समन्वय

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किसी संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसकी विभिन्न क्रियाओं में सांमजस्य व तालमेल स्थापित करना ‘समन्वय’ कहलाता है। यह प्रबन्ध का वह कार्य है जो किसी संस्था के विभिन्न विभागों, कर्मचारियों तथा उसके समूहों में इस प्रकार एकीकरण स्थापित करता है कि न्यूनतम लागत पर वाछिंत उद्देश्यों की पूर्ति में सहायता मिलती है।

‘समन्वय प्रबन्ध का सार है।’ सार किसी वस्तु की आन्तरिक प्रकृति अथवा उसके महत्वपूर्ण गुण का नाम है। समन्वय वह महत्वपूर्ण तत्व है जिससे प्रबन्ध प्रक्रिया का निर्माण होता है। यह नियोजन की अवस्था में ही प्रारम्भ हो जाता है तथा संगठन, निर्देशन, नियन्त्रण आदि सभी कार्यों के साथ चलता है। समन्वय से ही प्रबन्ध निम्न वांछित परिणाम उपलब्ध कर पाता है जैसे-

  • न्यूनतम लागत पर अधिकतम व श्रेष्ठ उत्पादन होना,
  • पारस्परिक हित संघर्षों को रोकना।
  • प्रबन्ध-प्रक्रिया को कुशल व प्रभावी बनाना।
  • निर्देशन में एकता स्थापित करना।
  • मानवीय सम्बन्धों को मधुर बनाना।
  • संस्था के साधनों, प्रयत्नों एवं उद्देश्यों में सन्तुलन स्थापित करना।
  • साधनों के दुरूपयोग को रोककर सद्पयोग में वृद्धि करना।
  • मानव शक्ति के मनोबल में वृद्धि करना।
  • संचार को प्रभावपूर्ण बनाना।
  • सामाजिक दायित्व के निर्वाह को सम्भव बनाना।

यद्यपि समन्वय स्वयं एक महत्वपूर्ण प्रबन्धकीय कार्य है, किन्तु यह अन्य सभी प्रबन्ध कार्यों की कुंजी है। अन्य कार्यों में इसकी भूमिका इस प्रकार है :-

  • 1 . प्रबन्धन प्रक्रिया में समन्वयन का श्रीगणेश नियोजन से ही प्रारम्भ हो जाता है। नियोजन के अन्तर्गत संस्था के उद्देश्यों, नीतियों, बजट, विधियों, प्रमापों, कार्यक्रमों, रीति-नीतियों आदि का निर्धारण किया जाता है और ये कार्य समन्वय के अभाव में नहीं किये जा सकते।
  • 2 . समन्वय संगठन को सुदृढ आधार प्रदान करता है। संगठन के अन्तर्गत प्रबन्धक श्रम विभाजन, विशिष्टीकरण, नियन्त्रण के विस्तार आदि सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर संस्था की समस्य क्रियाओं का निर्धारण करता है। समूहीकरण करता है तथा कार्य-आबंटन करता है। इन कार्यों के निष्पादन में समन्वय की भूमिका महत्वपूर्ण मानी गयी है। अधिकार सत्ता के केन्द्रीयकरण व विकेन्द्रीयकरण का प्रश्न भी समन्वय की सहायता की अपेक्षा रखता है। उपयुक्त एवं गतिशील संगठन संरचना का विकास समन्वित प्रयासों पर ही निर्भर करता है।
  • 3 . समन्वय नियन्त्रण को नियमित एवं प्रभावपूर्ण बनाने का कार्य करता है। नियन्त्रण उद्देश्यों एवं साधनों और उत्पादन एवं प्रयासों में सन्तुलन बनाये रखता है। सन्तुलन का यह कार्य समन्वयन द्वारा ही किया जाता है।
  • 4 . प्रभावी संचार व्यवस्था भी प्रभावी समन्वय द्वारा ही सम्भव हो सकती है।
  • 5 . समन्वय अभिप्रेरणा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • 6 . निर्णयन को समन्वय के द्वारा ही सहभागी बनाया जा सकता है।
  • 7 . निर्देशन के कार्य को समन्वित रूप में करने पर ही वह प्रभावपूर्ण बन जाता है।

निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि समन्वयन सभी प्रबन्ध कार्यों का सार तत्व है। यह संस्था के उद्देश्यों, विभागीय, क्रियाओं, साधनों तथा कर्मचारियों के वैयक्तिक व सामूहिक प्रयासों को एकरूपता प्रदान करके वांछित परिणामों को प्राप्त करने का प्रयास करता है।

परिभाषाएँ

समन्वयन की कुछ प्रमुख परिभाषाएं इस प्रकार हैं :-

1 . मूने व रैले : “किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं में सामंजस्य स्थापित करने तथा तालमेल बनाये रखने के उद्देश्य से सामूहिक प्रयत्नों की सुव्यवस्था करने को समन्वयन कहते हैं।”

"Co-ordination is an orderly arrangement of group effort to provide unity of action in pursuit of common purpose." (Moone and Railey)

2 . मैकफरलैण्ड : “समन्वयन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक प्रबन्धक अपने अधीनस्थों में सामूहिक प्रयास का एक सुव्यवस्थित स्वरूप विकसित करता है तथा सामूहिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए क्रिया सम्बन्धी एकता स्थापित करता है।”

"Co-ordination is the process whereby an executive develops an orderly pattern of group effect among his subordinates and secures unity of action in the pursuit of common purpose." (Dalton E. Mcfarland)

3 . कूण्टज व ओ॰ डोनेल : “समन्वयन सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्तिगत प्रयत्नों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए प्रबन्ध करता है।”

"Co-ordination is the essence of management for the achievement of harmony of individual efforts towards the accomplishment of group goals."

4 . हेनरी फेयोल : “किसी संस्था के कार्य संचालन को सुविधाजनक एवं सफल बनाने के लिए उसकी समस्त क्रियाओं में तालमेल स्थापित करना ही समन्वयन कहलाता है।”

"Co-ordination is to harmonise all the activities of a concern in order to facilitate its working and its success." (Henry Feyol)

5 . जार्ज आर॰ टेरी : “समन्वयन प्रबन्ध की वह एकीकरण क्रिया है जो संगठनात्मक दल के सदस्यों को संगठन के लक्ष्य की ओर दृढसंकल्प एवं पूर्ण विश्वास के साथ अग्रसर होने योग्य बनाती है।”

समन्वय की विशेषताएँ

समन्वय की विशेषताएं (charecteristics) इस प्रकार हैं :-

1 . प्रबन्धकीय उत्तरदायित्व : समन्वय एक प्रबन्धकीय उत्तरदायित्व है। यह कार्य नियोजन के साथ ही प्रारम्भ हो जाता है। संगठन निर्माण के समय इसे योजनाबद्ध विधि से स्थापित किया जाता है और बदलती हुई परिस्थितियों में प्रबन्धक इसे बनाए रखने का प्रयास करते रहते हैं।

2 . सामूहिक प्रयास : समन्वय की आवश्यकता सामूहिक प्रयासों के सम्बन्ध में ही होती है क्योंकि व्यक्तिगत प्रयास किसी दूसरे के कार्यों को किसी प्रकार प्रभावित नहीं करते।

3 . एक निरन्तर तथा गतिशील प्रक्रिया (A continuous and dynamic process) : संगठन में किसी न किसी प्रकार के समन्वय की आवश्यकता निरन्तर बनी रहती है। प्रबन्ध प्रायः उच्च स्तर का समन्वय प्राप्त करने का प्रयास करता है।

4 . कार्यवाही की एकता (Unity of efforts) : समन्वय का उद्देश्य कार्यवाही की एकता उत्पन्न करना है, जिससे कि सभी प्रयास एक ही दिशा में प्रशस्त हों, सन्तुलित हों तथा एक दूसरे की सहपूर्ति करें। प्रबन्ध अवधारणाएँ एवं संगठनात्मक व्यवहार

5 . आन्तरिक एवं बाह्य समन्वय : आन्तरिक समन्वय के अन्तर्गत संगठन के भिन्न-भिन्न भागों, कार्यों एवं उद्देश्यों में तालमेल करना पड़ता है जबकि बाह्य समन्वय के अन्तर्गत संगठन तथा इसके बाहरी वातावरण का समन्वय शामिल है।

समन्वयन की प्रकृति

समन्वयन की प्रकृति (nature) के विषय में निम्न बातें स्मरणीय हैं :-

1 . समन्वयन संस्था के शीर्ष प्रबन्ध का उत्तरदायित्व है। यह उसके नेतृत्व सम्बन्धी कार्य का एक महत्वपूर्ण अंग है जिसकी वह अवहेलना नहीं कर सकता है।

