जे॰ बी॰ कृपलानी

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जीवटराम भगवानदास कृपलानी
Acharya Kripalani 1989 stamp of India.jpg
K१९८९ के एक डाकटिकट पर आचार्य कृपलानी
Born11 November 1888
Died19 March 1982(1982-03-19) (उम्र साँचा:age)
Nationalityभारतीय
Occupationराजनेता
Employerसाँचा:main other
Organizationसाँचा:main other
Agentसाँचा:main other
Notable work
साँचा:main other
Political partyभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस,
प्रजा सोसलिस्ट पार्टी
Movementभारतीय स्वतंत्रता संग्राम
Opponent(s)साँचा:main other
Criminal charge(s)साँचा:main other
Spouse(s)सुचेता कृपलानीसाँचा:main other
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जीवटराम भगवानदास कृपलानी (11 नवम्बर 1888 – 19 मार्च 1982) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी, गांधीवादी समाजवादी, पर्यावरणवादी तथा राजनेता थे।

उन्हें सम्मान से आचार्य कृपलानी कहा जाता था। वे सन् 1947 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे जब भारत को आजादी मिली। जब भावी प्रधानमंत्री के लिये कांग्रेस में मतदान हुआ तो तो सरदार पटेल के बाद सबसे अधिक मत उनको ही मिले थे। किन्तु गांधीजी के कहने पर सरदार पटेल और आचार्य कृपलानी ने अपना नाम वापस ले लिया और जवाहर लाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया गया।

कृपलानी ने 1977 में जनता सरकार के गठन में अहम भूमिका निभायी। कृपलानी गांधीवादी दर्शन के एक प्रमुख व्याख्याता थे और उन्होंने इस विषय पर अनेक पुस्तकें लिखीं।

परिचय

आचार्य जे. बी. कृपालानी हैदराबाद (सिन्ध) के उच्च मध्यवर्गीय परिवार में 1888 में पैदा हुए थे। उनके पिताजी एक राजस्व और न्यायिक अधिकारी थे। जेबी कृपलानी आठ भाई-बहन थे उनमे आचार्य जी छठवें थे। प्रारम्भिक शिक्षा सिंध से पूरी करने के बाद उन्होने मुम्बई के विल्सन कॉलेज में प्रवेश लिया। उसके बाद वह कराची के डी जे सिंध कॉलेज चले गए। उसके बाद पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज से 1908 में स्नातक हुए। आगे उन्होंने इतिहास और अर्थशास्त्र में एमए उतीर्ण किया। जीवटराम बहुत अनुशासित तथा कुशाग्र बुद्धि के थे।

पढ़ाई पूरी के बाद कृपलानी ने 1912 से 1917 तक बिहार में "ग्रियर भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज मुजफ्फरपुर"में अंग्रेजी और इतिहास के प्राध्यापक के रूप में अध्यापन किया। १९१९ में उन्होंने थोड़े समय के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया।

चंपारण सत्याग्रह के दौरान वे महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये, और यहीं से उनके जीवन का दूसरा अध्याय शुरू हुआ। 1920 से 1927 तक महात्मा गांधी द्वारा स्थापित गुजरात विद्यापीठ के वे प्राधानाचार्य रहे। तभी से उन्हें आचार्य़ कृपलानी कहा जाता है। उन्होंने 1921 से होने वाले कांग्रेस के अधिकांश आन्दोलनों में हिस्सा लिया और अनेक बार जेल गये। कृपलानी अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य बने और १९२८-२९ में वे इसके महासचिव बने।

1936 में वे सुचेता कृपलानी के साथ विवाह सूत्र में बंध गए। सुचेता मजुमदार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के महिला महाविद्यालय में शिक्षक थीं। उनकी पत्नी हमेशा कांग्रेस पार्टी के साथ रहीं, मंत्री पद भी रहीं और उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री भी बनीं।

आचार्य कृपलानी ने 1934 से 1945 तक कांग्रेस के महासचिव के रूप मे सेवा की तथा भारत के संविधान के निर्माण में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभायी। सन् 1946 में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। कांग्रेस के गठन और सरकार के सम्बन्ध को लेकर नेहरू और पटेल से मतभेद थे।

नेहरू और पटेल से सम्बन्ध ठीक न होने के बावजूद आचार्य कृपलानी भारत की अजादी के समय १९४७ में कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर चुने गए। १९४८ में गांधीजी की हत्या के बाद से नेहरू ने उनकी यह मांग मानने से मना कर दिया कि सभी निर्णयों में पार्टी का मत लिया जाना चाहिए। पटेल के समर्थन से नेहरू ने कृपलानी से कह दिया कि यद्यपि पार्टी एक मोटा सिद्धान्त और दिशानिर्देश बना सकती है किन्तु सरकार के दिन-प्रतिदिन के कार्य में उसे हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। यही बात आगे आने वाले दिनों में सरकार और पार्टी के सम्बन्धों के लिए नजीर बन गयी।

