सामाजिक प्रथा

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खेल के मैच के बाद खिलाड़ियों का आपस में हाथ मिलाना एक सामाजिक प्रथा (सोसल नॉर्म) है।

जब समुदाय के अनेक व्यक्ति एक साथ एक ही तरह के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करते हैं तो वह एक सामूहिक घटना होती है जिसे ‘जनरीति’ (Folkways) कहते हैं। यह जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है। इस प्रकार हस्तान्तरित होने के दौरान इसे समूह की अधिकाधिक अभिमति प्राप्त होती जाती है, क्योंकि प्रत्येक पीढ़ी का सफल अनुभव इसे और भी दृढ़ बना देता है, यही 'प्रथा' (custom) है।

कभी-कभी मानव इन प्रथाओं का पालन कानूनों के समान करता है। क्योंकि उसे समाज का भय होता है, उसे भय होता है लोकनिन्दा का और उसे भय होता है सामाजिक बहिष्कार का।

प्रथा का अर्थ एवं परिभाषा

जैसाकि उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट ही है कि समाज से मान्यता प्राप्त, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होने वाली सुव्यवस्थित, दृढ़ जनरीतियां ही ‘प्रथाएं’ कहलाती हैं। प्रथा वास्तव में सामाजिक क्रिया करने की, स्थापित व मान्य विधि है। लोग इसे इसलिए मानते हैं कि समाज के अधिकतर लोग उसी विधि के अनुसार बहुत दिनों से कार्य या व्यवहार करते आ रहे हैं। इस प्रकार ‘प्रथा’, ‘जनरीति’ का ही एक प्रौढ़ रूप है, जिसके साथ सामाजिक अभिमति या स्वीकृति जुड़ी हुई होती है। ‘प्रथा’ का सम्बन्ध एक लम्बे समय से प्रयोग में लाई जाने वाली लोक-रीतियों से होता है। दूसरे शब्दों में, इसके अन्तर्गत वे क्रियाएँ आती हैं, जिन्हें पीढ़ियों से स्वीकार किया जाता रहा है। इन्हीं प्रथाओ के कारण हम नवीन (या भिन्न) क्रियाओं को करने में कुछ हिचकिचाहट का अनुभ्व करते हैं। व्यक्ति का व्यवहार प्रथाओं से प्रभावित होता है।

मैकाइवरऔर पेजके अनुसार,

समाज से मान्यता प्राप्त कार्य करने की विधियाँ ही समाज की प्रथाएं हैं।

प्रो॰ बोगार्डस ने प्रथाओं और परम्पराओं को एक ही मानते हुए उनकी परिभाषा देते हुए कहा है,

प्रथाएं और परम्पराएं समूह द्वारा स्वीकृत नियन्त्रण की वह प्रविधियां हैं जोकि खूब सुप्रतिष्ठित हो गई हों, जिन्हें स्वीकार कर लिया गया हो और जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित हो रही हों।

सेपीरने भी लिखा है,

प्रथा शब्द का प्रयोग आचरण के उन सभी प्रतिमानों (norms) के लिए किया जाता है, जो परम्पराओं द्वारा अस्तित्व मे आते है और समूह में स्थायित्व पाते हैं।

परन्तु प्रो॰ बोगार्डसकी उपरोक्त परिभाषा से यह न समझ लेना चाहिए कि प्रथा और परम्परा (tradition) एक ही हैं। वास्तव में इनमें पर्याप्त भिन्नता है। इन दोनों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए रॉस ने लिखा है कि,

प्रथा का अर्थ क्रिया करने के एक तरीके का हस्तान्तरण है; परम्परा का अर्थ सोचने या विश्वास करने के एक तरीके का हस्तान्तरण है।

प्रथा की प्रकृति

प्रथा की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए इसकी विशेषताओं को जानना आवश्यक है-

(1) ‘प्रथा’ का आधार समाज है, पर इसे जानबूझकर नहीं बनाया जाता, अपितु सामाजिक अन्तःक्रिया के दौरान इसका विकास होता है।

