योगयाज्ञवल्क्य

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Two drawings; the easiest method how to practice pranayam by Wellcome L0072457.jpg

योगयाज्ञवल्क्य योग का प्राचीन ग्रन्थ है। यह याज्ञवल्क्य की रचना मानी जाती है। यह एक सार्वजनिक सभा में याज्ञवल्क्य और गार्गी के बीच हुए संवाद के रूप में है। इसमें योग के आठ अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) बताए गे हैं। इसमें भी १० यम, १० नियम, ८ आसन, ३ प्राणायाम, ५ प्रत्याहार, ५ धारणा, ६ ध्यान, और एक समाधि गिनायी गयी है।

यमश्च नियमश्चैव आसनं च तथैव च ।
प्राणायामस्तथा गार्गिप्रत्यहारश्च धारणा ॥ ४६॥
ध्यानं समाधिरेतानि योगाङ्गानि वरानने ।
यमश्च नियमश्चैव दशधा सम्प्रकीर्तितः ॥ ४७॥
आसनान्युत्तमान्यष्टौ त्रयं तेषूत्तमोत्तमम् ।
प्रणायामस्त्रिधा प्रोक्तः प्रत्याहारश्च पञ्चधा ॥ ४८॥
धारणा पञ्चधा प्रोक्ता ध्यानं षोढा प्रकीर्तितम् ।
त्रयं तेषूत्तमं प्रोक्तं समाधिस्त्वेकरूपकः ॥ ४९॥

पाण्डुलिपियाँ

योगयाज्ञवल्क्य की कई पाण्डुलिपियाँ ज्ञात हैं। इसकी सबसे पहली प्रकाशित पाण्डुलिपि सन १८९३ ई में बंगाल में मिली थी। उसके बाद कई अन्य पाण्डुलिपियाँ मिलीं हैं जिनमें श्लोकों की संख्या अलग-अलग है। उदाहरण के लिए, सन १९५४ में दीवानजी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ में ५०० से अधिक श्लोक हैं जबकि कृष्णमाचार्य और देशिकर द्वारा अनूदित पाण्डुलिपि में ४६० ही श्लोक हैं।

सम्बन्धित पाण्डुलिपियों के गहन अध्ययन से पता चलता है कि जिसे 'योगयाज्ञवल्क्य' कहा जाता है वे दो बिल्कुल भिन्न ग्रन्थ हैं- एक 'योगयाज्ञवल्क्यगीता' है और दूसरा 'योगीयाज्ञवल्क्यस्मृति'। योगीयाज्ञवल्क्यस्मृति अपेक्षाकृत बहुत प्राचीन है और इसमें आसनों का वर्णन नहीं है। पाण्डुलिपियों में इस ग्रन्थ को 'योगयाज्ञवल्क्य का सारसमुच्चय' भी कहा गया है।

ग्रन्थ की संरचना

एक पाण्डुलिपि में १२ अध्याय तथा कुल ५०४ श्लोक हैं। यह ग्रन्थ एक पुरुष (याज्ञवल्क्य) और एक स्त्री (गार्गी) के बीच सार्वजनिक संवाद के रूप में है। ग्रन्थ का आरम्भ योगी के गुण एवं जीवनशैली से सम्बन्धित वार्ता से हुआ है। प्रथम अध्याय के ७० श्लोकों में यम की चर्चा है। द्वितीय अध्याय के १९ श्लोकों में नियमों की चर्चा है। तीसरे अध्याय से लेकर ७वें अध्याय तक १४९ श्लोकों में आसनों की चर्चा है। आसनों के बारे में यह कहा गया है कि आसनों के द्वारा योगी अपनी इन्द्रियों को वश में करता है और अपने शरीर के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है।

ग्रन्थ के ८वें अध्याय में ध्यान का वर्णन है। इसमें ४० श्लोकों में बताया गया है कि किस प्रकार ओम की सहायता से ध्यान किया जाय। इसके बाद ९वें अध्याय के ४० श्लोकों में उन्नत स्तर के ध्यान की चर्चा है जिनमें मन, वेदना और आत्मा के स्वरूप का वर्णन है। १०वें अध्याय के २३ श्लोकों में समाधि की चर्चा है।

ग्रन्थ के अन्तिम भाग में गुरु की आवश्यकता और गुरु के महत्व की चर्चा है। इसी में योगिनी के कर्तव्यों की चर्चा भी है। यह भी वर्णन है कि जब किसी को यह लगे कि कोई गलती हो गयी है तो क्या-क्या करना चाहिए।

१२वें अध्याय में संक्षेप में कुण्डलिनी की चर्चा है। इसी में योग के लाभ, मौन का स्वरूप, मन में सन्तोष की भावना आदि का वर्णन है।

यम

योगयाज्ञवल्क्य में निम्नलिखित १० यम बताए गए हैं (जबकि पतञ्जलि के योगसूत्र में केवल पाँच)।

  1. अहिंसा
  2. सत्य
  3. अस्तेय
  4. ब्रह्मचर्य
  5. दया
  6. आर्जव
  7. क्षमा
  8. धृति
  9. मिताहार
  10. शौच

नियम

योगयाज्ञवल्क्य में १० नियम गिनाए गए हैं जो कि योगसूत्र में गिनाए गए नियमों की संख्या से अधिक हैं।

  1. तपस
  2. सन्तोष
  3. आस्तिक
  4. दान
  5. ईश्वरपूजन
  6. सिद्धान्त
  7. हृ
  8. मति
  9. जप
  10. व्रत

आसन

अध्याय ३ में निम्नलिखित आठ आसनों का वर्णन है-

स्वास्तिकासन, गोमुखासन, पद्मासन, वीरासन, सिंहासन, भद्रासन, मुक्तासन, और मयूरासन

योगयाज्ञवल्क्य और योगसूत्र

योगयाज्ञवल्क्य और पतञ्जलि योगसूत्र में बहुत सी समानताएँ हैं किन्तु कुछ भिन्नताएँ भी हैं। दोनों में योग के आठ अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि) बताए गए हैं। किन्तु दोनों ग्रन्थों के दार्शनिक पक्ष अलग हैं। पतंजलि द्वैतवादी हैं जबकि याज्ञवल्क्य अद्वैतवादी

विषय पतंजलि योगसूत्र योगयाज्ञवल्क्य
परिभाषा योगःचित्तवृत्तिनिरोधः संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः
यम १०
नियम १०
आसन कोई नहीं
कुण्डलिनी उल्लेख नहीं वर्णन है
दर्शन द्वैतवाद अद्वैतवाद
आकार लघु अधिक विस्तृत

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