वैद्य की शपथ
भारत में वैद्य १५वीं शताब्दी ईसापूर्व से एक शपथ लेते रहे हैं जिसमें मांसभक्षण न करना, मद्यपान न करना और मिलावट न करना सम्मिलित है। इसके अलावा वैद्य को शपथ लेनी होती थी कि वे रोगियों का अहित नहीं करेंगे और अपने जीवन का खतरा लेकर भी उनकी देखभाल करेंगे।
इस सम्बन्ध में चरकसंहिता में कुछ निर्देश और प्रतिज्ञाएँ दी गयीं हैं। चरक ने लिखा है कि विद्यार्थी को चाहिये कि स्नान-ध्यान करके अपने शरीर को पवित्र करे, यज्ञ द्वा देवताओं को प्रसन्न करे, फिर गुरु का आशीर्वाद लेकर यह प्रतिज्ञा करे- (चरकसंहिता, विमानस्थान, अध्याय ८, अनुच्छेद १३)
- मैं जीवन भर ब्रह्मचारी रहूँगा। ऋषियों की तरह मेरी भेष-भूषा होगी। किसी से द्वेष नहीं करूँगा। सादा भोजन करूँगा। हिंसा नहीं करूँगा। रोगियों की उपेक्षा नहीं करूँगा। उनकी सेवा अपना धर्म समझूँगा। जिसके परिवार में चिकित्सा के लिये जाऊँगा उसके घर की बात बाहर नहीं कहूँगा। अपने ज्ञान पर घमण्ड नहीं करूँगा। गुरु को सदा गुरु मानूगा।
चरक शपथ
चरकसंहिता में इन प्रतिज्ञाओं की सूची बहुत विस्तृत है। नीचे दी हुई तालिका में उद्धृत अंश श्री गलबकुवीरबा आयुर्वेदिक सोसायटि, जामनगर, भारत १९४७, भाग २, पृष्ठ ८६५-८७१ से ली गयी है। [१][२] संस्कृत में मूल शपथ हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय भारतीय चिकित्सा धरोहर संस्थान के जालस्थल पर भी उपलब्ध है।[३]
संस्कृत | हिन्दी अर्थ |
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अथैनमग्निसकाशे ब्राह्मणसकाशे भिषक्सकाशे चानुशिष्यात् - | अब अग्नि के सामने, ब्राह्मण के सामने, और वैद्य के सामने शिष्य को उपदेश देना चाहिये (कि) |
ब्रह्मचारिणा श्मश्रुधारिण सत्यवादिनाऽमांसादेन मेध्यसेविना निर्मत्सरेणाशस्त्रधारिणा च भवितव्यं, न च ते मद्वचनात् किञ्चिदकार्यं स्यादन्यत्र राजद्विष्टात् प्राणहराद्विपुलादधर्म्यादनर्थसम्प्रयुक्ताद्वाऽप्यर्थात्; | तू ब्रह्मचारी का जीवन बितायेगा, अपने बाल और दाढ़ी बढ़ाएगा, केवल सत्य भाषण ही करेगा। माँस नहीं खाएगा, आहार में केवल शुद्ध वस्तुएँ ही लेगा, ईर्ष्या से मुक्त रहेगा तथा कोई हथियार धारण नहीं करेगा। राजा के प्रति घृणा अथवा किसी अन्य की मृत्यु अथवा कोई भी अधार्मिक कृत्य अथवा विनाश उत्पन्न करने वाले कृत्यों को छोड़ तू सभी अन्य कार्य मेरे आदेश पर ही करेगा। |
मदर्पणेन मत्प्रधानेन मदधीनेन मत्प्रियहितानुवर्तिना च शश्वद्भवितव्यं, पुत्रवद्दासवदर्थिवच्चोपचरताऽनुवस्तव्योऽहम्,अनुत्सेकेनावहितेनानन्यमनसा विनीतेनावेक्ष्यावेक्ष्यकारिणाऽनसूयकेन चाभ्यनुज्ञातेन प्रविचरितव्यम्, अनुज्ञातेन (चाननुज्ञातेन च) प्रविचरता पूर्वं गुर्वर्थोपाहरणे यथाशक्ति प्रयतितव्यं; | तू स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर देगा तथा मुझे अपना स्वामी समझेगा। तू मेरे अधीन रहेगा तथा सदा मेरे कल्याण एवं प्रसन्नता के लिए आचरण करेगा। तू एक पुत्र अथवा दास अथवा आश्रित के रूप में मेरी सेवा करेगा तथा मेरे साथ रहेगा। तू अहंकार-रहित होकर सावधानी और ध्यान से तथा एकाग्रह मन, विनय, स्थायी चिंतन एवं उन्मुक्त आज्ञाकारिता के साथ व्यवहार एवं कार्य करेगा। मेरे आदेश पर या अन्यथा कोई कार्य करते हुए तू अपनी श्रेष्ठतम योग्यताओं के साथ अपने गुरु के हितों की उपलब्धि हेतु ही आचरण करेगा। |