2 . समन्वयन एक प्रक्रिया है कोई स्थायी व्यक्ति नहीं। प्रत्येक संस्था में कम या अधिक मात्र में समन्वयन सदा विदयमान रहता है किन्तु प्रबन्धकों को समन्वयन का एक उच्च स्तर प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए।

3 . समन्वयन सामूहिक प्रयासों के लिए हैं, व्यक्तिगत प्रयासों के लिए नहीं।

4 . सामूहिक लक्ष्यों की पूर्ति बिना समन्वय के कठिन होती है।

5 . प्रयासों में समन्वय बनाये रखने के लिए प्रत्येक कार्यकर्त्ता को संस्था के लक्ष्यों का ज्ञान होना आवश्यक है।

समन्वयन की आवश्यकता

जहाँ भी अलग-अलग व्यक्ति, व्यक्ति समूह, उद्देश्य, क्रिया होगी, वहाँ समन्वय की आवश्यकता होती है। औद्योगिक संगठन के क्षेत्र में इसका विशेष महत्व होता है। क्योंकि यदि समय पर उत्पादन नहीं होता या उसकी किस्म घटिया हो जाती है अथवा उत्पादन लागत अधिक आती है तो संगठन के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। एक अच्छी प्रकार से प्रस्तुत किया गया आर्केस्ट्रा श्रोताओं एवं दर्शकों को बहुत प्रभावित करता है। उसके पीछे सफलता का रहस्य समन्वय होता है। क्योंकि उनका मास्टर विभिन्न कलाकारों की क्रियाओं में समन्वय करता है तभी अच्छा कार्यक्रम प्रस्तुत हो पाता है। यही बात प्रबन्ध के क्षेत्रों में भी लागू होती है। इतना ही नहीं अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा समन्वय प्रबन्ध के क्षेत्र में अधिक महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि इस क्षेत्र में व्यक्तिगत एवं सामूहिक उद्देश्यों, विभिन्न विभागों, अनेक क्रियाओं में समन्वय करना पड़ता है। एक औद्योगिक संगठन में समन्वय की आवश्यकता निम्नलिखित कारणें से होती है।

1 . श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण (Division of labour and specialisation) : वर्तमान युग श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण का है, जिसके परिणामस्वरूप एक मुख्य क्रिया को अनेक छोटी-छोटी उपक्रियाओं में विभाजित कर दिया जाता है। और प्रत्येक उपक्रियाओं को अलग-अलग व्यक्तियों या व्यक्ति समूहों को सौंपा जाता है। जो कि उस क्रिया के विशेषज्ञ होते हैं। जिससे अधिकतम कार्यकुशलता का लाभ उठाया जा सके। जहाँ एक ओर हम श्रम विभाजन और विशिष्टीकरण के लाभ प्राप्त करते हैं, वहीं दूसरी ओर समन्वय की कठिनाई का भी सामना करना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति उसी कार्य में दक्ष हो जाता है जिसे वह निरन्तर कर रहा है। और वह अपने आप को कुल कार्य के साथ नहीं जोड़ पाता। अतः इस दोष को दूर करने के लिए समन्वय की आवश्यकता होती है।

2 . विभिन्न विभागों का अर्थ स्वतन्त्र अस्तित्व (Semi-autonomous status of various departments) : वर्तमान युग बड़े पैमाने के उत्पादन का युग है जहां संगठन का आकार बहुत अधिक बड़ा होता है। एक संगठन में अनेक विभाग होते हैं। विकेन्द्रीयकरण की प्रक्रिया के कारण इन विभागों को अनेक विषयों में स्वतन्त्र निर्णय लेने का अधिकार है। इस स्वतन्त्रता के कारण ऐसी स्थिति भी आ जाती है कि एक विभाग के द्वारा लिए गए निर्णय, दूसरे विभागों के कार्यों, हितों एवं नीतियों से तथा संगठन के हितों से तालमेल नहीं खाते। अतः समन्वय की आवश्यकता पड़ती है।

