बीजगणित

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यह लेख गणित के आधुनिक उपविषय बीजगणित (algebra) के बारे में है। भारत के महान गणितज्ञ आर्यभट द्वारा रचित संस्कृत ग्रन्थ के लिए बीजगणित (संस्कृत ग्रन्थ) देखें।


आर्यभट

बीजगणित (algebra) गणित के व्यापक विभागों में से एक है। संख्या सिद्धांत, ज्यामिति और विश्लेषण आदि गणित के अन्य बड़े विभाग हैं। अपने सबसे सामान्य रूप में, बीजगणित गणितीय प्रतीकों और इन प्रतीकों में हेरफेर करने के नियमों का अध्ययन है।[१] बीजगणित लगभग सम्पूर्ण गणित को एक सूत्र में पिरोने वाला विषय है। आरम्भिक समीकरण हल करने से लेकर समूह (ग्रुप्स), रिंग और फिल्ड का अध्ययन जैसे अमूर्त संकल्पनाओं का अध्ययन आदि अनेकानेक चीजें बीजगणित के अन्तर्गत आ जातीं हैं। बीजगणित के प्रगत अमूर्त भाग को अमूर्त बीजगणित कहते हैं।

गणित, विज्ञान, इंजीनियरी ही नहीं चिकित्साशास्त्र और अर्थशास्त्र के लिए भी आरम्भिक बीजगणित अपरिहार्य माना जाता है। आरम्भिक बीजगणित, अंकगणित से इस मामले में अलग है कि यह सीधे संख्याओं का प्रयोग करने के बजाय उनके स्थान पर अक्षरों का प्रयोग करता है जो या तो अज्ञात होतीं हैं या जो अनेक मान धारण कर सकतीं हैं।[२]

बीजगणित चर तथा अचर राशियों के समीकरण को हल करने तथा चर राशियों के मान निकालने पर आधारित है। बीजगणित के विकास के फलस्वरूप निर्देशांक ज्यामितिकैलकुलस का विकास हुआ जिससे गणित की उपयोगिता बहुत बढ़ गयी। इससे विज्ञान और तकनीकी के विकास को गति मिली।

महान गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय ने कहा है -

पूर्व प्रोक्तं व्यक्तमव्यक्तं वीजं प्रायः प्रश्नानोविनऽव्यक्त युक्तया।
ज्ञातुं शक्या मन्धीमिर्नितान्तः यस्मान्तस्यद्विच्मि वीज क्रियां च।

अर्थात् मन्दबुद्धि के लोग व्यक्ति गणित (अंकगणित) की सहायता से जो प्रश्न हल नहीं कर पाते हैं, वे प्रश्न अव्यक्त गणित (बीजगणित) की सहायता से हल कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, बीजगणित से अंकगणित की कठिन समस्याओं का हल सरल हो जाता है।

बीजगणित से साधारणतः तात्पर्य उस विज्ञान से होता है, जिसमें संख्याओं को अक्षरों द्वारा निरूपित किया जाता है। परन्तु संक्रिया चिह्न वही रहते हैं, जिनका प्रयोग अंकगणित में होता है। मान लें कि हमें लिखना है कि किसी आयत का क्षेत्रफल उसकी लंबाई तथा चौड़ाई के गुणनफल के समान होता है तो हम इस तथ्य को निमन प्रकार निरूपित करेंगे—

क्ष = ल x च

बीजगणिति के आधुनिक संकेतवाद का विकास कुछ शताब्दी पूर्व ही प्रारम्भ हुआ है; परन्तु समीकरणों के साधन की समस्या बहुत पुरानी है। ईसा से 2000 वर्ष पूर्व लोग अटकल लगाकर समीकरणों को हल करते थे। ईसा से 300 वर्ष पूर्व तक हमारे पूर्वज समीकरणों को शब्दों में लिखने लगे थे और ज्यामिति विधि द्वारा उनके हल ज्ञात कर लेते थे।

