हरिकृष्ण प्रेमी

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हरिकृष्ण 'प्रेमी' का जन्म 1908 ई. को गुना, ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ था। इनका परिवार राष्ट्रभक्त था तथा इनमें बचपन से ही राष्ट्रीयता के संस्कार थे। दो वर्ष की अवस्था में माता की मृत्यु हो गयी थी। प्रेम की अतृप्त तृष्णा ने उन्हें स्वयं 'प्रेमी' बना दिया। बंधु-बांधवों के प्रति स्नेहालु, मित्रों के प्रति अनुरक्त, स्वदेशानुराग, मनुष्य मात्र के प्रति सौहाएद-यही उनके अंतर मन का विकास है।

रचनायें 'प्रेमी' जी की सर्वप्रथम प्रकाशित रचना 'स्वर्ण विहान' (1930 ई.) गति-नाट्य है। उसमें प्रेम और राष्ट्रीयता की भावनाओं की बड़ी रसात्मक अभिव्यक्ति है। पहले ऐतिहासिक नाटक 'रक्षा-बंधन' (1938 ई.) में गुजरात के बहादुर शाह के आक्रमण के अवसर पर चित्तौड़ की रक्षा के लिए रानी कर्मवती द्वारा मुग़ल सम्राट हुमायूँ को राखी भेजने का प्रसंग है। इस रचना का मूल उद्देश्य हिंदू मुस्लिम सामंजस्य की भावना जागाना है। 'शिवा साधना' (1937 ई.) में शिवाजी की औरंगजेब की साम्प्रदायिक एवं तानाशाही नीति के विरोधी तथा धर्म निरपेक्षता और राष्ट्रीय भावना के संस्थापक के रूप में चित्रित किया गया है। 'प्रतिशोध' (1937 ई.) में छत्रपाल द्वारा बुंदेलखण्ड की शक्तियों को एकत्र करके औरंगजेब से टक्कर लेने का प्रसंग है। 'आहुति' (1940 ई.) में रणथम्भौर के हम्मीर देव द्वारा शरणागत रक्षा के लिए अलाउद्दीन खिलजी से संघर्ष और आत्म बलिदान की कथा है। 'स्वप्नभंग' (1940 ई.) में दारा की पराजय से धर्म निरपेक्षता के आदर्श के खण्डित होने का दुख:द दृश्य है। 'मित्र' (1945 ई.), 'नवीन संज्ञा', 'शतरंज के खिलाड़ी' में युद्ध-क्षेत्र में परस्पर एक दूसरे का विरोध करते हुए भी दो व्यक्तियों के मित्रता निर्वाह का आख्यान है। 'विषपान' (1945 ई.) में मेवाड़ की राजकुमारी का स्वदेश-रक्षा के लिए आत्मघात का प्रसंग है। 'उद्धार', 'भग्न प्राचीर', 'प्रकाशस्तम्भ', 'कीर्तिस्तम्भ', 'विदा' और सौंपों की सृष्टि में भी मध्यकालीन कथा-प्रसंग ही लिये गये हैं। 'शपथ' और 'सवंत प्रवर्तन' आदिमयुगीन इतिहास पर आधारित है। 'संरक्षक' का कथा-प्रसंग अंग्रेज़ी राज्य के प्रारम्भिक काल से उसकी 'येन केन प्रकारेण' साम्राज्य विस्तार की नीति को स्पष्ट करने के लिए लिया गया है। 'पाताल विजय' (1936 ई.) 'प्रेमी' जी का एकमात्र पौराणिक नाटक है।

प्रेमी' जी ने सामाजिक नाटक भी लिखे हैं। 'बंधन' (1940 ई.) में मजदूरों और पूँजीपति के संघर्ष का चित्रण है। समस्या का हल गाँधी जी की हृदय-परिवर्तन की नीति पर आधारित है। 'छाया' (1941 ई.) में एक साहित्यकार के आर्थिक संघर्ष का चित्रण है। 'ममता' में दाम्पत्य जीवन की समस्याओं का उद्घाटन है। 'प्रेमी' जी की एकांकी रचना 'बेड़ियाँ' में भी इसी समस्या को लिया गया है। 'प्रेमी' जी के दो एकांकी संग्रह 'मंदिर' (1942 ई.) और 'बादलों के पार' (1942 ई.) भी प्रकाशित हुए है। पहले संग्रह की सभी रचनाएँ 'नयी संज्ञा' देकर नये संग्रह में भी है। 'बादलों के पार', 'घर या होटल', 'वाणी मंदिर', 'नया समाज', 'यह मेरी जन्म भूमि है', और 'पश्चात्ताप' एकांकियों में आज की सामाजिक समस्याओं का चित्रण है। 'यह भी एक खेल है', 'प्रेम अंधा है', 'रूप शिखा', 'मातृभूमि का मान' और 'निष्ठुत न्याय', ऐतिहासिक एकांकी हैं। इनमें प्रेम के आर्दशवादी और विद्रोही स्वरूप को प्रस्तुत किया गया है।[1]

