संपति ।।18।।

अर्थ

“मेरे मन में भी ऐसी ही बात आती है कि पार्वती को बावला वर मिलेगा”. नारदजी के इस वचन को सुनकर उमा (पार्वती) के ह्रदय में सुख हुआ. किन्तु यह बात दंपत्ति – हिमवान व मैना – सहम गए और नारदजी के पैरों में पड़कर कहने लगे कि “पार्वती के लिए हम लोगों का जीवन और सारी सुख-संपत्ति है”.


नाथ कहिय सोइ जतन मिटइ जेहिं दूषनु ।

दोष दलन मुनि कहेउ बाल बिधु भूषनु ।।12।।

अवसि होइ सिधि साहस फलै सुसाधन ।

कोटि कलप तरु सरिस संभु अवराधन ।।20।।

अर्थ

“अतः हे नाथ ! वह उपाय बतलाइए, जिससे पार्वती के इस भाग्य-दोष का नाश हो, जिसके कारण उसे पागल पति मिलने को है”. मुनि ने कहा कि सारे दोषों का नाश करने वाले शशिभूषण महादेव जी ही हैं. उनकी कृपा से सफलता अवश्य प्राप्त होगी. साहस दृढ़ता से ही श्रेष्ठ साधन भी सफल होता है. शिवजी की आराधना एक ही करोडो कल्पवृक्षों के समान “सिद्धिदायक” है.


तुम्हरें आश्रम अबहिं ईसु तप साधहिं ।

कहिअ उमहि मनु लाइ जाइ अवराधहिं ।।21।।

कहि उपाय दंपतिहि मुदित मुनिबर गए ।

अति सनेहँ पितु मातु उमहि सिखवत भए ।।22।।

अर्थ

“देखो, तुम्हारे आश्रम कैलास में महादेव जी अभी तप-साधन कर रहे हैं, अतः पार्वती से कहो कि जाकर मनोयोगपूर्वक शिवजी की आराधना करें”. दंपत्ति (हिमवान-मैना) को यह उपाय बतलाकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी आनंदपूर्वक चले गए और माता-पिता ने अत्यंत स्नेह से पार्वती जी को शिक्षा दी.


सजि समाज गिरिराज दीन्ह सबु गिरिजहि ।

बदति जननि जगदीस जुबति जनि सिरजहि ।।23।।

जननि जनक उपदेस महेसहि सेवहि ।

अति आदर अनुराग भगति मनु भेवहि ।।24।।

अर्थ

पर्वतराज हिमाचल ने तपस्या की सारी सामग्री सजाकर पार्वती जी को दे दी. माता कहने लगी कि ईश्वर स्त्रियों को न रचे क्योंकि इन्हें सदैव पराधीन रहना पड़ता है. माता-पिता ने पार्वतीजी को उपदेश दिया कि तुम शिवजी की आराधना करो और अत्यंत आदर, प्रेम और भक्ति से मन को तर कर दो.


भेवहि भगति मन बचन करम अनन्य गति हर चरन की ।

गौरव सनेह सकोच सेवा जाइ केहि बिधि बरन की ।।

गुन रूप जोबन सींव सुंदरि निरखि छोभ न हर हिएँ ।

ते धीर अछत बिकार हेतु जे रहत मनसिज बस किएँ ।।3।।

अर्थ

“भक्ति के द्वारा मन को सरस बना दो”. मनसा-वाचा-कर्मणा पार्वती के एकमात्र श्रीमहादेव जी के चरणों का आश्रय था. उनके गौरव, स्नेह, शील-संकोच और सेवा का वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है. पार्वती जी गुण, रूप एवं यौवन की सीमा थीं, किन्तु ऐसी अनुपम सुंदरी को देखकर शिवजी के मन में तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ. सच है जो लोग विकार का कारण रहते हुए भी कामदेव को वश में किए रहते हैं, वे ही सच्चे धीर हैं.


देव देखि भल समय मनोज बुलायउ ।

कहेउ करिअ सुर काजु साजु सजि आयउ ।।25।।

बामदेउ सन कामु बाम होइ बरतेउ ।

जग जय मद निदरेसि फरु पायसि फर तेउ ।।26।।

अर्थ

देवताओं ने अनुकूल अवसर देखकर कामदेव को बुलाया और कहा कि “आप देवताओं का काम कीजिए”. यह सुनकर कामदेव साज सजाकर आया. महादेवजी से कामदेव ने प्रतिकूल बर्ताव किया और जगत को जीत लेने के अभिमान से चूर होकर शिवजी का निरादर किया. उसी का फल उसने पाया अर्थात वह नष्ट हो गया.


रति पति हीन मलीन बिलोकि बिसूरति ।

नीलकंठ मृदु सील कृपामय मूरति ।।27।।

आसुतोष परितोष कीन्ह बर दीन्हेउ ।

सिव उदास तजि बास अनत गम कीन्हेउ ।।28।।

अर्थ

पतिहीना (विधवा) रति को मलिन और शोकाकुल देखकर मृदुल स्वभाव, कृपामूर्ति आशुतोष भगवान् नीलकंठ (शिवजी) ने प्रसन्न होकर उसे यह वर दिया –


दोहा – अब ते रति तव नाथ कर होइहि नाम अनंगु |

बिनु बपू ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु ||

जब जदुबंस कृष्ण अवतारा | होइहि हरण महा माहि भारा ||

कृष्न तनय होइहि पति तोरा | बचनु अन्यथा होइ ना मोरा ||


और फिर शिवजी उदासीन हो, उस स्थान को छोड़ अन्यत्र चले गए.