3 . संगठन में मानवीय तत्व (Human factor in the organisation) : प्रत्येक संगठन में कार्य करने वाले व्यक्ति होते हैं और प्रबन्धकों को इन कर्मचारियों से काम लेना होता है। मानव स्वभाव प्राकृतिक रूप से ही बड़ा परिवर्तनशील, चंचल एवं विषम है, जो कि अनेक बार संगठनात्मक उद्देश्यों से हटकर भी कार्य करने लग जाता है। जिसका प्रभाव उसके कार्यों पर पड़ता है। अतः वहाँ समन्वय की आवश्यकता पड़ती है। समन्वय की आवश्यकता का एक अन्य कारण यह है कि समन्वय में विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग मात्र में अधिकार सौंपे जाते हैं। जिन व्यक्तियों को कम अधिकार मिलते हैं, उनका अनेक बार अपने उच्च अधिकारियों से मनमुटाव चलता है। अतः इसे दूर करने के लिए भी समन्वय की आवश्यकता होती है।

समन्वय और सहयोग

कुछ लोग समन्वय (coordination) तथा सहयोग (cooperation) को एक दूसरे का पर्यायवाची मानते है। लेकिन यहाँ यह स्पष्ट करना बड़ा महत्वपूर्ण है कि समन्वय एक प्रणाली है जबकि सहयोग एक विधि। सहयोग का अर्थ है एक सामान्य उद्देश्य के लिए ऐच्छिक रूप से एक दूसरे के साथ मिल कर कार्य करना, जबकि समन्वय के अन्तर्गत एक अधिकारी विभिन्न व्यक्तियों एवं विभागों के कार्यो में उचित प्रयास करके समन्वय स्थापित करता है जिससे कि निर्धारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। सहयोग व्यक्ति की स्वेच्छा से होता है, उसके लिए उन्हे बाध्य नहीं किया जा सकता, लेकिन समन्वय के अन्तर्गत अधिकारी अनेक प्रयास करके व्यक्तियों तथा विभागों की क्रिया में तालमेल एवं समाजस्य स्थापित करता है। समन्वय अधिकाशतः उचित अधिकारियों द्वारा निश्चित कार्यक्रमों के अनुसार प्रारम्भ से ही स्थापित किया जाता है, जबकि सहयोग भिन्न भिन्न व्यक्तियो द्वारा स्वयं अपनी इच्छा से परस्पर सम्बन्धों के आधार पर किया जाता है। समन्वय एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है, जो कि नियोजन से प्रारम्भ होती है और नियन्त्रण तक चलती है। सहयोग एक अस्थायी प्रक्रिया है जो कि व्यक्तियों के परस्पर विचारों, सम्बन्धों तथा संगठन के वातावरण पर निर्भर करती है। समन्वय के अन्तर्गत केवल व्यक्ति अपने प्रयासो को एक दूसरे के प्रयासों से मिलाने का प्रयत्न करते है। यह बात स्पष्ट हो जाती है कि समन्वय और सहयोग पूर्ण रूप से अलग-अलग नहीं है। समन्वय का एक उद्देश्य सहयोग स्थापित करना भी होता है।