(2) ‘प्रथा’ वह जनरीति है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है। इसका पालन केवल इसलिए किया जाता है कि एक लम्बे समय से अनेक व्यक्ति इसका पालन करते आ रहे हैं।

(3) ‘प्रथा’ व्यवहार की वे रीतियाँ हैं जो अनेक पीढ़ियों से चलती आती हैं और इस प्रकार समूह में स्थायित्व प्राप्त कर लेती हैं। इसके पीछे समूह या समाज की अधिकाधिक अभिमति होती है। वास्तव में अनेक पीढ़ियों का सफल अनुभव ही इसे दृढ़ बनाता है।

(4) ‘प्रथा’ रूढ़िवादी होती है, इस कारण इसे सरलता से बदला नहीं जा सकता और परिवर्तन की गति बहुत ही धीमी होती है।

(5) ‘प्रथा’ को बनाने, चलाने तथा इसे तोड़ने वालों को दण्ड देने के लिए कोई संगठन या शक्ति नहीं होती। समाज ही इसे जन्म देता और लागू करता है।

(6) मानव के हर प्र्रकार के व्यवहार को नियन्त्रित करने की क्षमता, प्रथाओं में बहुत बड़ी मात्रा में होती है। मानव के जीवन में, बचपन से लेकर मृत्युकाल तक, इनका प्रभाव पड़ता रहता है।

(7) प्रथा की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए जिन्सबर्ग ने ‘प्रथा’ और ‘आदत’ (habit) में अन्तर करना आवश्यक समझा है। आपने लिखा है कि,

‘‘मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, ‘प्रथा’ कुछ बातों में ‘आदत’ की तरह होती है; अर्थात् प्रथा ऐसी आदत है, जिसका अनुसरण न केवल एक व्यक्ति करता है, बल्कि समुदाय के अधिक-से -अधिक लोग करते हैं। फिर भी प्रथा और आदत बिलकुल समान नहीं हैं। प्रथा में एक आदर्श नियम होता है और उसमें बाध्यता होती है। आदर्श नियम से प्रथा के दो महत्वपूर्ण लक्षण प्रकट होते हैं-
  • (अ) प्रथा कार्य या व्यवहार की एक व्यापक आदत मात्र नहीं है, बल्कि उसमें कार्य या भलाई-बुराई का भी निर्णय छिपा रहता है;
  • (आ) यह निर्णय सामान्य तथा अवैयक्तिक होता है। प्रथा का बाध्यतामूलक स्वभाव उसे कार्यप्रणाली से अलग करता है। कार्यप्रणाली में वे कार्य सम्मिलित रहते हैं जिनको करने की किसी समुदाय के सदस्यों को आदत है, लेकिन जिनका स्वरूप आदर्शमूलक नहीं होता, अर्थात जिनको करने की नैतिक बाध्यता नहीं होती। इस प्रकार ‘प्रथा’ नैतिक स्वीकृति प्राप्त कार्यप्रणाली होती है।’’

