गण संघ देश (प्राचीन भारत)

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गणसंघ[१] (संस्कृत: गणसंघ, समूह की सभा) या गणराज्य[२] ( समानता की सरकार), प्राचीन भारत के वे अनेक गणतांत्रिक अथवा अल्पतंत्रिक जनपद या राज्य थे जिनका बोध अनेक प्राचीन साहित्यों में पाया जाता है। कई बौद्ध, हिन्दू और अन्य संस्कृत साहित्यों में इनका ज़िक्र है।

ये गनसंघ साधारणतः बड़े राजतंत्रों के सीमांतों पर अवस्थित हुआ करते थे।[१]

सामान्यतः इन का राजनैतिक संरचना किसी विशेष कुल या गोत्र की अल्पतंत्र(उदाहरण: शाक्य गणराज्य) या अनेक गोत्रों के महासंघ के रूप की हुआ करती थी(उदाहरण:कोली गणराज्य)।

नामकरण

प्राचीन काल में दो प्रकार के राज्य कहे गए हैं। एक राजाधीन और दूसरे गणधीन। राजाधीन को एकाधीन भी कहते थे। जहाँ गण या अनेक व्यक्तियों का शासन होता था, वे ही गणाधीन राज्य कहलाते थे। इस विशेष अर्थ में पाणिनि की व्याख्या स्पष्ट और सुनिश्चित है। उन्होंने "गण" को "संघ" का पर्याय कहा है (संघोद्धौ गणप्रशंसयो :, अष्टाध्यायी 3,3,86)।

इतिहास

भारतवर्ष में लगभग एक सहस्र वर्षों (600 सदी ई. पू. से 4 थी सदी ई.) तक गणराज्यों के उतार चढ़ाव का इतिहास मिलता है। उनकी अंतिम झलक गुप्त साम्राज्य के उदय काल तक दिखाई पड़ती है। समुद्रगुप्त द्वारा धरणिबंध के उद्देश्य से किए हुए सैनिक अभियान से गणराज्यों का विलय हो गया। अर्वाचीन पुरातत्व के उत्खनन में गणराज्यों के कुछ लेख, सिक्के और मिट्टी की मुहरें प्राप्त हुई हैं। विशेषत: विजयशाली यौधेय गणराज्य के संबंध की कुछ प्रमाणिक सामग्री मिली है। (वा. श्. अ.)

भारतीय इतिहास के वैदिक युग में जनों अथवा गणों की प्रतिनिधि संस्थाएँ थीं विदथ, सभा और समिति। आगे उन्हीं का स्वरूपवर्ग, श्रेणी पूग और जानपद आदि में बदल गया। गणतंत्रात्मक और राजतंत्रात्मक परंपराओं का संघर्ष जारी रहा। गणराज्य नृपराज्य और नृपराज्य गणराज्य में बदलते रहे। ऐतरेय ब्राह्मण के उत्तरकुल और उत्तरमद्र नामक वे राज्य----जो हिमालय के पार चले गए थे-----पंजाब में कुरु और मद्र नामक राजतंत्रवादियों के रूप में रहते थे। बाद में ये ही मद्र और कुरु तथा उन्हीं की तरह शिवि, पांचाल, मल्ल और विदेह गणतंत्रात्मक हो गए।