समन्वय प्रबन्ध का सार है

कुछ विद्वान समन्वय को प्रबन्ध का एक पृथक कार्य मानते है, लेकिन कुछ प्रबन्ध विशेषज्ञ इसे प्रबन्ध का अलग कार्य नहीं मानते। फेयोल तथा ब्रैच समन्वय को प्रबन्ध का एक अलग कार्य मानते है। इसके विपरीत कूंटज तथा ओ-डोनेल जो आधुनिक विद्वान है समन्वय को प्रबन्ध का अलग कार्य नहीं मानते। उनका कहना है कि समन्वय प्रबन्ध की प्रक्रिया से इस प्रकार जुडा हुआ है कि हम इसे अलग क्रिया नहीं कह सकते। विलियम स्प्रीगल ने प्रबन्ध को समन्वय की शक्ति कहा है। प्रो॰ हैमेन का कहना है कि प्रबन्ध का कोई भी कार्य क्यों न हो, चाहे वह नियोजन हो या नियन्त्रण, संगठन करना हो, नियुक्ति करना या आदेश देना सभी में समन्वय की आवश्यकता पड़ती है। यह बात सही भी है। उदाहरण के लिए योजना बनाते समय अलग-अलग विभागों की योजना तथा अन्य उप-योजनाओं को एक दूसरे के साथ इस प्रकार से समन्वित करना पड़ता है कि वह सम्पूर्ण संस्था की योजना का एक अंग बन जाए। योजना को अलग करने के लिए हमें अनेक कार्यक्रम चलाने पड़ते है। इन कार्यक्रमों का समय क्रम एवं समय उपयोग इस प्रकार समन्वित करना पड़ता है, जिससे, कि सम्पूर्ण संस्था के कार्य ठीक प्रकार चलते रहें। प्रबन्धकों को उपलब्ध साधनों तथा संस्था के उद्देश्यों के बीच भी समन्वय स्थापित करना पड़ता है। यदि साधन कम है तो पर्याप्त लक्ष्य निर्धारित नहीं किए जा सकते। योजनाओं को ठीक प्रकास से लागू करने के लिए एक संगठन आवश्यक होता है। वास्तव में, हम विभिन्न व्यक्तियों के कार्यो में समन्वय रखने के लिए ही संगठन बनाते है। इसलिए संगठन समन्वय का आधार है। संगठन बनाने के बाद विभिन्न व्यक्तियो की नियुक्ति करनी पड़ती हैं और नियुक्ति करते समय आवश्यक योग्यता, कर्मचारी संख्या आदि का ध्यान भी रखना पड़ता है। समन्वय का अर्थ देख-रेख की उस प्रक्रिया से है जो दो या दो से अधिक व्यक्तियो के कार्यो की देख-रेख करते है तथा उनका आपस में तालमेल बिठाते है। यदि कोई कर्मचारी ठीक प्रकार से कार्य नहीं करता हो, तो अभिप्रेरणा की तकनीक का सहारा लिया जाता है। प्रबन्ध का सबसे अन्तिम कार्य नियन्त्रण भी समन्वय के साथ जुड़ा हुआ है। दूसरे शब्दों में नियन्त्रण की आवश्यकता ही समन्वय करने के लिए पैदा होती है नियन्त्रण में हम यह देखते है कि प्रत्येक विभाग तथा प्रत्येक कर्मचारी निर्धारित कार्यो को पूर्व निश्चित योजना के अनुसार कर रहे हैं या नहीं। यदि कोई कमी पाई जाती है तो उसे दूर करने का प्रयास किया जाता है। मेरी पार्कट फोलेट के शब्दो में-

“समन्वय प्रबन्धकीय कार्यो की सबसे पहली अवस्था अर्थात् योजना बनाने से आरम्भ होता है और यह सभी कार्यो अर्थात संगठन, निर्देशन, नीति-पालन तथा अभिप्ररेणा तक व्यवस्थित ढ़ग से जुडा रहता है।”

समन्वय के सिद्धान्त

समन्वय के सिद्धान्त के बारे में मूल विचार मेरी पार्कट के द्वारा दिए गए। उन्होंने समन्वय के चार मूलभूत सिद्धान्त बताए हैं तथा ये सिद्धान्त समन्वय की तकनीक से अलग है। इन सिद्धान्तों का वर्णन संक्षेप में निम्न प्रकार है-

1 . प्रारम्भ से ही उपयोग - समन्वय का कार्य प्रबन्ध की प्रारम्भिक व्यवस्था से ही आरम्भ कर देना चाहिए। यदि प्रारम्भ से ही हम समन्वय क्रिया को अलग से नहीं करेंगे तो बाद में समन्वय स्थापित करना कठिन होगा और अनुत्पादक भी होगा। उदाहरण के लिए एक संस्था का प्रबन्धक माल खरीदने के लिए आदेश दे देता है लेकिन बाद में वित्तीय प्रबन्धक से पता चलता है कि संस्था में इसके लिए धन की व्यवस्था नहीं है तो समन्वय स्थापित करना बड़ा कठिन होगा। इसी प्रकार से यदि विक्रय प्रबन्धक अपने स्टाक के बारे में बिना जाने ही माल बेचने का आदेश स्वीकार करता है तो किसी भी दशा में माल की पूर्ति समय पर नहीं की जा सकती। अतः योजना बनाते समय ही और कार्यो को प्रारम्भ करने से पहले ही समन्वय स्थापित हो जाना चाहिए।

