गगन मै थाल

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साँचा:italic title गगन मै थाल, रव चंद दीपक बने... यह आरती सिखों के प्रथम गुरु श्री गुरु नानक देव जी द्वारा उच्चारित है।[१][२] उन्होंने यह आरती 1506[३] या 1508[४][५] में पूर्वी भारत की यात्रा के दौरान पुरी के श्री जगन्नाथ जी मंदिर में उच्चारण की थी।[३][४] अमृतसर स्थित सिखों के तीर्थ स्थल श्री हरिमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) में प्रतिदिन संध्या समय रहरास साहिब के पाठ व अरदास के साथ यह आरती की जाती है।यह आरती मूल रूप मे गुरमुखी मे लिखी हुई है और सिखों के पवित्र आदि ग्रन्थ में शामिल है।

परंपरागत आरती से हट कर, इसमें सम्पूर्ण सृष्टि को ही परमात्मा की आरती में लीन कल्पित-प्रदर्शित किया गया है।[१][६] आरती धनासरी राग में गायी जाती है जो संध्याकालीन राग है और गुरुग्रंथ साहिब की लगभग 115 रचनायें इस राग में निबद्ध हैं।[७]

रवींद्रनाथ टैगोर के विचार

कई महान कविताओं व भारत के राष्ट्रगान के रचयिता आचार्य रवींद्रनाथ टैगोर से एक बार प्रख्यात फिल्म कलाकार बलराज साहनी, जो तब शांति निकेतन में अध्यापक थे, ने प्रश्न किया कि जिस प्रकार भारत का राष्ट्रगान उन्होंने लिखा है तो क्यों न सम्पूर्ण विश्व के लिए भी एक विश्वगान भी लिखें? इस पर उन्होंने कहा कि वह तो पहले ही लिखा जा चुका है, १६वीं शताब्दी में गुरु नानक के द्वारा। और यह मात्र इस विश्व ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए गान है। गुरुदेव टैगोर इस आरती से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने स्वयं बांग्ला में इसका अनुवाद भी किया।[३][४]

पाठ व अनुवाद

गुरु नानक ने अपनी आरती में परमात्मा के विराट स्वरुप का चित्रण किया है और कल्पना की है कि समस्त ब्रह्माँड ही उसकी पूजा में लीन है। आरती के प्रारंभिक बोल इस प्रकार हैं:

गगन मै थालु, रवि चंदु दीपक बने,
तारका मंडल, जनक मोती।
धूपु मलआनलो, पवण चवरो करे,
सगल बनराइ फुलन्त जोति॥
कैसी आरती होइ॥
भवखंडना तेरी आरती॥
अनहत सबद बाजंत भेरी॥

मूल गुरमुखी पाठ

ਗਗਨ ਮੈ ਥਾਲੁ ਰਵਿ ਚੰਦੁ ਦੀਪਕ ਬਨੇ ਤਰਿਕਾ ਮੰਡਲ ਜਨਕ ਮੋਤੀ ||
ਧੂਪੁ ਮਲਆਨਲੋ ਪਾਵਣੁ ਚਵਰੋ ਕਰੈ ਸਗਲ ਬਨਰਾਇ ਫੂਲੰਤ ਜੋਤੀ ||੧||
ਕੈਸੀ ਆਰਤੀ ਹੋਇ ਭਵਖੰਡਨਾ ਤੇਰੀ ਆਰਤੀ ||ਅਨਹਤਾ ਸਬਦ ਵਾਜੰਤ ਭੇਰੀ ||ਰਹਾਊ||
ਸਹਸ ਤਵ ਨੈਨ ਨਨ ਨੈਨ ਹੈ ਤੋਹਿ ਕਉ ਸਹਸ ਮੂਰਤਿ ਨਨਾ ਏਕ ਤੋਹੀ ||
ਸਹਸ ਪਦ ਬਿਮਲ ਨਨ ਏਕ ਪਦ ਗੰਧ ਬਿਨੂ ਸਹਸ ਤਵ ਗੰਧ ਆਇਵਿ ਚਲਤ ਮੋਹੀ||੨||
ਸਭ ਮਹਿ ਜੋਤਿ ਜੋਤਿ ਹੈ ਸੋਈ ||ਤਿਸ ਕੈ ਚਾਨਣੁ ਹੋਇ ||
ਗੁਰ ਸਾਖੀ ਜੋਤਿ ਪਰਗਟੁ ਹੋਇ ||ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੁ ਆਰਤੀ ਹੋਇ ||੩||
ਹਰਿ ਚਰਣ ਕਮਲ ਮਕਰੰਦ ਲੋਭਿਤ ਮਨੋ ਆਨਦਿਨੋ ਮੋਹਿ ਆਹਿ ਪਿਆਸਾ ||
ਕ੍ਰਿਪਾ ਜਲੁ ਦੇਹਿ ਨਾਨਕ ਸਾਰਿੰਗ ਕਉ ਹੋਇ ਜਾ ਤੇ ਤੈਰੇ ਨਾਮਿ ਵਾਸਾ ||
ਹਰਿ ਚਰਣ ਕਮਲ ਮਕਰੰਦ ਲੋਭਿਤ ਮਨੋ ਅਨਦਿਨੋ ਮੋਹਿ ਆਹੀ ਪਿਆਸਾ॥੪||ਧਨਾਸਰੀ ਮ:੧

अर्थ

आकाश रूपी आरती के थाल में सूर्य और चंद्र दीपक के समान प्रज्ज्वलित हैं, तारा मंडल मोतियों की तरह शोभायमान हैं। मलय पर्वत से आती चंदन की सुगंध ही धूप है, वायु चंवर कर रही है, समस्त वनों की सम्पूर्ण वनस्पतियाँ तुम्हारी आरती के निमित्त फूल की तरह अर्पित हैं। अनहद शब्द भेरी की तरह बज रहा है। हे भवखंडन! तुम्हारी आरती की भव्यता का किस तरह वर्णन किया जा सकता है![८]

सन्दर्भ

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  6. साँचा:cite book
  7. साँचा:cite book
  8. साँचा:cite book

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