खेल द्वारा शिक्षा
खेल, बच्चे की स्वाभाविक क्रिया है। भिन्न-भिन्न आयु वर्ग के बच्चे विभिन्न प्रकार के खेल खेलते हैं। ये विभिन्न प्रकार के खेल बच्चों के समपूर्ण विकास में सहायक होते हैं। खेल से बच्चों का शारीरिक विकास, संज्ञानात्मक विकास, संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास एवम् नैतिक विकास को बढ़ावा मिलता है किन्तु अभिभावकों की खेल के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति एवम् क्रियाकलाप ने बुरी तरह प्रभावित किया हैं। अतः यह अनिवार्य है कि शिक्षक और माता-पिता खेल के महत्व को समझें।
खेलों के प्रकारों में अन्वेषणात्मक खेल, संरचनात्मक खेल, काल्पनिक खेल और नियमबद्ध खेल शामिल हैं। खेलों में सांस्कृतिक विभिन्नताएं भी देखी जाती हैं।
खेल से मनुष्य की मनोवैज्ञानिक जरूरतें पूरी होती हैं तथा वह मनुष्य को सामाजिक कौशलों के विकास का भी अवसर देता है। पियाजे के अनुसार खेल बच्चों की मानसिक क्षमताओं के विकास में भी एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। पहले चरण में बच्चा वस्तुओं के साथ संवेदन प्राप्त करने व कार्य संचालन करने का प्रयास करता है। दूसरे चरण में बच्चा कल्पनाओं को रूप देने के लिए वस्तुओं को किसी के प्रतीक के रूप में उपयोग करने लगता है। अन्तिम चरण में (7 से 11 वर्ष) काल्पनिक भूमिकाओं के खेलों की तुलना में बच्चा नियमबद्ध खेल (या क्रीड़ाओं) में संलग्न रहता है। खेलों से तार्किक क्षमता व स्कूल सम्बन्धी कौशलों को विकसित होने में मदद मिलती है।
वाइगोत्स्की के अनुसार - जटिल भूमिकाओं वाले खेलों में बच्चों का अपने व्यवहार को संगठित करने का बेहतर व सुरक्षित अवसर मिलता है जो वास्तविक स्थितियों में नहीं मिलता। इस तरह खेल बच्चे के लिए निकट विकास का क्षेत्र बनाते है। स्कूली स्थिति की तुलना में खेल के दौरान बच्चों की एकाग्रता, स्मृति आदि उच्चतर स्तर पर काम करती हैं। खेल में बच्चे की नई विकासमान दक्षताएँ पहले उभर कर आती हैं। खेल-नाटकों में बच्चा अपने आन्तरिक विचार के अनुसार काम करता है और मूर्त रूप में दिखने वाली वस्तुओं से बँधा नहीं रहता। यहीं से उसमें अमूर्त चिन्तन व विचार करने की तैयारी होने लगती है। यह लेखन की भी तैयारी होती है क्योंकि लिखित रूप में शब्द वस्तु जैसा नहीं होता, उसके विचार का प्रतीक होता है।
जितनी उम्र तक खेल में जटिल और विस्तृत भूमिकाओं व भाषा का प्रयोग होता है वह बच्चे के विकास के लिए एक प्रमुख गतिविधि बना रहता है। यह स्थिति 10-11 साल तक के बच्चों में काम रह सकती है। धीरे-धीरे इसका महत्व कम होने लगता है। शिक्षक बच्चों को खेलने का पर्याप्त समय व साधन देकर विषयों का सुझाव देकर, झगड़ों का समाधान करके खेल को और समृद्ध बना सकते हैं।
बच्चा खेल क्यों खेलता है?
सभी बच्चे खेलते हैं। यदि बच्चे मिलकर चुपचाप बैठे रहें और कुछ भी न करें, तो क्या आपको आश्चर्य नहीं होगा। अगर कोई बालिका अकेली भी हो तब भी वह कुछ न कुछ खेलने के लिए ढूँढ ही लेती है। केवल बच्चे ही नहीं अपितु वयस्क भी खेलते हैं।
- कुछ उदाहरण
तीन वर्षीय अभिनव बगीचे में टहलते हुए पौधों में पानी देने वाली पाइप उठाता है। वह पाइप को जमीन से थोड़ा ऊपर उठा कर घास पर गिरते हुए पानी को ध्यान से देखता है। फिर वह पाइप के अंतिम छोर को एकाग्र होकर देखता है और उसमें अपनी अंगुली डाल देता है। इससे पानी चारों ओर फव्वारे की तरह गिरने लगता है। पाइप से निकलकर कुछ पानी उसके ऊपर और कुछ पौधों पर गिरता है। कुछ देर बाद अभिनव अपनी अंगुली बाहर निकालता है और फिर वापिस पाइप के मुँह में डाल देता है। अगले दस मिनट तक वह इसी क्रिया में तल्लीन रहता है।
पांच महीने की शशि जमीन पर बिछी चादर पर लेटी हुई है और अपनी टांगों और बाहों को मिला रही है। ऐसा करते हुए चादर का एक कोना उसके हाथ में आ जाता है। शशि उसे मुँह में डालने की कोशिश करती है। तभी माँ आकर उसके मुँह से चादर निकाल देती है और उसे खिलौना दे देती है। शशि उसे भी मुँह में डाल लेती है। फिर वह खिलौना हाथ से दबाती है। और पुनः मुँह में डालने की कोशिश करती है।
- खेल की विशेषताएँ
अगर किसी दर्शक से यह पूछा जाए कि उपर्युक्त भिन्न-भिन्न स्थितियों में बच्चे क्या कर रहे हैं तो शायद यही उत्तर मिलेगा कि, ‘‘वे खेल रहे हैं‘‘। दर्शकों में इस बात पर आम सहमति होती है कि कौन-सा कार्यकलाप खेल है और कौन-सा नहीं। परंतु जब खेल को परिभाषित करने के लिए कहा जाता है तो कोई भी विशेषज्ञ खेल की किसी एक परिभाषा पर सहमत नहीं होते। इस मतभेद के बावजूद भी खेल की कुछ विशेषताएँ होती हैं जिनके आधार पर खेल माने जाने वाले गतिविधियों को पहचानने में मदद मिलती है।
खेल की सबसे पहली विशेषता है कि खेल आमोद-प्रमोद है। खेल में मजा आता है। कोई भी ऐसा कार्यकलाप जिससे बच्चों को आनंद मिलता है, खेल है।
एक ही कार्यकलाप किसी के लिए खेल हो सकता है और वही दूसरे के लिए कार्य। उदाहरणतः जब बच्चे कक्षा में सिक्कों को पहचानना सीख रहे हैं तो वह कार्य कर रहे हैं। परन्तु जब वे सब्जी खरीदने और बेचने का खेल खेलते हैं और इस प्रक्रिया से स्वयं ही सिक्कों की पहचान करना सीख जाते हैं तब यह गतिविधि खेल बन जाती है।
दूसरा, खेल अपने आप में ही आनंददायक है। खेलने से बच्चों को बहुत संतोष मिलता है। जब बच्ची बार-बार सीढ़ी पर चढ़ती है और उससे कूदती है तो ऐसा वह इसलिए करती है क्योंकि उसे मजा आता है। न तो यह क्रिया वह अपना कौशल दिखाने के लिए कर रही है, न ही ईनाम पाने के लिए। आनंद के साथ-साथ ऐसा करते समय बालिका के शारीरिक और क्रियात्मक कौशलों का अनायास ही विकास हो रहा है जबकि यह उसका उद्देश्य नहीं है।
अंतिम बात, खेल ऐसी क्रिया है जिसमें बालिका स्वेच्छा और खुशी से हिस्सा लेती है अर्थात् खेलने के लिए उस पर दबाव नहीं डाला जाता है। खेल में उसका योगदान सक्रिय होता है।
वयस्क प्रायः ऐसा मानते हैं कि जब बच्चे खेल रहे हैं तो उस क्रिया के बारे में गंभीर नहीं होते। यह धारणा बिल्कुल गलत है। बच्चे अपने खेल को बहुत संजीदगी से लेते हैं। अगर उनके खेल में कोई व्यक्ति हस्तक्षेप करे या उसमें बदलाव करे, तो बच्चे इसे पसंद नहीं करते। बच्चों के अपनी खेल क्रियाओं के अलग नियम होते हैं।
शोधकर्ताओं ने यह जानने की कोशिश की है कि बच्चे और वयस्क अपना काफी समय खेल में क्यों व्यतीत करते हैं। इस बारे में अलग-अलग विचार हैं। कुछ शोधकर्ताओं के मतानुसार खेल और जीवन की समस्याओं और वास्तविकताओं से पलायन है और दुखों को भुलाने का एक माध्यम है। कुछ व्यक्ति खेल को एक विश्रामदायक क्रिया के रूप में भी देखते हैं। अन्य लोगों का दृष्टिकोण यह है कि खेल द्वारा हमारे शरीर की अतिरिक्त ऊर्जा खर्च होती है। बच्चों के खेल के बारे में एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण यह है कि इसके द्वारा बच्चे वयस्कों की भूमिका निभाने के लिए तैयार होते हैं।
सभी शोधकर्ता इस बात से सहमत हैं कि बच्चे खेल द्वारा बहुत कुछ सीखते हैं और खेल से विकास को गति मिलती है। अध्ययनों से यह प्रमाणित होता है कि जिन बच्चों को खेलने के अवसर और प्रेरणा नहीं मिलते वे विकास के हर क्षेत्र में पिछ़ड जाते हैं। अनाथालय और इसी प्रकार की संस्थाओं में रहने वाले बच्चों के अवलोकन द्वारा कुछ प्रमाण मिले हैं। इस प्रकार की सभी संस्थाएंँ बच्चों को भोजन, आश्रय, शारीरिक देखभाल, कपड़ा और शिक्षा प्रदान करती हैं। परन्तु शोध से यह पता चलता है कि अधिकतर मामलों में यह संस्थाएँ अनुकूलतम विकास के लिए उचित वातावरण प्रदान नहीं कर पाती। प्रायः एक ही पालनकर्ता बहुत सारे बच्चों की देखभाल करती है और इस कारण हर बच्चे को पर्याप्त समय नहीं दे पाती। वहाँ न तो शिशुओं से कोई अतिरिक्त बात करता है, न उन्हें दुलारता है और न ही कोई उनसे खेलता है। ऐसे मौकों पर कम से कम अंतःक्रिया होती है। ऐसी स्थिति में पालनकर्ता और बालिका में परस्पर स्नेह का अभाव रहता है और बालिका अपने आप को भावात्मक रूप से सुरक्षित महसूस नहीं कर पाती। ऐसी कई संस्थाओं में यह भी देखा गया कि शिशुओं को जिन पालनों में लिटाया गया था वे चारों ओर से कपड़े से ढका गया था जिसके कारण शिशु पालने के बाहर कुछ नहीं देख पाते थे। बच्चों के पास पालने से लटके खिलौनों के अतिरिक्त कोई खिलौने नहीं थे और यह खिलौने भी इतनी दूर लटके हुए थे कि बच्चे इन तक पहुँच नहीं पाते थे। बच्चों का सारा दिन पालने में पड़े-पड़े बीतता था और उन्हें कुछ नया देखने, सुनने या छूने को नहीं मिलता था। अवलोकन में यह पाया गया कि इन बच्चों की संज्ञानात्मक, भाषा संबंधी और शारीरिक विकास की गति अन्य बच्चों की तुलना में धीमी थी।
विकास में खेल का महत्व
खेल संज्ञानात्मक विकास को आगे बढ़ाता है
बच्चे जिज्ञासु प्रकृति के होते हैं। खेलते हुए बच्चों को वस्तुएँ छूने, उन्हें ध्यान से देखने और आसपास के वातावरण की छानबीन करने का मौका मिलता है और इससे उन्हें अपने मन में उठते हुए अनेक प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं। खेल क्रियाओं के माध्यम से वे आम घटनाओं के घटित होने के कारण भी समझने लगते हैं। बच्चों को इच्छानुसार खेलने के अवसर देने से हम उनकी सीखने में मदद करते हैं। खेल बच्चों को खोज करने और उसके द्वारा स्वयं सीखने का अवसर प्राप्त होता है। खोज का अर्थ है घटनाओं और वस्तुओं के बारे में स्वयं पता लगाना। आइए, इस तथ्य को हम राधा का उदाहरण लेकर समझें। निम्नलिखित घटना यह दर्शाती है कि किस प्रकार चार वर्षीय राधा ने खेल ही खेल में मिट्टी के बर्तन की विशेषताओं के बारे में जाना।
राधा दीवार के सहारे खड़ी सीढ़ी पर खेल रही थी। खेलते हुए उसने पास पड़ा एक मिट्टी का बर्तन देखा और उससे खेलने लगी। राधा उसमें मिट्टी भरती और फिर खाली कर देती। कुछ समय बाद उसने बर्तन को सीढ़ी के आखिरी कदम पर रखने की कोशिश की। बर्तन गिर कर टूट गया। उसने टूटे हुए टुकड़ों की ओर थोड़ी देर तक देखा। फिर उसने एक टुकड़ा उठाया और दोबारा सीढ़ी पर रख दिया। वह टुकड़ा भी गिर गया और उसके कई छोटे-छोटे टुकड़े हो गए। राधा ने इनमें से एक छोटे टुकड़े पर पुनः वह प्रयोग किया। इस बार जब टुकड़ा गिरा तो टूटा नहीं। राधा ने यह टुकड़ा उठाया, उसे थोड़ी देर ध्यान से देखा और फिर उसे फेंक कर वह घर के अंदर चली गई।
राधा ने कई बार टुकड़े को संतुलित करने की कोशिश की और उसे गिरते हुए देखा-इससे यह स्पष्ट होता है कि उसकी जिज्ञासा जागृत हो गई थी। शायद उसके मस्तिष्क में यह सवाल उठे हों,‘ ‘‘क्या वह टुकड़ा भी गिरेगा?‘‘ ‘‘अगर गिरा तो क्या यह भी टूट जाएगा?‘‘ और इसलिए उसने उस टुकड़े को बार-बार सीढ़ी पर स्थिर रखने की कोशिश की। जब तीसरी बार टुकड़ा नहीं टूटा तब वह उतनी ही उत्सुक थी। शायद अपने ही ढंग से वह यह समझ गई कि बहुत छोटा टुकड़ा नहीं टूटता है पर निश्चय ही वह यह जानने के लिए उत्सुक होगी। संभव है वह किसी से पूछे कि हर बार टुकड़े नीचे क्यों गिरे और टूट गए और आखिरी टुकड़ा क्यों नहीं टूटा? यह तो निश्चित है कि खेलों के दौरान उसे ऐसे ही कई अनुभव होंगे जो उसे यह समझाने में सहायक होंगे कि वस्तुओं के गिरने पर क्या होता है।
यह सत्य है कि अगर उस छोटे टुकड़े को जोर से फेंका जाए तो वह भी टूट जाएगा और हो सकता है एक बड़ा बच्चा यह कोशिश करके देखता। परन्तु राधा में अभी इस बात को समझने की क्षमता नहीं है और इस कारण उसने वह टुकड़ा ज़ोर से नहीं फेंका। इससे यह स्पष्ट होता है कि बालिका वही सीखती है जिसके लिए वह ज्ञानात्मक रूप से तैयार है। जैसा कि यह बात इस तथ्य से भी संबंधित है कि बालिका को जो प्रेरक लगता है वह उसके ज्ञानात्मक कौशलों पर निर्भर करता है।