उमा नेह बस बिकल देह सुधि बुधि गई ।

कलप बेलि बन बढ़त बिषम हिम जनु दई ।।29।।

समाचार सब सखिन्ह जाइ घर घर कहे ।

सुनत मातु पितु परिजन दारुन दुख दहे ।।30।।

अर्थ

पार्वती जी प्रेमवश व्याकुल हो गईं, उनके शरीर की सुध-बुध जाती रही, मानो वन में बढ़ती हुई कल्पता को विषम पाले ने मार दिया हो. फिर सखियों ने घर-घर जाकर सारे समाचार सुनाए और इस समाचार को सुनकर माता-पिता एवं घर के लोग दारुण दुःख में जलने लगे.


जाइ देखि अति प्रेम उमहि उर लावहिं ।

बिलपहिं बाम बिधातहि दोष लगावहिं ।।31।।

जौ न होहिं मंगल मग सुर बिधि बाधक ।

तौ अभिमत फल पावहिं करि श्रमु साधक ।।32।।

अर्थ

वहाँ जाकर पार्वती को देख वे अत्यंत प्रेम से उन्हें हृदय लगाते हैं, विलाप करते हैं तथा वाम विधाता को दोष देते हैं. वे कहते हैं कि यदि देवता और विधाता शुभ मार्ग में बाधक न हों तो साधक लोग परिश्रम करके मनोवांछित फल पा सकते हैं.


साधक कलेस सुनाइ सब गौरिहि निहोरत धाम को ।

को सुनइ काहि सोहाय घर चित चहत चंद्र ललामको ।।

समुझाइ सबहि दृढ़ाइ मनु पितु मातु, आयसु पाइ कै ।

लागी करन पुनि अगमु तपु तुलसी कहै किमि गाइकै ।।4।।

अर्थ

सब लोग साधकों के क्लेश सुनाकर पार्वती जी को घर चलने के लिए निहोरा करते हैं पर उनकी बात कौन सुनता है और किसे घर सुहाता है? मन तो चंद्रभूषण श्रीमहादेवजी को चाहता है फिर पार्वती जी सबको समझाकर सबके मन को दृढ कर और माता-पिता की आज्ञा पा पुनः कठिन तपस्या करने लगीं, उसे तुलसी, गाकर कैसे कह सकता है.


फिरेउ मातु पितु परिजन लखि गिरिजा पन ।

जेहिं अनुरागु लागु चितु सोइ हितु आपन ।।33।।

तजेउ भोग जिमि रोग लोग अहि गन जनु ।

मुनि मनसहु ते अगम तपहिं लायो मनु ।।34।।

अर्थ

पार्वती जी की दृढ प्रतिज्ञा को देखकर माता-पिता और परिजन लौट आए. जिसमें अनुरागपूर्वक चित्त लग जाता है, वही अपना प्रिय है. उन्होंने भोगों को रोग के समान और लोगों को सर्पों के झुण्ड के समान त्याग दिया तथा जो मुनियों को भी मन के द्वारा अगम्य था, ऐसे तप में मन लगा दिया.


सकुचहिं बसन बिभूषन परसत जो बपु ।

तेहिं सरीर हर हेतु अरंभेउ बड़ तपु ।।35।।

पूजइ सिवहि समय तिहुँ करइ निमज्जन ।

देखि प्रेमु ब्रतु नेमु सराहहिं सज्जन ।।36।।

अर्थ

जिस शरीर को स्पर्श करने में वस्त्र-आभूषण भी सकुचाते थे, उसी शरीर से उन्होंने शिवजी के लिए बड़ी भारी तपस्या आरम्भ कर दी. वे तीनों काल स्नान करती हैं और शिवजी की पूजा करती हैं. उनके प्रेम, व्रत और नियम को सज्जन साधु लोग भी सराहते हैं.


नीद न भूख पियास सरिस निसि बासरु ।

नयन नीरु मुख नाम पुलक तनु हियँ हरु ।।37।।

कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहि ।

सूखे बेल के पात खात दिन गवनहि ।\38।।

अर्थ

उनके लिए दिन-रात बराबर हो गए हैं, न नींद है न भूख अथवा न प्यास ही है. नेत्रों में आँसू भरे रहते हैं, मुख से शिव-नाम उच्चारण होता रहता है, शरीर पुलकित रहता है और ह्रदय में शिवजी बसे रहते हैं. कभी कंद, मूल, फल का भोजन होता है, कभी जल और वायु पर ही निर्वाह होता है और कभी बेल के सूखे पत्ते खाकर ही दिन बिता दिए जाते हैं.


नाम अपरना भयउ परन जब परिहरे ।

नवल धवल कल कीरति सकल भुवन भरे ।।39।।

देखि सराहहिं गिरिजहि मुनिबरु मुनि बहु ।

अस तप सुना न दीख कबहुँ काहुँ कहु ।।40।।

अर्थ

जब पार्वती जी ने सूखे पत्तों को भी त्याग दिया तब उनका नाम “अपर्णा” पड़ा. उनकी नवीन, निर्मल एवं मनोरम कीर्ति से चौदहों भुवन भर गए. पार्वती जी का तप देखकर बहुत-से मुनिवर और मुनिजन उनकी सराहना करते हैं कि ऐसा तप कभी कहीं किसी ने न देखा और न तो सुना ही था.


काहूँ न देख्यौ कहहिं यह तपु जोग फल फल चारि का ।

नहिं जानि जाइ न कहति चाहति काहि कुधर-कुमारिका ।।

बटु बेष पेखन पेम पनु ब्रत नेम ससि सेखर गए ।

मनसहिं समरपेउ आपु गिरिजहि बचन मृ्दु बोलत भए ।।5।।

अर्थ

वे कहते हैं कि ऐसा तप किसी ने नहीं देखा. इस तप के योग्य फल क्या चार फल अर्थात अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष कभी हो सकते हैं? पर्वतराजकुमारी उमा क्या चाहती हैं, जाना नहीं जाता और न वे कुछ कहती ही हैं. तब शशिशेखर श्रीमहादेव जी ब्रह्मचारी का वेश बना उनके प्रेम, कठोर नियम, प्रतिज्ञा और दृढ संकल्प की परीक्षा करने के लिए गए. उन्होंने मन ही मन अपने को पार्वती जी के हाथों में सौंप दिया और पार्वती जी से समधुर वचन कहने लगे.