(8) जिन्सबर्गके अनुसार ‘प्रथा की प्रकृति को भलीभांति समझने के लिए ‘प्रथा’ का ‘फैशन’ से भी अन्तर समझ लेना होगा। कभी-कभी यह कहा जाता है कि फैशन क्रिया की तात्कालिक समानता है; अर्थात् इसके प्रभाव से प्रत्येक व्यक्ति वही करता है जो हर दूसरा आदमी कर रहा है; और इस तरह यह अनुकरण पर आधारित होता है। पर ‘प्रथा’ तो क्रिया की क्रमिक समानता है। दूसरे शब्दों में, प्रथा के अनुसार काम करते हुए प्रत्येक व्यक्ति वही करता है जो सदैव से किया जाता रहा है और इस तरह प्रथा अनिवार्य रूप से आदत पर आधारित होती है। लेकिन दोनों में (प्रथा और फैशन में) इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण अन्तर भी है। सर्वप्रथम- प्रथा, समाज की सदा बनी रहने वाली मौलिक आवश्यकताओं से सम्बन्धित मालूम पड़ती है; जबकि फैशन का प्रभाव जीवन के कम मार्मिक और कम सामान्य क्षेत्रों में दिखाई देता है। फैशन अनिवार्य रूप से गतिशील और परिवर्तनशील होता है। वास्तव में फैशन बार-बार होने वाले परिवर्तनों का एक सिलसिला होता है और प्रायः अनुकरण और नवीनता इसकी विशेषता होती है। इसके विपरीत, प्रथा अनिवार्य रूप से सुस्थिर और बगैर टूटे चलने वाली होती है। और उसमें परिवर्तन सदैव धीमे-धीमे ही होता है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ फैशन ऐसे भी होते हैं जो बदलते नहीं हैं, लेकिन ऐसा होने पर वास्तव में वे फैशन नहीं रहते, बल्कि प्रथा बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में, उनको अतीत और वर्तमान दोनों का ही सम्मान प्राप्त होता है। दूसरी बात यह है कि प्रथा और फैशन में प्रेरक (Motive) तत्व पृथक-पृथक होते हैं।... प्रथा का अनुसरण इसलिए होता है कि भूतकाल में प्रायः इसका अनुसरण हुआ है, जबकि फैशन का इसलिए कि वर्तमान में उसका अनुसरण हो रहा है। इसके अतिरिक्त, फैशन एक तरह से नवीनता का द्योतक होता है और इसका अनिवार्य आधार अपने को दूसरे से पृथक करने की उत्कट इच्छा में पाया जाता है। इसके विपरीत, प्रथा का जोर बहुत‘ कुछ इस तथ्य पर आधारित होता है कि इसके द्वारा समाज नवीनता के खतरों से अपना बचाव कर सकता है। अर्थात् प्रथा का आधार अपने को दूसरों के अतीत के और पुरातन के समान कर लेने की इच्छा होती है।

प्रथा और जनरीति में अन्तर

साधारणतया प्रथाओं और जनरीतियों को एक ही माना जाता है। परन्तु वास्तव में ये दोनों ही भिन्न-भिन्न विचार हैं। प्रथाएँ वास्तव में जनरीतियाँ न होकर उनका ही विकसित रूप हैं। समूह का कोई भी व्यवहार तब तक प्रथा का रूप धारण नहीं कर सकता, जब तक कि उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त न हो। इस रूप में जनरीतियों को सामूहिक व्यवहार का प्रथम पग कहा जा सकता है और प्रथाओं को दू सरा पग। इसके अतिरिक्त प्रथाएँ जनरीतियों की तुलना में अधिक स्थायी और शक्तिशाली भी होती हैं। इतना ही नहीं, सामाजिक नियन्त्रण के एक साधन के रूप में, प्रथाओं का महत्व जनरीतियों से कहीं अधिक बढ़कर हैं।

प्रथा की उत्पत्ति

प्रथा की उत्पत्ति एकाएक या एक दिन में नहीं होती। किसी भी प्रथा का विकास धीरे-धीरे और काफी समय में होता है। दैनिक जीवन में मनुष्य के सामने अनेक नवीन आवश्यकताएँ आती रहती हैं। इनमें से कुछ ऐसी होती हैं जो समूह के अधिकतर लोगों से सम्बन्धित होती हैं। इसलिए इस प्रकार की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों को दूँढ़ निकालने का प्रयत्न किया जाता है। यह साधन सर्वप्रथम एक विचार (concept) या अवधारणा के रूप में एक व्यक्ति के दिमाग में आता है। व्यक्ति अपने इस विचार के अनुसार कार्य करता है और यह जानने की कोशिश करता है कि उस तरीके से उस आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है या नहीं। यदि वह अपने इस प्रयास में सफल होता है तो भविष्य में भी वैसी ही आवश्यकता आ पड़ने पर उसे वह बार-बार दोहराता है। बार-बार दोहराने से वह उसकी व्यक्तिगत आदत बन जाती है। जब दूसरे लोग प्रथम व्यक्ति के सफल व्यवहार या क्रिया की विधि को देखते हैं; तो वे भी उस विधि को अपना लेते हैं। जब व्यवहार की वह विधि समाज में फैल जाती है तो उसे जनरीति (Folkways) कहते हैं। जब जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है तो उसे प्रथा कहते हैं। इस प्रकार एक विचार से व्यक्तिगत आदत, व्यक्तिगत आदत से जनरीति और जनरीति से प्रथा की उत्पत्ति या विकास होता है। इस प्रकार प्रथा की उत्पत्ति में अतीत और वर्तमान दोनों का ही योगदान रहता है। वुण्ट ने लिखा है,

