वीर रस
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वीर रस, नौ रसों में से एक प्रमुख रस है। जब किसी रचना या वाक्य आदि से वीरता जैसे स्थायी भाव की उत्पत्ति होती है, तो उसे वीर रस कहा जाता है।[१][२]
युद्ध अथवा किसी कार्य को करने के लिए ह्रदय में जो उत्साह का भाव जागृत होता है उसमें वीर रस कहते हैं
- बुन्देलों हरबोलो के मुह हमने सुनी कहानी थी।
- खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
इसी तरह, यह युद्ध का वर्णन भी वीर रस का द्योतक है-
- "बातन बातन बतबढ़ होइगै, औ बातन माँ बाढ़ी रार,
- दुनहू दल मा हल्ला होइगा दुनहू खैंच लई तलवार।
- पैदल के संग पैदल भिरिगे औ असवारन ते असवार,
- खट-खट खट-खट टेगा बोलै, बोलै छपक-छपक तरवार॥
हिन्दी साहित्य में वीर रस
- झाँसी की रानी (सुभद्रा कुमारी चौहान)
- वीरों का कैसा हो वसन्त (सुभद्रा कुमारी चौहान)
- राणा प्रताप की तलवार (श्यामनारायण पाण्डेय)
- गंगा की विदाई (माखनलाल चतुर्वेदी)
- सह जाओ आघात प्राण (त्रिलोचन)
- निर्भय (सुब्रह्मण्यम भारती)
- कर्मवीर (अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध')
- तेरे ही भुजान पर भूतल को भार (भूषण)
- इन्द्र जिमि जम्भ पर (भूषण)
- सुभाषचन्द्र (गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही')
- उठो धरा के अमर सपूतो (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)
- कलम आज उनकी जय बोल (रामधारी सिंह 'दिनकर')
आदि।