चपड़ा

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विभिन्न रंग का चपड़ा

चपड़ा (shellac) कच्ची लाख से बनता है। समस्त संसार के उत्पादन का लगभग ९५ प्रति शत चपड़ा भारत में ही तैयार होता है। चपड़ा तैयार करने की वास्तविक विधि कच्ची लाख की प्रकृति, कुसुम (एक प्रकार की लाख) की किस्म अथवा बैसाखी और कतकी किस्म पर निर्भर करती है।

चपड़े का सबसे अधिक (३० से ३५%) उपयोग ग्रामोफोन रेकार्ड बनाने में होता था। ग्रामोफोन रेकार्ड में २५ से ३० प्रतिशत तक चपड़ा रहता है। ऐसा अनुमान है कि प्रति वर्ष ११ से लेकर १३ हजार टन तक चपड़ा ग्रामोफोन रेकार्ड बनाने में खपता था। विद्युद्यंत्र, वार्निश और पालिश, हैट उद्योग, शानचक्रों के निर्माण, ठप्पा देने के चपड़े, काच और रबर जोड़ने के सीमेंट, बरसाती कपड़े, जलाभेद्य स्याही, पारदर्शक ऐनिलीन स्याही आदि का निर्माण तथा लकड़ी पर नक्काशी करने आदि में चपड़े का उल्लेखनीय उपयोग होता है।

किसी भी संश्लिष्ट पदार्थ में वे सब गुण नहीं मिलते जो चपड़े में होते हैं। इससे चपड़े का स्थान कोई भी संश्लिष्ट पदार्थ अभी तक नहीं ले सका है, यद्यपि कुछ कामों के लिये संश्लिष्ट रेजिन समान रूप से उपयोगी सिद्ध हुए हैं। आजकल अनेक प्रकार के रेजिन और प्लास्टिक कृत्रिम रीति से बनने लगे हैं, जो देखने में चपड़े जैसे ही लगते हैं।

निर्माण प्रक्रिया

कच्ची लाख को पहले दलित्र के दला जाता है। इसमें से लकड़ी के टुकड़े आदि चुनकर निकाल लिए जाते हैं और तब नाँद में धोया जाता है। नांद २.५ फुट ऊँची और इतने ही व्यास की होती है। ऐसी नाँद में ४० पाउंड तक दली लाख रखी जा सकती है। फिर उस लाख को पानी से ढँककर तीन चार बार धोते हैं, जिससे लाख का अधिक से अधिक रंग (crimson) निकल जाय और तब उसे सीमेंट की फर्श पर सुखाते हैं। ऐसी सूखी लाख को अब पिघलाते हैं। रंग को उन्नत करने के लिये लाख में कभी कभी रेजिन और हरताल मिला देते हैं। पर उत्कृष्ट कोटि के चमड़े में ये नहीं मिलाए जाते। ऐसी परिष्कृत लाख को ड्रिल, या सामान्य सूत के वस्त्र, की थैली में रखकर, जो प्राय: ३०फुट लंबी और २ इंच व्यास की होती है, डच भट्ठे में गरम करते हैं। भट्ठा २ फुट लंबा, १.५फुट ऊँचा और १ फुट गहरा होता है और उसमें लकड़ी का कोयला जलाया जाता है। भट्ठे के एक किनारे कारीगर (melter) बैठता है और दूसरे किनारे एक लड़का रहता है, जिसे 'फिरवाहा' कहते हैं। थैली का एक छोर कारीगर के हाथ में रहता है और दूसरा छोर फिरवाहा के हाथ में। भट्ठे के ऊपर थैली को रखकर फिरवाहा थैली को धीरे धीरे ऐंठता है। थैली भट्ठे पर गरम होने से लाख और मोम थैली के बाहर निकलते हैं। लोहे के स्पैचुला (करछुल) से पिघली लाख थैली से अलग कर पोर्सिलेन के उष्ण जल के क्षैतिज सिलिंडर (२.५फुट लंबे और १० इंच व्यासवाले) पर रखी जाती है। तीसरा व्यक्ति 'मिलवाया' उसे सिलिंडर पर एक सा फैला देता है। अब चपड़े की चादर बन जाती है। उसको हटाकर और गरम कर हाथ पैरों की सहायता से चादर का फैलाते हैं। उसपर यदि कोई कंकड़ आदि के दाग पड़े होते हैं तो उन्हें ठंढा कोने पर दूर कर लेते हैं। कभी कभी चपड़े को चादर के रूप में न तैयार कर टिकियों के रूप में तैयार करते हैं। टिकियाँ लगभग ३ इंच व्यास की ओर ०.२५ इंच मोटी होती हैं। इसे 'बटन चपड़ा' कहते हैं। ठंढा हेने के पहले निर्माता उसपर इच्छानुसार अपने नाम या व्यावसायिक चिनह का ठप्पा दे देता है। कलकत्ते आदि बड़े बड़े नगरों में चपड़ा बनाया जाता है। विलायकों की सहायता से भी अब चपड़ा बनने लगा है। ऐसे चपड़े का रंग देशी रीति से बने चपड़े के रंग से उत्कृष्ट होती है और उसमें मोम भी नहीं रहता। चपड़े की कीमत बहुत कुछ उसके रंग पर निर्भर करती है। चपड़े में जितना ही कम रंग होता है उसकी कीमत उतनी ही अधिक होती है।

देशी रीति से चपड़े के निर्माण में उपजात के रूप में मोलम्मा, किरी और पसेवा प्राप्त होते हैं। इनमें ५ से ७५ प्रतिशत तक चपड़ा रह सकता है।

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