खेल किस प्रकार विकास में सहायक होता है, अब इसके दूसरे मुद्दे पर विचार करें। खेल में बालिका को अपनी रूचि के अनुसार क्रियाएँ चुनने की स्वतंत्रता होती है इस कारण वह ऐसे खेल चुनती है जो उसके लिए न तो बहुत सरल हों न ही बहुत कठिन परन्तु चुनौतीपूर्ण हों। इस प्रकार वह उन चीजों को सीखती है जिन्हें सीखने के लिए वह तैयार होती हैं। इस प्रकार सीखने की प्रक्रिया बोझ न बनकर आनंददायक हो जाती है। साथ ही साथ बच्चे खेल में क्रियाकलाप द्वारा सीखते हैं। ऐसा करने से संकल्पनाओं को अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। यदि बच्चों को किसी संकल्पना के बारे में केवल मौखिक रूप में बताया जाए और स्वयं करने को मौका नहीं दिया जाए तो वह उसे इतनी अच्छी तरह नहीं समझ पाएंगे। यह बात आपने स्वयं अनुभव भी की होगी। उदाहरण के लिए अपने किसी मित्र के मुख से पकवान बनाने की विधि सुनकर उतना नहीं सीखा जा सकता जितना कि स्वयं पकवान बनाकर। उसी प्रकार अगर आपने राधा को केवल बताया ही होता कि मिट्टी से बना एक छोटा सा टुकड़ा गिरने पर नहीं टूटेगा तो यह लगभग निश्चित है कि राधा को यह बात समझ नहीं आती और वह इस जानकारी में रूचि भी नहीं लेती
पालनकर्ता की भूमिका
यह तथ्य कि ‘बच्चे कुछ करने से ही सीखते है‘ का अर्थ यह नहीं है कि पालनकर्ता की उसमें कोई भूमिका ही नहीं है। सबसे पहले पालनकर्ता की आवश्यकता इसलिए है कि वह बच्चों को उनकी खोज समझाने में मदद कर सके। शायद राधा यह समझ गई हो कि छोटे-टुकड़े नहीं टूटते हैं पर यह हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते। यह तो है ही कि ऐसे अन्य अवसर मिलने पर वह यह बात समझ जाएगी। परन्तु पालनकर्ता यह सीखने में उसकी मदद कर सकती है। उदाहरणतः अगर पालनकर्ता राधा के साथ होती तो वह राधा का ध्यान उन संभावनाओं की ओर केन्द्रित कर सकती थी जिसके बारे में राधा ने सोचा नहीं था। वह यह कह सकती थी कि, ‘‘राधा, क्या तुमने यह देखा कि बरतन तो टूट गया पर छोटे टुकड़े नहीं टूटे?‘‘
द्वितीय पालनकर्ता बच्चे की खोज को विस्तृत कर सकती है। वह राधा से नए प्रयोग करने को कह सकती थी जैसे कि, ‘‘राधा, अब इस छोटे टुकड़े को मुलायम सतह पर फेंको जैसे घास, रेत या पानी और देखो कि क्या होता है।‘‘ इससे यह प्रयोग अन्य खोज का कारण बनता, जैसे घास में मिट्टी का टुकड़ा नहीं टूटता इत्यादि। इसके साथ-साथ पालनकर्ता को चाहिए कि बच्चों को खोज के लिए अवसर प्रदान करे। बच्चे नया सीखते हैं जब उन्हें खेल सामग्री से खेलने दिया जाता है और स्वयं कुछ करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
अंत में, पालनकर्ता को सदैव इस बात की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए कि बच्चे स्वयं कुछ भी करें। उसे बच्चों के लिए ऐसी परिस्थितियों का आयोजन करना चाहिए जिनके द्वारा बच्चे नया सीख सकें। जब पालनकर्ता ऐसा कर रही हो तो उसे बच्चों की रूचि और संज्ञानात्मक विकास के स्तर को भी ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरणतः पानी से खेले जाने वाले खेलों को लीजिए। बच्चों को पानी से भरा बर्तन और कुछ अलग-अलग तरह की वस्तुएँ -जिसमें से कुछ पानी में तैरेंगे और कुछ डूबने वाली हों, दीजिए। जब बच्चे इन चीजों को पानी में डालेंगे तो वे देखेंगे कि कुछ जैसे-पत्ते, टहनियाँ और कागज के टुकड़े तो पानी के ऊपर तैरते हैं जबकि चम्मच, पत्थर आदि पानी में डूब जाते हैं। तत्पश्चात् आप बच्चों से इस विषय पर चर्चा कर सकते हैं कि क्यों कुछ वस्तुएँ डूब जाती हैं और कुछ क्यों तैरती रहती हैं।
इस प्रकार पालनकर्ता बच्चों को खेल के माध्यम से रंग, आकार, अंक, मौसम, विभिन्न प्रकार की चिड़ियों और पौधों इत्यादि के बारे में जानने में मदद कर सकती है। खेल द्वारा बच्चे छोटी, लंबी और ठिगनी, हलकी और भारी जैसी संकल्पनाओं से भी परिचित होते हैं। जिस प्रकार ज्ञानात्मक विकास के लिए पालनकर्ता को क्रियाकलाप आयोजित करना है उसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में विकास प्रोत्साहित करने के लिए भी पालनकर्ता को विकास अनुसार क्रियाकलाप आयोजित करने चाहिए।
- पालनकर्ता
- (१) बच्चे की खोज को विस्तार दे सकता है, नया करने के सुझाव दे सकता है।
- (२) बच्चों को उनकी खोज समझने में मदद कर सकता है।
- (३) पालनकर्त्ता गतिविधियों का आयोजन कर सकता है जिनमें बच्चे नया सीखें।
- (४) बच्चों की खोज और अनुभव के लिए शब्द व भाषा दे सकता है।
खेल कल्पनाशीलता और सृजनात्मक को बढ़ावा देता है
खेल में बच्चे कल्पना द्वारा अलग-अलग भूमिकाएँ निभाते हैं। ऐसा करते हुए उनकी बुद्धि और व्यवहार उसी व्यक्ति के अनुसार होता है जिनकी वह भूमिका कर रहे हैं। इस कारण वे उन व्यक्तियों के विचार और भावनाओं को भी प्रदर्शित करते हैं। उदाहरणतः खेल बालिका गिड़या की माँ बनकर गुड़िया को कहती है कि उसे टॉफी नहीं मिलेगी क्योंकि उसके लिए हानिकारक है। शायद उसने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि जब बालिका ने देखा-‘खेल में माँ की नकल करके उचित व्यवहार सीख रही है।
नाटक करना बच्चों के खेल का एक अभिन्न हिस्सा है। खेल में बालिका वास्तविकता से कट और बहुत कुछ सृजनात्मक करती है। एक टूटी प्लेट तीन वर्षीय बालिका के लिए टेबल बन जाती है और एक दस वर्षीय बालक के लिए अंतरिक्ष यान। माचिस के डिब्बों की पंक्ति रेलगाड़ी बन जाती है और इस रेलगाड़ी से खेलते हुए बच्चे जंगल से गुजरने नदी पार करने और डकैतों से लड़ने का नाटक करते हैं। आप यह देखकर हैरान हो जाएंगे कि रेल पटरी पर न चल सड़क पर ही चल रही है। यह आवश्यक नहीं है कि खेल यथार्थ ही दर्शाए। खेल कल्पना शक्ति को विकसित करता है और यह बच्चों को दैनिक स्थितियों से जूझने में मदद करता है।
खेल शारीरिक और क्रियात्मक विकास को बढ़ावा देता है
शारीरिक और क्रियात्मक कौशलों का विकास अभ्यास करने पर निर्भर करता है। खेल ऐसी क्रिया है जो बच्चों को अभ्यास के पर्याप्त अवसर प्रदान करती है। निम्नलिखित घटना इस बात को स्पष्ट करती है-
एक माँ जब चार महीने के शिशु के आगे एक झुनझुना रख देती है। शिशु का ध्यान झुनझुना की तरफ आकर्षित होता है। और वह अपनी पीठ से पेट पर पलट कर उस तक पहुँचने की कोशिश करता है। यह करने के लिये माँसपेशियों का समन्वय जरूरी है। बार-बार झुनझुने तक पहुँचने के प्रयास में शिशु को मिट्टी खाने का अवसर मिलता है और धीरे-धीरे वह आसानी से कर लेता है।
बच्चे जब ईंटों की एक पंक्ति पर चलने की कोशिश करते हैं, दीवार फाँदते हैं, सीढ़ी चढ़ते हैं, झूलों में लटकते हैं, दौड़ने के खेल खेलते हैं, साइकिल की सवारी करते हैं तो उनकी बहुत माँसपेशियों का समन्वय बढ़ता है। खेल-खेल में जमीन में गड्ढे खोदने, फूलों के हार बनाने, चित्र बनाने और उनमें रंग भरने में बच्चों की लघु माँसपेशियों का विकास होता है।
खेल भाषायी विकास में सहायक होता है
बच्चे खेल-खेल में बोलना कैसे सीखते हैं? यह तो स्पष्ट है कि भाषा जानने के लिए उनका भाषा को सुन पाना और बोल पाना आवश्यक है। पालनकर्ता के साथ विनोदशील क्रियाओं में बच्ची को भाषा सुनने के बहुत अवसर मिलते हैं जो उसे बोलने के लिए प्रेरित करते हैं। जब बालिका करीब नौ महीने की होती है तब वह ‘‘गा गा गा‘‘, ‘‘बे बे बे‘‘, ‘‘मा मा मा‘‘, ‘‘मम मम‘‘, जैसे कई स्वर निकालती है। इनमें से कुछ वयस्कों की भाषा की शुरूआत हैं। इस अंतः क्रिया के दौरान बालिका विभिन्न ध्वनियों के बीच बोलना सीखती है। यह क्षमता उसे बाद में ‘‘अब्बा‘‘ और ‘‘अम्मा‘‘ जैसे शब्दों में भेद करने मदद करती है और वह उन्हें अलग-अलग शब्दों के रूप में पहचान पाती है।
बच्चे चौकोर, गोल, सीधी और वक्र रेखा जैसी विभिन्न आकृतियों को भी समझने लगते हैं जो बाद में उन्हें भिन्न अक्षरों को पहचानने में मदद करते हैं। खेलते हुए बच्चे यह देखते हैं कि काला और लाल वृत्त या छोटा और बड़ा वृत्त सभी गोलाकार हैं। इससे उन्हें समझने में मदद मिलेगी कि ‘क‘ अक्षर ‘क‘ ही रहता है चाहें वह शब्द के शुरू में हो या अंत में। खेल में वह पहले और बाद, बाएँ और दाएँ, ऊपर और नीचे जैसी संकल्पनाओं का अर्थ सीखती है जो कि लिखना और पढ़ना सीखने के लिए अति आवश्यक हैं। आपने यह देखा कि खेल क्रियात्मक विकास में सहायक होते हैं जो कि लिखना सीखने के लिए आवश्यक होता है।
बच्चे सहजता से वही सीखते हैं जिनमें उनकी रूचि होती है। यह बात लिखना और पढ़ना सीखने के लिए भी सत्य है। कहानियाँ सुनने से बच्चों में स्वयं उन्हें पढ़ने के लिए इच्छा जागृत होगी और वह पढ़ने और लिखने के लिए प्रेरित होंगे। अगर बालिका को लिखना नहीं आता और पालनकर्ता उस पर लिखने के लिए दबाव डालती है तो सम्भवतः लिखना सीखने की प्रक्रिया को यदि खेल बना दिया जाए जिसमें बालिका जमीन पर लिखे हुए ‘क‘ पर छोटे-छोटे पत्थर रखे, उसकी रूपरेखा पर चले या ‘क‘ अक्षर के बिन्दुओं को जोड़ कर ‘क‘ लिखे तो वह धीरे-धीरे ‘क‘ की रूपरेखा से परिचित हो जाएगी। इस प्रकार उसे मज़ा भी आएगा और वह बिना दबाव के लिखना सीख जाएगी।
खेल द्वारा बच्चे सामाजिक होना सीखते हैं
जब माँ शिशु को नहलाती है, कपड़े पहनाती है, सुलाती है और उसकी अन्य सभी आवश्यकताओं का ध्यान रखती है तो इन अंतः क्रियाओं के दौरान बालिका माँ को पहचानने लगती है। उसका माँ से लगाव भी बढ़ता है। आप जानते हैं कि यह शिशु का पहला सामाजिक संबंध है, जिसका उसके भावी संबंधों पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है।
जीवन के प्रारंभिक वर्षां में बच्ची अपने हाथों पैरों से तथा आसपास की वस्तुओं से खेलती है। इससे शिशु को यह पता चलता है कि उसका शरीर आसपास की वस्तुओं से अलग है। ऐसा अनुभवों के द्वारा उसकी अपने बारे में धारणा विकसित होती है। खेल के दौरान बालिका यह समझती है कि लोगों और वस्तुओं पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। वह यह समझने लगती है कि रोने पर माँ उसके पास आएगी, जब वह हँसेगी तो माँ भी हँसेगी और उसे गोद में उठा लेगी। जब वह डिब्बे को धक्का देती है तो वह उससे दूर हो जाता है। इससे बच्चे को पता चलता है कि किस तरह उसकी गतिविधियां वातावरण पर असर डालती है। परिवेश को जानने और विभिन्न स्थितियों से जूझने से बालिका का आत्मविश्वास बढ़ता है और उसे स्वावलंबी होने का अहसास होता है। जैसे-जैसे बालिका बड़ी होती है वह अन्य बच्चों के साथ खेलती है। उनके साथ खेलते हुए आपस में चीजें बाँटना, नियमों का पालन करना, अपनी बारी की प्रतीक्षा करना सीखती है। इस प्रकार वह अन्य लोगों के दृष्टिकोण को ध्यान में रखना और उनको महत्व देना भी सीखती है।
खेलते समय बच्चे अक्सर वयस्कों की नकल करते हैं। इस प्रकार से उपयुक्त व्यवहार और उन भूमिकाओं को सीखते हैं जो कि उन्हें बड़े होकर निभानी होंगी। खेलते हुए परस्पर क्रिया में वे विभिन्न प्रकार के कार्यों, त्यौहारों, धारणाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।
खेल भावात्मक विकास में सहायक होता है