देखि दसा करुनाकर हर दुख पायउ ।

मोर कठोर सुभाय ह्रदयँ अस आयउ ।।41।।

बंस प्रसंसि मातु पितु कहि सब लायक ।

अमिय बचनु बटु बोलेउ अति सुख दायक ।।42।।

अर्थ

उस समय पार्वती जी की दशा देखकर दयानिधान शिवजी दुखी हो गए और उनके ह्रदय में यह आया कि मेरा स्वभाव बड़ा ही कठोर है. यही कारण है कि मेरी प्रसन्नता के लिए साधकों को इतना तप करना पड़ता है. तब वह ब्रह्मचारी पार्वती जी के वंश की प्रशंसा करके और उनके माता-पिता को सब प्रकार से योग्य कह अमृत के समान मीठे और सुखदायक वचन बोला.


देबि करौं कछु बिनती बिलगु न मानब ।

कहउँ सनेहँ सुभाय साँच जियँ जानब ।।43।।

जननि जगत जस प्रगटेहु मातु पिता कर ।

तीय रतन तुम उपजिहु भव रतनाकर ।।44।।

अर्थ

शिवजी ने कहा – “हे देवि ! मैं कुछ विनती करता हूँ, बुरा न मानना. मैं स्वाभाविक स्नेह से कहता हूँ, अपने जी में इसे सत्य जानना. तुमने संसार में प्रकट होकर अपने माता-पिता का यश प्रसिद्द कर दिया. तुम संसार समुद्र में स्त्रियों के बीच रत्न-सदृश उत्पन्न हुई हो”.


अगम न कछु जग तुम कहँ मोहि अस सूझइ ।

बिनु कामना कलेस कलेस न बूझइ ।।45।।

जौ बर लागि करहु तप तौ लरिकाइअ ।

पारस जौ घर मिलै तौ मेरु कि जाइअ ।।46।।

अर्थ

“मुझे ऐसा जान पड़ता है कि संसार में तुम्हारे लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है. यह भी सच है कि निष्काम तपस्या में क्लेश नहीं जान पड़ता. परन्तु यदि तुम वर के लिए तप करती हो तो यह तुम्हारा लड़कपन है, क्योंकि यदि घर में पारसमणि मिल जाए तो क्या कोई सुमेरु पर जाएगा?


मोरें जान कलेस करिअ बिनु काजहि ।

सुधा कि रोगिहि चाहइ रतन की राजहि ।।47।।

लखि न परेउ तप कारन बटु हियँ हारेउ ।

सुनि प्रिय बचन सखी मुख गौरि निहारेउ ।।48।।

अर्थ

“हमारी समझ से तो तुम बिना प्रयोजन ही क्लेश उठाती हो. अमृत क्या रोगी को चाहता है और रत्न क्या राजा की कामना करता है?” इस ब्रह्मचारी को आपके तप का कोई कारण समझ नहीं आया, यह सोचते-सोचते अपने ह्रदय में हार गया है, इस प्रकार उसके प्रिय वचन सुनकर पार्वती ने सखी के मुख की ओर देखा.


गौरीं निहारेउ सखी मुख रुख पाइ तेहिं कारन कहा ।

तपु करहिं हर हितु सुनि बिहँसि बटु कहत मुरुखाई महा ।।

जेहिं दीन्ह अस उपदेस बरेदु कलेस करि बरु बावरो ।

हित लागि कहौं सुभायँ सो बड़ बिषम बैरी रावरो ।।6।।

अर्थ

पार्वती जी ने सखी के मुख की ओर देखा तब सखी ने उनकी अनुमति जानकर उनके तप का कारण यह बतलाया कि वे शिवजी के लिए तपस्या करती हैं. यह सुनकर ब्रह्मचारी ने हँसकर कहा कि “यह तो तुम्हारी महान मूर्खता है”. जिसने तुम्हें ऐसा उपदेश दिया है कि जिसके कारण तुमने इतना क्लेश उठाकर बावले वर का वरण किया है, मैं तुम्हारी भलाई के लिए सद्भाववश कहता हूँ कि वह तुम्हारा घोर शत्रु है.


कहहु काह सुनि रीझिहु बर अकुलीनहिं ।

अगुन अमान अजाति मातु पितु हीनहिं ।।49।।

भीख मागि भव खाहिं चिता नित सोवहिं ।

नाचहिं नगन पिसाच पिसाचिनि जोवहिं ।।50।।

अर्थ

“अच्छा यह तो बताओ कि क्या सुनकर तुम ऐसे कुलहीन वर पर रीझ गई, जो गुणरहित, प्रतिष्ठा रहित, जाती रहित और माता-पिता रहित है. वे शिवजी तो भीख माँगकर खाते हैं, नित्य श्मशान में चिता भस्म पर सोते हैं, नग्न होकर नाचते हैं और पिशाच-पिशाचिनी इनके दर्शन किया करते हैं”.


भाँग धतूर अहार छार लपटावहिं ।

जोगी जटिल सरोष भोग नहिं भावहिं ।।51।।

सुमुखि सुलोचनि हर मुख पंच तिलोचन ।

बामदेव फुर नाम काम मद मोचन ।।52।।

अर्थ

“भाँग-धतूरा ही इनका भोजन है, ये शरीर में राख लपटाये रहते हैं. ये योगी, जटाधारी और क्रोधी हैं, इन्हें भोग अच्छे नहीं लगते”. तुम सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रों वाली हो, किन्तु शिवजी के तो पाँच मुख और तीन आँखें हैं. उनका वामदेव नाम यथार्थ ही है. वे कामदेव के मद को चूर करने वाले अर्थात काम-विजयी हैं.