‘‘जहाँ तक हम जानते हैं, प्रथा के विकास का रास्ता केवल एक ही है और वह है समान परिस्थितियों वाली पहले की प्रथा से कार्यप्रणाली, फैशन और आदत; दूसरी ओर नए रूपों और बहुत पहले के विनष्ट अतीत के अवशेषों का मिला-जुला रूप ही प्रथा बन जाता है। प्रथा में कितना अतीत से आया है और कितना गया है, यह अन्तर कर सकना काफी कठिन है। लेकिन एकाएक ही नई प्रथा की कल्पना सम्भव नहीं।’’

यह कथन श्री जिन्सबर्ग के अनुसार इस अर्थ में सही है कि रिवाज एक सम्मिलित सृष्टि और हजारों अन्तःक्रियाओं की उपज होता है। लेकिन इससे यह न समझना चाहिए कि प्रथा के पीछे किसी महामस्तिष्क (Super mind) या समाज की सामान्य आत्मा का अस्तित्व होता है। अन्तिम रूप में किसी व्यक्तिगत आदत के साथ अन्य व्यक्तिगत आदतों के मिलने से ही प्रथा का जन्म होता है। उनमें से प्रत्येक की आदत का दूसरे से प्रभावित होते रहने और दूसरे को प्रभावित करते रहने का ही फल है कि अन्त में एक संयुक्त उपज के रूप में उसका स्वरूप स्थिर हो जाता है। इसी को हम प्रथा कहते हैं। जैसाकि हॉबहाउस ने लिखा है-

‘‘....किसी व्यक्तिगत केन्द्र (मस्तिष्क) से मत या निर्णय बाहर प्रकट होते हैं, दूसरे के मतों से उनका सम्पर्क होता है; फिर, वह मत या निर्णय दूसरे मतों से टकराता है या उसको पुष्ट करता है; वह उनको परिवर्तित करता या उनसे परिवर्तित होता है; और अन्त में विचारों और प्रभावों की इस टक्कर से न्यूनधिक स्थायी मत या निर्णय का उदय होता है जो दूसरे लोगों के विचारों को ढालने के लिए भविष्य में एक प्रभाव के रूप में काम करने लगता है।’’ यही प्रथा है; और यही उसकी उत्पत्ति का ‘रहस्य’।

प्रथाओं का सामाजिक महत्व या कार्य

सामाजिक जीवन में प्रथा के महत्व को किसी भी रूप में अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में आदिकालीन अथवा सरल समाजों में इनका महत्व राजकीय कानून से भी अधिक होता है। इसका एक विशेष कारण है और वह यह है कि सरल समाजों में व्यक्तियों का जीवन अत्यधिक रूढ़िवादी होता है, साथ ही धर्म द्वारा अत्यधिक प्रभावित होता है। अतः वे प्रथा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त, चूँकि प्रथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है, अतः इनका उल्लंघन पूर्वजों का अपमान माना जाता है। निम्नलिख्ति विवेचना से प्रथा का यह महत्व और भी स्पष्ट हो जाएगा।