खेल क्रियाएँ बच्चों को हर्ष उल्लास, क्रोध, भय और दुख व्यक्त करने का अवसर प्रदान करती हैं। खेल में कुछ भी मनचाहा करने की छूट होती है बशर्ते कि उससे किसी को हानि न पहुँचे। खेल उन भावनाओं और संवेगों को व्यक्त करने का मौका देता है जो अन्य स्थितियों में अभिव्यक्त नहीं किए जा सकते। उदाहरणतः खेल में पिता की भूमिका का अभिनय करते हुए बालिका दूसरे बच्चे को अपनी आज्ञा का पालन करने के लिए कह सकती हैं। ऐसा वह अन्य स्थितियों में शायद न कर सके। लड़ाई का दृश्य खेलते समय वह जोर से चिल्ला सकती है, वस्तुएँ इधर-उधर पटक सकती है जिसकी अनुमति उसे आमतौर पर नहीं मिलती। चार वर्षीय रजा को अकसर अपने माता-पिता से मामूली सा नियम तोड़ने पर भी डाँट पड़ती थी। छोटी-से-छोटी गलती के लिए उसे पिता से थप्पड़ खाना पड़ता था। पिता उसे कमर की पेटी से पीटते थे। यह बच्चा प्रायः कुर्सी पर बैठ कर कल्पना करता कि कुर्सी घोड़ा है और कुर्सी को पेटी से मारते हुए कहता ‘‘तेज़ चलो, और भी तेज़‘‘। इससे स्पष्ट है कि बच्चे का मन अपने पिता के प्रति गुस्से और कुढ़न से भरा हुआ है परंतु इन भावनाओं को वह यथार्थ रूप में अपने पिता के प्रति व्यक्त नहीं कर सकता। यह काल्पनिक खेल-स्थिति उसे अपने गुस्से और भावनाओं को व्यक्त करने का मौका देती है। इस तरह खेल द्वारा अव्यक्त भावनाएँ उभर कर सामने आती हैं। उपर्युक्त उदाहरणों में आपने देखा कि बच्चों के खेल में उनकी भावनाएँ और मनोदशाएँ स्पष्ट रूप से झलकती हैं। इसीलिए खेल उन बच्चों के लिए उपचार या चिकित्सा है जो परिस्थिति के अनुसार सामान्य भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं दर्शाते।
खेल बच्चों के विकास में मदद करके उन्हें भविष्य की भूमिकाओं के लिए तैयार करते हैं। खेल-खेल में सीखी गई संकल्पनाएँ पढ़ने-लिखने के कौशल और समूह खेल में हिस्सा लेने की क्षमता तथा बाद में स्कूल में समायोजन में मदद करते हैं। अतः खेल औपचारिकता शिक्षा की तैयारी में सहायक होता है। खेल प्रश्न पूछने और खोजबीन करने की मनोवृत्ति को भी परिपोषित करता है। जैसे-जैसे बच्चे नई चीजें सीखते हैं और उनमें निपुणता प्राप्त करते हैं वह अपने बारे में आश्वस्त होते हैं। यह बढ़ता हुआ आत्म-विश्वास उन्हें चुनौतियाँ स्वीकार करने के लिए तैयार करता है।
खेलों के प्रकार
बच्चों की खेल क्रियाओं को कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है। कुछ वर्गीकरण खेल के स्थान का ध्यान में रखते हुए किए जाते हैं, कुछ खेल क्रियाओं की विषयवस्तु पर आधारित होते हैं और अन्य खेल क्रियाओं पर। इन क्रियाओं के सुविधानुसार भिन्न-भिन्न वर्गीकरण किए गए हैं। वस्तुतः सभी वर्गीकरण कुछ अंश तक परस्पर संबद्ध हैं।
मुक्त खेल तथा संरचनात्मक खेल
पालनकर्ता लक्ष्यों और उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए कई खेल क्रियाएँ आयोजित करते हैं। इन क्रियाओं में बच्चे को पालनकर्ता के अनुदेशों का पालन करना पड़ता है। उसके पास खेल क्रिया को बदलने की अधिक स्वतन्त्रता नहीं होती। अपने ढंग से खेलने के लिये बालिका स्वतंत्र है या उसे पालनकर्ता द्वारा बताए गए नियमों का पालन करना पड़ता है-इस आधार पर खेल को मुक्त और संरचनात्मक खेलों में वर्गीकृत किया गया है। उदाहरणतः जब बालिका मिट्टी के साथ किसी वयस्क के हस्तक्षेप/निर्देशन के बिना ही खेल रही हो तब इसे मुक्त खेल कहते हैं। दूसरी ओर आकृति की संकल्पना समझाने के लिये बालिका को जब पालनकर्ता निर्देश देती है जैसे ‘‘चलो बाहर चलकर मिट्टी के कटोरे और थाली बनाएँ‘‘ तब खेल संरचित कहलाता है। इस चर्चा का यह अर्थ नहीं है कि मुक्त खेल से बच्चे कुछ नहीं सीखते। सभी प्रकार के खेलों से बच्चों को सीखने में बढ़ावा मिलता है। अंतर केवल यह है कि संरचित खेल क्रिया से जिस उपलब्धि की आशा होती है वह पालनकर्ता द्वारा पहले से निर्धारित होती है।
दोनों प्रकार के खेल बच्चों के लिए अनिवार्य हैं। मुक्त खेल जिज्ञासा और पहल को बनाये रखता है। और बच्चों को खोज करने के लिए प्रोत्साहित करता है। संरचनात्मक खेल में पालनकर्ता बालिका का ध्यान कुछ विशेष पहलुओं की ओर आकर्षित कर सकती है जिसके बारे में उसने सोचा न हो। इस प्रकार संरचनात्मक खेल विशेष लक्ष्य की प्राप्ति में मदद करता है। पालनकर्ता को यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि दोनों ही प्रकार की खेल क्रियाओं में बच्चों को आनन्द आए।
बाहरी खेल तथा भीतरी खेल
जैसा कि नाम से स्पष्ट है, खुले मैदान में खेले जाने वाले खेल बाहरी खेल व घर में खेले जाने वाले खेल, भीतरी खेल कहलाते हैं।
घर के बाहर खेले जाने वाले खेलों में क्रियाओं के अवसर मिलते हैं क्यों क यहाँ स्थान अधिक व बाधाएँ कम होती हंे। घर के अंदर खेले जाने वाले खेलों के लिए स्थान सीमित होता है और गतिविधियों की स्वतंत्रता अपेक्षाकृत कम होती है। वैसे तो बाहरी व भीतरी खेलों में भिन्नता बहुत कम होती है। कई भीतरी खेल बाहर खेले जा सकते हैं, और बाहरी खेल भी थोडे ़ से परिवर्तन के साथ अंदर खेले जा सकते हैं। कभी-कभी भीतरी खेल क्रिया को बाहर करने से नीरसता दूर होती है और बच्चे के लिए वही क्रिया नई और रूचिकर बन जाती है।
वैयक्तिक खेल और सामूहिक खेल
जब बालिका स्वयं अकेले खेलती है तो यह वैयक्तिक खेल कहलाता है। जब वह दो या अधिक बच्चों के साथ खेलती है तो वह सामूहिक खेल कहलाता है। समूह में खेलने के लिए आवश्यक है कि बच्ची दूसरों के दृष्टिकोण को ध्यान में रखे और खेल के नियमों का पालन करे। जैसा कि आप पढ़ चुके हैं ये योग्यताएँ उम्र के साथ विकसित होती हैं। तीन-चार साल की उम्र तक बच्चे अधिकतर अकेले ही खेलते हैं। अन्य बच्चों के साथ वे केवल थोड़े समय के लिए परस्पर मिल कर खेलते हैं। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं वे दूसरों के साथ खेलना सीखते हें और फिर उनके खेलने का अधिकांश समय समूह में खेलने में बीतता है। परन्तु समय-समय पर बड़े बच्चे भी अकेले खेलना पसंद करते हैं।
जहां समूह में खेलने से सामाजिक कौशल बढ़ते हैं वहीं वैयक्तिक खेल बच्चों को उन वस्तुओं से खेलने का समय देता है जो उन्हें सबसे रूचिकर लगती है। दोनों ही खेल उसके कौशलों के विकास में सहायक होते हैं।
ओजस्वी खेल एवं शान्त खेल
कई बार वयस्क झुझंलाकर कह उठते हैं, ‘‘बच्चे एक स्थान पर क्यों नहीं बैठ सकते? क्यों इधर-उधर भागते रहते हैं?‘‘ बच्चे भागने, कूदने और उछलने वाले खेल खेलना पसंद करते हैं अर्थात् वह खेल जिसमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऐसी खेल क्रियाएँ ओजस्वी/सक्रिय ख्ेल क्रियाएँ कहलाती हैं। वे खेल जिनमें अधिक शारीरिक क्रिया की आवश्यकता न हो जैसे जमीन पर चॉक से लिखना, चित्र बनाना, मिट्टी से खिलौने बनाना और पत्थरों से मीनार बनाना, बच्चों को आराम देती हैं। ऐसे खेल जिनमें अधिक ऊर्जा व्यय नहीं होती शांत खेल कहलाते हैं।
संवेदी-क्रियात्मक (Sensori motor) और प्रतीकात्मक खेल
शैशवकाल में बच्चों का खेल है वस्तुओं को छूना, सूँघना, चखना और परिवेश की छानबीन करना। इन क्रियाओं में इंद्रियाँ संलग्न होती हैं और माँसपेशियों के समन्वय की आवश्यकता होती है। इसलिए इन्हें संवेदी-क्रियात्मक खेल कहा जाता है।
शैशवकाल के अंत तक बच्चे नाटकीय खेल में भाग लेने लगते हैं। इस तरह के खेल में बच्चे कल्पना करते हैं कि टीन का डिब्बा घर है या लकड़ी का गुटका हवाई जहाज। इस प्रकार एक वस्तु का उपयोग उसके वास्तविक रूप से हटकर होता है। बच्चे अन्य लोगों की भूमिका निभाते हुए कभी फलवाला, कभी शिक्षक तो कभी फूलवाली होने का ढोंग करते हैं। इस प्रकार खेल में वस्तुओं और लोगों को प्रतीकात्मक रूप में उपयोग करने की ज्ञानात्मक योग्यता की आवश्यकता होती है। ऐसे खेल प्रतीकात्मक खेल कहलाते हैं और ये शालापूर्व वर्षों में मानसिक विकास के परिणामस्वरूप ही संभव है। संवेदी-क्रियात्मक खेल से प्रतीकात्मक खेल तक पहुँचना बच्चों के चिंतन में बढ़ती हुई जटिलता पर आधारित हैं।
खेल का यह वर्गीकरण परस्पर संबद्ध है। मुक्त खेल खुले में या भीतर खेला जा सकता है। सामूहिक खेल सक्रिय या शांत हो सकता है। महत्व इस बात को दिया जाना चाहिए कि बच्चे को हर प्रकार के खेल खेलने का मौका मिले क्योंकि हर खेल का अपना महत्व है।
खेल को प्रभावित करने वाले कारक
बच्चे किस प्रकार खेल खेलते हैं, कैसी खेल सामग्री का उपयोग करते हैं, उनके खेल की विषयवस्तु क्या है और वे कितना समय खेल में व्यतीत करते हैं, ये सब कई कारकों से प्रभावित होते हैं।
आयु
बच्चे किस प्रकार के खेल चुनते हैं, यह उनकी उम्र से प्रभावित होता है। एक छः महीने के शिशु के लिए अपने आसपास पड़ी वस्तुओं को उठाना और उनका निरीक्षण करना ही खेल है। एक चार वर्षीय बालक को तिपाहिया साइकिल चलाना और रेत से वस्तुएँ बनाना आनन्ददायक लगता है। एक आठ वर्षीय बालक दोपहिया साइकिल चलाना, पेड़ों पर चढ़ना और स्टापू खेलना पसन्द करता है। बच्चों द्वारा खेल क्रिया का चुनाव उनके कौशलों और योग्यताओं से भी निर्धारित होता है। ऊपर लिखित उदाहरणों में जो खेल चार और आठ वर्षीय बालकों ने चुने वे उनके शारीरिक कौशलों से प्रभावित थे। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं उनकी सामाजिक क्षमताओं में भी वृद्धि होती है। जिससे उनकी परस्पर अंतः क्रिया में गुणात्मक बदलाव आता है और इस कारण उनके खेल के प्रकार भी प्रभावित होते हैं। जिन खेलों में आपसी सहयोग, टीम में खेलना और नियमों का पालन करना आवश्यक है वे खेल तीन वर्षीय बालकों के सामर्थ्य से बाहर हैं परन्तु आठ वर्षीय बालकों के लिए ऐसे खेलना संभव है। बच्चों के खेल की विषयवस्तु भी उम्र के साथ-साथ बदलती है। छः वर्षीय बालिका और तीन वर्षीय बालिका के गुड़िया से खेलने में भिन्नता होगी। छः वर्षीय बालिका विस्तृत रूप से खेल का आयोजन करती है- वह गुड़िया को स्कूल के लिए तैयार करती है, उसे पढ़ाती है, उसकी प्रगति के बारे में माता-पिता से चर्चा करती है और उसे खेलने के लिए बाहर भी ले जाती है, इत्यादि। तीन वर्षीय बालिका का गुड़िया से खेल इससे कहीं अधिक सरल होगा। एक विशेष खेल क्रिया में बालिका कितना समय व्यतीत करती है, यह उसकी उम्र से निर्धारित होता है। जैसा कि आप जानते हैं बालिका जितनी छोटी होगी उतनी ही कम अवधि तक वह एक खेल क्रिया में ध्यान लगा पाएगी। इसी कारण उसकी क्रियाओं में बार-बार बदलाव होंगे।
हालांकि बच्चों की उम्र उनके खेल को प्रभावित करने में एक निश्चित भूमिका निभाती है तथापि हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि खेल में वैयक्तिक भिन्नताएँ और अभिरूचियाँ भी महत्वपूर्ण हैं। संभव है कि एक पाँच वर्षीय बालिका अपनी उम्र के अन्य बच्चों की अपेक्षा सामूहिक खेल में कम समय व्यतीत करे।
लिंग
अगर आप शिशुओं के खेल का अवलोकन करें तो उसमें समानता पाएंगे। शैशवास्था में लिंग खेल को प्रभावित नहीं करता। उनका खेल अपने और आसपास की वस्तुओं की खोजबीन से संबंधित होता है। पर जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं तो लड़कों और लड़कियों की रूचियाँ भिन्न होने लगती हैं। ये भिन्नता उम्र के साथ बढ़ती जाती है। लड़कियाँ अपनी माँ के कपड़े पहनना, गुड़िया से खेलना, खाना बनाने का नाटक करना, सिलाई करना और स्टापू खेलना पसंद करती हैं। लड़के अपने पिता के कपड़े पहनना पसंद करते हैं, कुर्सी पर बैठ कर अखबार पढ़ने का नाटक करते हैं, बैलगाड़ी चलाते हैं, खेत जोतते हैं और बंदूकों से खेलते हैं कई अध्ययनों में लड़के और लड़कियों के खेल की तुलना की गई है। उनसे पता चलता है कि लड़कियों की अपेक्षा लड़कों के खेलों में मारपीट, उठापटक अधिक होती है और वे लड़कियों की अपेक्षा अधिक प्रतियोगी भावना के होते हैं। लड़कियाँ, लड़कों की अपेक्षा खेल में अधिक सहयोग दिखाती हैं। लड़के ओजस्वी खेल अधिक खेलते हैं। इसके क्या कारण हो सकते हैं?
