संविदा

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संविदा (contract) के पर्यायवाची शब्द इजारा, व्यवस्था, पण, ठीका या ठेका, शर्तनामा तथा समझौता हैं। कानूनी क्षेत्र में यह शब्द संविदा के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है। कुछ विद्वानों के मत से इसके अंतर्गत केवल वे ही समझौते लिए जा सकते हैं जो कानूनन लागू किए जा सकते हों। सर्वमान्य न होते हुए भी परिभाषा में यह एक सुधार है। विभिन्न देशों के अपने-अपने कानून होते हैं, जो वहाँ के निवासियों के पारस्परिक दायित्व निश्चित करते हैं। भारत में भी "भारतीय संविदा अधिनियम 1872" बन गया है। इसके पहले व्यक्तियों के पारस्परिक बर्ताव तथा दायित्व उनके रीति-रिवाज, रूढ़ियों या धार्मिक मान्यताओं के आधार पर नियंत्रित होते थे।

दो या अधिक व्यक्तियों, या पक्षों, के बीच ऐसा ऐच्छिक समझौता जिसके अनुसार किसी पक्ष द्वारा प्रतिज्ञात कृत्य, व्यवहार, या क्रिया निषेध के बदले में दूसरे पक्ष पर कुछ देने, करने, सहने, या किसी विशिष्ट प्रकार का व्यवहार करने का दायित्व हो और जो उन पक्षों के बीच तद्विषयक कानूनी संबंध स्थापित करने के उद्देश्य से किया गया हो, "ठीके" का रूप लेता है। इस प्रकार कोई सामाजिक निमंत्रण (यथा भोज आदि के लिए) स्वीकार कर लेने पर सामान्यतः कोई कानूनी जिम्मेदारी नहीं आती, अत: वह ठीका नहीं माना जाता।

भारतीय ठीका

कानून के अनुसार कानूनन लागू किए जा सकने योग्य कोई भी समझौता ठीका है। कानूनन वही समझौता लागू किया जा सकता है, जो ठीके की अर्हता रखने वाले पक्षों के मध्य, उनकी स्वतंत्र सहमति के फलस्वरूप, विधिसंमत उद्देश्य से, विधिसंमत व्यवहार के लिए किया गया हो और स्पष्ट रूप से रद्द न घोषित किया गया हो। इसके साथ किसी अन्य विशेष कानून का प्रतिबंध भी लागू होगा, जिसके अनुसार ठीका लिखित, मुद्रांकित, गवाहों की स्याही से युक्त तथा पंजीकरण के तत्कालीन कानून के अंतर्गत पंजीकृत होना चाहिए।

ठीके में कम-से-कम दो पक्ष होते हैं, एक समझौते का प्रस्ताव करने वाला और दूसरा उसे स्वीकृत करनेवाला। "प्रस्ताव" तथा "स्वीकृति" मिलाकर "समझौता" होता है, जो कानूनन लागू किए जा सकने योग्य होने पर "ठीका" होता है। प्रत्येक व्यक्ति जो व्यस्क हो (भारत में व्यस्कता की उम्र 18 वर्ष मानी गई है, जो अदालत या अन्य किसी परिनियत निकाय की संरक्षकता में रहने वाले व्यक्ति के लिए 21 वर्ष है), अविक्षिप्त मस्तिष्कवाला हो (अर्थात् समझौता करते समय उसे समझ सकता हो, अपने हितों पर उसके प्रभाव का अनुमान लगा सकता हो और उचित निर्णय कर सकता हो) तथा उस पर लागू होने वाले किसी अन्य कानून द्वारा ठीका करने के लिए अयोग्य न घोषित किया गया हो, ऐसे समझौते में भाग ले सकता है। स्वतंत्र सहमति का यह अर्थ है कि वह (1) दबाव, (2) अनुचित प्रभाव, (3) धोखा, (4) अनृत प्रस्तुतीकरण या (5) भूल के कारण न हुई हो। इन सबकी परिभाषाएँ कानून में दी गई हैं।