2 . प्रत्यक्ष सम्पर्क - समन्वय का दूसरा सिद्धान्त है कि सम्पूर्ण व्यक्तियो के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क होना चाहिए। प्रत्यक्ष सम्पर्क होने से समन्वय शीघ्र स्थापित किया जा सकता है। इससे आपसी समझ एवं सहयोग को बढ़ावा मिलता है और लालफीताशाही जन्म नहीं पाती। वैसे भी समन्वय की सफलता स्पष्ट एवं शीघ्र सवंहन पर निर्भर करती है और इसके लिए प्रत्यक्ष सम्पर्क होना आवश्यक है, जिससे कि दो व्यक्तियों तथा विभागों के बीच में किसी भी प्रकार का भ्रम पैदा न हो।

3 . निरन्तरता - समन्वय के बारे में यह कहा जाता है कि यह एक निरन्तर चलती रहने वाली प्रक्रिया है। यदि इसे बीच में छोड़ दिया जाएगा तो अनेक समस्याएं पैदा हो सकती है। अतः यह आवश्यक है कि संस्था के उद्देश्यों एवं प्रयत्नों एवं कर्मचारियों, प्रगति एवं लक्ष्यों आदि के बीच निरन्तर समन्वय रहना चाहिए। कभी-कभी कुछ विशेष समन्वय समितियां समन्वय की कुछ महत्वपूर्ण समस्याओं को हल करने के लिए बनाई जाती है। लेकिन इससे समस्या का समाधान नहीं हो सकता। यह आवश्यक है कि समन्वय का कार्य निरन्तर चलता रहे।

4 . परस्परता (Reciprocity) - विभिन्न तत्व जब एक साथ प्रयोग किए जाते है तो एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तथा एक दूसरे से जुड़े रहते है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए सभी व्यक्तियो के कार्यो हितो आदि में एकीकरण की आवश्यकता होती है और एकीकरण करने के लिए परस्पर सम्बन्धो को ध्यान में रखकर समन्वय किया जाता है। उदाहरण के लिए विक्रय, उत्पादन, वित्त और कर्मचारी सभी विभाग एक-दूसरे से जुडे़ होते है तथा एक-दूसरे पर निर्भर होते है। यदि हम उत्पादन बढ़ाना चाहते है तो अतिरिक्त वित्त एवं कर्मचारी की आवश्यकता होगी और विक्रय प्रबन्ध को अधिक माल बेचना पड़ेगा। यदि हम कुछ कर्मचारियो को निकालते है तो एक और हमें वित्त की कुछ बचत होगी लेकिन दूसरी और उत्पादन कम होने का भय रहेगा। अतः स्पष्ट हो जाता है कि सभी व्यक्ति एवं कार्य एक दूसरे पर निर्भर होते है।

समन्वय की तकनीक एवं ढ़ंग

समन्वय के प्रमुख ढ़ग निम्न प्रकार है-

1 . आदेश शृंखला द्वारा समन्वयन - संगठन सिद्धान्त के अनुसार, प्रत्येक वरिष्ठ अधिकरी को अपने अधीनस्थों को आदेश देने का अधिकार होता है। अतः अधीनस्थ कर्मचारियों के कार्य उनके वरिष्ठो द्वारा समन्वित किये जाते रहे हैं। इस प्रकार आदेश श्रृखला द्वारा समन्वय स्थापित हो जाता है।

2 . वैयक्तिक नेतृत्व द्वारा समन्वयन - बै्रंच के मतानुसार समन्वय एक मानवीय प्रक्रिया होती है और प्रबन्धक अपने वैयक्तिक आचरण द्वारा इसकी स्थापना करता है। सफल नेतृत्व के लिए जिन बातों की आवश्यकता होती है, उनकी आवश्यकता सफल समन्वयन के लिए भी पड़ती है।

3 . समितियों द्वारा समन्वयन - कुछ समितियां केवल अनुशासन करने वाली होती हैं और कुछ निर्णय लेने वाली। अनुशासन अथवा निर्णय बहुमत पर आधारित होता है। उच्चाधिकारी समन्वय की स्थापना के लिए विभिन्न प्रमुखों की एक समिति बना देता है। इससे उसे सभी प्रकार के दृष्टिकोणों से अवगत होने का अवसर मिलता है तथा फलस्वरूप संस्था की स्थापना सुगम हो जाती है।