एकउ हरहिं न बर गुन कोटिक दूषन ।

नर कपाल गज खाल ब्याल बिष भूषन ।।53।।

कहँ राउर गुन सील सरूप सुहावन ।

कहाँ अमंगल बेषु बिसेषु भयावन ।।54।।

अर्थ

“शंकर में एक भी श्रेष्ठ गुण नहीं है वरण करोडो दूषण हैं. वे नरमुंड और हाथी के खाल को धारण करने वाले तथा साँप और विषय से विभूषित हैं.” कहाँ तो तुम्हारा गुण, शील और शोभायमान स्वरुप और कहाँ शंकर का अमंगल वेश, जो अत्यंत भयानक है.


जो सोचइ ससि कलहि सो सोचइ रौरेहि ।

कहा मोर मन धरि न बिरय बर बौरेहि ।।55।।

हिए हेरि हठ तजहु हठै दुख पैहहु ।

ब्याह समय सिख मोरि समुझि पछितैहहु ।।56।।

अर्थ

“जो शंकर शशि कला की चिन्ता में रहते हैं, वे क्या तुम्हारा ध्यान रखेंगे? मेरे कहे हुए वचनों को हृदय में धारण कर तुम बावले वर को न वरना.” अपने हृदय में विचारकर हठ त्याग दो, हठ करने से तुम दुख ही पाओगी और ब्याह के समय हमारी शिक्षा को याद कर्-कर के पछताओगी.


पछिताब भूत पिसाच प्रेत जनेत ऎहैं साजि कै ।

जम धार सरिस निहारि सब नर्-नारि चलिहहिं भाजि कै ।।

गज अजिन दिब्य दुकूल जोरत सखी हँसि मुख मोरि कै ।

कोउ प्रगट कोउ हियँ कहिहि मिलवत अमिय माहुर घोरि कै ।।7।।

अर्थ

“जिस समय वे भूत-पिशाच और प्रेतों की बरात सजाकर आएंगे” तब तुम्हें पछताना पडे़गा. उस बरात को यमदूतों की सेना के समान देखकर स्त्री-पुरुष सब भाग चलेंगे. ग्रंथि बन्धन के समय अत्यन्त सुन्दर रेशमी वस्त्र को हाथी के चर्म के साथ जोड़ते हुए सखियाँ मुँह फेरकर हँसेगीं और कोई प्रकट एवं कोई हृदय में ही कहेगी कि अमृत और विष को घोलकर मिलाया जा रहा है.


तुमहि सहित असवार बसहँ जब होइहहिं ।

निरखि नगर नर नारि बिहँसि मुख गोइहहिं ।।57।।

बटु करि कोटि कुतरक जथा रुचि बोलइ ।।

अचल सुता मनु अचल बयारि कि डोलइ ।।58।।

अर्थ

“जब तुम्हारे साथ शिवजी बैल पर सवार होंगे, तब नगर के स्त्री-पुरुष देखकर हँसते हुए अपने मुख छिपा लेंगे.” इसी प्रकार अनेकों कुतर्क करके ब्रह्मचारी इच्छानुसार बोल रहा था, परंतु पर्वत की पुत्री का मन डिगा नहीं, भला कहीं हवा से पर्वत डोल सकता है?


साँच सनेह साँच रुचि जो हठि फेरइ ।

सावन सरिस सिंधु रुख सूप सो घेरइ ।।59।।

मनि बिनु फनि जल हीन मीन तनु त्यागइ ।

सो कि दोष गुन गनइ जो जेहि अनुरागइ ।।60।।

अर्थ

जो सत्य स्नेह और सच्ची रुचि को फेरना चाहता है, वह तो मानो सावन के महीने में नदी के प्रवाह को समुद्र की ओर सूप से घुमाने की चेष्टा करता है. मणि के बिना सर्प और जल के बिना मछली शरीर त्याग देती है, ऎसे ही जो जिसके साथ प्रेम करता है, वह क्या उसके दोष्-गुण का विचार करता है?


करन कटुक चटु बचन बिसिष सम हिय हए ।

अरुन नयन चढ़ि भृकुटि अधर फरकत भए ।।61।।

बोली फिर लखि सखिहि काँपु तन थर थर ।

आलि बिदा करु बटुहि बेगि बड़ बरबर ।।62।।

अर्थ

ब्रह्मचारी के कर्ण कटु चाटु वचनों ने पार्वती जी के हृदय में तीर के समान आघात किया. उनकी आँखें लाल हो गई, भृकुटियाँ तन गई और होंठ फड़कने लगे. उनका शरीर थर-थर कांपने लगा. फिर उन्होंने सखी की ओर देखकर कहा – “अरि आली ! इस ब्रह्मचारी को शीघ्र बिदा करो, यह तो बड़ा ही अशिष्ट है.”


कहुँ तिय होहिं सयानि सुनहिं सिख राउरि ।

बौरेहि कैं अनुराग भइउँ बड़ि बाउरि ।।63।।

दोष निधान इसानु सत्य सबु भाषेउ ।

मेटि को सकइ सो आँकु जो बिधि लिखि राखेउ ।।64।।

अर्थ

फिर ब्रह्मचारी को संबोधित करके कहने लगी – “कहीं कोई चतुर स्त्रियाँ होंगी, वे आपकी शिक्षा सुनेगी, मैं तो बावले के प्रेम में ही अत्यन्त बावली हो गई हूँ”. आपने जो कहा कि महादेवजी दोषनिधान हैं, सो सत्य ही कहा है परंतु विधाता ने जो अंक लिख रखें हैं, उन्हें कौन मिटा सकता है?