  • (१) प्रथाएँ सीखने की प्रक्रिया में मदद करती हैं : जीवन में जिन क्रियाओं से व्यक्ति की सामाजिक समस्याओं का समाधान होता है, मनुष्य उन्हीं क्रियाओं को चुन लेता है और व्यर्थ व हानिप्रद क्रियाओं का त्याग कर देता है। इस प्रकार चुनी गई सफल क्रियाएं जब पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती हैं तो वे ‘प्रथा’ बन जाती हैं। अर्थात् प्रथा में कई पीढ़ियों का सफल अनुभव तथा व्यवहार-विधि का समावेश रहता है, जिससे सीखने की प्रक्रिया सरल हो जाती है। इस प्रकार प्रथाएँ मनुष्य के मानसिक परिश्रम में कमी करती हैं; क्योंकि पूर्वजों ने अपने अनुभव के आधार पर जो कुछ सीखा है, मनुष्य को उन्हीं क्रियाओं को नए सिरे से सीखना नहीं पड़ता। दूसरे शब्दों में, नई पीढ़ियाँ प्रयत्न और भूल की महंगी विधि से किसी चीज को दोबारा सीखने के कष्ट से बच जाती हैं, जिसे पुरानी पीढ़ियाँ पहले ही सीख चुकी हैं। इसको दूसरे रूप में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि पुरानी पीढ़ी के व्यवहार की प्रथाओं के माध्यम से नई पीढ़ी के व्यवहार बन जाते हैं।
  • (२) प्रथाएँ अनेक सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन में मदद करती हैं : पिछली पीढ़ियों के सफल अनुभवों से समृद्ध प्रथा अनेक समस्याओं का एक बना-बनाया (ready-made) हल व्यक्ति के सामने प्रस्तुत करती है। इसलिए प्रथा की सहायता से व्यक्ति कठिन परिस्थिति में भी, अधिक सोच-विचार किए बिना ही, समस्या का समाधान कर लेता है। यह सच है कि सभी मानवीय समस्याओं का, विशेषकर आधुनिक जटिल सामाजिक समस्याओं का, समाधान प्रथाओं के आधार पर नहीं किया जा सकता। उसके लिए नवीन विधियों को भी अपनाना पड़ता है। फिर भी नवीन विधियों को विकसित करने में प्रथाओं का विशेष हाथ हो सकता है, क्योंकि इनमें कई पीढ़ियों का सफल अनुभव सम्मिलित रहता है। नए तरीकों को विकसित करने में इन पुराने अनुभवों के महत्व से कोई इनकार नहीं कर सकता।
  • (३) प्रथाएँ व्यक्तित्व-निर्माण में सहायता करती हैं : व्यक्तित्व-निर्माण में वास्तव में प्रथाओं का अत्यधिक महत्व होता है। मानव-प्राणी का जन्म ही एक प्रथा से आरम्भ होता है, इसके उपरान्त प्रथाओं में ही वह चलता है, बड़ा होता है और प्रथाओं के अनुसार ही उसका मृत्यु-संस्कार भी होता है। इस प्रकार जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त वह प्रथाओं से घिरा रहता है। उसका समाजीकरण होता है इन प्रथाओं के ही सन्दर्भ में; और इस प्रकार उसका व्यक्तित्व भी प्रथाओं से पर्याप्त रूप में प्रभावित होता है। यदि यह कहा जाए कि प्रथाएँ व्यक्तित्व निर्माण का एक आवश्यक पहलू हैं तो अतिशयोक्ति न होगी। चूँकि प्रथाओं के आधार पर मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है अतः एक समाज के व्यक्तियों के व्यक्तित्व में थोड़ी-बहुत एकरूपता के कारण सामाजिक संगठन पनपता है और सामाजिक संघर्ष की भावनाएं कम हो जाती है।
  • (४) प्रथाएँ समाज के लिए कल्याणकारी होती हैं : प्रथाएँ व्यर्थ के अन्धविश्वासों और कुसंस्कारों का के वल संग्रह मात्र नहीं हैं। वास्तव में इनकी कुछ अपनी उपयोगिताएँ होती हैं। यह सच है कि प्रथाएँ तर्कविहीन होती हैं, अर्थात् प्रथाओं द्वारा संचालित क्रियाओं को तार्किक आधार पर नहीं समझा जा सकता, फिर भी इनका विकास किसी सामाजिक हित को दृष्टि में रखकर ही किया जाता है। कम-से-कम इतना तो निश्चित रूप से ही कहा जा सकता है कि जिस समय किसी प्रथा का प्रादुर्भाव होता है, उस समय वह समाज के सभी व्यक्तियों के हितों की पूर्ति करती है। यह हो सकता है कि भविष्य की परिवर्तित अवस्थाओं के साथ अपनी रूढ़िवादी प्रकृति के कारण कुछ प्रथाएँ अपना अनुकूलन करने