'प्रेमी' जी ने इधर गीति-नाट्य की शैली के कई प्रयोग किये हैं। 'सोहनी महीवाल', 'सस्सी पुन्नू', 'मिर्जा साहिबा', 'हीर राँझा' और 'दुल्लाभट्टी'। ये सभी पंजाब में प्रसिद्ध प्रेम-गाथाओं पर आधारित रेडियों के लिए लिखित संगीत रूपक हैं। प्रेम के एकनिष्ठ और विद्रोही रूपको इनमें भी उपस्थित किया गया है। देवदासी' संगीत-रूपक में भी काल्पनिक कथा को लेकर प्रेम को मनुष्य का स्वाभाविक गुणधर्म दिखाया गया है। 'मीराँबाई' में व्यक्तिगत जीवन की कठोरताओं से प्रेरित होकर गिरिधर गोपाल की माधुरी उपासना में आश्रय लेने वाली मीराँ की जीवन-कथा है।

हरिकृष्ण जी का हिंदी नाटककारों में अपना विशिष्ट स्थान है। मध्यकालीन इतिहास से कथा प्रसंगो को लेकर उन्होंने हमें राष्ट्रीय जागरण, धर्म निरपेक्षता तथा विश्व-बंधुत्व के महान् संदेश दिये हैं। उनके नाटकों में स्वच्छंदवादी शैली का बड़ा संयमित और अनुशासनपूर्ण उपयोग है, इसलिए उनके नाटक रंगमच की दृष्टि से सफल हैं। उनके सामाजिक नाटकों में वर्तमान जीवन की विषमंताओं के प्रति तीव्र आक्रोश और विद्रोह का स्वर सुनने को मिलता है। किसी समस्या का चित्रण करते हुए वे उसका हल अवश्य देते हैं और इस सम्बंध में गाँधी जी के जीवन-दर्शन का उन पर विशेष प्रभाव है।

कविता संग्रह- 'प्रेमी' जी का कविता-संग्रह 'आँखों में' (1930 ई.) प्रेम के विरह-विदग्ध वेदनामय स्वरूप स्वरूप की अभिव्यक्ति है। 'जादूगरनी' (1932 ई.) में कबीर की 'माया महाठगिनी' के मोहक प्रभाव का वर्णन एवं रहस्यात्मक अनुभूतियों की व्यंजना है। 'अनंत के पथ पर' (1932 ई.) रहस्यानुभूमि को औरघनीभूत रूप में उपस्थित करता है। 'अग्निगान' (1940 ई.) में कवि अनल वीणा लेकर राष्ट्रीय जागरण के गीत या उठा है। 'रूप दर्शन' में गजल और गीति-शैली के सम्मिलित विधान में सौंदर्य के मोहक प्रभाव को वाणी मिली है। 'प्रतिभा' में प्रेमी का प्रणय-निवेदन बड़ा मुखर हो उठा है। 'वंदना के बोल' में गाँधी जी और उनके जीवन दर्शन पर लिखित रचनाएँ हैं। 'रूप रेखा' में गजल के बन्द का सशक्त प्रयोग और 'प्रेमी' के हृदय की आकुल पुकार है 'प्रेमी' जी ने मुक्त छंद में भी कुछ रचनाएँ की हैं। 'करना है संग्राम', 'बेटी की विदा' और 'बहन का विवाह'- ये सभी संस्मरणात्मक हैं और इनमें 'प्रेमी जी' के विद्रोही दृष्टिकोण, नवीन मान्यताओं और नूतन आदर्शों की बड़ी प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति है।

फिल्म अभिनेत्री 'मुमताज़ जहाँ बेग़म देहलवी' को 'मधुबाला' यह नाम देनेवालेभी हरिकृष्ण प्रेमी थे ।