मोटे अर्थ में बीजगणित, गणित की उस शाखा को कहते हैं जिसमें संख्याओं के गुणों और उनके पारस्परिक संबंधों का विवेचन सामान्य प्रतीकों (symbols) द्वारा किया जाता है। ये प्रतीक अधिकांशतः अक्षर (a, b, c,...,x, y, z) और संक्रिया चिह्न (operation signs) (+, -, *,...) और संबंधसूचक चिह्न (=, > , <...) होते हैं। उदाहरणत:, x2 +3x = 28 का अर्थ है, 'कोई ऐसी संख्या x है, जिसके वर्ग में यदि उसका तीन गुना जोड़ दिया जाए, तो फल 28 मिलता है। बीजगणितीय प्रतीकों और संख्याओं का उपयोग न केवल गणित में किन्तु विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में होने लगा है। व्यापक अर्थ में बीजगणित में निम्नलिखित विषयों का विवेचन सम्मिलित होता है :

समीकरण (equation), बहुपद (polynomial), वितत भिन्न (continued fraction), श्रेणी (series), संख्या अनुक्रम (sequence of numbers), सारणिक (determinant), समघात (form), नए प्रकार की संख्याएँ, जैसे संख्यायुग्म, मैट्रिक्स।

बीजगणित की शाखाएँ तथा क्षेत्र

आज बीजगणित में केवल समीकरणों का ही समावेश नहीं होता, इसमें बहुपद, वितत भिन्न, अनन्त गुणनफल, संख्या अनुक्रम, समघात या रूप (form), नए प्रकार की संख्याएँ जैसे संख्यायुग्म, सारणिक आदि अनेक प्रकरणों का अध्ययन किया जाता है।
बीजगणित को प्रायः निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है-

  • प्रारम्भिक बीजगणित (Elementary algebra) यह प्रायः स्कूलों में 'बीजगणित' के नाम से पढ़ाया जाता है। विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाया जाने वाला 'ग्रुप सिद्धान्त' भी प्रारम्भिक बीजगणित कहा जा सकता है।
  • अमूर्त बीजगणित (Abstract algebra) - इसे कभी-कभी 'आधुनिक बीजगणित' भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत ग्रुप्स, रिंग्स, फिल्ड्स आदि बीजगणितीय संरचनाएँ इसके अन्तर्गत सिखाई जाती हैं।
  • रैखिक बीजगणित (Linear algebra) - इसमें सदिश स्पेस के गुणों का अध्ययन किया जाता है। मैट्रिक्स भी इसी के अन्तर्गत आता है।
  • सर्वविषयक बीजगणित (Universal algebra) - इसमें सभी प्रकार के बीजगणितीय संरचनाओं (algebraic structures) के सर्वनिष्ट (कॉमन) गुणों का अध्ययन किया जाता है।
  • बीजगणितिय संख्या सिद्धांत (Algebraic number theory) - इसमें संख्याओं के गुणों का अध्ययन बीजगणितीय पद्धति से किया जाता है। संख्या सिद्धान्त ने ही बीजगणित में अमूर्तिकरन का बीज बोया।
  • बीजगणितीय ज्यामिति (Algebraic geometry) - यह ज्यामितीय समस्याओं पर अमूर्त बिजगणित का प्रयोग करती है।
  • बीजगणितीय संयोजिकी (Algebraic combinatorics) - इसके अन्तर्गत संयोजिकी (क्रमचय-संचय) के प्रश्नों के हल के लिये अमूर्त बीजगणित का प्रयोग किया जाता है।

