सुमन राजे
डॉ॰ सुमन राजे | |
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जन्म | साँचा:br separated entries |
मृत्यु | साँचा:br separated entries |
मृत्यु स्थान/समाधि | साँचा:br separated entries |
व्यवसाय | अध्यापन |
भाषा | हिन्दी |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
अवधि/काल | आधुनिक काल |
विधा | गद्य और पद्य |
साहित्यिक आन्दोलन | नारीवाद |
उल्लेखनीय कार्यs | हिंदी साहित्य का आधा इतिहास, साहित्येतिहास: संरचना और स्वरूप, |
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सुमन राजे (२३ अगस्त, १९३८ -- २६ दिसम्बर २००८) हिंदी साहित्य से जुड़ी लेखिका, कवयित्री, और इतिहासकार थीं।[१] 1979 में अज्ञेय जी द्वारा चौथा सप्तक में सम्पादित की गई जिसमें सात कवियों में अकेली कवियित्री रहीं।
सुमन राजे जी का जन्म उत्तर प्रदेश के लखनऊ जनपद में 22 अगस्त 1938 को हुआ था। आपकी माता का नाम श्रीमति प्रेम कुमारी सक्सेना और पिता श्री वीरेन्द्र कुमार सक्सेना थे। माता जी कुशल धार्मिक गृहणी एवं पिताजी शासकीय सेवा में कार्यरत थे। शासकीय सेवा के कारण आपके पिता का स्थानान्तरण होता रहता था और इसी कारण इनकी प्रारम्भिक से लेकर इण्टरमीडिएट की शिक्षा विभिन्न स्थानों पर हुई। तत्पश्चात् अपने स्नातक शिक्षा हेत महिला महाविद्यालय लखनऊ में प्रवेश लिया। इस अवधि में और लेखिका का जो बीज आपके अन्दर अंकुरित हो रहा था उसे लखनऊ में साहित्यिक परिवेश में मुखरित होने का अवसर प्राप्त हुआ। आपने महिला महाविद्यालय में आयोजित कहानी लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त किया और अपनी सजग साहित्यक यात्रा का सुभारम्भ किया।
स्नातक करने के पश्चात् आपने परास्नातक पाठ्यक्रम में अध्ययन हेतु हिन्दी विभाग, लखनऊ में प्रवेश लिया और विश्वविद्यालय में स्वर्ण पदक भी प्राप्त किया। इनका मौलिक शोध प्रबन्ध (हिन्दी रासो काव्य परम्परा) लखनऊ विश्वविद्यालय में 1964 में पीएचडी उपाधि के अर्न्तगत प्रस्तुत किया गया जो राजस्थान तथा उसके निकटवर्ती के क्षेत्रों से एकत्रित पाण्डुलिपियों पर आधारित था। इसके पश्चात् इनकी अध्ययन में रूचि बढ़ती ही गयी और इन्होंने 1971 में कानपुर विश्वविद्यालय से डी. लिट. की उपाधि प्राप्त की,[२] जो कानपुर विश्वविद्यालय की प्रथम डी. लिट. उपाधि थी। डी. लिट. में शोध विषय था, "मध्ययुगीन हिन्दी काव्यरूप : एक अध्ययन" । इसमें इन्होंने पूरे मध्ययुग को युगीन प्रवृत्तियों के आधार पर अध्ययन कर अपना शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया।
1956 में आपके पिता की मृत्यु कैंसर से हो गयी थी। 1968 में सुमन जी ने डॉ. वी. एन. सिंह के साथ गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया। पति-पत्नि के सम्बन्धों के माधुर्य से इनके लेखन को नवीन दिशा प्राप्त हुयी। पति का साथ और सहयोग हर पल इन्हें आगे बढ़ने की जिजीविषा प्रदान करता रहा। सुमन जी को दो पुत्रों की प्राप्ति हुई जिनमें बड़े जनमेजय सिंह और छोटे अरिन्दम सिंह है। इनका पूरा परिवार कानपुर में अपने पैतृक निवास में संयुक्त रूप से निवास करता है।
हृदय रोग से पीड़ित होने के कारण अन्तिम समय अस्पताल में बिताना पड़ा। २६ दिसम्बर २००८ को आपका निधन हो गया।
साहित्य रचना
सुमन राजे न केवल कवयित्री वरन एक इतिहासकार, अन्वेषक, दार्शनिक और समाजसुधारक भी थीं। सुमन जी ने अपनी कविताओं द्वारा समाज के प्रति अपने उद्गार प्रकट किए। कहीं अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष रही तो कहीं प्रेरणा का पुट सम्मिलित रहा। सुमन जी ने स्वयं माना है कि वास्तव में कविता मिट्टी खाकर मिट्टी रचती है। सपने खा कर सपने उगलती है … सुमन जी के इस कथन को उनकी रचनाएं प्रमाणित भी करती है।
आरंभिक रचनाओं के समय कवियित्री ग्रामीण परिवेश से घिरी थी। बाद में लखनऊ आ गई जिससे कविताओं में आंचलिकता के साथ बौद्धिकता का मिश्रण झलकता है। कविता में हृदय की तीव्र अनुभूतियों के साथ–साथ मस्तिषक की विचार रूपी लहरें भी समान रूप से विद्यमान है। रचना प्रक्रिया में इनमें टकराव नहीं है। सुमन जी का मानना है कि अकेले व्यक्ति के प्रयत्नों से न समाज को गति मिल सकती है और न ही जीवन सार्थक हो सकता है। हर युग में आवश्यकता होती है किसी न किसी रूप में एक क्रान्ति की।
सुमन जी के शब्द संसार में तत्सम, उर्दू, अंग्रेज़ी और देशज शब्दों के साथ शब्दों की नादात्मकता भी दिखाई देती है – प्रत्यंचा, आले, ग़ुबार, सीरीज़, ठनठना … साथ ही नए शब्द भी गढ़े है जैसे ज़ख्माते ..
प्रमुख कृतियाँ
आलोचना
- साहित्येतिहास : संरचना और स्वरूप
- साहित्येतिहास : आदिकाल
- काव्यरूप संरचना : उद्भव और विकास
- रचना की कार्यशाला
संपादित पाठ
- रेवातट
- आदिकालीन काव्यधारा
- अपभ्रंश पीठिका
- बीसवीं सदी का हिंदी महिला लेखन