अद्वयवज्र

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
imported>SM7Bot द्वारा परिवर्तित १६:५४, १७ नवम्बर २०२१ का अवतरण (→‎top: clean up)
(अन्तर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अन्तर) | नया अवतरण → (अन्तर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अद्वयवज्र तांत्रिक, बौद्ध सिद्ध, आचार्य और टीकाकार थे। इनके अन्य नाम हैं: अवधूतिपा, मैत्रिपा। इनका पूर्व नाम दामोदर था। ये जन्म से ब्राह्मण थे। कुछ लोग इनको रामपाल प्रथम का समकालीन मानते हैं और कुछ लोग इनका समय १०वीं शती का पूर्वार्ध मानते हैं। कुछ सूत्रों के अनुसार इन्हें पूर्वी बंगाल का निवासी क्षत्रिय कहा गया है। विशेषकर इनका महत्व इसलिए हैं कि इन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार एवं प्रसार करने वाले एवं असंख्य भारतीय बौद्ध ग्रंथों के तिब्बती में अनुवादक सिद्धाचार्य अतिश दीपंकर श्रीज्ञान को दीक्षा दी, साधनाओं में प्रवृत्त किया और विद्या प्रदान की।

इनके शिष्यों में बोधिभद्र (नालंदा महाविहार के प्रधान) का विशेष स्थान है जिन्होंने दीपंकर श्रीज्ञान को आचार्य अद्वयवज्र के समक्ष राजगृह में प्रस्तुत किया था। कहा जाता है, अद्वयवज्र भी भोट देश गए थे और बहुत से ग्रंथों का भोटिया में अनुवाद करने के बाद तीन सौ तोले सोने के साथ भारत लौटे थे। इनके गुरु के संबंध में कई व्यक्तियों के नाम लिए जाते हैं-शवरिपा, नागार्जुन, आचार्य हुंकार अथवा बोधिज्ञान, विरूपा आदि। इन्होंने शवरिपा से दीक्षा लेने के लिए तत्कालीन प्रसिद्ध तांत्रिक पीठ श्रीपर्वत की यात्रा की और महामुद्रा की साधना की। दूसरे स्रोतों से इनकी छह वाराहियों की साधना की सूचना मिलती है। इनके शिष्यों में दीपंकर श्रीज्ञान का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। अन्य शिष्य कहे जाते हैं-सौरिपा, कमरिपा, चैलुकपा, बोधिभद्र, सहजवज्र, दिवाकरचंद्र, रामपाल, वज्रपाणि, मारिपा, ललितगुप्त अथवा ललितवज्र आदि। इनके समकालीन सिद्धों में प्रमुख हैं- कालपा, शवर, नागार्जुन, राहुलपाल, शीलरक्षित, धर्मरक्षित, धर्मकीर्ति, शांतिपा, नारोपा, डोंबीपा आदि।

तैंजुर में इनकी निम्नलिखित रचनाएँ तिब्बती में अनूदित रूप में मिलती हैं-अबोधबोधक, गुरुमैत्रीगीतिका, चतुर्मुखोपदेश, चित्तमात्रदृष्टि, दोहानिधितत्वोपदेश, वज्रगीतिका। इन्होंने आदिसिद्ध सरह अथवा सरोरुहवज्रवाद के दोहाकोष की संस्कृत टीका भी लिखी है। इनकी संस्कृत रचनाओं का एक संग्रह अद्वयवज्रसंग्रह नाम से बड़ौदा से प्रकाशित है जिससे वज्रयान एवं सहजयान के सिद्धांत एवं साधना पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। विभिन्न स्रोतों से यह ज्ञात होता है कि इन्होंने अपने प्रिय शिष्य दीपंकर श्रीज्ञान को माध्यमिक दर्शन, तांत्रिक साधना और विशेषकर डाकिनी साधना की शिक्षा दी थी। अधिकांश विद्वानों ने इनका समय १०वीं ईस्वी शताब्दी का उत्तरार्ध और ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना है।