एक कारण लड़कों और लड़कियों में शारीरिक भिन्नता हो सकती है। एक बच्चा कितनी शारीरिक क्रिया कर सकता है, यह उसकी शरीर वृत्ति से प्रभावित होता है। इसी का असर बच्चों के खेल चयन पर पड़ता है और इसी कारण लड़के अधिक सक्रिय खेल चुनते हैं। परन्तु बच्चों की अधिकांश खेल अभिरूचियों का कारण शरीर वृत्ति न होकर सामाजिक अपेक्षाएँ और रूढ़ियाँ हैं। बच्चों से लोगों की अपेक्षाएँ उनके लिंग द्वारा प्रभावित होती हैं। इसी का प्रभाव उनके खेल चयन पर पड़ता है। आइए, इसे एक उदाहरण से समझें। आपने अक्सर यह देखा है कि होगा कि एक लड़का, लड़की की अपेक्षा पेड़ पर अधिक आसानी से चढ़ जाता है। ऐसा नहीं है कि लड़की में पेड़ पर चढ़ सकने का सामर्थ्य नहीं है। परन्तु संभव है कि जब लड़की पहली बार पेड़ पर चढ़ने लगी हो तो उसकी माँ ने उससे कहा हो, ‘‘यह क्या लड़कों वाले काम कर रही हो, नीचे उतरो।‘‘ दूसरी ओर लड़के की इसी प्रयास के लिए अवश्य शाबाशी दी गई होगी अतः लड़का, लड़की की अपेक्षा अधिक कुशलता से पेड़ पर चढ़ना सीख जाता है।
घर पर दैनिक कार्यों में लड़कियों से छोटे भाई-बहनों की देखभाल और घर के काम में मदद की अपेक्षा की जाती है। इसलिए उनके खेलों में भी यही स्थितियाँ झलकती हैं। लड़के पिता की मदद करते हैं, बाहर का काम करते हैं और ऐसी स्थितियों की झलक उनके खेल में भी दिखाई देती है। आजकल विशेषकर शहरों में, लड़कियों को खेल में डॉक्टर और पुलिस की भूमिका में देखा जा सकता है क्योंकि महिलाएँ अब इन व्यवसायों को अपनाने लगी हैं।
माता-पिता भिन्न-भिन्न खेल साधन देकर भी लड़कों और लड़कियों की अभिरूचियों को प्रोत्साहित करते हैं लड़कियों को गुड़िया बर्तन और अन्य इसी प्रकार के खिलौने दिए जाते हैं। लड़कों को बंदूक और कारों जैसे खिलौने दिलवाए जाते हैं। चार वर्षीय हरी को जब उसकी बहन ने गुड़िया से खेलने के लिए बुलाया तब उसने यह कहते हुए स्पष्ट रूप से मना कर दिया, ‘‘मैं लड़कियों वाले खेल नहीं खेलता।‘‘ परन्तु जब वह सोचता है कि कोई उसे नहीं देख रहा, तब वह गुड़ियों से खेलता है। इससे स्पष्ट है कि हरि को गुड़ियों से खेलना अच्छा लगता है। गुड़ियों के खेल के प्रति उसकी प्रत्यक्ष अरूचि जन्मजात नहीं है।
संस्कृति
संस्कृति जीवन-शैली पर असर डालती है। शिशुपालन की परम्पराएँ भी संस्कृति से प्रभावित होती हैं। इन्हीं कुछ परम्पराओं की हम यहाँ चर्चा करेंगे। आइए, अब हम इस प्रकार की कुछ परम्पराओं के बारे में पढ़ें। हमारे देश के कई भागों में शिशुओं की तेल से मालिश करना एक पुरानी प्रथा है। माँ आमतौर पर गाना गुनगुनाती है, बच्चे के साथ बात करती है और खेलती है। भारत के सभी भागों में इस प्रकार के कई माँ और शिशु के खेल हैं। शिशु का यह अनुभव एक अन्य संस्कृति, जहाँ ऐसी अंतः क्रियाएँ नहीं होतीं, में रहने वाले शिशु की तुलना में बहुत भिन्न होगा।
बच्चों की वयस्क जीवन के बारे में कल्पना उनके खेल में झलकती है। वयस्क होने पर वे जो बनना चाहता है उन भूमिकाओं की झलक अकसर उनके खेल में मिलती है और ये भूमिकाएँ संस्कृति द्वारा निर्धारित होती हैं। खेल उनके समाज के पारंपरिक त्यौहारों और रीतियों को भी प्रदर्शित करता है।
सभी संस्कृतियों में खिलौनों की समृद्ध परंपरा होती है। जब सिंधु घाटी जैसी प्राचीन सभ्यताओं की खुदाई हुई तो वहाँ भी खिलौने पाए गए। अध्ययनों से यह पता चलता है कि हमारे देश में भिन्न-भिन्न प्रदेशों की खेल सामग्री में परस्पर विभिन्नता है। उड़ीसा के सुन्दर मुखौटे और कठपुतलियाँ मशहूर हैं। लकड़ी के खिलौने कर्नाटक के चेन्नापटना और आन्ध्र प्रदेश के कोंडा पल्ली में बनते हैं तमिलनाडु और महाराष्टं में लोक परंपरा के खिलौनों के साथ-साथ आधुनिक खिलौने भी बनते हैं। दूसरी ओर मणिपुर और त्रिपुरा में व्यावसायिक खिलौने बहुत ही कम मिलते हैं। यहाँ के निवासी घर पर ही अपने बच्चों के लिए खिलौने बनाते हैं। हमारे देश के अधिकांश भागों में त्यौहारों के समय बहुत से लोक खिलौने बाजारों में मिलते हैं। इन खिलौनों का व्यावसायिक रूप से बनाए गए खिलौनों के समान शैक्षिक महत्व होता है।
सामाजिक वर्ग
निम्न सामाजिक वर्ग में बच्चों का अधिकांश समय माता-पिता के काम में सहायता करते हुए बीतता है। कार्यों में व्यस्त रहने के कारण खेलने के लिए उन्हें बहुत कम समय मिल पाता है। अपने काम के दौरान ही वे खेलने का समय निकालते हैं। मध्यम और उच्च सामाजिक वर्ग के बच्चे के पास खेल के लिए अधिक समय होता है क्योंकि आय उत्पादक गतिविधियों में उनका योगदान अनिवार्य नहीं होता। परन्तु इन वर्गां के कुछ परिवारों में माता-पिता पढ़ाई पर बहुत ज़ोर देते हैं और इस कारण बच्चों के खेलने का समय कम कर देते हैं।
बच्चों को पत्थर, बोतलों के ढक्कन, खाली डिब्बे आदि जमा करना अच्छा लगता है। अगर आप एक बच्चे की जेब खाली करें तो ऐसा संग्रह पाना आश्चर्यजनक बात नहीं है। कई बार बच्चे घर के एक कोने में अपने इकट्ठा किए पत्थर, सीपियाँ और पसंद की अन्य वस्तुएँ रख लेते हैं। महंगी, सजी हुई गुड़िया और समुद्र तट से जमा की गई सीपी-प्रत्येक बालक को, चाहे वह अमीर हो या गरीब ये दोनों ही वस्तुएँ समान रूप से आकर्षित करती हैं जो बच्चे अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवारों के होते हैं वे बाजार में मिलने वाले खिलौने खरीद सकते हैं। जब बने बनाये खिलौने खरीदने का सामर्थ्य परिवार में न हो तो पुराने टायर, पहिये, खाली डिब्बे, माचिस के डिब्बे, पुराने अखबार खेलने के लिए उपयोग में लाये जाते हैं। बच्चों को ऐसी स्थिति में अधिक सृजनात्मक होने की आवश्यकता होती है ताकि वे स्वयं खेल सामग्री बना सकें।
सामाजिक वर्ग से यह भी निर्धारित होता है कि बच्चों को खेलने के लिए कितनी और कैसी जगह मिलेगी। जो बच्चे बड़े मकानों में रहते हैं, जहाँ बाग-बगीचे होते हैं, वे उस जगह को खेलने के लिए उपयोग में ला सकते हैं। जो बच्चे एक कमरे वाले मकानों में रहते हैं उन्हें गलियों और सड़कों पर अपने खेलने का स्थान ढू ढ ँ ना पड़ता है। आपने पढ़ा था कि निम्न वर्ग के परिवार के सभी बड़े सदस्य आय उत्पादक गतिविधियों में संलग्न होते हैं। माता-पिता के पास बच्चों के खेल में हिस्सा लेने और उनका मार्गदर्शन करने के लिए बहुत कम समय होता है। मध्यम और उच्च वर्ग के माता-पिता बच्चों के साथ संभवतः अधिक समय व्यतीत कर पाते हैं। आमतौर पर वे अधिक शिक्षित होते हैं और संभव है कि बच्चों के विकास में खेल के महत्व के बारे में अधिक जानते हों अतः वे बच्चों को खेलने के लिए पर्याप्त अवसर देंगे। परन्तु यह जरूरी नहीं है कि शिक्षा से ही ऐसी अभिवृत्ति बने जो बच्चों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील हों। अशिक्षित अभिभावक भी बच्चों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील हो सकते हैं और उन्हें खेल के कई विविध अनुभव दे सकते हैं।
परिस्थिति और परिवेश
शहर की भीड़भाड़ में खेलने के लिए खुली जगह कम ही मिल पाती है। फिर भी बच्चे खेलने के लिए जगह ढूँढ ही लेते हैं। आपने उन्हें तंग गलियों में, सड़कों पर और घर की छतों पर खेलते हुए देखा होगा। शहरों में पौधों को देखने का अवसर कम ही मिलता है ग्रामीण और जन- क्षेत्र में खेलने के लिए खुली जगह अधिक मिलती है और बच्चे प्रकृति के अधिक समीप होते हैं।
जनसंपर्क माध्यम
मुद्रित जन संपर्क माध्यम, जैसे कि पत्रिकाएँ और किताबें और श्रव्य-दृष्य माध्यम, जैसे कि रेडियो और टेलीविजन का बच्चों के खेल पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। बच्चों के लिए अनेक चित्रित किताबें और पत्रिकाएँ उपलब्ध हैं और उनके लिए विशेष रूप से रेडियो और टेलीविजन पर विभिन्न कार्यक्रम भी प्रसारित होते हैं। बच्चे पढ़ी हुई कहानियों का उत्सुकता से अभिनय करते हैं, रेडियो पर सुनी धुन गाते हैं और उत्साह से टेलीविजन के कार्यक्रम को देख पात्रों की नकल करते हैं। जनसंपर्क माध्यम अकसर समाज की रूढ़िबद्ध धारणाओं का समर्थन करते हैं और ये धारणाएँ बच्चों के खेल में झलकती हैं। जनसंपर्क माध्यम दुनिया को बच्चों के करीब लाते हैं और उनकी जानकारी यदि किसी वयस्क के निर्देशन में प्राप्त हो तो बहुत लाभदायक हो सकती है।
मुद्रित और श्रव्य-दृश्य माध्यम जिस प्रकार की प्रेरणा बच्चों को प्रदान करते हैं उसमें भिन्नता होती है। किताबें एक ऐसा माध्यम हैं जिनको स्वयं पढ़कर ही कुछ पता लगाया जा सकता है। इस प्रकार की सीखने की प्रक्रिया में बच्चों की सक्रिय भूमिका होती है और यह खोजबीन की भावना व जिज्ञासा को बढ़ावा देती है। दूसरी ओर टेलीविजन और रेडियो के कार्यक्रमों को बच्चे अधिकतर बैठे-बैठे ही सुनते और देखते हैं। आमतौर पर ये कार्यक्रम उन्हें खोज का मौका न देकर केवल बताते हैं कि क्या जानना चाहिए। इसी कारण श्रव्य-दृष्य माध्यम में वयस्कों का निर्देशन अनिवार्य हो जाता है।
अनुभवों का स्तर
परिवार और पड़ोस में बच्चों को जो अनुभव होते हैं, वे महत्वपूर्ण ढंग से खेल के स्तर को प्रभावित करते हैं। निम्नलिखित दो उदाहरण इस बात को चित्रित करते हैं।
एक निम्न सामाजिक वर्ग के परिवार में माता-पिता सुबह ही काम के लिए निकल जाते हैं और शाम को घर वापस आते हैं। काम पर जाने के पूर्व माँ शिशु की मालिश करती है और उस समय उससे खेलती और बातचीत करती है। शाम को जब माता-पिता दोनों वापस आ जाते हैं तब पिता बच्ची के साथ खेलते हैं और माँ घर का काम-काज करती है।