में असफल रहें और इसीलिए उनके द्वारा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति न हो। ऐसी प्रथाएँ बहुधा समाज की प्रगति में बाधक भी हो जाती हैं। परन्तु कुछ अनुपयोगी प्रथाओं का चलन देखकर हमें इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि प्रथाएँ अर्थहीन व निरर्थक होती हैं।

  • (५) प्रथाएँ सामाजिक जीवन में एकरूपता उत्पन्न करती हैं : प्रथाएँ विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों से संबंधित कुछ निश्चित व्यवहार--प्रतिमानों (behavioral norms) को प्रस्तुत करती हैं और समाज के सदस्यों पर यह दबाव डालती हैं कि वे उनको व्यवहार में लाएँ। इसका परिणाम यह होता है कि समाज के लोग अनेक परिस्थितियों में एक-सा व्यवहार करते हैं। इससे सामाजिक जीवन में एकरूपता पनपती है।
  • (६) प्रथाएँ सामाजिक संगठन का स्वरूप हैं : प्रथाएँ सामाजिक संगठन को भी बढ़ावा देती हैं। उदाहरणतः विवाह प्रथा सामाजिक संगठन को सहायता प्रदान करती हैं। इस प्रथा को न मानने से व्यक्ति विशेष की सामाजिक निन्दा होती है।

सामाजिक नियन्त्रण में प्रथाओं की भूमिका

प्रथाओं का सामाजिक नियंत्रण में अत्यधिक महत्व है। प्रथाएँ व्यक्ति के व्यवहारों को काफी सीमा तक नियन्त्रित करती हैं। यद्यपि इनके पीछे ऐसी कोई कानूनी शक्ति नहीं होती जिसके द्वारा व्यक्तियों पर उनके मनवाने के लिए दबाव डाला जा सके, फिर भी मनुष्य सामाजिक निन्दा के भय से प्रथाओं का उल्लंघन नहीं कर पाता। प्रथाएँ चूँकि पिछली पीढ़ियों का सफल अनुभव होती हैं, अतः व्यक्ति इन्हें जल्दी ही मान लेता है क्योंकि नए व्यवहारों को करने में उसे हिचकिचाहट तथा भय की अनुभूति भी होती है। प्रथाओं का प्रभाव आदिम और सरल समाजों में तो कानूनों से भी अधिक होता है।

इसका एक विशेष कारण यह है कि इस प्रकार के समाजों में व्यक्तियों का जीवन अत्यधिक रूढ़िवादी होता है, साथ ही धर्म द्वारा अधिक प्रभावित होता है। अतः वे प्रथा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त, चूँकि प्रथाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती हैं, अतः इनका उल्लंघन पूर्वजों का अपमान माना जाता है। प्रथाओं के इसी व्यापक प्रभाव को दे खते हुए शेक्सपीयर ने प्रथाओं को ‘क्रूर प्रथा’, मॉन्टेन ने ‘गुस्सेबाज व दगाबाज स्कूल-मास्टरनी’, बेकन ने ‘मनुष्य के जीवन का प्रधान न्यायाधीश’ और लॉक ने ‘प्रकृति से भी बड़ी शक्ति’ कहा है। जिन्सबर्ग ने प्रथाओं की सामाजिक नियन्त्रण में भूमिका के वर्णन की व्याख्या करते हुए लिखा है,