महाभारत में दिए गए उल्लेख के अनुसार, महाभारत युग में अंधकवृष्णियों का संघ गणतंत्रात्मक था। साम्राज्यों की प्रतिद्वंद्विता में भाग लेने में समर्थ उसके प्रधान, कृष्ण, महाभारत की राजनीति को मोड़ देने लगे। पाणिनि (ईसा पूर्व पाँचवीं-सातवीं सदी) के समय सारा वाहीक देश (पंजाब और सिंध) गणराज्यों से भरा था। महावीर और बुद्ध ने न केवल ज्ञात्रिकों और शाक्यों को अमर कर दिया वरन् भारतीय इतिहास की काया पलट दी। उनके समय में उत्तर पूर्वी भारत गणराज्यों का प्रधान क्षेत्र था और लिच्छवि, विदेह, शाक्य, मल्ल, कोलिय, मोरिय, बुली और भग्ग उनके मुख्य प्रतिनिधि थे। लिच्छवि अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा से मगध के उदीयमान राज्य के शूल बने। पर वे अपनी रक्षा में पीछे न रहे और कभी तो मल्लों के साथ तथा कभी आस पास के अन्यान्य गणों के साथ उन्होंने संघ बनाया जो बज्जिसंघ के नाम से विख्यात हुआ। एक उल्लेख के अनुसार,अजातशत्रु ने अपने मंत्री वर्षकार को भेजकर उन्हें जीतने का उपाय बुद्ध से जानना चाहा। मंत्री को, बुद्ध ने आनंद को संबोधित कर अप्रत्यक्ष उत्तर दिया-----"आनंद! जब तक वज्जियों के अधिवेशन एक पर एक और सदस्यों की प्रचुर उपस्थिति में होते हैं; जब तक वे अधिवेशनों में एक मन से बैठते, एक मन से उठते और एक मन से संघकार्य संपन्न करते हैं; जब तक वे पूर्वप्रतिष्ठित व्यवस्था के विरोध में नियमनिर्माण नहीं करते, पूर्वनियमित नियमों के विरोध में नवनियमों की अभिसृष्टि नहीं करते और जब तक वे अतीत काल में प्रस्थापित वज्जियों की संस्थाओं और उनके सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं; जब तक वे वज्जि अर्हतों और गुरु जनों का संमान करते हैं, उनकी मंत्रणा को भक्तिपूर्वक सुनते हैं; जब तक उनकी नारियाँ और कन्याएँ शक्ति और अपचार से व्यवस्था विरुद्ध व्यसन का साधन नहीं बनाई जातीं, जब तक वे वज्जिचैत्यों के प्रति श्रद्धा और भक्ति रखते हैं, जब तक वे अपने अर्हतों की रक्षा करते हैं, उस समय तक हे आनंद, वज्जियों का उत्कर्ष निश्चित है, अपकर्ष संभव नहीं"। गणों अथवा संघों के ही आदर्श पर स्थापित अपने बौद्ध संघ के लिए भी बुद्ध ने इसी प्रकार के नियम बनाए। जब तक गणराज्यों ने उन नियमों का पालन किया, वे बने रहे, पर धीरे धीरे उन्होंने भी राज की उपाधि अपनानी शरू कर दी और उनकी आपसी फूट, किसी की ज्येष्ठता, मध्यता तथा शिष्यत्व न स्वीकार करना, उनके दोष हो गए। संघ आपस में ही लड़ने लगे और राजतंत्रवादयों की बन आई। तथापि गणतंत्रों की परंपरा का अभी नाश नहीं हुआ। पंजाब और सिंध से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार तक के सारे प्रदेश में उनकी स्थिति बनी रही।