को करि बादु बिबादु बिषादु बढ़ावइ ।

मीठ काहि कबि कहहिं जाहि जोइ भावइ ।।65।।

भइ बड़ि बार आलि कहुँ काज सिधारहिं ।

बकि जनि उठहिं बहोरि कुजुगति सवाँरहिं ।।66।।

अर्थ

“वाद-विवाद करके कौन दु:ख बढ़ाए? कवि किसको मीठा कहते हैं? जिसको जो अच्छा लगता है.” भाव यह है कि जिसको जो अच्छा लगे, उसके लिए वही मीठा है. फिर सखी से बोली – हे सखी ! इनसे कहो बहुत देर हो गई है, अब अपने काम के लिए कहीं जाएँ. देखो, किसी कुयुक्ति को रचकर फिर कुछ न बक उठे.


जनि कहहिं कछु बिपरीत जानत प्रीति रीति न बात की ।

सिव साधु निंदकु मंद अति जोउ सुनै सोउ बड़ पातकी ।।

सुनि बचन सोधि सनेहु तुलसी साँच अबिचल पावनो ।

भए प्रगट करुनासिंधु संकरु भाल चंद सुहावनो ।।8।।

अर्थ

“ये प्रीति की तो क्या, बात करने की रीति भी नहीं जानते, अतएव कोई विपरीत बात फिर न कहें. शिवजी और साधुओं की निन्दा करने वाले अत्यंत मन्द अर्थात नीच होते हैं, उस निन्दा को जो कोई सुनता है, वह भी बड़ा पापी होता है.” गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि इस वचन को सुन उनका सत्य, दृढ़ और पवित्र प्रेम जानकर करुणासिन्धु श्रीमहादेवजी प्रकट हो गए, उनके ललाट में चंद्रमा शोभायमान हो रहा था.


सुंदर गौर सरीर भूति भलि सोहइ ।

लोचन भाल बिसाल बदनु मन मोहइ ।।67।।

सैल कुमारि निहारि मनोहर मूरति ।

सजल नयन हियँ हरषु पुलक तन पूरति ।।68।।

अर्थ

उनके कमनीय गौर शरीर पर विभूति अत्यन्त शोभित हो रही थी, उनके नेत्र और ललाट विशाल थे तथा मुख मन को मोहित किए लेता था. उनकी मनोहर मूर्ति को निहारकर शैलकुमारी पार्वती जी के नेत्रों में जल भर आया. हृदय में आनन्द छा गया और शरीर पुलकावली से व्याप्त हो गया.


पुनि पुनि करै प्रनामु न आवत कछु कहि ।

देखौं सपन कि सौतुख ससि सेखर सहि ।।69।।

जैसें जनम दरिद्र महामनि पावइ ।

पेखत प्रगट प्रभाउ प्रतीति न आवइ ।।70।।

अर्थ

वे बारंबार प्रणाम करने लगी. उनसे कुछ कहते नहीं बनता था. वे मन ही मन विचारती हैं कि मैं स्वप्न देख रही हूँ या सचमुच सामने शिवजी का दर्शन कर रही हूँ. जिस प्रकार जन्म का दरिद्री महामणि पारस को पा जाए और उसके प्रभाव को साक्षात देखते हुए भी उसमें विश्वास न हो, उसी प्रकार यद्यपि पार्वती जी महादेव जी को नेत्रों के सामने देखती हैं तो भी उन्हें प्रतीति नहीं होती.


सुफल मनोरथ भयउ गौरि सोहइ सुठि ।

घर ते खेलन मनहुँ अबहिं आई उठि ।।71।।

देखि रूप अनुराग महेस भए बस ।

कहत बचन जनु सानि सनेह सुधा रस ।।72।।

अर्थ

पार्वती जी का मनोरथ सफल हो गया, इससे वे और भी सुहावनी लगती हैं. जान पड़ता है कि मानो खेलने के लिए वे अभी घर से उठकर आयी हों. उनकी देह में तप का क्लेश और कृशता आदि कुछ भी लक्षित नहीं होता. पार्वती जी के रूप और अनुराग को देखकर महादेव जी उनके वश में हो गए और मानो प्रेमामृत में सानकर वचन बोले.


हमहि आजु लगि कनउड़ काहुँ न कीन्हेउँ ।

पारबती तप प्रेम मोल मोहि लीन्हेउँ ।।73।।

अब जो कहहु सो करउँ बिलंबु न एहिं घरी ।

सुनि महेस मृदु बचन पुलकि पायन्ह परी ।।74।।

अर्थ

शिवजी कहते हैं कि “हमको आज तक किसी ने कृतज्ञ नहीं बनाया, परंतु हे पार्वती ! तुमने तो अपने तप और प्रेम से मुझे मोल ले लिया. अब तुम जो कहो, मैं इसी क्षण वही करुँगा, विलंब नहीं होने दूँगा”. शिवजी के ऎसे कोमल वचन सुनकर पार्वती जी पुलकित हो उनके पैरों पर गिर पड़ी.


परि पायँ सखि मुख कहि जनायो आपु बाप अधीनता

परितोषि गरिजहि चले बरनत प्रीति नीति प्रबीनता ।।

हर हृदयँ धरि घर गौरि गवनी कीन्ह बिधि मन भावनो ।

आनंदु प्रेम समाजु मंगल गान बाजु बधावनो ।।9।।

अर्थ

पार्वती जी ने उनके पैरों पड़कर सखी के द्वारा अपना पिता के अधीन होना सूचित किया, तब शिवजी उनका परितोष करके उनकी प्रीति एवं नीतिनिपुणता का वर्णन करते चले गए. इधर पार्वती जी भी शिवजी को हृदय में धारण कर घर चली गईं. विधाता ने सब कुछ उनके मन के अनुकूल कर दिया. फिर तो आनन्द और प्रेम का समाज जुट गया, मंगलगान होने लगा और बधावा बजने लगा.