पक्षों के वास्तविक अभिप्रायों का ही, जहाँ तक संभव हो, क्रियान्वित किया जाना कानून का उद्देश्य है। अत: किसी भी पक्ष के अवयस्क या विक्षिप्त होने से ठीका रद्द माना जाता है। कभी-कभी विक्षिप्त हो जाने वाले व्यक्ति द्वारा अविक्षिप्त अवस्था में किया हुआ ठीका रद्द नहीं समझा जाता। धोखे या अनृत प्रस्तुतीकरण द्वारा यदि किसी पक्ष की सहमति प्राप्त की गई हो, तो वह पक्ष, यदि ठीक समझे, ठीके को पूरा करवा सकता है और उन सब माँगों को पेश कर सकता है जिनका वह अधिकारी होता, यदि प्रस्तुतीकरण ठीक होता; किंतु अपनी सामान्य बुद्धि से वास्तविकता को जान सकने की स्थिति में होते हुए सहमति देने वाला पक्ष ठीके को रद्द नहीं करवा सकता। इसी भाँति केवल असाधारण भूलें, जो सक्रिय रूप से ठीके की कुछ शर्तों पर नहीं वरन् उसके मूल पर आघात करती हैं, ठीका रद्द किए जा सकने का कारण हो सकती हैं।

ठीके में अंतर्निहित उद्देश्य या व्यवहार का विधिसंमत होना अनिवार्य है, अर्थात वह कानून से निषिद्ध न हो, किसी कानून के अभिप्राय पर घातक प्रभाव न डाले, धोखेबाजी से भरा न हो, दूसरे को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शारीरिक या सांपत्तिक क्षति न पहुँचाए, अथवा अदालत द्वारा नैतिकता या नीति का विरोधी न माना जाता हो, अन्यथा ठीका अवैधानिक और रद्द समझा जाता है। उद्देश्य या व्यवहार आंशिक रूप से अवैधानिक होने पर भी सारा ठीका रद्द माना जाता है।

ठीका पूर्ण करने के दो ढंग हैं : भाग लेने वाले पक्षों द्वारा ठीका समाप्त करने का आपसी समझौता कर लिया जाए, या नियमों और प्रतिबंधों के अनुसार उसके उद्देश्य और व्यवहार पूरे कर लिए जाएँ। ठीके का दायित्व लेनेवाले व्यक्तियों की मृत्यु के उपरांत भी उनके प्रतिनिधियों पर उसे पूरा करने का दायित्व रहता है, यदि उस ठीके का कोई अन्यथा अभिप्राय न प्रतीत होता हो। जैसे किसी निश्चित तिथि तक किसी सामग्री के संभरण के ठीके में दोनों पक्षों में से किसी की मृत्यु के पश्चात्, उसका प्रतिनिधि ठीका पूरा करने के लिए बाध्य होगा; किंतु कोई चित्र बना देने के ठीके में एक की मृत्यु के उपरांत उसका प्रतिनिधि न स्वयं बाध्य है, न दूसरे को बाध्य कर सकता है।

नियमों और प्रतिबंधों के अनुसार ठीका पूरा न होने पर वह भंग हुआ माना जाता है। ऐसी स्थिति में क्षतिग्रस्त पक्ष समय भंग (व्यवस्थातिक्रमण) करने वाले पक्ष से उचित हर्जाना प्राप्त करने का अधिकारी होता है; किंतु यदि क्षतिपूर्ति की राशि या हर्जाना स्वरूप अन्य किसी शर्त का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, तो किसी अप्रत्यक्ष अथवा दूरव्यापी क्षति के लिए हर्जाना देय नहीं है। कभी-कभी प्रस्ताव की स्वीकृति के साथ-साथ कुछ धरोहर (साई या बयाना) दिया जाता है, जो समझौता करने के लिए प्रस्तुत पक्षों के सत्याशय का सूचक होता है। यह राशि ठीके के फलस्वरूप होने वाले भुगतान का अंश नहीं, किंतु ठीके के क्रियान्वित न होने पर हर्जाने का अंश अवश्य बन जाती है।

इंजीनियरी निर्माण के कार्य अधिकतर ठीके पर ही कराए जाते हैं, क्योंकि ऐसा करने से कार्य की लागत निश्चित हो जाती है और उसमें अधिक हेरफेर होने की संभावना नहीं रहती। कार्य को निश्चित विशेषताओं के अनुसार संपन्न कराने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि उसकी देखरेख के जिम्मेदार इंजीनियर और उसके अधीन कर्मचारी पूरी ईमानदारी बरतें और अपने वैयक्तिक लाभ के लिए ठीकेदार को किसी प्रकार भी हीन द्रव्य न लगाने दें और कारीगरी भी न बिगड़ने दें। ये ठीके भी दो प्रकार के होते हैं। एक में ठीकेदार कार्य के लिए सारे द्रव्य स्वत: लगाता है और दूसरे में कार्य का मालिक द्रव्यों का प्रबंध करता है और ठीकेदार केवल कुशल और अकुशल कारीगर और मजदूर ही लगाता है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