चौथी सदी ईसवी पूर्व में मक्दूनियाँ के साम्राज्यवादी आक्रमणकार सिकंदर को, अपने विजय में एक एक इंच जमीन के लिए केवल लड़ना ही नहीं पड़ा, कभी कभी छद्म और विश्वासघात का भी आश्रय लेना पड़ा। पंजाबी गणों की वीरता, सैन्यकुशलता, राज्यभक्ति, देशप्रेम तथा आत्माहुति के उत्साह का वर्णन करने में यूनानी इतिहासकार भी न चूके। अपने देश के गणराज्यों से उनकी तुलना और उनके शासनतंत्रों के भेदोपभेद उन्होंने समझ बुझकर किए। कठ, अस्सक, यौधेय, मालव, क्षुद्रक, अग्रश्रेणी क्षत्रिय[३], सौभूति, मुचुकर्ण और अंबष्ठ आदि अनेक गणों के नरनारियों ने सिकंदर के दाँत खट्टे कर दिए और मातृभूमि की रक्षा में अपने लहू से पृथ्वी लाल कर दी। कठों और सौभूतियों का सौंदयप्रेम अतिवादी था और स्वस्थ तथा सुदंर बच्चे ही जीने दिए जाते थे। बालक राज्य का होता, माता पिता का नहीं। सभी नागरिक सिपाही होते और अनेकानेक गणराज्य आयुधजीवी। पर सब व्यर्थ था, उनकी अकेलेपन की नीति के कारण। उनमें मतैक्य का अभाव और उनके छोटे छोटे प्रदेश उनके विनाश के कारण बने। सिकंदर ने तो उन्हें जीता ही, उन्हीं गणराज्यों में से एक के (मोरियों के) प्रतिनिधि चंद्रगुप्त तथा उसके मंत्री चाणक्य ने उनके उन्मूलन की नीति अपनाई। परंतु साम्राज्यवाद की धारा में समाहित हो जाने की बारी केवल उन्हीं गणराज्यों की थी जो छोटे और कमजोर थे। कुलसंघ तो चंद्रगुप्त और चाणक्य को भी दुर्जय जान पड़े। यह गणराज्यों के संघात्मक स्वरूप की विजय थी। परंतु ये संघ अपवाद मात्र थे। अजातशत्रु और वर्षकार ने जो नीति अपनाई थी, वहीं चंद्रगुप्त और चाणक्य का आदर्श बनी। साम्राज्यवादी शक्तियों का सर्वात्मसाती स्वरूप सामने आया और अधिकांश गणतंत्र मौर्यों के विशाल एकात्मक शासन में विलीन हो गए।

परंतु गणराज्यों की आत्मा नहीं दबी। सिकंदर की तलवार, मौर्यों की मार अथवा बाख़्त्री यवनों और शक कुषाणों की आक्रमणकारी बाढ़ उनमें से कमजोरों ही बहा सकी। अपनी स्वतंत्रता का हर मूल्य चुकाने को तैयार मल्लोई (मालवा), यौधेय, मद्र और शिवि पंजाब से नीचे उतरकर राजपूताना में प्रवेश कर गए और शताब्दियों तक आगे भी उनके गणराज्य बने रहे। उन्होंने शाकल आदि अपने प्राचीन नगरों का मोह छोड़ माध्यमिका तथा उज्जयिनी जैसे नए नगर बसाए, अपने सिक्के चलाए और अपने गणों की विजयकामना की। मालव गणतंत्र के प्रमुख विक्रमादित्य ने शकों से मोर्चा लिया, उनपर विजय प्राप्त की, शकारि उपाधि धारण की और स्मृतिस्वरूप 57-56 ई0 पू0 में एक नया संवत् चलाया जो क्रमश:कृतमालव और विक्रम संवत् के नाम से प्रसिद्ध हुआ और जो आज भी भारतीय गणनापद्धति में मुख्य स्थान रखता है। तथापि स्वातंत्र्यभावना की यह अंतिम लौ मात्र थी। गुप्तों के साम्राज्यवाद ने उन सबको समाप्त कर डाला। भारतीय गणों के सिरमौरों में से एक-लिच्छवियों-के ही दौहित्र समुद्रगुप्त ने उनका नामोनिशान मिटा दिया और मालव, आर्जुनायन, यौधेय, काक, खरपरिक, आभीर, प्रार्जुन एवं सनकानीक आदि को प्रणाम, आगमन और आज्ञाकरण के लिये बाध्य किया। उन्होंने स्वयं अपने को महाराज कहना शुरू कर दिया और विक्रमादित्य उपाधिधारी चंद्रगुप्त ने उन सबको अपने विशाल साम्राज्य का शासित प्रदेश बना लिया। भारतीय गणराज्यों के भाग्यचक्र की यह विडंबना ही थीं कि उन्हीं के संबंधियों ने उनपर सबसे बड़े प्रहार किए----वे थे वैदेहीपुत्र अजातशुत्र मौरिय राजकुमार चंद्रगुप्त मौर्य, लिच्छविदौहित्र समुद्रगुप्त। पर पंचायती भावनाएँ नहीं मरीं और अहीर तथा गूजर जैसी अनेक जातियों में वे कई शताब्दियों आगे तक पलती रहीं।