दूसरी स्थिति में, एक शिक्षित माँ, जो अमीर परिवार की है, अपनी बच्ची को अधिकतर पालने में खिलौनों के पास लिटाए रखती है। बच्ची की केवल शारीरिक देखभाल की ओर उसका ध्यान होता है और वह उससे बहुत कम खेलती है। इन दो स्थितियों में यह संभव है कि पहले परिवार की बालिका का बचपन अधिक अच्छा बीतेगा क्योंकि उसे सीखने के कई मौके मिलते हैं और वह सुरक्षित महसूस करती है।
जो अभिभावक और पालनकर्ता खेल का महत्व समझते हैं, वे बच्चों को ऐसा-वातावरण दे सकते हैं जिसमें खेल को बढ़ावा मिले चाहे उनका सामाजिक वर्ग, शिक्षा स्तर या परिस्थिति कैसी भी क्यों न हो।
खेल की परिभाषा
खेल के बारे में आम धारणा यह है कि यह काम का विलोम है। खेल एक ऐसी स्थिति है जिसमें लोग कोई उपयोगी या विशिष्ट काम नहीं कर रहे होते हैं। खेल के बारे में एक सोच यह भी है कि यह आनन्ददायक, मुक्त और अनायास होता है। यह दृष्टिकोण छोटे बच्चे के विकास में खेल के महत्व को नकारता है। कई सालों से कई मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तकार बच्चे के विकास में खेल के महत्व पर जोर देने लगे हैं। इन्होंने खेल के अनेक पक्षों पर बल दिया है और बताया है कि खेल कैसे मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करता है।
खेल का मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
एरिक्सन (Erikson) और अन्ना फ्रायड (Anna Freud) के अनुसार खेल अपूर्ण रह गयी इच्छाओं का स्थानापन्न और अतीत की घातक घटनाओं से मुक्ति और पुनर्जीवन का एक रास्ता है। मनोविश्लेषणात्मक पद्धति खेल के सामाजिक संवेगात्मक पक्षों पर बल देती है। खेल के द्वारा बच्चा माता-पिता के साथ अपने मानसिक द्वन्द्वों और विवेकहीन, भयों का समाधान करता है। एक बच्ची राक्षस-राक्षस खेल कर अंधेरे के भय पर काबू पाती है, एक बच्चा अपनी गुड़िया को किसी नियम के कल्पित उल्लंघन के लिये उसी तरह सजा देता है जैसे एक माता-पिता उसको सजा देते हैं। एरिक्सन की दृष्टि में प्रीस्कूल चरण के दौरान खेल एक बच्चे के लिये खोज, पहल और स्वतंत्रता का रास्ता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से खेल विरेचक अनुभव में माध्यम से आक्रामकता को दिशा देने का एक तरीका है। यह अतीत के लिये एक प्रतिक्रिया और अतीत की घटनाओं की ओर लौटने की प्रक्रिया का एक तन्त्र भी है।
सामाजिक विकास का एक रूप : खेल
पारटेल और अन्य सिद्धान्तकार खेल को सामाजिक आदान-प्रदान के एक रूप की तरह देखते हैं जो सहपाठियों के साथ सहयोगी कार्यां में संलग्न होने की बच्चे की विकसित होती हुई क्षमता को उत्तम भी बनाता है और प्रतिबिम्बित भी करता है। खेल के आरंभिक चरणों में सहपाठियों के साथ आदान-प्रदान लगभग नहीं या बहुत थोड़ा होता है और उस समय सामाजिक कौशलों के प्रयोग में असमर्थता भी दिखती है।आगे चलकर दूसरे के पक्ष से देखने की क्षमता, विभिन्न भूमिकाओं में समन्वय (जैसे एक माँ, एक बच्चा), खेल की विषयवस्तु के बारे में बातचीत और झगड़ों को सुलझाने की सामर्थ्य का विकास होता हुआ दिखाई देता है। खेल में कल्पित और नाटकीय स्थितियां सामान्यतः सामाजिक आदान-प्रदान की अधिक परिपक्व विधियाँ मानी जाती हैं। कुछ शोधकर्ताओं ने धक्का-मुक्की वाले खेलों को भी सामाजिक दृष्टिकोण से देखा है। धक्का-मुक्की के अन्तर्गत सब तरह के कुश्ती और ‘पकड़ो तो जाने‘ कोटि के खेल शामिल किये जा सकते हैं। सामाजिक खेलों की तरह धक्का-मुक्की के खेलों में भी भूमिकाएं होती हैं।
संरचनावादी सिद्धान्त और खेल
पियाजे (Jean Piaget) के अनुसार बच्चे की विकसित होती हुई मानसिक क्षमताओं में खेल एक बड़ी भूमिका निभाता है। पियाजे खेल के विकास के कई चरण गिनाते हैं।
पहला चरण, जिसे वे अभ्यास या कार्यात्मक खेल कहते हैं, संवेदन-प्रेरित क्रिया के दौर का एक लक्षण है। कार्यात्मक खेल में बच्चा वस्तुओं के इस्तेमाल की परिचित पद्धतियों को दोहराता है। उदाहरण के लिए, खाली प्याले से पीता है, हाथों के इस्तेमाल से बालों में कंघी करने का नाटक करता है।
दूसरा चरण, प्रतीकात्मक खेल है जिसका उभार क्रियापूर्व/परिचालनपूर्व ( pre-operational) दौर में होता है। यह मानसिक प्रतीकों के इस्तेमाल का दौर है। वस्तुएँ अपने से अलग किसी वस्तु का प्रतीक होती हैं। प्रतीकात्मक खेल में एक लकड़ी के गुटके (ब्लाक) को टेलीफोन, नाव, कुŸा, केला या हवाईजहाज बनाया जा सकता है। पियाजे ने संरचनात्मक और नाटकीय खेल में अन्तर किया है। संरचनात्मक खेल में दूसरी वस्तुओं को बनाने या रचने के लिए ठोस वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए कार और टंक वाले खिलौने के लिए, एक शहर बनाने में लकड़ी के ब्लॉकों का इस्तेमाल किया जा सकता है। नाटकीय खेल में बच्चे शब्दों और मुद्राओं के द्वारा कल्पित स्थितियाँ और भूमिकाएं गढ़ते हैं। वे भूमिकाएं रचते और तय करते हैं कि कौन सा बच्चा किस भूमिका को निभाएगा और एक कल्पित दृश्य के लिए विषयवस्तु और उसके विकास की दिशा की सूझ लेते हैं। नाटकीय खेल का उभार प्रायः संरचनात्मक खेल के कुछ बाहर सतह पर आता है। पियाजे ने इस दौर के कल्पित स्वभाव के खेल को बच्चे के आत्म केन्द्रित विचार के प्रतिबिम्ब के रूप में देखा। पियाजे के अनुसार सात वर्ष की आयु के आसपास ठोस-क्रियात्मक दौर ( concrete operational period ) के आरंभ में यह समाप्त हो जाता है।
अन्तिम चरण में खेल नियमबद्ध क्रीड़ा (अंग्रेजी में play) को game में बदलने की बात कही गयी है। यहाँ हिंदी में ‘खेल‘ और ‘क्रीड़ा‘ में वही भेद किया जा रहा है। क्रीड़ा नियमबद्ध एवं संरचित खेल (structured play ) हैं, में बदल जाता है जो ठोस क्रियात्मक दौर में अपनी बुलन्दी पर पहुँचता है। इस दौर की विशेषता यह है कि सामाजिक आदान-प्रदान को आरंभ करने, नियंत्रित करने और जारी रखने तथा समाप्त करने के लिए बाह्य रूप से प्रत्यक्ष नियमों का प्रयोग किया जाता है।
अनेक समकालीन शोधकर्ताओं ने पियाजे की धारणाओं को विस्तार दिया है। स्मालेनस्की और शेफात्या ने इस बात की पुष्टि की है कि खेल के विकास का सीधा सहसंबंध भाषा के विकास, समस्या-समाधान और तर्कसंगत गणितीय चिन्तन के विकास के साथ जुड़ता है। किन्तु स्मालेनस्की और शेफात्या पियाजे की इस अवधारणा से सहमत नहीं हैं। खेल संवेदनप्रेरित क्रिया के चरण से लेकर पूर्वक्रियात्मक और ठोस क्रियात्मक चरण की ओर सहज प्रगति ( progression ) का परिणाम है। उनका विचार है कि खेल का विकास सामाजिक संदर्भ और बड़ों के पथप्रदर्शन पर निर्भर है। उनका यह विचार भी है कि कुछ बच्चों के लिए खेलों का प्रशिक्षण अनिवार्य है। इन्होंने अपने शोध से साबित किया है कि बच्चों के खेल के स्तर को वयस्क सफलतापूर्वक बढ़ा सकते हैं। खेल के बढ़े हुए स्तर का सकारात्मक प्रभाव बच्चे के अन्य संज्ञानात्मक कौशलों पर भी होता है।
वाइगोत्स्कीय परिप्रेक्ष्य (Vygotskian Perspective) में खेल का स्थान
वाइगोत्स्की (Lev Vygotsky) का विश्वास था कि खेल संज्ञानात्मक, भावात्मक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देता है। ऊपर चर्चित अन्य सिद्धान्तकारों के विपरीत विकास में खेल के महत्व के बारे में वाइगोत्स्की का दृष्टिकोण अधिक समन्वयकारी था।
वाइगोत्स्की के लिए खेल बच्चों को अपने व्यवहार पर नियंत्रण की क्षमता देने वाला मानसिक उपकरण है। खेल में जो कल्पित स्थितियाँ खड़ी की जाती हैं, वे बच्चे के व्यवहार को एक खास तरह से नियंत्रित करने वाली और दिशा देने वाली प्रथम बाधाएँ हैं। खेल व्यवहार को संगठित करता है। उदाहरण के लिए खेल में बच्चा स्वच्छन्द व्यवहार नहीं करता, ‘‘मम्मी-मम्मी’ या ‘ड्राइवर-ड्राइवर' के खेल में वह माँ या ट्रक-ड्राइवर होने का बहाना करता है।
हर कल्पित स्थिति में भूमिकाएं और नियम निश्चित नियम होते हैं जो स्वाभाविक रूप से सतह पर आ जाते हैं। भूमिकाएं चरित्रों की होती हैं जिनको बच्चे खेलते हैं जैसे समुद्री डाकू की या शिक्षक की भूमिका। कल्पित स्थिति की विषयवस्तु बदलने के साथ भूमिकाएं और नियम भी बदल जाते हैं। उदाहरण के लिए ‘किराने की दुकान’ का, खेल के नियम, ‘शेर-शेर’ खेलते बच्चों की भूमिकाओं और खेल के नियमों से भिन्न होंगे। खेल के नियम आरंभ में खेल के भीतर प्रच्छन्न होते हैं, आगे चल कर वे सतह पर आ जाते हैं और बच्चों के बीच तय किये जाते हैं।
अतः खेल, में एक प्रत्यक्ष कल्पित स्थिति और कुछ प्रच्छन्न नियम शामिल होते हैं। कल्पित स्थिति बच्चों द्वारा रचित वह स्थिति है जिसके सच होने का बहाना किया जाता है। कल्पित होते हुए भी दूसरों के लिए प्रत्यक्ष हो जाती है क्योंकि बच्चे उसके लक्षण प्रकट कर देते हैं। वे कहते हैं, ‘मान लो कि यहां एक कुर्सी और वहां एक मेज़ है। मान लो कि हमारी कक्षा में छः बच्चे हैं और हम शिक्षक हैं।’ इशारों और आवाजों से भी वे अपने खेल की कल्पित स्थिति को प्रकट किया करते हैं। जैसे पेटोंल-पम्प-स्टेशन से निकलते हुए एक टंक को प्रकट करने के लिए ‘‘घुर्रर्रर्र घुर्रर्रर्र’’ की आवाज़ या एक कल्पित घोड़े की लगाम खींचते हुए बच्चे का "चींहिंहिंहिं का शोर।" लेकिन नियम प्रच्छन्न माने जाते हैं क्योंकि उनको आसानी से देखा नहीं जा सकता, व्यवहार के द्वारा केवल उनका अनुमान लगाया जा सकता है। नियम किसी विशेष भूमिका के साथ जुड़े हुए व्यवहार के नमूने के रूप में अभिव्यक्त होते हैं खेल की कल्पित स्थिति में हर भूमिका बच्चे के व्यवहार पर अपने नियम लागू कर देती है। पश्चिमी परिप्रेक्ष्य से देखें तो खेल के विषय में यह विचार असाधारण हैं क्योंकि परंपरागत रूप से हम खेल को सर्वथा स्वच्छन्द और निर्बाध समझते आए हैं।