सिव सुमिरे मुनि सात आइ सिर नाइन्हि ।

कीन्ह संभु सनमानु जन्म फल पाइन्हि ।।76।।

सुमिरहिं सकृत तुम्हहि जन तेइ सुकृति बर ।

नाथ जिन्हहि सुधि करिअ तिनहिं सम तेइ हर ।।76।।

अर्थ

तब शिवजी ने सप्तर्षियों (कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, विश्वामित्र, वसिष्ठ, भरद्वाज और गौतम्) को स्मरण किया. उन्होंने आकर शिवजी को सिर नवाया. शिवजी ने उनका सम्मान किया और उन्होंने भी शिवजी का दर्शन करके जन्म का फल पा लिया. सप्तर्षियों ने कहा कि “जो लोग एक बार भी आपका स्मरण कर लेते हैं, वे ही पुण्यात्माओं में श्रेष्ठ हैं.” हे नाथ ! हे हर ! फिर जिसे आप स्मरण करें, उसके समान तो वही है.


सुनि मुनि बिनय महेस परम सुख पायउ ।

कथा प्रसंग मुनीसन्ह सकल सुनायउ ।।77।।

जाहु हिमाचल गेह प्रसंग चलायहु ।

जौं मन मान तुम्हार तौ लगन धरायहु ।।78।।

अर्थ

मुनियों की विनय सुनकर शिवजी जी ने परम सुख प्राप्त किया और उन मुनीश्वरों को सब कथा का प्रसंग सुनाया. और कहा कि “तुम लोग हिमाचल के घर जाओ और इसकी चर्चा चलाकर यदि जँच जाय तो लग्न धरा आना”.


अरुंधती मिलि मनहिं बात चलाइहि ।

नारि कुसल इहिं काजु बनि आइहि ।।79।।

दुलहिनि उमा ईसु बरु साधक ए मुनि ।

बनिहि अवसि यहु काजु गगन भइ अस धुनि ।।80।।

अर्थ

इसी अवसर आकाशवाणी हुई कि वसिष्ठ पत्नी अरुन्धती मैना से मिलकर बात चलाएंगी. स्त्रियाँ इस काम में कुशल होती हैं, अत: काम बन जाएगा. उमा (पार्वती जी) दुलहन हैं और शिवजी दुलहा हैं. ये मुनि लोग साधक हैं, अत: यह काम अवश्य बन जाएगा.


भयउ अकनि आनंद महेस मुनीसन्ह ।

देहिं सुलोचनि सगुन कलस लिएँ सीसन्ह ।।81।।

सिव सो कहेउ दिन ठाउँ बहोरि मिलनु जहँ ।

चले मुदित मुनिराज गए गिरिबर पहँ ।।82।।

अर्थ

शिवजी और मुनियों को आकाशवाणी सुनने से आनंद हुआ. सुंदर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ सिर पर कलश लिए शुभ शकुन सूचित करती हैं. शिवजी ने महर्षियों को वह दिन और स्थान बतलाया, जहाँ फिर मिलना हो सकता है तब वे मुनिश्रेष्ठ आनन्द होकर गिरिराज हिमवान के पास चलकर पहुँचे.


गिरि गेह गे अति नेहँ आदर पूजि पहुँनाई करी ।

घरवात घरनि समेत कन्या आनि सब आगें धरी ।।

सुखु पाइ बात चलाइ सुदिन सोधाइ गिरिहि सिखाइ कै ।

रिषि सात प्रातहिं चले प्रमुदित ललित लगन लिखाइ कै ।।10।।

अर्थ

जब सप्तर्षि हिमवान के घर गए तब हिमवान ने स्नेह एवं आदरपूर्वक पूजकर उनकी पहुनाई की और पत्नी एवं कन्या सहित घर की सारी सामग्री लाकर उनके आगे रख दी. तब पूजा आदि से आनन्दित हो विवाह की बात चली और हिमवान को समझाकर शुभ दिन शोधन करा प्रात:काल ही सातों ऋषि सुन्दर लग्न लिखवाकर आनन्दपूर्वक वहाँ से चले.


बिप्र बृंद सनमानि पूजि कुल गुर सुर ।

परेउ निसानहिं घाउ चाउ चहुँ दिसि पुर ।।83।।

गिरि बन सरित सिंधु सर सुनइ जो पायउ ।

सब कहँ गिरिबर नायक नेवत पठायउ ।।84।।

अर्थ

हिमवान ने ब्राह्मणों का सम्मान करके कुलगुरु और देवताओं की पूजा की. नगाड़ों पर चोट पड़ने लगी और नगर में चारों ओर उमंग छा गयी. पर्वत, वन, नदी, समुद्र और सरोवर जिन-जिनके विषय में सुना उन सभी को सभी श्रेष्ठ पर्वतों के नायक हिमाचल ने न्योता भेज दिया.


धरि धरि सुंदर बेष चले हरषित हिएँ ।

चवँर चीर उपहार हार मनि गन लिएँ ।।85।।

कहेउ हरषि हिमवान बितान बनावन ।

हरषित लगीं सुआसिनि मंगल गावन ।।86।।

अर्थ

वे सब के सब सुन्दर वेष बना-बनाकर उपहार के लिए चँवर, वस्त्र, हार और मणिगण लिए हृदय में हर्षित हो चले. हिमवान ने प्रमुदित होकर कुशल कारीगरों को मण्डप बनाने की आज्ञा दी और विवाहिता लड़कियाँ मंगल गान करने लगीं.