भारतीय गणशासन

प्राचीन काल में दो प्रकार के राज्य कहे गए हैं। एक राजाधीन और दूसरे गणधीन। राजाधीन को एकाधीन भी कहते थे। जहाँ गण या अनेक व्यक्तियों का शासन होता था, वे ही गणाधीन राज्य कहलाते थे। इस विशेष अर्थ में पाणिनि की व्याख्या स्पष्ट और सुनिश्चित है। उन्होंने "गण" को "संघ" का पर्याय कहा है (संघोद्धौ गणप्रशंसयो :, अष्टाध्यायी 3,3,86)। प्राचीन संस्कृत साहित्य से ज्ञात होता है कि पाणिनि व बुद्ध-काल पूर्व, अनेक गणराज्य थे। तिरहुत से लेकर कपिलवस्तु तक गणराज्यों का एक छोटा सा गुच्छा गंगा से तराई तक फैला हुआ था। बुद्ध, शाक्यगण में उत्पन्न हुए थे। लिच्छवियों का गणराज्य इनमें सबसे शक्तिशाली था, उसकी राजधानी वैशाली थी।

  1. भारतवर्ष में गणराज्यों का सबसे अधिक विस्तार वाहीक (आधुनिक पंजाब) प्रदेश में हुआ था। उत्तर पश्चिम के इन गणराज्यों को पाणिनि ने आयुधजीवी संघ कहा है। वे ही अर्थशास्त्र के वार्ताशस्त्रोपजीवी संघ ज्ञात होते हैं। ये लोग शांतिकल में वार्ता या कृषि आदि पर निर्भर रहते थे किंतु युद्धकाल में अपने संविधान के अनुसार योद्धा बनकर संग्राम करते थे। इनका राजनीतिक संघटन बहुत दृढ़ था और ये अपेक्षाकृत विकसित थे। इनमें क्षुद्रक और मालव दो गणराज्यों का विशेष उल्लेख आता है। उन्होंने यवन आक्रांता सिकंदर से घोर युद्ध किया था। वह मालवों के बाण से तो घायल भी हो गया था। इन दोनों की संयुक्त सेना के लिये पाणिनि ने गणपाठ में "क्षौद्रकमालवी संज्ञा" का उल्लेख किया है। पंजाब के उत्तरपश्चिम और उत्तरपूर्व में भी अनेक छोटे मोटे गणराज्य थे, उनका एक श्रुंखला त्रिगर्त (वर्तमान काँगड़ा) के पहाड़ी प्रदेश में विस्तारित हुआ था जिन्हें पर्वतीय संघ कहते थे।
  1. दूसरा श्रुंखला सिंधु नदी के दोनों तटों पर गिरिगहवरों में बसने वाले महाबलशाली जातियों का था जिन्हें प्राचीनकाल में "ग्रामणीय संघ" कहते थे। वे ही वर्तमान के कबायली हैं। इनके संविधान का उतना अधिक विकास नहीं हुआ जितना अन्य गणराज्यों का। वे प्राय: उत्सेधजीवी या लूटमार कर जीविका चलानेवाले थे। इनमें भी जो कुछ विकसित थे उन्हें 'पूग और जो पिछड़े हुए थे उन्हें ब्रात कहा जाता था।
  1. संघ या गणों का एक तीसरा गुच्छा सौराष्ट्र में विस्तारित हुआ था। उनमें अंधकवृष्णियों का संघ या गणराज्य बहुत प्रसिद्ध था। महाभारत के अनुसार कृष्ण इसी संघ के सदस्य थे अतएव शांतिपर्व में उन्हें अर्धभोक्ता राजन्य कहा गया है। ज्ञात होता है कि सिंधु नदी के दोनों तटों पर गणराज्यों की यह श्रृंखला ऊपर से नीचे को उतरती सौराष्ट्र तक फैल गई थी क्योंकि सिंध नामक प्रदेश में भी इस प्रकर के कई गणों का वर्णन मिलता है। इनमें मुचकर्ण, ब्राह्मणक और शूद्रक मुख्य थे।