इतिहास

६२८ ई. के लगभग भारतीय गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त द्वारा लिखे 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' नामक ग्रन्थ के आधार पर विषय का नाम बीजगणित पड़ा। इसमें बीजों, अर्थात् मूलभूत अवयवों, से परिकलन (calculation) किया जाता है। बाद में १२वीं शताब्दी में भास्कर ने भी बीजगणित पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की। ८२५ ई. के आसपास मुहम्मद इब्नमूसा अल ख्वारिज़्मी ने बगदाद में अपने जंबू द्वीप के यात्री गुरु से ज्ञान प्राप्त कर एक ग्रंथ की रचना की जिसका नाम "अलजब्र व अल मुकाबला" रखा। 'अलजब्र' अरबी का शब्द है तथा 'मुकाबला' फारसी का, और दोनों का अर्थ समीकरण या उससे संबंधित है। इस महत्वपूर्ण ग्रंथ के नाम पर ही यूरोप में इस विषय का नाम ऐलजेबरा (algebra) पड़ा। चीनी भाषा में इसके लिए ट्मैन-यूँ (अर्थात् दैवी अवयव), जापानी में किगेनसी हो (अर्थात् अज्ञातबोधी), इतालवी में आर्स मेग्ना (अर्थात् महान कला) प्रयुक्त हुआ। इनके अतिरिक्त भी अन्य नाम हैं, जो विषय की पुरातनता के द्योतक हैं।बीजगणित के जिस प्रकरण में अनिर्णीत समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम 'कुट्टक' है। हिंदू गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने उक्त प्रकरण के नाम पर ही इस विज्ञान का नाम सन् 628 ई. में 'कुट्टक गणित' रखा। बीजगणित का सबसे प्राचीन नाम यही है।

यदि समस्यासाधन हेतु वैज्ञानिक ढंग से की गई अटकलबाजी को मान्यता देना स्वीकार हो, तो २,००० वर्ष ई. पू. और उससे भी पहले बीजगणित के प्रादुर्भाव का संकेत मिलता है। यदि शब्दगत समीकरण व्याख्या को और धनमूल वाले सरल समीकरणों के ज्यामितीय आरेखों पर अवलंबित हल को मान्यता दी जाए, तो कहना होगा कि ३०० ई. पू. में यूक्लिड और ऐलेक्ज़ेंड्रिया स्कूल को बीजगणित का ज्ञान था। १६वीं शताब्दी में मुद्रण कला के विकास और रुडोल्फ, राबर्ट रेकार्ड, रेफ़िल नोंवेली तथा क्रेवियस और विद्वानों के प्रयासों से इस विषय ने व्यापकीकृत अंकगणित का रूप धारण कर लिया और १७वीं शताब्दी में प्रतीक पद्धति के परिपूर्ण हो जाने पर बीजगणित का विकास बहुत जोरों से हुआ।

बीजगणित के जिस प्रकरण में अनिर्णीत समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम 'कुट्टक' है। हिंदू गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने उक्त प्रकरण के नाम पर ही इस विज्ञान का नाम सन् 628 ई. में ‘कुट्टक गणित’ रखा। बीजगणित का सबसे प्राचीन नाम यही है। सन् 860 ई. में पृथूदक स्वामी ने इसका नाम ‘बीजगणित’ रखा। ‘बीज’ का अर्थ है ‘तत्त्व’। अतः ‘बीजगणित’ के नाम से तात्पर्य है ‘वह विज्ञान, जिसमें तत्त्वों द्वारा परिगणन किया जाता है’।

अंकगणित में समस्त संकेतों का मान विदित रहता है। बीजगणित में व्यापक संकेतों से काम लिया जाता है, जिसका मान आरम्भ में अज्ञात रहता है। इसलिए इन दोनों विज्ञानों के अन्य प्राचीन नाम व्यक्त गणित और अव्यक्त गणित भी हैं। अंग्रेजी में बीजगणित को 'अलजब्रा' (Algebra) कहते हैं। यह नाम अरब देश से आया है। सन् 825 ई. में अरब के गणितज्ञ ‘अल् ख्वारिज्मी’ ने एक गणित की पुस्तक की रचना की, जिसका नाम था ‘अल-जब्र-वल-मुकाबला’। अरबी में ‘अल-जब्र’ और फारसी में ‘मुकाबला’ समीकरण को ही कहते हैं। अतः संभवतः लेखक ने अरबी तथा फारसी भाषाओं के ‘समीकरण’ के पर्यावाची नामों को लेकर पुस्तक का नाम ‘अल-जब्र-वल-मुकाबला’ रखा। यूनानी गणित के स्वर्णिम युग में अलजब्रा का आधुनिक अर्थ में नामोनिशान तक नहीं था।