तोरन कलस चँवर धुज बिबिध बनाइन्हि ।

हाट पटोरन्हि छाय सफल तरु लाइन्हि ।।87।।

गौरी नैहर केहि बिधि कहहु बखानिय ।

जनु रितुराज मनोज राज रजधानिय ।।88।।

अर्थ

अनेक प्रकार के बंदनवार, कलश, चँवर और ध्वजा-पताकाएँ बनायी गयीं, बाजार को रेशमी वस्त्रों से छाकर (बीच्-बीच) में फलयुक्त वृक्ष लगाए गये. पार्वती जी के नैहर का कहिए, किस प्रकार वर्णन किया जाए! वह तो मानो वसन्त और कामदेव के राज्य की राजधानी ही थी.


जनु राजधानी मदन की बिरची चतुर बिधि और हीं ।

रचना बिचित्र बिलोकि लोचन बिथकि ठौरहिं ठौर हीं ।।

एहि भाँति ब्याह समाज सजि गिरिराजु मगु जोवन लगे ।

तुलसी लगन लै दीन्ह मुनिन्ह महेस आनँद रँग मगे ।।11।।

अर्थ

मानो चतुर विधाता ने कामदेव की राजधानी को और ही अलौकिक ढ़ंग से रचा है. उसकी विचित्र रचना को देखकर नेत्र जहाँ जाते हैं, वहीं ठिठककर रह जाते हैं. इस प्रकार विवाह का साज सजाकर हिमवान बरात का रास्ता देखने लगे. गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मुनियों ने शिवजी को लग्न पत्रिका लेकर दी. इससे शिवजी आनन्दोत्सव में मग्न हो गए.


बेगि बोलाइ बिरंचि बचाइ लगन जब ।

कहेन्हि बिआहन चलहु बुलाइ अमर सब ।।89।।

बिधि पठए जहँ तहँ सब सिव गन धावन ।

सुनि हरषहिं सुर कहहिं निसान बजावन ।।90।।

अर्थ

शिवजी ने तुरंत ही ब्रह्माजी को बुलवाकर जब लग्न पत्रिका पढ़वायी तब उन्होंने कहा कि “सब देवताओं को बुलवाकर विवाह के लिए चलो”. ब्रह्मा ने जहाँ-तहाँ शिवजी के गणों को धावन (दूत) बनाकर भेजा”. यह समाचार सुनकर देवता लोग प्रसन्न हुए और नगाड़े बजाने को कहने लगे.


रचहिं बिमान बनाइ सगुन पावहिं भले ।

निज निज साजु समाजु साजि सुरगन चले ।।91।।

मुदित सकल सिव दूत भूत गन गाजहिं ।

सूकर महिष स्वान खर बाहन साजहिं ।।92।।

अर्थ

वे सँवारकर विमानों को सजाने लगे. उस समय अच्छे-अच्छे शकुन होने लगे. इस प्रकार अपने-अपने साज्-समाज को सजाकर देवता लोग चल दिये. शिवजी के समस्त दूत और भूतगण अत्यन्त आनन्दित होकर गरज रहे हैं और सुअर, भैंसे, कुत्ते, गधे आदि अपने-अपने वाहनों को सजाते हैं.


नाचहिं नाना रंग तरंग बढ़ावहिं ।

अज उलूक बृक नाद गीत गन गावहिं ।।93।।

रमानाथ सुरनाथ साथ सब सुर गन ।

आए जहँ बिधि संभु देखि हरषे मन ।।94।।

अर्थ

वे अनेक प्रकार से नाचते हैं और आनन्द की उमंग को और भी बढ़ाते हैं. बकरे, उल्लू, भेड़िए शब्द कर रहे हैं और शिवजी के गण गीत गाते हैं. इसी समय लक्ष्मीपति भगवान विष्णु और देवराज इन्द्र समस्त देवताओं के साथ जहाँ ब्रह्माजी एवं शंकरजी थे, वहाँ आए और उन्हें देखकर अपने मन में बहुत प्रसन्न हुए.


मिले हरिहिं हरु हरषि सुभाषि सुरेसहि ।

सुर निहारि सनमानेउ मोद महेसहि ।।95।।

बहु बिधि बाहन जान बिमान बिराजहिं ।

चली बरात निसान गहागह बाजहिं ।।96।।

अर्थ

देवराज इन्द्र से मधुर वचन कहकर श्रीमहादेव जी प्रसन्न हो श्रीविष्णु भगवान से मिले और देवताओं की ओर देखकर उन्हें सम्मानित किया. इससे शिवजी को बड़ा आनन्द हुआ. उस समय बहुत प्रकार से वाहन, यान और विमान शोभायमान हो रहे थे. फिर बरात चली और धड़ाधड़ नगाड़े बजने लगे.


बाजहिं निसान सुगान नभ चढ़ि बसह बिधुभूषन चले ।

बरषहिं सुमन जय जय करहिं सुर सगुन सुभ मंगल भले ।।

तुलसी बराती भूत प्रेत पिसाच पसुपति सँग लसे ।

गज छाल ब्याल कपाल माल बिलोकि बर सुर हरि हँसे ।।12।।

अर्थ

आकाश में नगाड़े बजने लगे और गाने का मधुर शब्द होने लगा. शिवजी बैल पर चढ़कर चले. देवता लोग जय-जयकार करने लगे और फूल बरसाने लगे तथा शुभसूचक अच्छे-अच्छे शकुन होने लगे. गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि महादेव जी के साथ भूत, प्रेत, पिशाच – ये ही बरातियों के रूप में शोभायमान हो रहे थे. उस समय वर को गज-चर्म, सर्प और मुण्डमाला से विभूषित देखकर देवता लोग और विष्णु भगवान हँसने लगे.