प्राचीन भारतीय गणशासन प्रणाली

भारतीय गणशासन के संबंध में भी पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। गण के निर्माण की इकाई "कुल" थी। प्रत्येक कुल का एक एक व्यक्ति गणसभा का सदस्य होता था। उसे "कुलवृद्ध" या पाणिनि के अनुसार "गोत्र" कहते थे। उसी की संज्ञा वंश्य भी थी। प्राय: ये राजन्य या क्षत्रिय जाति के ही व्यक्ति होते थे। ऐसे कुलों की संख्या प्रत्येक गण में परंपरा से नियत थी, जैसे लिच्छविगण के संगठन में 7707 कुटुंब या कुल सम्मिलित थे। उनके प्रत्येक कुलवृद्ध की संघीय उपाधि "राजा" होती थी। सभापर्व में गणाधीन और राजाधीन शासन का विवेचन करते हुए स्पष्ट कहा है कि साम्राज्य शासन में सत्ता एक व्यक्ति के हाथ में रहती है। (साम्राज्यशब्दों हि कृत्स्नभाक्) किंतु गण शासन में प्रत्येक परिवार में एक एक राजा होता है। (गृहे गृहेहि राजान: स्वस्य स्वस्य प्रियंकरा:, सभापर्व, 14,2)। इसके अतिरिक्त दो बातें और कही गई हैं। एक यह कि गणशासन में प्रजा का कल्याण दूर दूर तक व्याप्त होता है। दूसरे यह कि युद्ध से गण की स्थिति सकुशल नहीं रहती। गणों के लिए शम या शांति की नीति ही थी। यह भी कहा है कि गण में परानुभाव या दूसरे की व्यक्तित्व गरिमा की भी प्रशंसा होती है और गण में सबको साथ लेकर चलनेवाला ही प्रशंसनीय होता है। गण शासन के लिए ही परामेष्ठ्य यह पारिभाषिक संज्ञा भी प्रयुक्त होती थी। संभवत: यह आवश्यक माना जाता था कि गण के भीतर दलों का संगठन हो। दल के सदस्यों को वग्र्य, पक्ष्य, गृह्य भी कहते थे। दल का नेता परमवग्र्य कहा जाता था।

गणसभा में गण के समस्त प्रतिनिधियों को सम्मिलित होने का अधिकार था किंतु सदस्यों की संख्या कई सहस्र तक होती थी अतएव विशेष अवसरों को छोड़कर प्राय: उपस्थिति परिमित ही रहती थी। शासन के लिये अंतरंग अधिकारी नियुक्त किए जाते थे। किंतु नियमनिर्माण का पूरा दायित्व गणसभा पर ही था। गणसभा में नियमानुसार प्रस्ताव (ज्ञप्ति) रखा जाता था। उसकी तीन वाचना होती थी और शलाकाओं द्वारा मतदान किया जाता था। इस सभा में राजनीतिक प्रश्नों के अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के सामाजिक, व्यावहारिक और धार्मिक प्रश्न भी विचारार्थ आते रहते थे। उस समय की राज्य सभाओं की प्राय: ऐसे ही लचीली पद्धति थी।


इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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