दि एसेंस ऑफ बुद्धिज़्म

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
imported>Sficbot द्वारा परिवर्तित ११:५४, २ सितंबर २०१८ का अवतरण (बॉट: कड़ी हटा रहा)
(अन्तर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अन्तर) | नया अवतरण → (अन्तर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
दि एसेंस ऑफ बुद्धिज़्म  
साँचा:main other
विषय बौद्ध धर्म

साँचा:italic titleसाँचा:main other

दि एसेंस ऑफ बुद्धिज़्म (The Essence of Buddhism) इसका हिन्दी मतलब बौद्ध धर्म का सार है। यह एक ऐसा ग्रंथ है जो उन निबंधों का जो दक्षिण भारत की कुछ पत्रिकाओं के लिए बौद्ध विषयों पर लिखे गए थे, अंतिम रूप है। इसका उद्देश्य है कि एक ही स्थल पर बुद्ध-धर्म के संबंध में जो मुख्य मान्यताएँ हैं, उनका संग्रह उपलब्ध हो जाए, ऐसा संग्रह जिसमें उन मुख्य मान्यताओं का मूल्यांकन आधुनिक ज्ञान की दृष्टि से किया गया हो। यहाँ मौलिकता का दावा नहीं किया गया है। इसमें उपलब्ध अधिकांश सामग्री भली प्रकार ज्ञात पुरातत्वविदों के ग्रन्थों में प्राप्य है। पालि और संस्कृत के ग्रन्थों से लिए गए उद्धरणों से युक्त होने के बावजूद यहाँ यह दावा नहीं किया गया है कि यह कृति पालि और संस्कृत पांडित्य का प्रतिफल है। अपने स्वामी की सेवा में लगे हुए एक शिष्य की विनम्र आदरांजलि के अतिरिक्त यह और कुछ नहीं।

अपने स्वामी की शिक्षाओं को लोगों के सामने उपस्थित करते समय शिष्य के लिए यह अनिवार्य है कि वह उन मान्यताओं को आँख से ओझल न होने दे, जो उन शिक्षाओं का मूलाधार है। जहां तक भगवान बुद्ध की बात है सत्य ही उनकी अधिकार वाणी है और शिष्य को सत्य का ही अनुकरण करना चाहिए। इसलिए बौद्ध धर्म की जितनी भी शाखाएँ हैं वे सभी इस सिद्धान्त को मान्य ठहराती हैं कि भगवान बुद्ध की देशना के लिए तर्क संगत होना या सत्यानुयायी होना अनिवार्य है। आधुनिक ज्ञान की पृष्ठभूमि में बौद्ध धर्म का प्रतिपादन करते हुए ग्रंथ के रचयिता ने अपनी बौद्ध स्थिति के साथ कभी भी समझौता नहीं किया है बल्कि केवल उस आदर्श का अनुकरण किया है जो बौद्धों में आरंभिक काल से प्रतिष्ठित था। यदि वह बौद्ध धर्म को किसी हद तक आधुनिकता का जामा पहनाने में सफल हो गया तो उसने आधुनिक विचारों को थोड़े से बौद्ध धर्म से चुपड़ कर ऐसा नहीं किया है बल्कि बौद्ध धर्म की सभी मान्यताओं की गहराई में जाकर वहौन जो सत्य छिपा रहा है, उसे उजागर करके ही ऐसा किया है।