लेकिन वाइगोत्स्की का कहना है कि खेल में बच्चे केवल मनमाना व्यवहार नहीं करते। ‘मम्मी-मम्मी के खेल में और ‘टीचर-टीचर’ के खेल में बच्चे अन्तर करते हैं। हर भूमिका के अनुसार भिन्न मुद्राएं, भिन्न वेषभूषा, यहां तक कि भाषा भी भिन्न होती है। खेल के आरंभिक चरणों में वे इन अन्तरों से अवगत नहीं होते, लेकिन चार वर्ष की उम्र के अधिकांश बच्चे दिखा देते हैं कि वे किसी भूमिका के निर्वाह में होने वाली ग़लतियों के प्रति अत्यन्त संवेदनशील होते हैं और अक्सर एक दूसरे को सुधारते भी हैं, मम्मी ब्रीफकेस लेकर चलती हैं, ’‘तुम टीचर हो तो बच्चों को बैठना पड़ेगा,’’ ‘‘टीचर किताब को ऐसे पढ़ती हैं’’ इत्यादि। बच्चे मज़ाक की तरह भूमिका के नियमों का उल्लंघन भी करते हैं। तीन वर्ष का टोबी ऊंची कुर्सी पर चढ़कर कहता है, ‘‘अब मैं डैडी हूं।’’ फिर वह ठहाका लगा कर हंसता और कहता है, "डैडी अब अपनी ऊँची कुर्सी पर बैठ नहीं सकते।"
विकास पर खेल का प्रभाव
पश्चिम में हाल के अनुसंधनों का जो सारांश स्मालेनस्की और शेफात्या ने दिया है उसके संकेत के अनुसार नाटकीय खेल के विकास से संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास के अलावा स्कूल संबध कौशलों को भी लाभ पहुँचता है। उदाहरण के लिए शाब्दिक अभिव्यक्ति, शब्द-भण्डार, समझ, अवधान की अवधि, कल्पनाशीलता, एकाग्रता, आवेश पर नियंत्रण, जिज्ञासा, समस्या-समाधान की और अधिक युक्तियां, सहयोग, सहानुभूति और सामूहिक भागीदारी इनमें शामिल हैं। वाइगोत्स्कीवादियों ने उन क्रियातंत्रों की जांच की है जिनके द्वारा खेल विकास को प्रभावित करता हैं। उदाहरण के लिए मैन्यूल के और इस्तोमिना ने देखा है कि अधिगम की अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल के दौरान बच्चों के मानसिक कौशल उच्चतर स्तर पर होते हैं। वाइगोत्स्की ने इसे निकट विकास क्षेत्र (निविक्षे/ Zone of Proximal Development - ZPD ) के उच्चतर स्तर की तरह पहचाना है। मैन्यूल के ने पाया कि बाकी की अपेक्षा खेल के समय बच्चों का आत्म-नियंत्रण उच्चतर स्तर पर होता है। एक लड़के को जब खेल में निगरानी रखने का काम दिया गया तो वह जितनी देर तक ध्यान को एकाग्र रखते हुए अपनी जगह पर टिका रहा उतनी देर तक वह शिक्षक द्वारा बताए काम पर ध्यान नहीं रख पाता। इस्तोमिना ने तुलना करके देखा कि प्रयोगशाला में एक समतुल्य स्थिति की अपेक्षा बच्चे ‘किराने की दुकान’ का खेल खेलते समय कितनी चीजें याद रख पाते हैं। बच्चों को शब्दों की एक सूची याद करने के लिए दी गयी थी। खेल की नाटकीय स्थिति में, किराने की दुकान का खेल खेलते समय बच्चों को यह सूची दी गयी और प्रयोगशाला में परीक्षा की स्थिति में मैन्यूल के ने पाया कि नाटकीय खेल की स्थिति में बच्चों को ज्यादा संख्या में चीजें याद रहीं।
वाइगोत्स्की के अनुसार खेल विकास को तीन तरीके से प्रभावित करता है :
- (१) खेल बच्चे के निकट-विकास-क्षेत्र का निर्माण करता है।
- (२) खेल कार्य और वस्तुओं को विचार से अलग करने का काम करता है।
- (३) खेल आत्मनियंत्रण के विकास में सहायक होता है।
निकट विकास क्षेत्र का निर्माण
वाइगोत्स्की के अनुसार खेल बच्चे के लिए निकट-विकास-क्षेत्र का निर्माण भी करता है। खेल में बच्चा हमेशा अपनी आयु से अधिक और अपने दैनिक व्यवहार के स्तर से ऊपर उठकर बर्ताव करता है, मानो खेल के दौरान वह खुद अपने कद से हाथ भर ऊँचा हो गया हो। खेल के भीतर विकास की सारी प्रवृŸायां, मानो आतशी शीशे के फोकस में, सारभूत रूप से मौजूद रहती हैं ; मानो बच्चा अपने सामान्य स्तर से ऊपर छलांग लगाने को तत्पर हो। खेल और विकास के संबंध की तुलना शिक्षा और विकास के संबंध से की जा सकती है। खेल विकास का स्रोत है और निविक्षे की रचना करता है।
खेल की केवल विषयवस्तु ही निकट विकास क्षेत्र को परिभाषित नहीं करती है। खेलने के लिए बच्चा जिस मानसिक प्रक्रिया में संलग्न होता है वह निविक्षे की रचना करती है। बच्चा निकट विकास क्षेत्र के उच्चतर स्तर पर काम कर सके इसके लिए कल्पित स्थितियों से प्राप्त भूमिकाएं, नियम तथा प्रेरणा सहायक सिद्ध होते हैं।
यदि हम खेल और खेल के बाहर की स्थितियों में बच्चे के व्यवहारों की तुलना करेंगे तो हमें निकट विकास क्षेत्र (निविक्षे) के उच्चतर तथा निम्नतर स्तर दिखाई देंगे। खेल के बाहर या वास्तविक जीवन की स्थिति में, एक जनरल स्टोर में लुई एक टॉफी चाहता है। उसकी माँ मना कर देती है। वह रोने लगता है। वह अपने व्यवहार को नियंत्रित नहीं कर पाता है। टॉफी की चाह के लिए उसकी प्रतिक्रिया स्वतःचलित है। वह कहता भी है, मुझसे रुलाई रुक नहीं रही है। खेल में वह अपने व्यवहार को नियंत्रित कर सकता है क्योंकि वह परिवार की कल्पित स्थिति को नियंत्रित कर सकता है। वह जनरल स्टोर जाने और न रोने का नाटक कर सकता है। वह रोने और रुलाई रोक लेने का नाटक कर सकता है। वास्तविक स्थिति की अपेक्षा नाटक उसे ऐसे उच्चतर स्तर पर काम करने का अवसर दे सकता है।
उदाहरण के लिए पांच साल की जेसिका अपनी कक्षा में समूह के साथ दायरे में बैठने के समय दिक्कत महसूस करती है। वह अन्य बच्चों पर लदती और साथवाले बच्चे से बात करती रहती है। शिक्षक के शाब्दिक इशारों और मदद के बावजूद वह तीन मिनट से अधिक सीधी बैठ ही नहीं सकती। इसके विपरीत जब वह अपने दोस्तों के साथ स्कूल-स्कूल खेल रही होती है तब वह दायरे में बैठने वाले अभ्यास में काफी देर स्थिर बैठ लेती है। अच्छी छात्रा होने का नाटक करते समय वह ध्यान को एकाग्र करके दिलचस्पी लेने का नाटक दस मिनट तक कर सकती है। इस प्रकार खेल उसे भूमिकाएं, नियम और स्थिति प्रदान करता है जो उसके लिए उच्चतर स्तर पर ध्यान एकाग्र करना और दिलचस्पी लेना संभव बनाता है, जैसा कि वह इस अवलम्ब के बिना नहीं कर पाती।
यदि बच्चे को खेल का अनुभव नहीं मिलता तो हमारे विचार से उसके संज्ञानात्मक, भावात्मक तथा सामाजिक विकास को हानि पहुंचेगी। वाइगोत्स्की के शिष्यों लियोन्त्येव (Dmitry Leontiev) और एलकोनिनने (Daniil El'konin) उनके इस विचार को परिष्कृत करके यह अवधारणा बनाई कि खेल एक प्रमुख गतिविधि है। उनका कहना है कि तीन से छः वर्ष के बच्चों के विकास के लिए खेल एक अत्यन्त महत्वपूर्ण गतिविधि है। इस दौर में बच्चे विभिन्न गतिविधियों से लाभ पाते हैं किन्तु, लियोन्त्येव और एलकोनिन का विश्वास था कि इस आयु के लिए खेल की भूमिका अनूठी है जिसका स्थान अन्य कोई गतिविधि नहीं ले सकती है।
‘‘एक आतशी शीशे के फोकस में ’’ कहने से वाइगोत्स्की का तात्पर्य था कि अधिगम की तथा अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल में नई विकासमान दक्षताएं पहले प्रकट होती हैं। अतः चार साल की उम्र में बच्चे की आगामी संभावनाओं की भविष्यवाणी के लिए खेल जितना उपयुक्त है उतना अक्षर पहचानने जैसी अकादमिक गतिविधियां नहीं। चार साल के बच्चे के खेल में हम एक उच्चतर स्तर पर उसकी ध्यान, प्रतीकन और समस्या के समाधान की क्षमताओं का निरीक्षण कर सकते हैं। हम वस्तुतः आगामी कल के बच्चे को देख रहे होते हैं।
विचार को कार्य और वस्तु से अलग करना
खेल में बच्चे बाहरी यथार्थ की अपेक्षा आन्तरिक विचार के अनुसार कार्य करते हैं। बच्चा एक चीज़ देखता है, पर जो देखता है उसकी तुलना में भिन्न प्रकार से व्यवहार करता है। एक स्थिति आ जाती है जब बच्चा अपने देखे हुए से स्वतंत्र होकर व्यवहार करने लगता है।
चूंकि खेल में एक वस्तु को दूसरी का स्थानापन्न बनाने की आवश्यकता होती है, बच्चा, वस्तु के विचार या अर्थ को वस्तु से अलग करने की शुरूआत कर देता है। जब वह एक ब्लॉक को नाव की तरह इस्तेमाल करता है तो ‘नावपन’ का विचार वास्तविक नौका से अलग हो जाता है। जब ब्लॉक को एक नौका बनाना हो तो वह नौका की जगह ले लेता हैं। जैसे-जैसे प्रीस्कूल के बच्चे बड़े होते जाते हैं, वैसे-वैसे इस तरह स्थानापन्न बनाने की उनकी क्षमता में लचीलापन बढ़ता जाता है। अंततः एक साधारण इशारे से या ‘मान लो’ कहने भर से वस्तुओं को प्रतीकों में बदला जा सकता है। अर्थ का वस्तु से पृथक्करण अमूर्त विचार तथा अमूर्त चिन्तन की तैयारी है। अमूर्त चिन्तन में हम वास्तविक जगत की ओर इशारा किये बिना अपने विचारों तथा अवधारणाओं का मूल्यांकन, इस्तेमाल तथा संचालन करते है। वस्तु को अवधारणा से अलग करने की यह क्रिया लेखन की ओर संक्रमण की तैयारी है, जहां शब्द अपने द्वारा सूचित वस्तु जैसा कुछ नहीं होता। अंत में व्यवहार वस्तु द्वारा संचालित नहीं रह जाता, अब वह प्रतिक्रियात्मक नहीं है। वस्तुओं का प्रयोग दूसरी अवधारणाओं को समझने के लिए उपकरण के रूप में किया जा सकता है। ब्लॉकों का प्रयोग ब्लॉकों की तरह न करके बच्चा उनका प्रयोग किसी समस्या के समाधान के लिए, जैसे गणित में सहायता सामग्री की तरह करने लगता है।
