गौड़ स्वामी

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
imported>InternetArchiveBot द्वारा परिवर्तित २३:१७, २१ सितंबर २०२० का अवतरण (Rescuing 1 sources and tagging 0 as dead.) #IABot (v2.0.7)
(अन्तर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अन्तर) | नया अवतरण → (अन्तर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

गौड़ स्वामी (उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध) काशी के विद्वान संन्यासी थे। वे व्याकरण, न्याय, मीमांसा, वेदान्त आदि के परम विद्वान थे। उनका मूलनाम भगवानदत्त था और गुरु द्वारा दिया गया नाम दीक्षानाम तारक ब्रह्मानन्द सरस्वती था।

गौड़ स्वामीजी का जन्म पंजाब के पटियाला रियासत के ‘शनोवर’ नामक गाँव में एक मध्यमवर्गीय गौड़ ब्राह्मण के घर में हुआ था। इनके पिता का नाम था–जयगोपाल मिश्र। बालक का नाम था भगवानदत्त। बड़े होने पर पढ़ने में इनकी अभिरुचि रही। पिताजी से आरम्भिक शिक्षा ग्रहण की। माता-पिता ने इन्हें बड़े लाड़-प्यार से पाला-पोसा। 12 साल की उम्र में ही इनका विवाह कर दिया। पिताजी की बिना सूचित किए ही ये पढ़ने के लिए घर से निकल पड़े और होशियारपुर जिले में ‘मदूद’ गाँव के निवासी पण्डित केशवराम सारस्वत से तीन-चार वर्षों तक पढ़ते रहे। केशवरामजी ने काशी में विद्याभ्यास किया था और प्रसिद्ध वैयाकरण भैरव मिश्र (परिभाषेन्दुशेखर की भैरवी व्याख्या के कर्त्ता) से व्याकरण का अध्ययन किया था। यहाँ आकर काव्य, नाटक, पुराण आदि के समझने की योग्यता इन्होंने प्राप्त कर ली। ‘विचारसागर’ रचयिता निश्चलदासजी ने भी आरम्भ में इन्हीं से संस्कृत का अध्ययन किया था। भगवानदत्त अब प्रौढ़ शिक्षा के निमित्त काशी आए और यहाँ के वरिष्ठ पण्डितों से नानाशास्त्रों का अध्ययन अनेक वर्षों तक करते रहे। इस युग के प्रख्यात वैयाकरण पं. काकाराम पण्डित से व्याकरण, सखाराम भट्ट से वेदान्त तथा पण्डित चन्द्रनारायण भट्टाचार्य से न्याय का विधिवत् अध्ययन किया और इन शास्त्रों में अभिनन्दनीय प्रौढ़ि प्राप्त कर ली। बीस साल में इन विद्याओं के अध्ययन तथा मनन से शास्त्रीय तत्त्वचिन्तन में गम्भीर वैदुष्य प्राप्त कर घर लौटे। माता-पिता की प्रसन्नता की सीमा न रही और सबसे अधिक प्रसन्नता की लहर उस युवती के जीवन में उठने लगी जिससे इनका बालकपन में ही विवाह हुआ था।

पण्डित जयगोपाल मिश्र अपने पण्डित पुत्र को पटियाले के बड़े-बड़े सरदारों के पास ले गए, परन्तु उन लोगों ने उनका सत्कार नहीं किया। उनकी अवहेलना से भगवानदत्त का चित्त अत्यन्त विरक्त हो गया और वे संन्यास लेने के निमित्त घर से निकल पड़े। अपने गन्तव्य स्थान का वे निर्णय बहुत पहिले ही कर चुके थे। संन्यासाश्रम में दीक्षित होना उनका चरम लक्ष्य था। काशी की दशा वे देख ही चुके थे। दाक्षिणात्म संन्यासी गौड़ ब्राह्माणों को संन्यास दीक्षा देने से सर्वथा विरत रहते थे। जातीय विद्वेष ही इसका कारण माना जाता था। फलतः उन्होंने काशी की ओर न जाकर दक्षिण की ओर ही प्रस्थान किया। इस लालसा से कि उधर ही कहीं सुयोग्य वीतराग संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ले लेंगे। उन्होंने नासिक जाने का निर्णय किया। गोदावरी के पावन तट पर विराजमान नासिक केवल धार्मिक तीर्थ ही न था, अपितु संस्कृत के विद्वानों एवं साधु-सन्तों के समागम से पवित्र होने वाला पावन स्थल भी था। यहीं रहकर वे छात्रों तथा सुबुद्ध विद्वानों को भी संस्कृत के शास्त्रों का अध्यापन करने लगे। [१]

सन्दर्भ

  1. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।