बिबुध बोलि हरि कहेउ निकट पुर आयउ ।

आपन आपन साज सबहिं बिलगायउ ।।97।।

प्रमथनाथ के साथ प्रमथ गन राजहिं ।

बिबिध भाँति मुख बाहन बेष बिराजहिं ।।98।।

अर्थ

भगवान ने देवताओं को बुलाकर कहा कि “अब नगर निकट आ गया है, अत: सब लोग अपने-अपने समाज को अलग-अलग कर लो.” इस समय भूतनाथ के साथ भूतगण शोभायमान हैं, जो अनेक प्रकार के मुख, वेष और वाहनों से विराजमान हो रहे हैं.


कमठ खपर मढि खाल निसान बजावहिं ।

नर कपाल जल भरि-भरि पिअहिं पिआवहिं ।।99।।

बर अनुहरत बरात बनी हरि हँसि कहा ।

सुनि हियँ हँसत महेस केलि कौतुक महा ।।100।।

अर्थ

वे कछुओं के खपड़े को खाल से मँढ़कर उन्हीं को नगाड़ों के रूप में बजाते हैं और मनुष्यों की खोपड़ी में जल भर-भरकर पीते और पिलाते हैं. तब भगवान विष्णु ने हँसकर कहा कि दुलहे के योग्य ही बरात बनी है, यह सुनकर शिवजी हृदय में हँसते हैं. इस प्रकार खूब क्रीड़ा-कौतुक हो रहा है.


बड़ बिनोद मग मोद न कछु कहि आवत ।

जाइ नगर नियरानि बरात बजावत ।।101।।

पुर खरभर उर हरषेउ अचल अखंडलु ।

परब उदधि उमगेउ जनु लखि बिधु मंडलु ।।102।।

अर्थ

मार्ग में बड़ा विनोद हो रहा है, उस समय का आनन्द कुछ कहने में नहीं आता. बरात बाजे बजाती हुई नगर के निकट पहुँच गई. नगर में खलबली पड़ गई और संपूर्ण हिमाचल पर्वत हृदय में आनंदित हो गया, मानो पूर्णिमा के समय चन्द्रमण्डल को देखकर समुद्र उमड़ गया हो.


प्रमुदित गे अगवान बिलोकि बरातहि ।

भभरे बनइ न रहत न बनइ परातहि ।।103।।

चले भाजि गज बाजि फिरहिं नहिं फेरत ।

बालक भभरि भुलान फिरहिं घर हेरत ।।104।।

अर्थ

स्वागत करने वाले प्रसन्न होकर आगे गए परंतु बरात देखकर घबरा गए. उस समय उनसे न तो रहते बनता था और न भागते ही. हाथी, घोड़े भाग चले, वे लौटाने से भी नहीं लौटते, बालक भी घबराहट के मारे भटक गये, वे घर खोजते फिरते हैं.


दीन्ह जाइ जनवास सुपास किए सब ।

घर घर बालक बात कहन लागे तब ।।105।।

प्रेत बेताल बराती भूत भयानक ।

बरद चढ़ा बर बाउर सबइ सुबानक ।।106।।

अर्थ

अगवानों ने बरातियों को जनवासा दिया और सब प्रकार के सुपास (ठहरने के लिए स्थान) की व्यवस्था कर दी, तब सब बालक घर्-घर पहुँचकर कहने लगे – “प्रेत, बेताल और भयंकर भूत बराती हैं तथा बावला वर बैल पर सवार है. इस प्रकार सभी बानक दुलहे के योग्य ही बना है अर्थात सारा साज्-समाज ही विपरीत है.


कुसल करइ करतार कहहिं हम साँचिअ ।

देखब कोटि बिआह जिअत जौं बाँचिअ ।।107।।

समाचार सुनि सोचु भयउ मन मयनहिं ।

नारद के उपदेस कवन घर गे नहिं ।।108।।

अर्थ

“हम सत्य कहते हैं – ईश्वर कुशल करें, जो जीते बच गए तो करोड़ों ब्याह देखेंगे.” इस समाचार को सुनकर मैना के मन में बड़ा सोच हुआ. वे कहने लगीं कि नारद के उपदेस से कौन घर नष्ट नहीं हुआ.


घर घाल चालक कलह प्रिय कहियत परम परमारथी ।

तैसी बरेखी कीन्हि पुनि मुनि सात स्वारथ सारथी ।।

उर लाइ उमहि अनेक बिधि जलपति जननि दुख मानई ।

हिमवान कहेउ इसान महिमा अगम निगम न जानई ।।13।।

अर्थ

“नारदजी को कहते तो परम परोपकारी हैं परंतु ये हैं घर को नष्ट करने वाले, धूर्त्त और कलहप्रिय. सप्तर्षियों ने विवाह-संबंधी बातचीत भी वैसी ही की, वे भी पूरे स्वार्थसाधक ही निकले”. इस प्रकार माता मैना, पार्वती जी को हृदय से लगाकर अनेक प्रकार की कल्पना करने लगी और अत्यन्त दु:ख माने लगी तब हिमवान ने कहा कि शिवजी की महिमा अगम्य है, उसे वेद भी नहीं जानता.


सुनि मैना भइ सुमन सखी देखन चली ।

जहँ तहँ चरचा चलइ हाट चौहट गली ।।109।।

श्रीपति सुरपति बिबुध बात सब सुनि सुनि ।

हँसहि कमल कर जोरि मोरि मुख पुनि पुनि ।।110।।

अर्थ

हिमवान के वचन सुनकर मैना का मन कुछ स्वस्थ हुआ अर्थात उसके मन में सान्त्वना हुई. उस समय जहाँ-तहाँ बाजार, चौक एवं गलियों में बरात की ही चर्चा चल रही थी. उसे सुन-सुनकर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु, देवराज इन्द्र तथा अन्य देवता लोग कमल के समान हाथों को जोड़कर अर्थात मुखमण्डल को हाथों से ढककर बार-बार मुँह फेरकर हँसते थे.


लखि लौकिक गति संभु जानि बड़ सोहर ।

भए सुंदर सत कोटि मनोज मनोहर ।।111।।