आत्म-नियंत्रण का विकास
चूंकि खेल-विशेष की विषयवस्तु के अनुसार भूमिकाओं और नियमों का निर्वाह करना होता है अतः बच्चों के लिए अपने व्यवहार पर रोक और नियंत्रण जरूरी होता है। खेल में बच्चे मनमानी नहीं कर सकते, उन्हें स्थिति के अनुसार कार्य करना होगा। ढाई वर्ष का लुई घर-घर खेल रहा है और किसी शिशु की तरह रो रहा है। शिशु की तरह भूमिका होने में यह निहित है कि रोते हुए लुई को पिता जब पुचकारे तो वह चुप हो जाए। उसका व्यवहार चोट की प्रतिक्रिया में नहीं है। वह खेल की स्थिति से निकला है इस रुलाई में उसी समझ-बूझ की आवश्यकता है जिसका प्रयोग उच्चतर मानसिक कार्यां में किया जाता हैं अतः खेल वह संदर्भ प्रदान करता है जिसमें लुई समझे-बूझे व्यवहार का अभ्यास कर सकता है ; इससे प्रकट होता है कि वह अपने व्यवहार पर काबू पा सकता है। अन्य संदर्भों की अपेक्षा खेल में अधिक महत्वपूर्ण ढंग से नियंत्रण और समझ-बूझ की आवश्यकता होती है, अतः खेल उच्चतर मानसिक कार्यों के लिए निविक्षे का निर्माण करता है।
- खेल का विकास-मार्ग
वाइगोत्स्की के सभी विद्यार्थियों में से केवल एकलोनिन ने ही अपने शोध को खेल पर केन्द्रित किया। शोध के द्वारा इन्होंने बडे़ बच्चों की अधिगम की गतिविधियों के विकास और खेल के बीच संबंध दिखाने का प्रयास किया। एलकोनिन ने लियोन्त्येव की प्रमुख गतिविधियों की अवधारणा को विस्तृत किया और उन विशेषताओं को भी चिह्नित किया जो खेल को एक प्रमुख गतिविधि बनाती हैं।
शिशु और खेल
एलकोनिन के अनुसार एक से तीन वर्ष तक के छोटे बच्चों के खेल की जड़ें हस्त-संचालन और उसके द्वारा अन्य उपकरणों के प्रयोग की गतिविधियों में होती है। हस्त-प्रयोग के द्वारा बच्चे वस्तुओं की विशेषताओं की तलाश करते हैं और बने बनाएं से उनका इस्तेमाल करना सीखते हैं। इसके बाद बच्चे रोज़मर्रा इस्तेमाल की वस्तुओं का कल्पित स्थितियों में इस्तेमाल करना सीखते हैं। इस प्रकार खेल का जन्म हो जाता है। उदाहरण के लिए दो वर्ष की लीला एक चम्मच उठाती है और उससे खाने का प्रयास करती है। वह चम्मच का इस्तेमाल केवल मेज़ पर पटकने के लिए नहीं, चम्मच की तरह रूढ़ तरीके से करना सीख रही है। खेल का पहला चिह्न तब उभरता है जब अट्ठारह महीने का जॉन चम्मच से अपने भालू को खिलाता है या खुद खाने का बहाना करता है। बच्चे के द्वारा दैनिक प्रयोग की साधारण वस्तुओं की छानबीन से खेल की शुरूआत होती है।
व्यवहार के खेल बनने के लिए जरूरी है कि बच्चा अपने कार्य को शब्दों में एक पहचान दे। व्यवहार को हस्तप्रयोग से खेल में बदलने के लिए भाषा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। शिक्षक बच्चे से पूछता है, अपने भालू को खाना खिलाओगे ?’’ इस तरह वह खेल की तरफ संक्रमण में उस बच्चे की मदद करता है जिसने अभी-अभी चम्मच उठाया है। बीस महीने की जोड़ी अपनी खिलौना टंक को पीछे से धकेलती और उसकी आवाज सुनती है। उसकी शिक्षिका कहती है, ‘‘अपना टंक चला कर इधर क्यों नहीं ले आती? लाकर पेटोंल भर लो। ‘‘जोड़ी सुनती है और अपने टंक को चला कर शिक्षिका के पास ले जाती है जो उसमें पेटोंल भरने का अभिनय करती हैं। शिक्षिका के साथ शब्दों और हरकतों के इस आदान-प्रदान के बिना जोड़ी केवल टंक के पहियों की आवाज और गति की छानबीन ही करती रह जाती। शिक्षिका के व्यवहार ने एक नया निविक्षे तैयार करके बच्चों के व्यवहार को हस्त-प्रयोग से आगे एक और अधिक परिष्कृत स्तर तक पहुंचा दिया।
इस स्तर पर बच्ची कोई और होने का बहाना कर सकती है या वस्तु को एक प्रतीकात्मक तरीके से इस्तेमाल कर सकती है। पियाजे की तरह एलकोनिन ने भी प्रतीकात्मक कार्य को एक वस्तु का दूसरी वस्तु के पर्याय के रूप में प्रयोग कह कर परिभाषित किया है। खेल का दर्जा पाने के लिए वस्तुओं की छानबीन में प्रतीकात्मक प्रस्तुति का शामिल होना आवश्यक है। जब एक बच्चा किसी वस्तु को दबाता, गिराता या मेज़ पर पटकता है तो वह वस्तु के साथ हाथों का प्रयोग कर रहा है। इसे खेल नहीं कहा जा सकता। अगर वह किसी वस्तु को बŸाख मान कर उसे मेज़ पर तैरा रहा हो और उसे डबलरोटी के टुकड़े खिला रहा हो तो वह खेल है।
प्रीस्कूल और किण्डरगार्टन में खेल
एलकोनिन के अनुसार प्रीस्कूल के आरंभिक वर्षों में खेल वस्तु की ओर उन्मुख होता है। खेल के केन्द्र में वस्तु होती है और आदान-प्रदान में खेलने वालों की भूमिकाएं गौण होती हैं। तीन साल के जोन और टोमैजो घर-घर खेलते समय एक दूसरे से यह तो कहते हैं कि ‘हम घर-घर खेल रहे हैं, लेकिन अपने परिवार के वयस्कों की भूमिकाओं का नाटक नहीं करते। व प्लेटें धोते हैं, गैस पर रखे पतीले, चमचे हिलाते हैं और एक दूसरे से ज्यादा बात नहीं करते।
इसकी तुलना में प्रीस्कूल और किण्डरगार्टन के बड़े बच्चों के खेल के साथ कीजिए जो अधिक समाजोन्मुख होता है। पांच वर्ष के बच्चों के लिए पतीले में चमचा चलाना और प्लेटें धोना उन जटिल भूमिकाओं के लिए एक संदर्भ बन जाता है , जिनका वे अभिनय करते हैं। उनका खेल वस्तु-केन्द्रित नहीं होता है, धोने और चमचा चलाने की क्रियाओं का संक्षेपण या केवल कथन भी हो सकता हैं। समाजोन्मुख खेल में भूमिकाएं बातचीत में तय की जाती और अधिक लम्बी अवधि तक अभिनीत की जाती है। बच्ची जो पात्र खेल रही है, वही बन जाती है। इस प्रकार का खेल चार से छः वर्ष तक के बच्चों के लिए सामान्य है लेकिन किसी न किसी रूप में प्रीस्कूल की पूरी अवधि में चलता रहता है। वाइगोत्स्कीय ढांचे में समाजोन्मुखी खेल में दूसरे बच्चों का शामिल होना अनिवार्य नहीं है। बच्चा वह खेल भी खेल सकता है जिसे ‘निर्देशक का खेल’ कहा जाता हैं निर्देशक के खेल में बच्चा अपने काल्पनिक साथियों अथवा खिलौनों के साथ खेल का निर्देशन व अभिनय करता है। रुईभरे खिलौनों और गुड़ियों को लेकर आइज़क सिम्फनी ऑर्केस्टां के संचालन का नाटक करता है। माया स्कूल-स्कूल खेलती है। एक पल वह शिक्षक होती है और दूसरे पल अपने विद्यार्थी भालू की ओर से बोलती है। कुछ पश्चिमी शोधकर्ताओं (जैसे पार्टन, 1932) के विपरीत वाइगोत्स्की एकान्त में खेले गये सभी खेलों को अपरिपक्व नहीं मानते हैं। अकेले खेलते हुए बच्चा यदि वहां अन्य लोगों के मौजूद होने का बहाना करता है तो निर्देशक का खेल कल्पित सामाजिक खेल के समकक्ष होता है। पियाजे के विपरीत वाइगोत्सकीवादी यह नहीं मानते कि सात या आठ वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते समाजोन्मुख खेल समाप्त हो जाते हैं। दस या ग्यारह साल तक के बच्चे भी इनको खेलते हैं किन्तु एक प्रमुख गतिविधि के रूप में इनका महत्व धीरे-धीरे लुप्त हो जाता है। बच्चे जैसे जैसे बड़े होते हैं वैसे-वैसे वे अपने समाजोन्मुख खेलों के लिए और अधिक स्पष्ट नियम विकसित कर लेते हैं। छः साल का फ्रैंक कहता है, ‘‘यह बुरा आदमी है और बुरा आदमी हमेशा अच्छे आदमी को पकड़ने आता है।’’ मेरी जवाब देती है, ‘‘लेकिन वह पकड़ नहीं पाएगा क्योंकि अच्छे लोग ज्यादा तेज़ और उनके हवाईजहाज बेहतर होते हैं, इसलिए वे निकल जाएंगे। ‘‘बड़े होने के साथ-साथ बच्चे भूमिकाएं और कार्य (नियम) तय करने में ज्यादा समय लगाने लगते हैं और उसके बनिस्बत कथा (कल्पित स्थिति ) को अभिनीत करने में कम। वस्तुतः छः वर्ष के बच्चे कथा पर विचार-विमर्श करने में कई मिनट खर्च करते हैं और उसको अभिनीत करने में केवल कुछ सेकेण्ड।
क्रीड़ाएँ
यह खेल का एक भिन्न प्रकार है जो पाँच वर्ष के आसपास उभरता है। यह कल्पित स्थिति वाले खेल से इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें कल्पित स्थिति प्रच्छन्न रहती हैं तथा नियम प्रकट और विस्तृत रहते हैं।
उदाहरण के लिए शतरंज के खेल में एक काल्पनिक स्थिति रची जाती है क्यों ? क्योंकि उसमें घोड़ा, हाथी, राजा, रानी और इसी तरह सब अन्य केवल एक खास निश्चित प्रकार से ही चल सकते हैं। गोटियों के ऊपर से जाने और गोटियाँ मारने के नियम पूरी तरह से शतरंज की अपनी अवधारणाएं हैं। यद्यपि शतरंज के खेल में वास्तविक जीवन के संबंधों का कोई सीधा स्थानापन्न नहीं है लेकिन फिर भी, यह एक प्रकार की काल्पनिक स्थिति ही है।’’
दूसरा उदाहरण फुटबॉल का खेल है। इस खेल के खिलाड़ियों के लिए गेंद को हाथ से छूना मना है। फुटबाल इस अर्थ में एक काल्पनिक स्थिति है कि वास्तविक जीवन में वही खिलाड़ी गेंद को घुमाने के लिए हाथों का प्रयोग कर सकता है लेकिन फुटबॉल के खेल में खिलाड़ियों की सहमति से तय है कि वे अपने हाथों का प्रयोग नहीं करेंगे, उसी तरह जैसे नाटकीय खेल के पहले बच्चे तय कर लेते हैं कि वे खेल के दौरान क्या कर सकते हैं। और क्या नहीं कर सकते।
भूमिकाओं और नियमों के बीच सन्तुलन के स्वरूप को देखते हुए क्रीड़ाएं समाजोन्मुख खेलों से भिन्न हैं। समाजोन्मुख खेल में भूमिकाएं प्रकट हैं, नियम प्रच्छन्न। बच्चे भूमिकाओं और उनकी अपेक्षाओं पर बात करते हैं लेकिन नियमभंग से खेलभंग नहीं होता। बच्चा तयशुदा अनुक्रम से भिन्न भी कुछ कर बैठता है तो उससे खेल में गड़बड़ नहीं होती। इसके विपरीत क्रीड़ा में नियम स्पष्ट होते हैं। नियम तोड़ कर क्रीड़ा चल नहीं सकती।
क्या सभी खेल एक प्रमुख गतिविधि हैं?