कर्मसिद्धिमर्थसिद्धं यशोलाभं प्रेत्य च स्वर्गमिच्छता भिषजा त्वया गोब्राह्मणमादौ कृत्वा सर्वप्राणभृतां शर्माशासितव्यमहरहरुत्तिष्ठता चोपविशता च, | यदि तू धरती पर चिकित्सक के रूप में तथा मृत्यु के पश्चात स्वर्ग में सफलता एवं ख्याति प्राप्त करने का इच्छुक है तो तुझे गऊ एवं ब्राह्मण से लेकर सभी प्राणियों के कल्याण हेतु प्रार्थना करनी होगी। |
सर्वात्मना चातुराणामारोग्याय प्रयतितव्यं, जीवितहेतोरपि चातुरेभ्यो नाभिद्रोग्धव्यं, मनसाऽपि च परस्त्रियो नाभिगमनीयास्तथा सर्वमेव परस्वं, निभृतवेशपरिच्छदेन भवितव्यम्, अशौण्डेनापापेनापापसहायेन च, श्लक्ष्णशुक्लधर्म्यशर्म्यधन्यसत्यहितमितवचसा देशकालविचारिणा स्मृतिमता ज्ञानोत्थानोपकरणसम्पत्सु नित्यं यत्नवता च; | तू दिन-रात भले ही कार्य में व्यस्त रहे, तू अपने जीवन अथवा अपनी आजीविका की परवाह किये बिना रोगियों को राहत पहुँचाने का हर संभव प्रयास करेगा। तू विचारों में भी परगमन नहीं करेगा। तू दूसरों की वस्तुओं की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखेगा। तू अपनी वेषभूषा एवं जीवन सादा रखेगा। तू शराब का सेवन नहीं करेगा, पाप नहीं करेगा और न ही किसी प्रकार पापी की सहायता करेगा। |
न च कदाचिद्राजद्विष्टानां राजद्वेषिणां वा महाजनद्विष्टानां महाजनद्वेषिणां वाऽप्यौषधमनुविधातव्यं, तथा सर्वेषामत्यर्थविकृतदुष्टदुःखशीलाचारोपचाराणामनपवादप्रतिकारणां [२] मुमूर्षूणां च, तथैवासन्निहितेश्वराणां स्त्रीणामनध्यक्षाणां वा; | तू उन व्यक्तियों का इलाज नहीं करेगा जो राजा से घृणा करते हों अथवा जिनसे राजा तथा प्रजा घृणा करती हो। इसी प्रकार तू उनका भी इलाज नहीं करेगा जिनका चरित्र एवं आचरण अस्वाभाविक, दुष्टतापूर्ण एवं दु:खद हो, जिन्होंने अपने सम्मान को न्यायसंगत न ठहराया हो तथा जो मृत्यु-बिन्दु पर पहुँच चुके हों तथा उस स्त्री का भी उपचार नहीं करेगा जिसकी सेवा-शुश्रूषा करने के लिए उसका पति अथवा कोई संरक्षक मौजूद न हो। |
न च कदाचित् स्त्रीदत्तमामिषमादातव्यमननुज्ञातं भर्त्राऽथवाऽध्यक्षेण, आतुरकुलं चानुप्रविशता विदितेनानुमतप्रवेशिना सार्धं पुरुषेण सुसंवीतेनावाक्शिरसा स्मृतिमता स्तिमितेनावेक्ष्यावेक्ष्य मनसा सर्वमाचरता सम्यगनुप्रवेष्टव्यम्, अनुप्रविश्य च वाङ्मनोबुद्धीन्द्रियाणि न क्वचित् प्रणिधातव्यान्यन्यत्रातुरादातुरोपकारार्थादातुरगतेष्वन्येषु वा भावेषु, न चातुरकुलप्रवृत्तयो बहिर्निश्चारयितव्याः, ह्रसितं चायुषः प्रमाणमातुरस्य जानताऽपि त्वया न वर्णयितव्यं तत्र यत्रोच्यमानमातुरस्यान्यस्य वाऽप्युपघाताय सम्पद्यते; | पति अथवा संरक्षक की आज्ञा बिना किसी स्त्री द्वारा दी गई भेंट को भी तू स्वीकार नहीं करेगा। किसी भी रोगी के घर में तू किसी ऐसे व्यक्ति के साथ ही प्रवेश करेगा जो रोगी का परिचित हो अथवा उसने रोगी की आज्ञा ले रखी हो। तू अपने शरीर को भली-भाँति ढके रहेगा, धीर की भांति सिर झुकाए रहेगा तथा बार-बार विचार करके ही आचरण करेगा। गृह में प्रवेश करने के पश्चात तेरी वाणी, मस्तिष्क, बुद्धि तथा ज्ञानेन्द्रियाँ पूर्ण रूप से केवल रोगी की सहायता के तथा उसी से सम्बन्धित बातों के अतिरिक्त किसी अन्य विचार में रत नहीं होंगी। रोगी के गृह के विशिष्ट रीतिरिवाजों के बारे में तू अन्य किसी को भी कुछ नहीं बताएगा। यह जानते हुए भी कि रोगी की जीवनलीला समाप्त होने वाली है, तू इस बात को वहाँ किसी से भी नहीं कहेगा अन्यथा रोगी या अन्य व्यक्तियों को धक्का लगेगा। |