यूनानी लोग बीजगणित के अनेक कठिन प्रश्नों को हल करने की योग्यता तो रखते थे, परन्तु उनके सभी हल ज्यामितीय होते थे। वहाँ बीजगणित हल सर्वप्रथम डायफ्रैंटस (लगभग 275 ई.) के ग्रंथों में देखने को मिलते हैं; जबकि इस काल में भारतीय लोग बीजगणित के क्षेत्र में अन्य राष्ट्रों से बहुत आगे थे। ईसा से 500 वर्ष पूर्व गणित के विकास में जैनाचार्यों का श्लाघनीय योगदान रहा है। इस काल की प्रमुख कृतियाँ ‘सूर्य प्रज्ञप्ति’ तथा ‘चंद्र प्रज्ञप्ति’ जैन धर्म के प्रसिद्ध धर्मग्रंथ हैं। इन ग्रंथों की संख्या-लेखक-पद्धति, भिन्नराशिक व्यवहार तथा मिश्रानुपात, बीजगणित समीकरण एवं इनके अनुप्रयोग, विविध श्रेणियाँ, क्रमचय-संचय, घातांक, लघुगणक के नियम, समुच्चय सिद्धांत आदि अनेक विषयों पर विशद् प्रकाश डाला गया है। जॉन नेपियर (1550-1617 ई.) के बहुत पहले लघुगणक का आविष्कार एवं विस्तृत अनुप्रयोग भारत में हो चुका था, जो सार्वभौम सत्य है।

पूर्व-मध्यकाल (500 ई. पू. से 400 ई. तक) में भक्षाली गणित, हिंदू गणित की एकमात्र लिखित पुस्तक है, जिसका काल ईसा की प्रारंभिक शताब्दी माना गया है। इस पुस्तक में इष्टकर्म में अव्यक्त राशि कल्पित की गई है। गणितज्ञों की मान्यता है कि इष्टकर्म ही बीजगणित के विस्तार का आदि-स्रोत है। 628 ई. काल में ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्मस्फुट सिद्धांत के 25 अध्यायों में से 2 अध्यायों में गणितीय सिद्धांतों एवं विधियों का विस्तृत वर्णन किया है। उन्होंने गणित की 20 क्रियाओं तथा 8 व्यवहारों पर प्रकाश डाला है। बीजगणित में समीकरण साधनों के नियमों का उल्लेख किया तथा अनिर्धार्य द्विघात समीकरण (Indeterminate quadratic equations) का समाधान भी बताया, जिसे आयलर (Euler) ने 1764 ई. में और लांग्रेज ने 1768 ई. में प्रतिपादित किया। मध्ययुग के अद्वितीय गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक सिद्धान्तशिरोमणि (लीलावती, बीजगणित, गोलाध्याय, ग्रहगणितम्) एवं करण कुतूहल में गणित की विभिन्न शाखाओं तथा अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति आदि को एक प्रकार से अंतिम रूप दिया है।

वेदों में जो सिद्धांत सूत्र रूप में थे, उनकी पूर्ण अभिव्यक्ति भास्कराचार्य की रचना में हुई है। इनमें ब्रह्मगुप्त द्वारा बताई गई 20 प्रक्रियाओं और 8 व्यवहारों का अलग-अलग विवरण और उनमें प्रयोग में लाई जानेवाली विधियों का प्रतिपादन सुव्यवस्थित और सुसाध्य रूप से किया गया है। लीलावती में संख्या पद्धति का जो आधारभूत एवं सृजनात्मक प्रतिपादन किया गया है, वह आधुनिक अंकगणित तथा बीजगणित की रीढ़ है।