सभी खेलों को एकप्रमुख गतिविधि नहीं माना जा सकता क्योंकि हर प्रकार के खेलों में व्यवहार, विकास को प्रोत्साहित नहीं करता। आगामी अधिगम के लिए बच्चे को तैयार करने वाले खेल की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-
- (1) प्रतीकात्मक प्रस्तुति और प्रतीकात्मक कार्य
- (2) परस्पर गुँथी हुई जटिल अन्तर्वस्तु
- (3) गुँथी हुई जटिल भूमिकाएं
- (4) समय का विस्तारित ढांचा (अनेक-दिवसीय-अवधि)
तीन साल की उम्र के बच्चों में इन लक्षणों में से कुछ के उभार की शुरूआत ही होती है परन्तु किण्डरगार्टन से बाहर आने तक बच्चे में ये सारे लक्षण विकसित हो जाने चाहिए।
वाइगोत्सकी और एलकोनिन के अनुसार, विस्तारित अवधि तक जारी रहने वाला नाटक अधिक आत्मनियंत्रण, आयोजन और स्मृति की मॉंग करके बच्चे को निकट विकास क्षेत्र के उच्चतम स्तरों की ओर धकेलता है।
प्रतीकात्मक प्रस्तुति और प्रतीकात्मक कार्य
खेल के उच्चतर स्तर पर बच्चे वस्तुओं और कार्यां का प्रयोग किन्हीं अन्य वस्तुओं और कार्यों के स्थानापन्न की तरह प्रतीकात्मक ढंग से करते हैं। इस स्तर पर खेलने वाले बच्चे जरुरत का ठीक वही खिलौना या वस्तु न मिले तो अपना खेल बन्द नहीं कर देते। वे केवल किसी और वस्तु को स्थानापन्न की तरह इस्तेमाल कर लेते हैं। यहां तक कि वे बिना किसी भौतिक स्थानापन्न के, उस वस्तु के मौजूद होने का बहाना भी करने को राजी हो सकते हैं। इस स्तर पर वे कार्यां के साथ भी प्रतीकात्मक व्यवहार करते हैं। इमारत के गिरने का खेल खेलने के लिए वे किसी ढाँचे को गिराए बिना ही इमारत को गिरा हुआ मान सकते हैं। उन्हें बस यह कहने की जरूरत है, ‘मान लो’ गिर गयी। इस तरह के आविष्कार को बढ़ावा देने वाली स्थितियां खेल को और भी प्रोत्साहित करेंगी।
गुँथी हुई जटिल विषयवस्तु
उच्चतर खेल में अनेक विषयवस्तु हो सकती हैं, जो आपस में गुँथ कर एक संपूर्ण इकाई बन जाती हैं। खेल के प्रवाह में बच्चे बिना किसी रुकावट के दूसरे लोगों, खिलौनों और विचारों को शामिल कर लेते हैं। असम्बद्ध सी दिखने वाली विषयवस्तुओं का एकीकरण भी वे अपनी कल्पित स्थिति में कर लेते हैं। उदाहरण के लिए एम्बुलेंस की मरम्मत का खेल खेलते समय वे अचानक किसी मिस्त्री की तबियत बिगड़ जाने का खयाल भी उसमें जोड़ सकते हैं। अब डाक्टर को बुलाना होगा या मिस्त्री को अस्पताल ले जाना होगा। इस तरह वे गैरेज की विषयवस्तु को अस्पताल की विषयवस्तु के साथ गूँथ देते हैं।
गुँथी हुई जटिल भूमिकाएँ
उच्चतर स्तर पर खेल में बच्चे एक ही समय में अनेक भूमिकाएँ अपना सकते हैं, उनको समन्वित कर सकते हंै। निम्नतर स्तर पर वे एक ही विषयवस्तु से जुडी ़ रूढ़ भूमिकाएँ करते हैं जैसे मम्मी की भूमिका में वे शिशु को दूध पिलाते, प्लेटें धोते हैं। खेल जब उच्चतर स्तर पर आ जाता है तो माँ काम के लिए दफ़्तर जाती है, बीमार बच्चे को लेकर अस्पताल जाती है, फिर डाक्टर बन कर बच्चे का इलाज करती है, इसके बाद रोता हुआ बच्चा भी बन जाती है और इस सबके बाद माँ की अपनी मूल भूमिका में वापस लौट आती है।
संयम का विस्तारित ढाँचा
उच्चतर स्तर पर खेल में समय के विस्तारित ढाँचे से खेल के दो पक्ष प्रकट होते हैं। एक तो यह कि बच्चा कितने समय तक खेल को चला सकता है। विभिन्न भूमिकाओं के निर्वाह को बच्चा जितने ही लम्बे समय तक बनाए रख सकता है, खेल का स्तर उतना ही उच्च होता है। दूसरे, यह कि खेल एक दिन से अधिक चलता है या नहीं। बड़े बच्चे, युद्ध या अस्पताल का वही खेल कई-कई दिनों तक लगातार खेल सकते हैं। चार साल का बच्चा भी मदद के द्वारा एक खेल को कई दिन तक खेल सकता है। आरंभिक बाल्यकाल के शिक्षक खेल को विस्तारित अवधि तक नहीं चलाते। वे खेल को अधिकतर एक दिन के लिए सीमित रखते हैं। वाइगोत्स्की और एलकोनिन, के अनुसार विस्तारित अवधि तक जारी रहने वाला नाटक अधिक आत्मनियंत्रण, आयोजन और स्मृति की माँग करके बच्चे को निविक्षे के उच्चतम स्तरों की ओर धकेलता है।
खेल की समृद्धि
शिक्षक को जब खेल में मदद करने की सलाह देते हैं तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे स्वयं बच्चों के साथ खेलें या उनके समूह का एक सदस्य बन कर खेल का संचालन करें। याद, रखें, खेल के लिये बच्चे का सक्रिय और उत्साहित होना जरूरी है। बच्चे विभिन्न कारणों से खेलते हैं। वैसा वयस्कों के साथ उनके आदान-प्रदान में नहीं होता है। एक वयस्क के साथ आदान-प्रदान बच्चे को अधीनता की भूमिका में रख देता है। शिक्षक चाहे जो भी करे, बच्चा एक बच्चा ही बना रहता है। खेल में बच्चे अनेक भूमिकाएँ अपनाते और आजमाते हैं। शिक्षक यदि खेल में कुछ ज्यादा ही अगुआई करता है तो बच्चे को कभी इस बात का मौका नहीं मिलता कि नाटक (pretend) करें।
इसका एक और नुकसान यह है कि शिक्षक को भी इस बात की झलक नहीं मिलेगी कि हर बच्चे के निविक्षे में क्या मौजूद है। शिक्षक के कार्यां में बच्चे के ही पक्ष को उजागर करने की प्रवृत्ति होती है। पीछे हटकर बच्चे को अपने साथियों के साथ आदान-प्रदान करते देखकर ही शिक्षक यह समझ पाएगा कि भिन्न सामाजिक संदर्भों में उसकी संभावनाएँ क्या हैं। भिन्न सामाजिक संदर्भ शिक्षक को बच्चे का वह पक्ष दिखाएंगे जिसका उसको अन्य किसी तरह से पता नहीं चल सकता है।
इसके बावजूद खेल की प्रक्रिया में शिक्षक की मदद की भूमिका महत्वपूर्ण है। कक्षा में खेल के स्तर पर उपयुक्त अवलम्ब प्रदान करने वाले संवेदनशील शिक्षक का बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। खेल में आधार प्रदान करने के लिए शिक्षक निम्नलिखित उपाय कर सकते हैं :
- १. इस बात का ध्यान रखें कि बच्चों के पास खेल के लिए पर्याप्त समय हो। प्रीस्कूल और छोटे बच्चों को वस्तुओं के आदान-प्रदान के दौरान पथप्रदर्शन और सामाजिक टकराहटों के समाधान के लिए वयस्कों के आस-पास रहते हुए समय चाहिए। इस उम्र के बच्चों को प्रीस्कूल के थोडा ़ बड़े बच्चों की अपेक्षा वयस्क-पथप्रदर्शन की जरूरत अधिक होती है। शिक्षकों को खेल के लिए पर्याप्त समय का ऐसा आयोजन करना चाहिए कि वह इन्हें खेलते हुए देख सके तथा जरूरत पड़ने पर आदान-प्रदान के लिए प्रेरित कर सके।
समृद्ध सामाजिक खेल के लिए विषयवस्तुओं और भूमिकाओं के विकास के लिए प्रीस्कूल के बड़े बच्चों को एक ठोस समय की निश्चित अवधि की आवश्यकता होती है। उन्हें हर दिन समय चाहिए ताकि विषयवस्तु को एक दिन से दूसरे दिन तक ले जाया जा सके। खेल के लिए समय भी पर्याप्त -तीस से चालीस मिनट तक - निर्धारित होना चाहिए ताकि खेल निर्बाध रूप से चल सके।
किण्डरगार्टन और पहली दूसरी कक्षा में लिए खेल एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। किण्डरगार्टन के बच्चों को आम तौर से स्कूल में खेल के लिए समय नहीं दिया जाता है अतः खेल के लिए मिश्रित आयु समूहों का एक यह नकारात्मक परिणाम हो सकता है कि खेल के भीतर आदान-प्रदान के लिए किण्डरगार्टन के बच्चों का समय कम रह जाएगा। आरंभिक प्राथमिक कक्षाओं में खेल प्रतिदिन के कार्यक्रम का हिस्सा नहीं हुआ करता। अपेक्षा की जाती है कि बच्चे मध्यावकाश में खेलेंगे। हमारा विश्वास है कि स्कूल के आरंभिक वर्षों में खेल अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। खेल के लिए समय मध्यावकाश के अलावा निश्चित किया जाना चाहिए अथवा मध्यावकाश की अवधि को बढ़ा देना चाहिए।
- २. खेल की योजना बनाने में बच्चों की मदद कीजिए। खेल आरंभ होने के पहले बच्चों से पूछिए कि वे क्या करने जा रहे हैं। बच्चों को किसी विशेष योजना के अनुसार चलने की जरूरत नहीं है लेकिन विचारों को मुखर कर लेने से समझ बेहतर होती है और साझे की गतिविधि के लिए परिस्थिति की रचना को प्रोत्साहन मिलता है। खेल के आरंभ से ठीक पहले का समय योजना बनाने के लिए सबसे अच्छा समय है। कहीं-कहीं दिन शुरू करते समय योजनाकाल में दिनभर का कार्यक्रम वर्णित किया जाता है लेकिन चिं क प्रीस्कूल के अधिकांश बच्चों के पास सुविचारित (deliberate ) स्मृति नहीं होती, उनके लिए कई घण्टे पहले का तयशुदा कार्यक्रम याद रखना कठिन होता है। यदि उन्हें शुरू करने के ठीक पहले योजना की याद न दिलाई जाए तो वह योजना और कार्यन्वयन के बीच संब ध् ां नहीं जोड़ पाएंग। े कहीं-कहीं दिन के अंत में बच्चों से दिन भर के अनुभवों का लेखा-जोखा लिखाया जाता है किन्तु यह अन्तराल भी योजना और कार्य के बीच संब ध् ां जोड न ़े के लिए पर्याप्त नहीं है। दिन के अन्त में दिनभर के कार्य अनकी स्मृति में शायद न बचे हों। यदि आपके कार्यक्रम में योजनाकाल सुबह के समय पर है तो भी खेल के ठीक पहले आपको योजना की याद बच्चों को दिलानी होगी।
खेल समाप्त होने के बाद बच्चों से पूछिये कि क्या कल भी वे इसे चलाएंगे और उन्हें यह सोचने को प्रेरित कीजिए कि कल के लिए क्या बचाकर रखें। अगले दिन खेल की शुरूआत के पहले पिछले दिन की योजना और गतिविधियों पर नज़र डालिये। याद रहे, योजना से चिपके रहना अपने आप में एक लक्ष्य नहीं है। यह केवल एक साधन है जो अपने काम में लगे रहने में बच्चों की मदद करता है।
- ३. खेल की प्रगति पर आँख रखिए। खेलते वक्त बच्चे क्या कर रहे हैं, इस पर निगाह रखिए। सोचिए कि खेल के दौरान परिपक्व खेल के लक्षणों और उनके कौशलों के विकास के लिए आप क्या सुझाव दे सकते हैं। यह ध्यान रखना जरूरी है कि आपके सुझाव और उनका हस्तक्षेप कहीं ज्यादा न हो जाएं। खेल लिए, पूछिये, ‘‘ आप डॉक्टर हैं या मरीज ?’’ या, अच्छा, तो ‘‘मेरी‘‘ काम पर जा रही है?’’
- ४. उपयुक्त अवलम्ब और खिलौनों का चुनाव कीजिए। वाइगात्स्की के अनुसार शिक्षक को खेल के स्थान पर खिलौने और बहुद्देशीय अवलम्ब जमा करके रखने चाहिए। उदाहरण के लिए रंग बिरंगे कपड़ों के कई बड़े टुकड़े राजकुमारी की एक खास पोशाक से ज्यादा उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं राजकुमारी को संस्कृतियों के खिलौनों का उपयोग। यदि बच्चों को ठीक अवलम्ब न मिले, तो स्वयं खिलौने बनाने के लिए उनको प्रोत्साहित कीजिए वे किसी स्थानापन्न वस्तु का उपयोग कर सकते हैं या वस्तु के मौजूद होने का नाटक कर सकते हैं।
- ५. उन्हें ऐसी विषयवस्तु दीजिये जो एक दिन से दूसरे दिन तक ले जाई जा सके। खेल की विषयवस्तुओं को कहानियों, फील्ड-टिंप, कक्षा की गतिविधियों व बच्चों के विचारों में तलाश किया जा सकता है। उदाहरण के लिए कला की कक्षा में चित्र बनाकर बच्चा चित्रकार होने का नाटक कर सकता है। आरंभ में बच्चों को भूमिकाओं और घटित हुई घटनाओं को याद करने के लिए मदद की जरूरत होती है किन्तु एक बार मदद के बाद वे अक्सर अपने आप खेल को चला ले जाते हैं।
- ६. जिन बच्चों को मदद की जरूरत है, उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर सिखाइए। खेल के स्थान से कतराने वाले बच्चों पर निगाह रखिए। इन बच्चों को समूह के साथ जुड़ने, नये साथी को शामिल करने या नये विचारों को स्वीकार करने में मदद की जरूरत हो सकती है।
बच्चे के खेल के स्तर को देखिए। अगर वह मुख्यतः वस्तुओं से ही खेल रहा है तो विकास के अगले स्तर तक ले जाने के लिए अवलम्ब लाभप्रद होगा। बच्चे की मदद के लिए शिक्षक उसके खेल को किसी काल्पनिक संदर्भ से जोड़ सकता है। उदाहरण के लिए मिट्टी के केक बनाते हुए बच्चे से पूछा जा सकता है कि ये केक तुम खाने के लिए बना रहे हो या बाजार में बेचोगे? ’ कभी-कभी काल्पनिक खेल की शुरूआत के लिए बस इतना सा इशारा काफी होता है।
- ७. विषयवस्तुओं को एक दूसरे के साथ गूंथने के बारे में सलाह दीजिए और करके दिखाइये। एक ही विषयवस्तु पर विभिन्न कहानियां पढ़कर सुनाइये। उदाहरण के लिए जूं से सम्बंधित भालू के बारे में और जंगल में रहनेवाले भालू के बारे में कहानियां सुनाकर यह दिखाया जा सकता है कि एक ही विषयवस्तु कैसे बदल जाती है। अलग-अलग दिखने वाली विषयवस्तुओं को जोड़ने के लिए आप ‘अगर यह होता’ भी खेल सकते हैं। उदाहरण के लिए मीरा स्कूल-स्कूल खेलना चाहती है और टोनी कार-कार खेलना चाहता है। शिक्षक उन्हें यह सुझाव दे सकते हैं कि अगर मीरा की कक्षा फील्ड-टिंप पर जा रही है तो टोनी उसकी मदद के लिए क्या कर सकता है।
- ८. झगड़ों के समाधान के उपयुक्त तरीके गढ़िये। खेल में बच्चे सामाजिक झगड़ों का समाधान करना सीखते हैं। शिक्षक को यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि बच्चे इनका समाधान अकेले ही कर लेंगे। दुर्बल सामाजिक कौशल वाले बच्चों को मदद की जरूरत होती है। शिक्षक को बातचीत के ऐसे आदर्श तरीके गढ़ने होंगे जो असहमतियों को निपटाने में सहायक होंगे , जैसे कि ‘‘मुझे लगता है ....’’ , ‘‘मुझे पसन्द नहीं कि .... ’’, या फिर, ‘‘ अगर हम ..। इसकी बजाए .... ? ’’ जिन बाह्य मध्यस्थों की चर्चा यहां की गई है, उनका प्रयोग भी मददगार हो सकता है। एक शिक्षक कक्षा में एक ‘‘कलह-पिटारी’’ या ‘खटपट-झोली’ रखते हैं जिसके भीतर एक सिक्का, एक पासा, विभिन्न लम्बाईयों की तीलियाँं, एक तकली और तुकबन्दियाँ (जैसे एक आलू दो आलू, झगड़ा बन्द दोस्ती चालू) लिखे हुए कार्ड रहते हैं जिनकी मदद से बच्चे अपने झगड़े सुलझा सकते हैं।