4 . स्व-समन्वय द्वारा समन्वयन - प्रायः व्यावसायिक संस्थाओं में विभाग प्रमुख और अन्य अधिकारी अपने-अपने क्षेत्र में समन्वय स्थापित करने का कार्य करते हैं। किन्तु इसके सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति होना कठिन है। यह भी आवश्यक है कि प्रत्येक अधिकारी अपने-अपने कार्यक्षेत्र में समन्वय रखने के अतिरिक्त यह भी देखे कि अन्य अधिकारियों के क्रियाकलापों पर बुरा प्रभाव न पड़े।

5 . सामान्य स्टाफ द्वारा समन्वयन - स्व-समन्वयन की दशा में प्रत्येक अधिकारी अपनी योजना में अन्य अधिकारियों की अपेक्षा सुविधाजनक परिवर्तन करने का विरोध करता है और अनुभव करता है कि उसे अमुक अधिकारियों की अपेक्षा कम महत्व दिया जा रहा है। इस दोष को दूर करने हेतु बड़ी संस्थाओं में सामान्य सहायकों का प्रयोग होने लगा है। सामान्य विभाग को संस्था के सभी विभागों द्वारा सूचना मिलती रहती है। अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण यह विभाग यह निश्चित कर सकता है कि किस विभाग की कौन-सी सूचना अन्य विभाग या विभागों के लिए लाभप्रद हो सकती है। इस प्रकार, सामान्य विभाग के द्वारा भी समन्वय स्थापित किया जा सकता है।

6 . विशिष्ट समन्वयकर्ताओं द्वारा समन्वयन - कुछ संस्थाओं में व्यवसाय के विभिन्न पक्षों ने समन्वय स्थापित करने के लिए विशिष्ट समन्वयकर्ताओं की स्थापना की जा सकती है। उदाहरणार्थ, स्पिनिंग एण्ड वीबिंग विभागों के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए विशिष्ट व्यक्ति हो सकता है जिसका काम केवल स्पिनिंग विभाग की प्रगति को वीविंग विभाग तक पहुंचाना है, जिससे दोनों के क्रियाकलापों में समन्वय बना रहे।

7 . पर्यवेक्षण द्वारा समन्वयन - पर्यवेक्षण प्रारम्भ से ही समन्वयन का एक महत्वपूर्ण साधन समझा जाता है। पर्यवेक्षक का प्रमुख कर्त्तव्य अपने अधीनस्थों की क्रियाओं का पर्यवेक्षण करना एवं उनमें समन्वय स्थापित करना होता है।

8 . व्यक्तिगत सम्पर्क द्वारा समन्वयन - व्यक्तिगत सम्पर्क के माध्यम से संस्था के उद्देश्यों, उसके विधि क्रियाकलापों एवं नियन्त्रण में समन्वय स्थापित किया जा सकता है। भ्रान्तियों के निवारण के लिए व्यक्तिगत सम्पर्क ही एक संजीवनी है।

9 . नियोजन द्वारा समन्वयन - नियोजन का प्रमुख उद्देश्य लक्ष्यों, नीतियों व साधनों में सामंजस्य स्थापित करना होता है। इस प्रकार नियोजन स्वयं समन्वय की एक महत्वपूर्ण तकनीक है।

10. लिखित सम्प्रेषण द्वारा समन्वयन - इस तकनीक का उपयोग व्यक्तिगत सम्पर्क के पूरक के रूप में किया जाता है। पत्र, बुलेटिन, मैगज़ीन, तार, टेलीफोन, रेडियो, सिनेमा आदि इसके उदाहरण हैं।

11 . बजट द्वारा समन्वयन - बजटों के आधार पर ही विभिन्न विभाग अपने क्रियाकलाप संचालित करते हैं। मास्टर बजट सबका नियन्त्रणकर्त्ता व समन्वयक होता है। इस प्रकार नियन्त्रण की युक्तियां वास्तव में समन्वय की तकनीक कही जा सकती है।

12. संगठन द्वारा समन्वयन - डववदम के अनुसार संगठन उपक्रम की विभिन्न क्रियाओं में समन्वयन स्थापित करने का श्रेष्ठ साधन है।

13. अन्य तकनीकें - इस शीर्षक के अन्तर्गत निम्न का समावेश किया जा सकता है-

  • (1) अधिशासी कार्यवाही द्वारा समन्वय और
  • (2) सम्मेलनों, सभाओ व सेमीनारों द्वारा समन्वय।

इन्हें भी देखें