१८०० ई. से पहले गणित का सरोकार मुख्यतः दो सामान्य समझ-बूझ की संकल्पनाओं, संख्या और आकृति से था। १९वीं शताब्दी के आरम्भ में दो नए विचारों ने गणित के क्षेत्र को एकदम विस्तृत कर दिया : पहला यह कि गणित का व्यवहार केवल संख्याओं और आकृतियों के लिए ही नहीं, वरन् किन्हीं भी वस्तुओं के लिए किया जा सकता है। दूसरे विचार के अनुसार अमूर्तीकरण की प्रक्रिया को और आगे बढ़ाकर, गणित को केवल तर्कयुक्त विधान माना जाने लगा, जिसका किसी वस्तुविशेष से कोई सरोकार न था। पहला विचार वैज्ञानिकों को उपयोगी लगा और दूसरा शुद्ध गणितज्ञ को, जिसके लिए गणित केवल सुन्दर प्रतिरूपों का अध्ययन मात्र रह गया। इन दो दृष्टिकोणों में कोई वास्तविक विरोधाभास नहीं, क्योंकि प्राय: सुंदर प्रतिरूप भौतिक प्रकृति में ठीक बैठते हैं और वैज्ञानिक द्वारा प्रकृति में पाए गए गणितीय प्रतिरूप प्राय: सुंदर होते हैं।

बीजीय ज्यामिति - गणित की व शाखा है जिसमें बीजीय समीकरणों की सहायता से आरेखों और चित्रों के गुणधर्मों का विवेचन किया जाता है।

बीजगणित का संक्षिप्त परिचय

साररूप में इतिहास

संक्षेप में बीजगणित के विकास में उसकी विषय सीमा इन स्तरों से विस्तृत होती गई :

  • (१) लगभग १,८०० ई. पू. से २७५ ई. तक के काल में संख्या सम्बंधी पहेलियों का हल, बिना किसी प्रतीक-पद्धति की सहायता के, किया जाना;
  • (२) दिए हुए क्षेत्रफल का वर्ग ज्यामितीय विधि से खींचना;
  • (३) स्थूल प्रतीक पद्धति का विकास;
  • (४) समीकरणों का अधिक तर्कयुक्त विवेचन ८००-१२०० ई. तक;
  • (५) १६वीं शताब्दी में द्विघात और त्रिघात समीकरणों के साधन हेतु सिद्धान्त का प्रतिपादन;
  • (६) सुस्पष्ट और सुविधामय प्रतीक पद्धति का विकास तथा

संख्याएँ

वस्तुओं के गिनने में जो संख्याएँ प्रयुक्त होती हैं प्राकृतिक संख्याएँ (natural numbers) कहलाती हैं। अन्य संख्याओं को कृत्रिम संख्याएँ (artificial numbers) कहते हैं। कृत्रिम संख्याओं का अध्ययन अंकगणित में ही आरम्भ हो जाता है, किन्तु वहाँ केवल भिन्नों का ज्ञान पर्याप्त होता है। बीजगणित में ऋण संख्याओं, अपरिमेय, बीजातीत, मिश्र आदि संख्याओं का विवेचन आवयक हो जाता है।

बीजीय व्यंजक

2a का अर्थ है a +a, अर्थात् a का दुगुना। व्यापक रूप से, यदि m कोई धन पूर्ण संख्या है, तो ma का अर्थ है a का m गुना। ma को m और a का गुणनफल भी कहते हैं।

a2 का अर्थ है a.a ; a3 का अर्थ है a.a.a । व्यापक रूप से, यदि m कोई धन पूर्ण संख्या है तो am का अर्थ है

a.a.a.....m बार।

am में m को घात (exponent) और a को आधार (base) कहते हैं। आगे चलकर ma और am के अर्थ विस्तृत कर उन स्थितियों में भी बताए जाते हैं जब m ऋण, भिन्न, अपरिमेय आदि कोई भी संख्या हो।

