दण्डकारण्य
दण्डकारण्य (दण्डक + अरण्य = दण्डक वन) प्राचीन भारत का एक क्षेत्र था। ‘दंडकारण्य’ का सामान्य अर्थ ‘दंड देने वाला जंगल’ होना चाहिए। लोक चर्चाओं में कहा जाता है कि ये जंगल कई भयानक जंतुओं और देश निकाला दिए गए लोगों का घर थे। यह साख आज भी कायम है। आज भी ऐसा लगता है कि यहां के लोगों को देश निकाला दिया गया है। खूबसूरती, संसाधनों और आदिवासी संस्कृति से सराबोर होने के बावजूद ये जंगल ‘माओवाद प्रभावित’ क्षेत्र के नाम से जाने जाते हैं।
सशस्त्र संघर्ष के कई दुष्परिणामों में से एक यह है कि इससे क्षेत्र में रह रहे देश के निर्धनतम आदिवासियों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अशांति की वजह से लोगों के रोजमर्रा के जीवन, उनकी जरूरतों और इच्छाओं का दमन हो रहा है। कुपोषण, स्वास्थ्य देखभाल, साफ पानी और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे आम तौर पर किनारे कर दिए गए हैं। करीब 3 अरब वर्ष पहले यहां जीवन ने आकार लिया। जो पौधे और पेड़ हम अब देखते हैं, वे जीवन के पहले अंकुरों के पूर्वज हैं। यह क्षेत्र उस स्थान से पुराना है, जिसे हम भारत कहते हैं। यह तब एक अलग भूगर्भीय संरचना था। उस समय भारत ऐसा नहीं दिखता था, जैसा आज है। उस समय आदिवासी नहीं थे और पौधे-पेड़ उनके होने के लिए वातावरण तैयार कर रहे थे।
बस्तर में अबुझमाड़ पर्वत, यानि विचित्र पहाड़ियां है जो 3,900 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले जंगलों से घिरा है। वर्ष 2009 में सरकार ने इन पहाड़ों तक पहुंचने के लिए रास्ता खोला। 1980 के दशक से ही ये पहुंच से दूर थे। यही वह जगह है, जहां कृषि से पहले के जीवन को आज भी महसूस किया जा सकता है। इन जंगलों में गोंड जैसे आदिवासी समुदाय रहते हैं, जिनके पास ‘भविष्य’ जैसा शब्द हैं। हालांकि, ऐसे कई शब्दों ने अब इन्हें जकड़ लिया है। कई जनजातियां तो ऐसी हैं, जिनके अब सिर्फ पांच-सात लोग बचे हैं। यह उस जीवन का हाल है जिसका अस्तित्व करीब 10 हजार साल पुराना है। [१] ये वर्तमान में भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में [२] आता है।