कामेश्वर धाम
कामेश्वर धाम | |
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धर्म संबंधी जानकारी | |
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अवस्थिति जानकारी | |
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वास्तु विवरण | |
प्रकार | शैव मंदिर |
निर्माता | साँचा:if empty |
ध्वंस | साँचा:ifempty |
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कामेश्वर धाम उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के कारों ग्राम में स्थित है। इस धाम के बारे में मान्यता है कि यह शिव पुराण और वाल्मीकि रामायण में वर्णित वही जगह है जहा भगवान शिव ने देवताओं के सेनापति कामदेव को जला कर भस्म कर दिया था। यहाँ पर आज भी वह आधा जला हुआ, हरा भरा आम का वृक्ष (पेड़) है जिसके पीछे छिपकर कामदेव ने समाधि में लीन भगवान शंकर पर पुष्प बाण चलाया था।[१][२][३]
वाल्मीकि रामायण में वर्णन
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
।। बालकाण्डे।।
(त्रयोविंश: सर्ग:)
तौ प्रयातौ महावीर्यौ दिव्यां त्रिपथगां नदीम्।
ददृशाते ततस्तत्र सरय्वा: संगमे शुभे।। 5।।
तत्राश्रम् पदम् पुण्यमृषीणामुग्रतेजषाम्।
वहुवर्षसहस्राणि तप्यतां परम् तप:।। 6।।
तं दृष्ट्वा परमप्रीतौ राघवौ पुण्यमाश्रमं।
ऊचतुस्तं महात्मानं विश्वामित्रमिदं वच:।। 7।।
कस्यायमाश्रम: पुण्य: को न्वस्मिन्वसते पुमान्
भगवन्श्रोतुमिच्छाव: परं कौतूहलं हि नौ।। 8।।
तयोस्तदवचनं श्रुत्वा प्रहस्यमुनिपुंगव:।
अब्रवीच्छ्रूयतां रामस्यायं पूर्व आश्रम:।। 9।।
कंदर्पो मुर्तिमानांसीत्काम इत्युच्यते बुधै:।
तपस्यंतमिह स्थाणुं नियमेन समाहितम्।। 10।।
कृतोद्वाहं तु देवेशं गच्छन्तं समरुद्गणम्।
धर्षयामास दुर्मेधा हुंकृतश्च महात्मना।। 11।।
दग्धस्य तस्य रौद्रेण चक्षुषा रघुनंदन।
व्यशीर्यन्त शरीरात्स्वात्सर्वगात्राणि दुर्मते:।। 12।।
तस्य गात्रं हतं तत्र निर्दग्धस्य महात्मना।
अशरीर: कृत: काम: क्रोधाद्देवेश्वरेण ह।। 13।।[४]
धर्मारण्य में समाधिस्थ भगवान शिव के तीसरे नेत्र से कामदेव के भस्म हो जाने की कथा को महर्षि वाल्मीकि ने उपरोक्त श्लोकों में वर्णित किया है। प्रसंग ऋषि विश्वामित्र के साथ अवधेश कुमार राम और लक्ष्मण का अयोध्या से ब्याघ्रसर (बक्सर) के सिद्धाश्रम की यात्रा का है। श्लोकों का अर्थ इस प्रकार है :
दोनों महाबलि राजकुमारों ने प्रात: काल नित्य-कर्म, तर्पण और गायत्री मंत्र का जप कर तपस्वी विश्मामित्र को प्रणाम किया और आगे चलने को तैयार हुए। उनको साथ लिए विश्वामित्र उस स्थल पर पहुंचे जहां गंगा और सरयू का संगम है। वहां पर उन दोनों राजकुमारों ने अनेक उग्रतपा ऋषियों के परमपवित्र आश्रम देखे जो वहां हजारों वर्षों से कठोर तप कर रहे थे। उन परमपवित्र आश्रमों को देख श्रीरामचंद्र जी और लक्ष्मण परम प्रसन्न हुए और महात्मा विश्वामित्र से बोले, “हे भगवन यह परम पवित्र आश्रम किसका है और अब यहां कौन पुरुष रहता है? हम दोनों को इसका वृत्तांत सुनने का बड़ा कौतूहल है।“ दोनों महाबलि राजकुमारों ने प्रात: काल नित्य-कर्म, तर्पण और गायत्री मंत्र का जप कर तपस्वी विश्मामित्र को प्रणाम किया और आगे चलने को तैयार हुए। उनको साथ लिए विश्वामित्र उस स्थल पर पहुंचे जहां गंगा और सरयू का संगम है। वहां पर उन दोनों राजकुमारों ने अनेक उग्रतपा ऋषियों के परमपवित्र आश्रम देखे जो वहां हजारों वर्षों से कठोर तप कर रहे थे। उन परमपवित्र आश्रमों को देख श्रीरामचंद्र जी और लक्ष्मण परम प्रसन्न हुए और महात्मा विश्वामित्र से बोले, “हे भगवन यह परम पवित्र आश्रम किसका है और अब यहां कौन पुरुष रहता है? हम दोनों को इसका वृत्तांत सुनने का बड़ा कौतूहल है।“ तपोवन में देदिव्यमान आश्रम के बारे में राजकुमारों के कौतूहल को सुनकर ऋषि विश्वामित्र हंस पड़े। उन्होंने कहा हे राम, सुनिए मैं बतलाता हूं पहले यह किसका आश्रम था। कण्दर्प जिसको ज्ञानी लोग कामदेव कहते हैं, पहले शरीरधारी था। लेकिन यहां तपस्यालीन भगवान शंकर के ध्यान को भंग कर उसने उनके मन में विकार उत्पन्न करना चाहा। तभी भगवान शंकर ने हुंकार भरा और उसे देखकर अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। देखते ही देखते वो भस्म होकर बिखर गया और अनंग यानी बिना शरीर का हो गया।
मंदिर निर्माण
अवध के राजा कवलेश्वर ने आठवीं सदी में यहां भगवान शिव के मंदिर का निर्माण करवाया था। जिसकी वजह से इस मंदिर को कवलेश्वर नाथ मंदिर भी कहा जाता है। संयुक्त प्रांत में इस्तमरारी बंदोबस्त के दौरान ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस ने सरकारी गजट में इस मंदिर के समीप स्थित झील को कवलेश्वर ताल दर्ज किया है।
कामेश्वर धाम का महात्म्य
पौराणिक ग्रंथों और वाल्मीकि रामायण के अनुसार त्रेतायुग में इस स्थान पर महर्षि विश्वामित्र के साथ भगवान श्रीराम और लक्ष्मण भी आये थे। यहां दुर्वासा ऋषि ने भी तप किया था। अघोर पंथ के प्रतिष्ठापक श्री किनाराम बाबा की प्रथम दीक्षा यहीं पर हुर्इ थी।[५]
शिवपुराण के अनुसार महाबली तारकासुर ने तप करके ब्रह्मा जी से ऐसा वरदान प्राप्त कर लिया जिसके तहत उसकी मृत्यु केवल शिवपुत्र के हाथों हो सकती थी। यह लगभग अमरता का वरदान था क्योंकि उस समय भगवान शिव की भार्या सती अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपने पतिदेव भगवान भोलेनाथ के अपमान से रूष्ट होकर यज्ञ भूमि में आत्मदाह कर चुकी थीं। इस घटना से क्रोधित भगवान शिव तांडव नृत्य कर देवगणों के प्रयास से शान्त होकर परम शान्ति के निमित्त विमुकित भूमि गंगा तमसा के पवित्र संगम पर आकर समाधिस्थ हो चुके थे।