सामान्य संख्याओं के प्रतीक एक या अधिक अक्षरों और किसी संख्या के गुणनफल को पद (term) कहते हैं, जैसे 3a2b, -4a, x (अर्थात 1x) आदि। कई एक पदों के योगफल को बीजीय व्यंजक (algebraic expression) कहते हैं। पूर्वोक्त तीन पदोंवाला व्यंजक 3a2b - 4a +x है। अकेले पद को एकपद व्यंजक (monomial), दो पदोंवाले व्यंजक को द्विपद (binomial), तीन पदवाले को त्रिपद (trinomial) कहते हैं। एक से अधिक पदवाले व्यंजक को बहुपद (polynomial) कहते हैं। दो या अधिक पदों के गुणनफल से एक पद ही प्राप्त होता है। गुणा किया जानेवाला प्रत्येक पद गुणनफल वाले पद का गुणनखण्ड (factor) कहलाता है।

वैसे तो पद के किसी एक गुणनखंड का गुणांक (coefficient) शेष गुणनखंडों का गुणनफल है, जैसे 3a3b2 में a3 का गुणांक 3b2 कहा जा सकता है, किन्तु प्रथा आरम्भवाले गुणनखंडों के गुणनफल को शेष खंडों के गुणनफल का गुणांक मानने की है। इस प्रकार b2 का गुणांक 3a है, ab2 का गुणांक 3 है। यदि गुणांक संख्यामात्र हो, तो उसे संख्यात्मक गुणांक कहते हैं। कोष्ठकों में बन्द कर व्यंजक को एक पद की भाँति प्रयुक्त किया जा सकता है।

प्रारंभिक संक्रियाएँ

बहुपदों पर सामान्य संक्रियाओं, योग, व्यवकलन (subtraction), गुणन तथा विभाजन - के अतिरिक्त गुणनखंडन, घातक्रिया (involution), वर्गमूल निर्धारण, दो या अधिक बहुपदों के लघुतम समापवर्त्य तथा महत्तम समापवर्तक ज्ञात करने की विधियाँ प्रारंभिक बीजगणित की पुस्तकों में अच्छी तरह समझाई रहती हैं (देखें, बहुपद)। अनुपात और गुणनखंड व्यापक अर्थ में सभी प्रकार की संख्याओं के लिए प्रयुक्त होते हैं।

समीकरण

समता मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं :

  • (१) 3 +2=5 संख्याओं का संबंध है।
  • (२) x +2x =3x ऐसा संबंध है जो x के सभी मानों के लिए सत्य है; इसे सर्वसमिका (identity) कहते हैं।
  • (३) x +3 =2 ऐसी समता है जो x के केवल एक ही मान (वस्तुतः -१) के लिए सत्य है; इसे समीकरण (equation) कहते हैं। प्राय: सर्वसमिका में उसका समीकरण से विभेद स्पष्ट करने के लिए, चिह्न = के स्थान में तुल्यचिह्न (≡) का प्रयोग किया जाता है। एकघात और द्विघात समीकरणों का हल डायफेंटस ने लगभग २५० ई. में दिया था (देखें डायेफैंटीय समीकरण)। भारत में आर्यभट्ट ने ४७६ ई. में द्विघात समीकरण का हल मौलिक रूप से दिया।

प्रारंभिक श्रेढियाँ

मध्यकालीन युग में समांतर (arithmetic), गुणोत्तर, आदि श्रेढियों के अध्ययन की ओर काफी रुचि थी। इसी कारण इन श्रेढियों का संकलन (योगफल ज्ञात करना) प्रारंभिक बीजगणित का रोचक विषय है। उदाहरणार्थ दो सूत्र लीजिए :

1 +2 +3 +....m पदों तक = m (m+1)
12 +22 +32 +....m पदों तक = m (m+1) (2m+1)