किन्तु जब १९५० में काग्रेस अध्यक्ष के लिए चुनाव हुए तो नेहरू ने आचार्य कृपलानी का समर्थन किया। दूसरी ओर पुरुषोत्तम दास टण्डन थे जिनका समर्थन पटेल कर रहे थे। इसमें पुरुषोत्तम दास टण्डन विजयी हुए। अपनी हार से तथा गांधी के असंख्य ग्राम स्वराज्यों के सपने को चकनाचूर होते देखकर वे विचलित हो गए और 1951 में उन्होंने कांग्रेस को अपना इस्तीफा प्रवृत कर दिया तथा अन्य लोगों के सहयोग से किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनायी। यह दल आगे चलकर प्रजा समाजवादी पार्टी में विलीन हो गया। उन्होंने 'विजिल' नाम से एक साप्ताहिक पत्र निकालना शुरू किया था।

वे सन १९५२, १९५७, १९६३ और १९६७ में प्रजा सोसलिस्ट पार्टी से लोकसभा चुनाव जीते। ध्यातव्य है कि उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी कांग्रेस में बनी रहीं और पति-पत्नी संसद के भीतर अक्सर एक दूसरे के विरुद्ध विचार रखते हुए देखे जाते थे।

अक्टूबर १९६१ में आचार्य कृपलानी वी के कृष्ण मेनन के विरुद्ध लोकसभा चुनाव लड़े जो उस समय रक्षामन्त्री थे। यह चुनाव एक अत्यन्त कड़वे माहौल में लड़ा गया था। इस चुनाव में भी आचार्य नहीं जीत पाए।

भारत-चीन युद्ध के ठीक बाद, अगस्त १९६३ में आचार्य कृपलानी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाए जो लोकसभा में लाया गया पहला अविश्वास प्रस्ताव था। कुछ दिनों बाद उन्होंने प्रजा समाजवादी पार्टी से इस्तीफा देकर स्वतंत्र नेता के रूप में कार्य किया।

वर्ष 1966 में प्रवीरचंद भंजदेव और आदिवासियों पर हुई पुलिस की गोलीबारी के बाद आचार्य कृपलानी इसी सिलसिले में रायपुर आते रहते थे। इस घटना ने देश की राजनीति को हिला दिया था। उसी समय अपने राजनीतिक समर्थकों के कहने पर उन्होंने वर्ष 1967 में रायपुर लोकसभा से चुनाव लड़ा था। आचार्य के सामने कांग्रेस से एल. गुप्ता मैदान में थे, जिनकी लोकप्रियता आचार्य के सामने फीकी थी, फिर भी आचार्य कृपलानी चुनाव नहीं जीत पाए।

वे नेहरू की नीतियों और उनके प्रशासन की सदा आलोचना करते रहते थे। अपना बाद का जीवन उन्होने सामाजिक एवं पर्यावरण के हित के लिए लगाया। चुनावी राजनीति में बने रहते हुए भी वे धीरे-धीरे समाजवादियों के 'आध्यात्मिक नेता' जैसे बन गए। विशेष रूप से वे और विनोबा भावे, 'गांधीवादी धड़े' के नेता माने जाते थे। विनोबा के साथ-साथ आचार्य कृपलानी भी १९७० के दशक के अन्त तक पर्यावरण एवं अन्य संरक्षणों में लगे रहे।

सन १९७२-७३ में आचार्य कृपलानी ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी की बढ़ती हुई सत्तावादी नीति के विरुद्ध अनशन किया। कृपलानी और जयप्रकाश नारायण मानते थे कि इंदिरा गांधी का शासन अधिनायकवादी हो गया है। जयप्राकाश नारायण और राममनोहर लोहिया सहित आचार्य कृपलानी ने पूरे देश की यात्रा की और लोगों से अहिंसक विरोध तथा नागरिक अवज्ञा करने का अनुरोध किया। जब आपातकाल लागू हुआ तो अस्सी वर्ष से अधिक वृद्ध कृपलानी २६ जून १९७६ की रात में गिरफ्तार होने वाले कुछ पहले नेताओं में से थे। १९७७ की जनता सरकार उनके जीवनकाल में ही बनी।

१९ मार्च १९८२ को ९३ वर्ष की आयु में अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में उनका देहान्त हुआ।

उनकी आत्मकथा 'माय टाइम्स' (My Times) उनके देहान्त के २२ वर्ष बाद २००४ में प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में उन्होने भारत को विभाजित करने की योजना को स्वीकार कर्ने के लिए अपने कांग्रेसी साथियों को दोषी ठहराया है (राममनोहर लोहिया, महात्मा गांधी, और खान अब्दुल गफ्फार खान को छोड़कर)।

उनके जन्म की १०१ वीं जयन्ती के अवसर पर ११ नवम्बर १९८९ को भारतीय डाक विभाग ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