ज्ञानवताऽपि च नात्यर्थमात्मनो ज्ञाने विकत्थितव्यम्, आप्तादपि हि विकत्थमानादत्यर्थमुद्विजन्त्यनेके. | "भले ही तू कितना ही ज्ञान प्राप्त कर चुका हो, तुझे अपने ज्ञान की बड़ाई नहीं करनी होगी। अधिकांश व्यक्ति उन व्यक्तियों के शेखी बघारने से चिढ़ उठते हैं जो अन्यथा भले एवं विशेषज्ञ होते हैं। |
न चैव ह्यस्ति सुतरमायुर्वेदस्य पारं, तस्मादप्रमत्तः शश्वदभियोगमस्मिन् गच्छेत्, एतच्च [३] कार्यम्, एवम्भूयश्च वृत्तसौष्ठवमनसूयता परेभ्योऽप्यागमयितव्यं, कृत्स्नो हि लोको बुद्धिमतामाचार्यः शत्रुश्चाबुद्धिमताम्, अतश्चाभिसमीक्ष्य बुद्धिमताऽमित्रस्यापि धन्यं यशस्यमायुष्यं पौष्टिकं लौक्यमभ्युपदिशतो [४] वचः श्रोतव्यमनुविधातव्यं चेति। | आयुर्वेद का पार नहीं है। अतएव प्रमादरहित होकर इसमें निरन्तर उद्यम करना चाहिये। यह सब कुछ (उपर्युक्त) करना चाहिये। इसी प्रकार और भी परगुणों में दोषारोपण न करते हुए आचार की उत्तमता वा सभ्यता को औरों से भी जान लेना चाहिये। सारा संसार बुद्धिमान् पुरुषों का आचार्य है और मूखों का शत्रु है। अतः बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि वह अच्छी प्रकार करके शत्रु से भी उपदिष्ट धन्य (पुण्यकारक) यशोवर्धक आयुष्कर पौष्टिक तथा लोगों से अनुमत वचन को सुने और तदनुसार कार्य करे" |
अतः परमिदं ब्रूयात्- देवताग्निद्विजगुरुवृद्धसिद्धाचार्येषु ते नित्यं सम्यग्वर्तितव्यं, तेषु ते सम्यग्वर्तमानस्यायमग्निः सर्वगन्धरसरत्नबीजानि यथेरिताश्च देवताः शिवाय स्युः, अतोऽन्यथा वर्तमानस्याशिवायेति। | "इसके पश्चात् यह कहे-कि तुझे देवता अग्नि द्विजाति (ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य ) गुरु वृद्ध आचार्यों से नित्य ठीक प्रकार से बर्तना चाहिये-आज्ञा-पालन करना चाहिये। उनमें सम्यक प्रकार से रहते हुए उनकी पूजा आदि करते हुए तेरे लिये यह अग्नि (साक्षिरूप में सामने स्थापित) सब गन्ध रस रत्न और बीज तथा यथोक्त देवता कल्याणकारक हों। इससे विपरीत आचरण करते हुए के लिये वे अशुभकारक हों।" |
एवं ब्रुवति चाचार्ये शिष्यः ‘तथा’ इति ब्रूयात्। यथोपदेशं च कुर्वन्नध्याप्यः, अतोऽन्यथा त्वनध्याप्यः। अध्याप्यमध्यापयन् ह्याचार्यो यथोक्तैश्चाध्यापनफलैर्योगमाप्नोत्यन्यैश्चानुक्तैः श्रेयस्करैर्गुणैः शिष्यमात्मानं च युनक्ति। इत्यध्यापनविधिरुक्तः। |
"आचार्य के ऐसा कहने पर शिष्य-जैसा आपने कहा है वेसा ही करूंगा-यह स्वीकृति सूचक वचन कहे। जो शिष्य गुरूपदेश के अनुसार चलता हो वही पढ़ाने के योग्य है। इससे विपरीत को नहीं पढ़ाना चाहिये। पढ़ाने योग्य विद्यार्थी को पढ़ाते हुए आचार्य अध्यापन के यथोक्त शास्त्रदृढ़ता आदि फलों से युक्त होता है। तथा जो यहां नहीं कहे गये ऐसे बहुत से अन्य श्रेयस्कर गुणों से भी अपने को और अपने शिष्य को युक्त करता है। यह अध्ययनाध्यापन विधि कह दी है॥" |
उक्त शपथ तथा हिपोक्रीत्ज़ की शपथ में समानता ध्यान देने योग्य है।
सन्दर्भ
- ↑ साँचा:cite book (Note: The Caraka Samhita expounded by the worshipful Atreya Punravasu, compiled by the great sage Agnivesa and redacted by Caraka and Dridhabala. Edited and published in six volumes with translations in Hindi, Gujarati and English.)
- ↑ साँचा:cite journal
- ↑ साँचा:cite web
- ↑ चरकसंहिता पूर्वभाग, अनुवाद : जयदेव विद्यालंकार ; पृष्ठ ३५३
चरक विमान स्थान 8/13