अष्टांगयोग
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महर्षि पतंजलि ने आठ अंगों की योग साधना का तरीका बताया है:-
- (१) यम - अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह.
- (२) नियम - शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान.
- (३) आसन - स्थिरता और सुख से बैठना.
- (४) प्रत्याहार - इन्द्रियों का अपने विषयों से प्रत्यावर्तन.
- (६) धारणा - चित्त को किसी भी स्थान में स्थिर करना.
- (७) ध्यान - किसी स्थान में ध्येय वस्तु का ज्ञान, जब एक ही प्रवाह में लगातार बहा जाय और किसी भी बार का या संसार का भान न रहे तो वह ध्यान कहलाता है, वह प्रवाह चाहे सांसारिक हो या ईश्वर की तरफ़.
- (८) समाधि - जब ध्यान अपना स्वरूप छोडकर ध्येय के रूप में भासित होता है, तब उसे समाधि कहा जाता है, समाधि की अवस्था में ध्यान और ध्याता का भान नही रहता है, केवल ध्येय रह जाता है, ध्येय के आकार को ही चित्त धारण कर लेता है और इस स्थिति में ध्यान, ध्याता और ध्येय एक ही रूप में प्रतीत होते हैं।
- अष्टांगयोग नामक दो ग्रन्थों का भी पता चलता है, एक श्री चरनदास रचित है, जो चरनदासी सम्प्रदाय के चलाने वाले थे, इस पंथ में योग की प्रधानता है, यद्यपि इस पंथ में राधा कृष्ण की उपासना ही करते है, रचनाकाल अठारहवीं सदी के आसपास का माना जाता है, दूसरा "अष्टांगयोग" गुरु नानक का रचा बताया जाता है, धारणा ध्यान और समाधि के इन तीन अंगो को संयम कहते है, इनमे सफ़ल होने पर प्रज्ञा का उदय होता है। (योगसूत्र)