गुणोत्तर श्रेढी का अध्ययन हमें अनन्त श्रेणियों के अध्ययन पर ले जाता है। तब सीमा आदि महत्वपूर्ण संकल्पनाएँ आवश्यक हो जाती हैं और अवकलन तथा समाकलन बोधगम्य हो जाते हैं।

प्रारम्भिक बीजगणित का महत्व

अंकगणित की अपेक्षा प्रतीकों का प्रयोग कर, कम श्रम से अत्यन्त व्यापक फल प्राप्त करना बीजगणित की उपलब्धि है। इसीलिए बीजगणित को भाषा की 'आशुलिपि' (short hand) कहते हैं। फ्रांसीसी गणितज्ञ बर्टैड (सन् १८२२-१९००) के अनुसार बीजगणित में संक्रियाओं (ऑपरेशन्स) और परिकल्पनात्मक क्रियाकलाप का अध्ययन, जिन संख्याओं पर वे प्रयोज्य होती हैं उनसे स्वतंत्र रहकर किया जाता है। यही इस विज्ञान की विशेषता है। विज्ञान की साधना में बीजगणित का अध्ययन आवयक है। सूत्रों के रूप में तो बीजगणित की अनिवार्यता तुरन्त प्रकट हो जाती है।

व्यापकीकरण और अमूर्त बीजगणित

बीजगणित, व्यापकीकृत अंकगणित है और व्यापकीकरण की क्रिया बीजगणित के उत्तरोत्तर विकास में जारी रहती है। प्रारंभिक बीजगणित में ही ab, am, am. an, (am)n आदि के अर्थों को व्यापक कर a, b, m, n के सभी मानों के लिए निचित अर्थवाला बना दिया जाता है। यह सब (-१) के वर्गमूल की कल्पना के कारण ही सम्भव हुआ। दुर्भाग्य से इस राशि को 'काल्पनिक' मान लिया गया और इसके अंग्रेजी अनुवाद (imaginary) का पहला अक्षर i इसका प्रतीक बना। जब १७ वीं और १८वीं शताब्दी में समस्या समाधान हेतु i को इतना अधिक उपयोगी पाया गया, तो इसकी प्रकृति की ओर ध्यान गया। इसे संख्या न माने जाने पर, अमूर्त रूप से इसे संख्यायुग्मों पर कुछ स्वेच्छ संक्रियाओं का प्रतीक माना गया और मूर्त रूप से इसकी ज्यामितीय व्याख्या 'समतल में समकोण तक घुमाओ' दी गई। इन व्याख्याओं से प्रेरणा हुई कि क्यों न i जैसे अन्य प्रतीक खोजे जाएँ। इसी प्रयास में सन् १८४३ में हैमिल्टन ने त्रिविमी घूर्णन के संदर्भ में क्वाटर्नियंस i और j का आविष्कार किया और बताया कि ij =-ji , जो एक अत्यन्त महत्वपूर्ण खोज थी, क्येंकि अब तक के बीजगणित में सदा ही ab =ba था। अब गणितज्ञों ने नाना प्रकार की 'अतिसंमिश्र संख्याओं' और संक्रिया प्रतीकों को खोज कर डाली। अन्ततः यह प्रन उठता ही था कि क्यों न साधारण संख्याओं के स्थान में किन्हीं प्रतीकों को लेकर और उनके संयोजन के नियम निर्धारित कर, विशेष प्रकार के बीजगणित की रचना की जाए।

इस प्रकार सदिश बीजगणित और मैट्रिक्स (या व्यूह) बीजगणित की रचना हुई। बीजगणित की मूलभूत संक्रियाओं के व्यापकीकरण से नाना प्रकार के बीजीय तंत्र (algebraic systems) मिलते हैं। इन तंत्रों में अवयवों के संयोजन (combination) सम्बन्धी अलग अलग नियम होते हैं, जिनसे अन्य अवयव बनते हैं। चूँकि इन तंत्रों के अध्ययन में इस बात की विशेष महत्ता नहीं होती कि अवयव वास्तव में क्या हैं, बल्कि उनमें नियमों की प्राथमिकता होती है। इसलिए इन तंत्रों को अमूर्त बीजगणित (abstract algebra) की संज्ञा दी गई है।

