योगान्गभूत कुन्डलिनी

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योग शब्द का प्रयोग जब अन्तिम साध्य के साधन के अर्थ में किया जाता है, तब उसके दो विभाग किये जा सकते है। एक ध्यान यानी भावना-योग, और दूसरा क्रिया-योग.हठ-योग में जिसे कुन्डलिनी-योग कह सकते हैं, उसका परिगणन दूसरे विभाग में होता है। एक ही स्थान को पहुँचाने वाले कई मार्ग हो सकते हैं, गन्तव्य स्थान में पहुँचने पर सब भिन्न भिन्न मार्ग अभिन्न होकर एक हो जाते हैं। यह सही है, पर्भिन्न भिन्न मार्गों में भिन्न भिन्न तरह की धर्मशालायेंभिन्न भिन्न द्रश्य, और भिन्न भिन्न भोग है। इसी प्रकार से मार्ग छोटे बड़े भी होते हैं। अर्थात किसी मार्ग से चलने में गन्तव्य स्थान पर जल्दी पहुँचा जा सकता है, और किसी मार्ग से देर में.हवाई जहाज से जाने वाले को वह प्रकॄति का आनन्द नहीं मिल सकता है, जो कि एक पैदल जाने बाले को मिलता है। इसी प्रकार से भिन्न भिन्न मार्ग पर चलने से भिन्न भिन्न सुख और अनुभव हैं।शरीर शास्त्र औरयोग-शास्त्र में विचार करने के बाद कहा गया है कि कुन्डलिनी दाहिनी-वेगस-नर्व है। अर्थात वेगस नामकी स्नायु-ग्रन्थि तथा उसका मेरुदण्ड के साथ रहने वाले स्नायु-ग्रन्थिदण्ड के साथ जो सम्बन्ध हैं, उसका जैसा वर्णन है, वैसा ही कुण्डलिनी और चक्रों के साथ सम्बन्ध है।