यूरोप और अमरीका के विचारशील लोग बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुए हैं इस समय वहाँ ऐसी संस्थाएं संगठित हो गईं है जिंका उद्देश्य बौद्ध धर्म का प्रचार करना है। महाबोधि सोसाइटी की एक शाखा जिसका प्रधान कार्यालय शिकागो में है, अमरीका में महत्वपूर्ण काम कर रही है। सान फ़्रांससिस्को में एक जापानी बौद्ध मिशन है जो धर्म की ज्योति नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन कर रहा है कहा जाता है कि इस पत्रिका का अमरीका में बहुत प्रचार है। लीपजिंग (जर्मनी) में एक बौद्ध संस्था है जो डेर बुद्धिस्ट नाम से एक पत्रिका प्रकाशित करने के अलावा व्याख्यानों तथा सस्ते साहित्य के माध्यम से भी बौद्ध धर्म का प्रचार कर रही है। कुछ पौराणिक राष्ट्रवादी मान्यताओं को छोड़ दिया जाए तो इसमे कुछ संदेह नहीं की बौद्ध धर्म पाश्चात्य के लोगों को भी आकर्षित करेगा। यह भी सत्य है की ऐसा भी कहा जाता है की बौद्ध धर्म इतना अधिक पवित्र है की यह उन लोगों को आकर्षित नहीं कर सकता जो शादी विवाह करने को ऊंचे विचार के जीवन का बाधक नहीं मानते। इस दृष्टि से बौद्ध धर्म का मूल्यांकन करने पर भी बौद्ध धर्म के लिए कोई चिंता की बात नहीं है। आरंभिक काल से ही बौद्ध धर्म के ऐसे संप्रदाय चले आ रहे हैं जिनकी स्थापना है कि ग्रहस्थ भी अर्हत्व का लाभ कर सकता है एक ऐसा धर्म जो इतना लचीला है की वह एक ओर तो नेपाल के वज्राचार्यों (विवाहि) का अपने में समावेश कर सकता है और दूसरी ओर श्रीलंका के स्थविरों (अविवाहित) का, उसमें इतनी गुंजाईश अवश्य है कि उसमें एक ओर तपस्वी जीवन और एक ओर ग्रहस्थ जीवन के मंजों का दोनों का समावेश हो सके।

एक प्रसिद्ध इतिहावेत्ता ने भारत में बौद्ध धर्म की पुनर स्थापना को स्वीकार किया है। शिक्षा तथा स्वतंत्र चिंतन के विस्तार के साथ यह संभव नहीं कि बौद्ध धर्म उन चिंतन शील भारतीयों को आकर्षित कर सके जिन्हें अब न राम से और न रहीम से कुछ भी लेना देना रहा है, न कृष्ण और क्राइस्ट से, न काली या लक्ष्मी से न मारी या मैरी से। ऐसे संकेतों की भी कमी नहीं है जो यह प्रकट करते हैं कि लोग उस भगवान बुद्ध की शिक्षाओं में स्थायी दिलचस्पी लेने लगे हैं। जिनके बारे में एक समय ऐसी मान्यता थी कि उनका जन्मभारत में इसलिए हुआ था कि वह दुनिया भर के लोगों के पापों का भर अपने सिर ओढ़ सकें जैसे-जैसे स्वदेशी भावना की जड़ें मजबूत होंगी वाइए-वैसे शाक्य मुनि का नाम जो इस समय अप्रकट है, निश्चयात्मक रूप से अपनी चमक-धमक और पूरी शान के साथ उभरने वाला है।

यह ठीक ही कहा गया है कि सभ्य जगत अपनी नैतिक मान्यताओं के आश्रित स्थित है, अपनी आध्यात्मिक मान्यताओं के नहीं। जो शक्ति सभ्य समाज का मूलाधार है और संभाले हुए है वह न तो आत्मा-परमात्मा संबंधी विश्वास है, न तीन में एक विश्वास, न ईश्वर की सर्वव्यापकता और सर्वज्ञता का विश्वास, बल्कि सच्चाई, दान शीलता, न्यायप्रियता, शनशीलता, भ्रातृभाव, थोड़े में वह सब कुछ जो धर्म शब्द के अंतर्गत समाविष्ट है। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपने शासन का मूलाधार बनाकर ठीक ही किया था। जब तक इस धर्म को सभी राष्ट्रों द्वारा स्वीकारा नहीं जाता हम न संसार में शांति की आशा कर सकते हैं और न संसार की सुरक्षा की।