अमूर्त तंत्रों के कुछ उदाहरण देने के लिए किसी संक्रियाँ * के प्रति निम्न संकल्पनाएँ आवयक हैं -

  • (१) अवगुंठन (Closure) : यदि किसी समुच्चय के कोई दो अवयव (elements) a और b हों, तो a*b भी उसी समुच्चय का अवयव है।
  • (२) क्रमविनिमेयता (Commutativity) : a*b = b*a*
  • (३) साहचर्य नियम (Associativity) : यदि a, b, c, समुच्चय के अवयव हों, तो (a*b)*c = a*(b*c)
  • (४) सर्वसमिका (identity) का अस्तित्व : समुच्चय में ऐसा अवयव e हो कि a*e =e*a =a
  • (५) प्रतिलोम (inverse) का अस्तित्व : समुच्चय में किसी भी अवयव a के संगत ऐसा अवयव a-1 हो कि a*a-1 = a-1*a = e
  • (६) पहली संक्रिया और दूसरी संक्रिया के प्रति वितरण नियम : a (b*c)=(a b) * (a c) और (b*c) a=(b a) * (c a)


किसी समुच्चय को संक्रिया * के प्रति ग्रुप (या संघ) तब कहते है जब उसमें गुणधर्म १, ३, ४, ५ हों। यदि गुणधर्म २ भी हो तो उसे क्रम विनिमेयी, अथवा आबेली ग्रुप कहते हैं।
दो संक्रियाओं * और ¢ के प्रति समुच्चय को रिंग तब कहा जाता है जब पहली के प्रति पाँचों गुणधर्म १ से ५ तक हों, दूसरी के प्रति १, ३ और सम्मिलिततः दोनों के प्रति ६ हों।
ऐसी रिंग को फील्ड कहते हैं, जिसमें दूसरी संक्रिया के प्रति गुणधर्म २ तथा ४ हों और पहली संक्रिया के सर्वसमक (अर्थात् a*a-1) को छोड़ अन्य हरेक अवयव का प्रतिलोम दूसरी संक्रिया के प्रति हो।

उदाहरण

जोड़ और गुणन संक्रियाओं के प्रति

  • (१) शून्य समेत सभी पूर्णसंख्याओं का सम्मुच्चय रिंग है
  • (२) सभी परिमेय संख्याओं का, अथवा वास्तविक संख्याओं का, अथवा संमिश्र संख्याओं का सम्मुच्चय फील्ड है।

गणित की अन्य शाखाओं में विाशिष्ट समस्याओं के हल करने के प्रयास में कई नए बीजीय तंत्रों का प्रादुर्भाव हुआ। अवकल समीकरणों के वर्गीकरण प्रयास में ली ग्रुप का आविष्कार हुआ। इसी प्रकार स्थिति विश्लेषण (topology) की कुछ समस्याओं ने होमोलोजिकल बीजगणित को जन्म दिया। १८५० ई. के लगभग बूल (Boole) ने सांकेतिक बीजगणित का विकास किया जिसका अब महत्वपूर्ण प्रयोग टेलीफोन परिपथ और डिजिटल इलेक्ट्रॉनिकी में हुआ है।

सन्दर्भ

  1. See Herstein स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। 1964, page 1: "An algebraic system can be described as a set of objects together with some operations for combining them".
  2. See Boyer 1991, Europe in the Middle Ages, p. 258: "In the arithmetical theorems in Euclid's Elements VII–IX, numbers had been represented by line segments to which letters had been attached, and the geometric proofs in al-Khwarizmi's Algebra made use of lettered diagrams; but all coefficients in the equations used in the Algebra are specific numbers, whether represented by numerals or written out in words. The idea of generality is implied in al-Khwarizmi's exposition, but he had no scheme for expressing algebraically the general propositions that are so readily available in geometry."

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