पल्लव कविता संग्रह
पल्लव कविता संग्रह | |
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चित्र:Pallav.jpg पल्लव का मुखपृष्ठ | |
लेखक | सुमित्रानंदन पंत |
देश | भारत |
भाषा | हिंदी |
विषय | कविता संग्रह |
प्रकाशक | राजकमल प्रकाशन, दिल्ली |
प्रकाशन तिथि | 1928 |
पृष्ठ | 156 |
आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ | 81-267-0335-5 |
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पल्लव सुमित्रानंदन पंत का तीसरा कविता संग्रह है जो 1928 में प्रकाशित हुआ था। यह हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के प्रारंभ का समय था और इसकी लगभग सभी कविताएँ प्रकृति के प्रति प्रेम में डूबी हुई हैं। माना जाता है कि पल्लव में सुमित्रानंदन पंत की सबसे कलात्मक ऐसी 32 कविताओं का संग्रहीत हैं जो 1918 से 1925 के बीच लिखी गई थीं। इस संबंध में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं- ‘‘पल्लव बिलकुल नये काव्य-गुणों को लेकर हिन्दी साहित्य जगत में आया।..पन्त में कल्पना शब्दों के चुनाव से ही शुरू होती है। छन्दों के निर्वाचन और परिवर्तन में भी वह व्यक्त होती है। उसका प्रवाह अत्यन्त शक्तिशाली है। इसके साथ जब प्रकृति और मानव-सौन्दर्य के प्रति कवि के बालकोचित औत्सुक्य और कुतूहल के भावों का सम्मिलन होता है तो ऐसे सौन्दर्य की सृष्टि होती है जो पुराने काव्य के रसिकों के निकट परिचित नहीं होता। कम सम्वेदनशील पुराने सहृदय इस नई कविता से बिदक उठे थे और अधिक सम्वेदनशील सहृदय प्रसन्न हुए थे।
पल्लव के भावों की अभिव्यक्ति में अद्भुत सरलता और ईमानदारी थी। कवि बँधी रूढ़ियों के प्रति कठोर नहीं है उसने उनके प्रति व्यंग्य और उपहास का प्रहार नहीं किया, पर वह उनकी बाहरी बातों की उपेक्षा करके अन्तराल में स्थित सहज सौंदर्य की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करता है। मनुष्य के कोमल स्वभाव, बालिका के अकृत्रिम, प्रीति-स्निग्ध हृदय और प्रकृति के विराट और विपुल रूपों में अन्तर्निहित शोभा का ऐसा हृदयहारी चित्रण उन दिनों अन्यत्र नहीं देखा गया।’’ -आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी।[१]
इसी संग्रह में से एक कविता जिसका शीर्षक भी स्वयं 'पल्लव'है, निम्न है:-
अरे! ये पल्लव-बाल!
सजा सुमनों के सौरभ-हार
गूँथते वे उपहार;
अभी तो हैं ये नवल-प्रवाल,
नहीं छूटो तरु-डाल;
विश्व पर विस्मित-चितवन डाल,
हिलाते अधर-प्रवाल!
दिवस का इनमें रजत-प्रसार
उषा का स्वर्ण-सुहाग;
निशा का तुहिन-अश्रु-श्रृंगार,
साँझ का निःस्वन-राग;
नवोढ़ा की लज्जा सुकुमार,
तरुणतम-सुन्दरता की आग!
कल्पना के ये विह्वल-बाल,
आँख के अश्रु, हृदय के हास;
वेदना के प्रदीप की ज्वाल,
प्रणय के ये मधुमास;
सुछबि के छायाबन की साँस
भर गई इनमें हाव, हुलास!
आज पल्लवित हुई है डाल,
झुकेगा कल गुंजित-मधुमास;
मुग्ध होंगे मधु से मधु-बाल,
सुरभि से अस्थिर मरुताकाश!