निश्चय ही आदिम युग के समाजों में प्रथा जीवन के सभी क्षेत्रों में व्याप्त रहती है और व्यवहार की सूक्ष्म-से-सूक्ष्म बातों में भी उसका हस्तक्षेप होता है; और सभ्य समाजों में प्रथा का प्रभाव साधारणतया जितना समझा जाता है, उससे कहीं अधिक होता है। प्रथा की शक्ति इसी बात में निहित है कि यह कार्य की समरूपता से प्राप्त होने वाली उपयोगिता से समाज को समृद्ध करती है। सामाजिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था में, जैसा कि बेगहॉट का कहना है, कि इस बात का बहुत ही अधिक महत्व रहा होगा कि कुछ ऐसे सामान्य नियम बनाए जाएँ जो लोगों को एक सूत्र में बाँधें, उनको एक ही प्रकार का व्यवहार करने के लिए मजबूर करें; और उनको यह बताएँ कि वे एक-दूसरे से क्या आशा करें। इसमें कोई भी सन्देह नहीं कि प्रथा को जो कुछ अधि-सामाजिक प्रभुत्व प्राप्त था और उनको तोड़ने या उनकी उपेक्षा करने के लिए जो कठोर दण्ड दिया जाता था, वह बहुत-कुछ इसी कारण कि लोग सहज ही प्रथा के महत्व का अनुभव करते हैं।

इसीलिए तो प्रथाओं को सामाजिक अभिमति प्राप्त होती है और इसके बल पर ही ये व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित व संचालित करती हैं और इस प्रकार सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होती हैं।

आधुनिक समाज में प्रथा की अपर्याप्तता

प्राचीन समाज छोटा और सरल होता था और प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को बहुत-कुछ व्यक्तिगत रूप से जानता-पहचानता था। साथ ही, सामाजिक जीवन में न तो परिवर्तन शीघ्रता से होता था और न ही सामाजिक समस्याएँ गम्भीर थीं। इसलिए प्रथाओं के द्वारा ही सामाजिक नियन्त्रण का कार्य सरलता से हो जाता था। परन्तु आधुनिक समाज में प्रथाएँ बिलकुल अपर्याप्त हैं और केवल इनके द्वारा सामाजिक नियन्त्रण आज असम्भव है। इसके चार प्रमुख कारण हैं-

  • (1) आधुनिक समाज बहुत जटिल होता है। आज के समाज में कितनी ही विशेष-विशेष प्रकार की समिति और संस्थाएँ हैं और सभी अपने-अपने स्वार्थों की अधिकतम पूर्ति करना चाहती हैं। इसी कारण आधुनिक समाज में संघर्ष की सम्भावनाएँ भी अधिक हैं। प्रथाओं के द्वारा इन पर नियन्त्रण रखना असम्भव है।
  • (2) आधुनिक समाज में परिवर्तन बहुत जल्दी-जल्दी होता है, इस कारण सामाजिक आवश्यकताएँ भी शीघ्रता से बदलती हैं। पर प्रथाएँ रूढ़िवादी होती हैं, इसलिए इनके द्वारा बदलती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती।
  • (3) आधुनिक समाज में अने क प्रकार के समूह पास-पास रहते हैं। हो सकता है कि इनमें से प्रत्येक की प्रथाएँ अलग-अलग हों। ऐसी अवस्था में प्रथाओं के आधार पर सामाजिक संगठन व एकता कदापि स्थापित नहीं हो सकती।
  • (4) आधुनिक समाज में अने क समूह ऐसे होते हैं जोकि बहुत ही शक्तिशाली होते हैं। उन पर प्रथा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः इन पर नियन्त्रण रखन प्रथा का कार्य नहीं है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आधुनिक समाज के लिए प्रथाएँ अपर्याप्त हैं और इनके द्वारा सामाजिक नियन्त्रण का सम्पूर्ण कार्य कदापि नहीं किया जा सकता है; यही कारण है कि आज प्रथाओं का महत्व दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है और कानून का महत्व बढ़ रहा है।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